शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

एक स्नेह सम्बन्ध का दुखद अंत !

लीजिये आज  निजी आनलाईन डायरी का वह संपादित अंश आपसे साझा कर रहा हूँ जिससे  एक स्नेह सम्बन्ध का दुखद अंत हो गया ! 

मुझे किसी के सम्मान की अपेक्षा कदापि नहीं है - आपको किसी और का  प्रवक्ता बनने  का कोई औचित्य नहीं है -पहले आप अपना स्टैंड और आचरण दुरुस्त की कीजिये -मतलब चाल चेहरा और चरित्र (बी जे पी वाले माफ़ करें )-और चरित्र की मेरी त्रिसूत्री परिभाषा है -मनुष्य का अकृतग्य  न होना ,सत्यनिष्ठ / एकनिष्ठ होना और नैतिक बल से युक्त होना !

आप में ज़रा भी  नैतिक साहस है तो यह मुद्दा वहीं छेडिये मंच  पर और देखिये तब शायद मैं आपके साथ वहां खडा मिलूंगा -मैं आपके गोपन आचरणों से स्वयं भी क्षुब्ध हो गया हूँ -मुझसे कोई उम्मीद न रखें !

मैं यहाँ सम्माननीय बनने या विद्वान् की कटेगरी हासिल करने नहीं आया हूँ -लोगों से सहज  सम्बन्ध बना रहे यही पर्याप्त है ! और यह भी समझ लीजिये मैं किसी को स्नेह करता हूँ तो अपरिहार्य और अति असहनीय आचरणों पर किसी दैवीय प्रेरणा वश  यथा सामर्थ्य  दण्डित किये बिना भी नहीं छोड़ता ! चाहे वह मेरा निकटतम रक्त संबंधी ही क्यों न हो ! एक डेढ़ साल साथ रहकर आप यह समझ नहीं  पायीं ,आश्चर्य है !  मैं ऐसा ही हूँ ! बाई बर्थ !

इधर  आप निरंतर उद्धत  होती  रही हैं ,बेखौफ ,निर्द्वंद !  वह असीम सत्ता न करे कि मेरे आकलन में आप भी आचरण की वह लक्ष्मण रेखा छू ले जो मुझमें सहसा दैवीय प्रेरणाएं जगा देती है !  और वह दिन हमारे इस आभासी संपर्क- सम्बन्ध का अंतिम दिन होगा -स्वयमेव सहज !

कान खोल के सुन लीजिये मैं आपके उन तमाम आभासी और अन -आभासी लल्लुओं पंजुओं से बहुत अलग और विशिष्ट हूँ -मगर हीरे को जौहरी ही पहचानता है -हीरा असहाय सा  उस मूढ़ जौहरी को भी देखता है  जिसकी आन्खे उसे पहचानने में  चुधियाँ सी जाती  हैं !
स्नेह ,

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

आज बच्चन जी की एक और कविता -तब रोक न पाया मैं आँसू !

तब रोक न पाया मैं आंसू !
जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौड़ा  अपने जीवन भर ,
अब मृगजल में परिवर्तित हो मुझपर मेरा अरमान हंसा
तब रोक न पाया मैं आंसू !

जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर अमर ,
जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर मेरा वह गान हंसा
तब रोक न पाया मैं आँसू 

मेरे पूजन -आराधन को
मेरे सम्पूर्ण समर्पण को
जब मेरी कमजोरी कह कर मेरा पूजित पाषाण हंसा
तब रोक न पाया मैं आँसू
प्रतिनिधि कवितायें -हरिवंश राय बच्चन 
राजकमल पेपर बैक्स प्रकाशन 

सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

......और अब बची खुची भी ! चिट्ठाकारी की दुनिया की एक अर्ध दिवसीय रिपोर्ट !

दूसरे दिन का सत्र तो शुरू होना था १०.३० पर मगर शुरू हो पाया ११.३० बजे ! प्रियंकर जी सत्र अध्यक्ष बने ! वक्ता ,मसिजीवी ,गिरिजेश राव ,विनीत ,हेमंत कुमार ,हिमांशु और मैं !संचालक रहे इरफान ! यह सत्र अध्यक्षीय अनुशासन और कुशल संचालन से देर से शुरू होने के बाद भी संभल गया ! मसिजीवी अच्छा बोले ! उन्होंने बेलाग कहा कि ब्लॉग की भाषा शैली साहित्यिक गोष्ठियों की बोली भाषा से बिलकुल अलग है -यहाँ तो जबरिया लिखने का भी आह्वान है ! उन्होंने हिन्दी पट्टी के बाहर के ब्लागरों के इस माध्यम के विकास में किये गए योगदानों को रेखांकित किया ! कहा कि ब्लॉग ने अभिवयक्ति को एक नया भाषिक तेवर दिया है !

गिरिजेश राव जी ने साहित्य और ब्लागिंग के विवाद को ही खारिज कर दिया ! उन्होंने कहा कि यह साहित्य संप्रेषण का ही एक नया माध्यम है और साहित्य की परिधि से अलग नहीं है ! उन्होंने कहा कि साहित्य तो हर जगह उपलब्ध है -बस दृष्टि दोष के चलते इसे स्वीकार नहीं किया जा रहा ! कहीं भी कही जाय ,बात कही जाने लायक होनी चाहिए ! उन्होंने ब्लॉग के लिए आंचलिक भाषाओं और संस्कृत तक के उपयोग को प्रोत्साहित किया ! ब्लॉग साहित्य से कहाँ अलग है ?

विनीत ने चिट्ठाकारी को केवल चिट्ठाकारी के ही  परिप्रेक्ष्य में लेने की वकालत की -इसे किसी अन्य विधा भाषा के परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश के प्रति आगाह किया ! उन्होंने कहा कि आज ब्लॉग जगत खुद इस स्थिति में आ चुका है कि उसका अकेले ही पृथक ,स्वतंत्र मूल्यांकन हो सकता है -ब्लॉग ने आज की ही डेट में एक नए  शब्दकोश की आधार शिला रख दी है -चिटठा ,चटका ,बौछार आदि नए भाव के शब्द  ही तो हैं! उन्होंने कुछ और शब्दों के उदाहरण  गिनाये ! उन्होंने ब्लॉग को पारम्परिक मीडिया से ऊपर का दर्जा दिया और कहाँ यहाँ तो खबरों की खबर लेने का जज्बा है ! जहां खबरों की विश्वसनीयता मेनस्ट्रीम पत्रकारिता में घट रही है ब्लॉग जगत एक नये भरोसेमंद  मीडिया में तब्दील हो रहा है ! वे उर्जा से लबरेज बहुत और बार बार बोलना चाहते थ मगर समय की सीमा ने उन्हें भी हठात रोका ! निश्चय ही उनके पास कई नई उद्भावनाएँ हैं ,सृजनशीलता है और उनके संकलित और अविकल विचारों को जानने की मुझे भी उत्कट इच्छा रहेगी !

आगे के वक्ताओं हेमंत कुमार और हिमांशु ने कविता की ब्लागीय प्रवृत्तियों को इंगित किया और कविता ,अकविता से कुकविता की भी चर्चा विस्तार से की और उसकी  अमित संभावनाओं की आहट भी ली ! कई सवाल रूपी टिप्पणियाँ भी की गयीं ! कई बार तो वक्ता के बिना मूल पोस्ट /कथन के पूरा हुए भी टिप्पणियाँ तैरती हुई आ पहुंची ! मैंने क्या कहा इसका उल्लेख तो एक ब्लॉगर  श्रेष्ठ कर ही चुके हैं और वैसे भी अपनी संस्कृति और संस्कार अपने ही कहे के बारे में बार बार कुछ कहने का निषेध करती है -ऐसी परम्परा भी है ! मैं अपनी बात संहत रूप से शायद अलग से अपने विज्ञान के चिट्ठों पर पोस्ट कर सकूं ! या फिर आगे यदि इस गोष्टी की प्रोसीडिंग निकले तो मैं जरूर ब्लॉग के जरिये विज्ञान संचार पर अपना आलेख देना चाहूंगा मगर डर तब भी रहेगा कि यही सम्पादक मंडल तब भी शायद यही कह दे कि यह लेख नहीं आत्म प्रचार है ! कैसा घोर कलयुग आ गया है(हा हा )  कि जहां आत्म प्रचार है वहां यह नहीं दिख रहा है बल्कि उसे कहीं अन्यत्र तलाशा/ आरोपित किया  जा रहा है ! कहते हैं न सावन के अंधे को हर जगह हरा हरा ही दिखने लगता है !और लोग किसी मुगालते में न रहें -प्रोसीडिंग छपेगी ही ! अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा इतना खस्ता हाल भी नहीं है !

मुझे अपरिहार्य कारणों से सत्र को बीच में ही अध्यक्ष महोदय की अनुमति से छोड़कर बनारस भागना पड़ा ! तो यह अर्ध दिवस की ही रिपोर्ट आपके सामने रख पा रहा हूँ ! अध्यक्षीय  उदबोधन क्या प्रियंकर जी कोलकाता पहुँच कर उपलब्ध करा सकेगें -प्लीज  !

दावात्याग : अगर कोई बात कही किसी ने हो और उद्धृत किसी और के नाम से हो गयी हो (टू  ईर्र इज ह्यूमन !) हो तो भैया टेंशन नहीं लेने का बस बता दें -संशोधन हो जायेगा ! यहाँ वक्ता नहीं विचार महत्वपूर्ण है ! कुछ संक्षेप भी हुआ है क्योकि बहुत कुछ यहाँ भी प्रकाशित हो चुका है और पिष्ट पेषण का मेरा कतई इरादा  नहीं है !

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

ब्लागर उवाच -प्रयाग की चिट्ठाकारिता संगोष्ठी

बावजूद कुछ बदइन्तजामियों और बदतमीजियों के विचार स्पंदन की लिहाज से संगोष्ठी जीवंत बनी ! कई विचार बिंदु ऐसे आये कि बकौल मीनू खरे जी की "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी " कुछ चिंतनशील ब्लागरों की आवाज थी कि एक 'इलाहाबाद घोषणा जैसा कुछ दस्तावेज जारी किया जाय ..मगर मैं चूंकि पहले निकल आया इसलिए पता नहीं कि ऐसी कुछ घोषणा हुई भी या नहीं ! खूंटे से बधे लोग बताएगें ही ! लेकिन मैं मुतमईन हूँ कि इलाहाबाद संगोष्ठी ब्लागजगत के इतिहास में याद जरूर की जायेगी -कई कारण हैं ! अराजकता और खुद को आडीयेंश पर लादने की प्रवृत्ति के बावजूद भी ब्लागरों ने बेलौस कई बातें ऐसी कीं जो आगे के विमर्शों की पूर्व पीठिका बन गए हैं !

 युवा ऊर्जा से लबरेज और सुदर्शन यशवंत अपनी भडास यहाँ सायास रोक लिए और अकस्मात स्वीकारोक्ति कर  पड़े -"हाँ मैं मानता हूँ कि सीमाओं का अतिक्रमण हुआ है ..मगर तब तक उनकी युवा चेतना फिर मुखरित हो आई ,रिबेलियन उबल पडा ,'कभी कभार सीमाओं का अतिक्रमण भी होते रहना चाहिए यह अभिवयक्ति की समग्रता के लिए जरूरी है  " मीनू  खरे जी ने पूरे जिम्मेदारी के बोध के साथ हमें अभिवयक्ति की आजादी की सीमा रेखाओं से परिचित कराया -संविधान गत प्राविधानों से अवगत कराया -कुछ सदाचार और नैतिकता के जरूरी  पाठ पढाये ! क्योंकि हम अपनी जमीन के कानून को जो नहीं तोड़ सकते ! उन्होंने कहा कि भड़काऊ बातें ,व्यक्तिगत प्रतिष्ठा ,मर्यादा और किसी के सम्मान को ठेस नहीं पहुचनी चाहिए! उन्होंने स्वनियमन की भी वकालत की !

बोधिसत्व ने कहा  कि हिन्दी बलाग जगत 'खाए पीये अघाए लोगों की अभिव्यक्ति  का माध्यम है ! और जिनके पास जाया करने को इफरात समय है ! उन्होंने यह भी कहा कि ब्लॉग बहस के उपयुक्त मंच नहीं हैं -वे बहस के लिए ब्लॉग मंच की जरूरत को सिरे से नकार गए ! अविनाश के व्यक्ति + तत्व को देख स्तब्ध रह गया -अगर किसी ने संचालक की ऐसी की तैसी की तो इसी  महनीय काया ने  -पीछे बैठ कर बार बार पोडियम हथियाने को चिग्घाड़ते  रहे -पोडियम पाए तो कुछ ख़ास बोल नहीं पाए ! अप्रस्त्तुत हो उठे मगर अनामियों का समर्थन करते गए ! विनीत ने ब्लॉग को वैकल्पिक मीडिया कहा मगर यह भी जोड़ा कि यहाँ माहौल खराब न किया जाय और यह भी कि बहसों की कोई निष्पत्ति नहीं हो पाती ! भूपेन्द्र ने बहुत ही सधे सहज और जोरदार तरीके से अपनी बात रखी -और चिट्ठों के नियमन के निहितार्थों की ओर भी  संकेत किया ! और यह सवाल भी उठाया कि क्या सचमुच ब्लॉग जगत "पीपुल्स   मीडिया " है ? आभा जी ने ब्लागजगत की गुटबंदी ,खेमेबाजी को आड़े हाथो लिया और यह भी स्वीकार किया कि यहाँ  सचमुच स्वस्थ बहस की कोई गुन्जायिश नहीं है ! मनीषा पांडे ने कंटेंट (अंतर्वस्तु ) की सुरुचिपूर्णता की वकालत की ! सृजनात्मकता की गुहार लगायी ! अब तक कुछ बातें उभर चुकी थीं जो आगे भी विमर्श का एजेंडा बनेगीं  .नोट किया जाय -
अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरेदार न बैठाये जायं मगर इस आजादी की भी आचार संहिता तय की जाय
बेनामी की विवशता के पीछे के कारणों को भी जाना समझा जाय ! आखिर उनके  लिए मुखौटा क्यों जरूरी हो जाता है !
बहुत लोगों ने यह भी माना कि वे भगेडू लोग हैं और स्थतियों से पलायन  कर चुके हैं -समाज को फेस नहीं कर सकते तो इन्हें क्यों अहमियत दी जाय ! जबकि दूसरे लोगों ने ब्लागजगत में अनामियों के योगदानों की भी चर्चा की ! 

ब्लॉग विश्व के पीछे की एक न्यस्त अर्थव्यवस्था की ओर भी संकेत कर आगाह किया गया -हम जिस स्पेस का इस्तेमाल इतना बढ़ चढ़ कर कर रहे हैं उसपर हमारा सचमुच कितना हक़ है ? 

ज़ाकिर अली रजनीश ने बेनामी खुरापतियों की जम कर खबर ली और ब्लागजगत से ढोल की पोल के खुल जाने  की कथा सुनायी ! कुछ जुमले भी उठे -"ब्लॉग इंडीविजुअलिटी के उत्सवीकरण का षड्यंत्र है " मैंने तुंरत इसे ट्विटर पर ट्वीटियाया  भी  ! अब इसका भाष्य आप करते रहिये मेरा माथा तो गरम हो चुका ! और यह भी कि सरलीकरण के मेले /उत्सव ठीक नहीं हैं -इस जुमले को  ठीक से याद है तो इरफान ने उछाला ! इरफान का गुबार इस पर भी फूटा कि हम किसी भी मुद्दे पर आर्गनाईज नहीं हो पा रहे हैं और यह ठीक बात नहीं है (अटल जी की स्टाईल ) उन्होंने विगत एक महीने के सबसे ज्यादा पढ़े और पसंद किये गए दस चिट्ठों की चर्चा की और उसमें आखिर में यानि दसवां यह ब्लॉग भी रहा -मगर मेरी  सारी खुशफहमी  काफूर हो गयी जब रवि रतलामी जी अनाहूत माईक पर आ धमके और कहा कि ब्लागवाणी का आंकडा विश्वसनीय नहीं है -फिर भारत में कौन से और किसके आंकडे विश्वसनीय हैं रवि जी ?

कुछ और जुमले /नारे -जो रचेगा वही बचेगा और बेनामी आभासी जगत के ठलुए हैं यथार्थ जगत के भगेडू ,फिर उनकी परवाह क्यों ? गरिमा से तार तार हो चुके मंच पर अफलातून जे ने अपनी भारी भरकम उपस्थिति दर्ज कराई ! माहौल को कुछ थामा उन्होंने ,कहा आत्ममुग्धता के शिकार हैं ब्लागर ! सच ही सब कुछ नहीं है उसकी सकारात्मकता भी तो हो !  उन्होंने भी बेनामियों की विवशता भी महसूस मगर टिप्पनी में पोर्नोग्राफी डालने  वालों की खबर ली ! पोर्नो शब्द का उच्चारण होते ही अब तक पार्श्व  में जा बैठी युवा ब्लागर टीम समवेत स्वरों में चिल्लाई -वंस मोर वंस मोर ! अफलातून जी शायद छुपे श्लेष को समझ नहीं पाए और दुगुने उत्साह से उस पोर्नोग्राफी की टिप्पणी -घटना का बयान करने लगे ! एक बात दिखी ,अफलातून जी के सहजता से  उनकी एक मासूम  युवा चेल्हआई भी वजूद में है ! अब मैं भी उसमें सम्मिलित हो गया हूँ ! उनसे युवा जो ठहरा ! पहले दिवस का अवसान पर चलते चलाते प्रियंकर जी भी आये जिन्होंने दुहराया कि बेनामियों को लेकर चिंतायें तो वाजिब मगर इस सिद्धान्त के वे पक्षधर आन्ही है कि उनको प्रतिबंधित किया जाए ! आभासी जगत निजता का भी सम्मान करे ! ब्लॉग जगत और वास्तविक जगत के मुद्दों के  घालमेल से बचने की भी हिदायत उन्होंने दी ! पहला दिन बीत चुका था ! और हाँ  चाय पानी की समय समय पर मिलती रही ,हाल भले न सभा के अनुकूल रहा हो !

शनिवार, 24 अक्टूबर 2009

इलाहाबाद से लौट कर :कुछ खरी कुछ खोटी और कुछ खटकती बातें !


बस अभी अभी लौटा हूँ बनारस ! ब्लागिंग धर्म का तकाजा कि कुछ टिपियाँ भी दूं ! भाई लोग टिपिया टिपिया थक चुके हैं  ! उन्हें ज़रा रिलीव भी कर दूं ,फुरसतिया  कर दूं ! मैं यहाँ सक्षिप्त  सूत्र वाक्यों में ही चर्चा करूगां.

नामवर ने चिट्ठे शब्द का अनुमोदन कर दिया ! अब यह हिन्दी विभाग /साहित्य द्बारा भी स्वीकृत समझिये ! और पूरी आधी दुनिया ब्लॉग संगोष्ठी से गायब रही . आखिर क्यों ? उन्हें समुचित रूप से बुलाया नहीं गया या फिर अन्यान्य कारणों से वे नहीं आ पायीं ! नारी जो ठहरीं ? कौन जवाब देगा ?  महज सुश्री मीनू खरे ,मनीषा पांडे और आभा दिखीं ! क्या 'त्रिदेवियों' की यह नुमायिन्दगी पर्याप्त है ? आप सोचें ! मेरा काम बस रपट कर देना है ! सो कर रहा हूँ ! स्थानीय नारी प्रतिभागिता भी नगण्य रही ! 

उदघाटन  के उपरांत का सत्र बेहद कमजोर सचालन की भेट चढ़ गया ! पूरी आराजकता तारी हो गयी ! लोगों ने संचालक को परे धकेला खुद माईक हथिया लिया ! पूरा सद्य ब्लॉग चरित्र साकार हो उठा -अट्टहास कर बैठा ! ज्ञान जी चुपके से निकल भागे !










 ....कुछ शयन कक्ष चर्चा और हा हा ही ही भी ....शयन पूर्व फोटो सेशन  -अफलातून,रवि रतलामी जी के साथ !

जो मैंने आज तक के जीवन में इन अवसरों पर नहीं देखा वह भी देख लिया ! माईक पर पहुँच स्वनामधन्य ब्लॉगर यह पूंछते भये कि मुझे आखिर बोलना किस विषय पर है -उद्धतता ,अहमन्यता की सीमा  ! मन  संतप्त हो उठा !घोर अराजकता ! वैसी ही जैसी हम आये दिन इहाँ देख ही रहे हैं ! शायद इसका बड़ा कारण संचालक का  कैजुअल अट्टीचूयड  ही था ! समझना चाहिए भैये कि आभासी जगत की चक्कलस और है और वास्तविक जगत में समारोह/संगोष्ठी का सञ्चालन बिलकुल अलग ! कुछ नैराश्य जनित आक्रोश से पीड़ित और बलाग जगत की ओर पलायित कर रहे  मीडिया कर्मियों ने इस सत्र को हाईजैक कर लिया ! घिसे पिटे जुमले उछाले गए ! अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई दी गयी !कुंठासुरों ने अपनी कुठाओं का वमन कर दिया ! अब तो  बदबू भी फैल चुकी थी !यह सत्र कुंठासुरों ने ही हाईजैक कर लिया! सबसे बड़े कुंठासुर वे जो केवल अपने ही ब्लॉग को गीता कुरान समझते हैं बाकी पर कभी भूल कर भी नहीं जाते ! अच्छा है वे अपने पर ही  निपट लेते हैं !

जिन्हें बोलना था वे तो बोल नहीं पाए मगर कुछ अनाहूत पोडियम पर  चढ़ बैठे . मंच की गरिमा पूरी तरह जाती ही रहती अगर कुछ और शिष्ट विशिष्ट वरिष्ठ हस्तक्षेप न किये होते . उदघाटन  सत्र की जो फिजा बनी थी वह शाम तक तार तार हो चुकी थी ! खैर शाम हम कुछ और बुद्धू बने लौटे डेरे पर ! पूरी तरह चटे,थके और हताश ! अब लाजिस्टिक्स( logistics )  की कुछ बातें! उत्साही स्थानीय आयोजकों का शायद यह पहला राष्ट्रीय कार्यक्रम संभालने का मौका था! उदघाटन सत्र की भव्य सफलता से फूल कर कुप्पा हुए आयोजक मानव प्रबन्धन भूल चुके थ  . जहां हम रुके वहां के मेस का जो रोजमर्रा का आम खाना था (जिसका मीनू तक भी नहीं चैक किया गया था )हम उदरस्थ किये ! जब जब भी हम दूसरों के रहमों करम पर इलाहबाद में रुके हैं मच्छरों ने सोना हराम कर दिया है -सो रात भर मच्छरों का आतंक झेलते रहे ! अब इलाहाबद हमारे इल्म की माँ रही है !  माँ से क्या शिकायत मगर हमें उसकी आँचल में रहने तो दिया जाय ! हमें तो उससे दूर कर और ही भरोसा दिया गया ! सुबह की चाय नदारद -बताया गया कि ज्यादातर  इलाहाबादी कार्यक्रमों में बेड टी  का  इंतजाम नहीं रहता !  बेड टी के चक्कर में रवि जी ने मार्निंग वाक् करा दिया पूरे दर्जन भर लोगों को रवि जी ने ही चाय पिलवा दी -अपने बटुए से  ! और नाश्ता ? आयोजकों को इसके मीनू के बारे में भी जानकारी नहीं थी ! आश्चर्य हो रहा है ना ? मगर यह सच है !

बातें और भी हैं मगर शायद अगली पोस्ट करुँ तब निकले ,पहले तो यह रपट   -और वे जुमले और विचार विस्फोट भी जिनके बावजूद इन बातों के जीवन्तता बनी रही .

अभी कुछ रिपोर्टे भी पढीं ! लोगों ने अपने अपने नजरिये से की बोर्ड तोडू लिखा है मगर अनूप जी की रिपोर्ट जिसे वे जबरदस्ती लाईव कहने पर जुटे हुए हैं  अपने मन्मौजिया/ एकांगी नजरिये का खुला खेल खेल रही हैं -कहते भये हैं कि मैं अपने वक्तव्य में आत्म प्रचार में लगा था -काहें सच उगलवाने का थर्ड ग्रेड अख्तियार कर रहे हैं अनूप भाई -अब आत्मप्रचार की असली कहानी कह दी जायेगी तो पता नहीं आपको मिर्ची लगे या न लगे मेरा मित्र धर्म खतरे में पड़ जाएगा ! चलिए हम बेहयाई केवल राजनीति के लिए छोड़ दें !

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

पड़ चुके हैं संतों के चरण प्रयाग में ...

जी हाँ, हिन्दी चिट्ठाकारिता  की दुनिया पर विमर्श के लिए देश के कोने कोने (जुमला ) से संतो का समागम संगम की नगरी प्रयाग में हो रहा है -भले ही अभी "माघ मकर गति जब रवि होई '' वाला ज्योतिषीय योग नहीं बना है -संतों के चरण परसों से ही पड़ने शुरू हो गए ! चिट्ठाजगत के याज्ञवल्क्य और भारद्वाज परसों शाम से ही विराज चुके हैं -मतलब रवि रतलामी और अजित वडनेरकर और प्रवचन पान की लालसा से महर्षि अनूप शुक्ल भी अपनी चरण रज वहां बिखेर चुके हैं ! अब जब इतनी महान विभूतियाँ वहां पहले से पाँव जमा चुकी हों  तो आयोजन की सफलता सुनिश्चित ही है !

अभी हम तो बनारस मे ही पड़े हुए हैं - हिमांशु पांडे और अरुण प्रकाश जी का इंतज़ार है वे आयें तो हम भी चलते बने -मुझे तो यही सोच सोच कर व्यग्रता हो रही है कि उधर संगम नगरिया में इतना पहले से ही पहुँच कर संत लोग क्या गुल खिला रहे हैं और समारोह  संयोजक श्री सिद्धार्थ जी जिन्हें "धनुष जग्य जेहिं करण होई " का यश प्राप्त हो चुका है उनकी क्या सेवा सुश्रुषा करते भये हैं ! चिटठा संत समागम की पूरी पृष्ठभूमि रची जा चुकी है !

चिट्ठाजगत का एक अल्पांश आज वहां विराजेगा बाकी दूर से तमाशा देखेगा ! तमाशाई वृत्ति के हम प्रेमी हैं ! मानव मन  भी बड़ा अजीबं है -राग विरागों से संयुक्त ! कुछ लोग मन ही मन सोच रहे होंगें कि मैं तो जा ही नहीं पाया ..अच्छा हो कि कार्यक्रम फ्लाप शो हो जाय -आह ईर्ष्या तू न गयी मन से ! कुछ के मन में होगा कि मुझे बुलाया होता तो जरूर जाता ! कुछ लोग ऐसे ही ब्रह्मा के रचे हुए हैं कि किसी भी कार्यक्रम में न तो कभी जायेगें न कभी खुद कोई आयोजन करेगें और न किसी प्रकार की मदद ही करेगें उल्टे किसी भी सृजनात्मक काम को घोर संशय और निंदक के नजरिये से देखते रहेगें ! उनके लिए भले ही विश्वामित्र समांतर  दुनिया रच डालें उनके मुंह से शाबाशी नहीं निकलेगी ! ऐसे सिरफिरे और सिनिक संसार में भरे पड़े हैं तो आखिर अपना चिट्ठाचर्चा ही क्यों अपवाद रहे -तो सिनिकों तुम भी झाडे रहो कलक्टरगंज !

मैं तो जब भी ऐसे प्रयास देखता हूँ विनम्र सा हो उठता  हूँ -आज के इस युग में जब हर कोई एक दूसरे की टांग खींचने में लगा है ऐसे आयोजन का संकल्प सचमुच साहस की बात है ! आयोजन से जुड़े लोग निश्चित ही तारीफ़ के काबिल हैं -यह सिलसिला चलते रहना चाहिए ! चिट्ठाजगत अब महज आभासी नहीं रह गया है इसकी पहुँच और अनुगूंज अब आभासी जगत के बाहर भी जा पहुँची है -साहित्य के पुरोधा नामवर सिंह तक भी ! अब  ब्लॉग साहित्य अधकचरा है कहने वाले स्तंभित होंगे!देखते रहिये वह दिन दूर नहीं जब सर्वं ब्लॉगमयम जगत का दृश्य साकार हो उठेगा-
क्या आभासी क्या वास्तविक ,सब समरस!

ये कुछ स्फुट विचार हैं जो प्रयाग संधान के ठीक पहले मैं आपसे साझा कर ले रहा हूँ -बाकी आप ती वहां पहुंचकर या लौट कर !

बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

अथ श्री राम उजागिर कथा !

दीपोत्सव -अवकाश के बाद घर से लौटा तो बहुत कुछ साथ लाया हूँ -कुछ पहेलियाँ कुछ पोस्ट सामग्रियां !आपसे साझा करने के लिए !  यह राम उजागिर कथा भी उसी का एक हिस्सा भर है ! आप राम उजागिर को नहीं जानते यद्यपि आज के हमारे ब्लॉग पोस्ट के नायक का यह असली नाम है ! मैं भी कहाँ उसे ठीक से जान पाया ! उसे जानने  के पहले उसकी बदनाम शोहरत जो हमेशा उससे पहले ही आ धमकती है ! वह एक कुख्यात अपराधी है .  बनारस से लखनऊ की दिशा में राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ पर पड़ने वाले बख्शा थाने का हिस्ट्री शीटर है राम उजागिर ! कितनी शर्मिन्दगी होती है जब यह बताना पड़ता है कि वह हमारे गाँव का है ! एक शातिर बदमाश ..जहर खुरान ! न जाने कितनों को उसने ट्रेनों में लूटा है और कितनो के तो नीद की गोली की अधिकता से प्राण पखेरू भी उड़ गए ! मतलब एक हार्ड कोर क्रिमिनल !

मैंने बचपन से उसकी कारस्तानियाँ देखी सुनी है -वह मुझसे कोई १० वर्ष बड़ा होगा -वैसे तो वह ज्यादातर जेल में ही रहता है मगर जब भी मेरा आमना सामना हुआ है मैं उसके रेल मोहकमे -रूट वगैरह की जानकारी से स्तब्ध/इम्प्रेस  होता रहा हूँ !  एक बात और भी रही है जिससे मैं चकित ,अचंभित होता रहा हूँ  वह है उसका मोहक व्यक्तित्व ! इतनी मीठी आवाज कि कानों में चाशनी घुलना मुहावरा   शायद उसी के व्यवहार से ही उपजा हो !उसका  यही मोहक व्यक्तित्व भोले भाले और कभी कभार चंट लोगों को भी चूना लगा  देता है ! मैंने उससे पूंछा था कि राम उजागिर कुछ ऐसा हिंट दो कि कभी हम लोग तुम्हारी गिरोह के फंदे में न आ जाएँ ! उसने वही घिसी पिटी बात दुहरा दी थी - "भैया ,किस साले में हिम्मत है जो हमारे गाँव के किसी  का भी बाल बांका कर दे -आप सब के बारे में मैंने अपने गिरोह में मुनादी जो कर रखी है ! "  कैसे लोगों को शिकार बनाते हो उजागिर ? मैं हमेशा उससे  यह रहस्य जानकार सावधान हो जाना  चाहता था ! बहुत कुरेदने पर यह कहते हुए कि अपना  हुनर किसी भी को न बाटने की गुरू की हिदायत है वह कुछ हिंट दे ही देता था ! उसने बताया था  कि ट्रेन में यात्रा के दौरान किसी भी अति विनम्र व्यवहार वाले से सजग रहें -पूरी यात्रा बहुत चौकन्ने और मगर रिजर्व रहें ! जहर खुरान गिरोहों की मोडस आपरेन्डी में शिकार से घनिष्ट होना और उसे चाय ,प्रसाद आदि के साथ  नीद की गोली दे देना शामिल रहता है ! उनका तंत्र यह आभास लगा लेता है कि कौन मोटा आसामी है और कौन ठन ठन गोपाल ! और गिरोह के लोग बहुरुपिया होते हैं ! राम उजागिर को मैंने खुद बेहद शानदार सूट बूट में देखा है -गले में मोटे सोने की चैन -हांथों में सिटिजन की घडी ,पैरों मे रीबाक के  जूते (यह जरूर उसने चुराए होंगें ! ) -पूरा त्रुटिहीन अभिजात्य परिधान !

मैंने इन सैद्धांतिक बातों से अलग हट कर उससे बचाव के लिहाज से कुछ व्यावहारिक जानकारी -उसके खुद के संस्मरण जानने चाहे ! एक आप को भी सचेत होने के लिए - " एक व्यक्ति को मुझे हैंडिल करने को सौंपा गया -ऐ सी २ में -मैंने भी तत्काल उस डिब्बे में किसी तरह  जुगाड़ बैठाया -अब मुझे उस व्यक्ति का विश्वास जीतना था मगर वह था बहुत सजग ! मैंने अपने गिरोह से एक स्टेशन पर थर्मस में चाय मंगवा ली थी -रास्ते में उसे यह कहकर सहज ही विश्वास में ले लिया था कि कहीं बाहर का कुछ न तो खाएं और और न ही पियें -यहाँ तक कि ये बैरे भी जहर खुरानों से मिले ही सकते हैं -ज़माना बहुत खराब हो गया है ,इसी लिए मैं अपनी चाय भी घर से थर्मस में ले आता हूँ -लीजिये यह घर की चाय पीजिये ! और मेरा काम बन गया -आसामी ने घर की चाय के नाम पर हाथ बढा दिया था..." उसने फुसफुसाहट के लहजे में यह वाकया सुना दिया था !  मैं अक्सर उसे धिक्कारता ,उसके जमीर को ललकारता ! मगर कुत्ते की पूंछ टेढी ही रही -उसी कानों में शहद घोलने के पेशेवर  अंदाज  में वह कहता कि यही तो हुनर है उसका और उसकी आजीविका ! और यह जुमला भी कि घोड़ा घास से यारी करके खायेगा क्या !

तो हुआ यह कि जैसे ही घर पहुंचा कि जानकारी मिली -  राम उजागिर की दीवाली इस बार उजियारी नहीं रही -नरक चतुर्दशी को ही नरक  गामी हो गया वो ! बेटे ने मुम्बई से आकर धूम धाम से तेरही आयोजित की -अभी कल ही तो तेरही थी उसकी ! मेरे मुंह से निकल पडा चलो गाँव का एक काला धब्बा तो मिटा ! उसकी मीठी मीठी बाते और  विनम्रता भी याद आई तो कुछ मिश्रित विचार भी मन  में आये ! मगर हठात उन्हें रोका ! जो गलत सो गलत ! मुझे जैसे कुछ याद हो आया ! मैंने लोगों  से पूंछा कि वह तो लखनऊ जेल में था न ?  पुष्टि में लोगों ने सिर हिलाया और याद भी दिलाई कि  डायिजेपाम की गोली के नकली निकल जाने से वह अभी कुछ मांह पहले ही तो आजमगढ़ स्टेशन पर यात्री के होश आ जाने से  भीड़ द्बारा धर दबोचा गया था ! तब वह मरा कैसे ? शायद जमानत पर छूट गया था -लाश बड़ी ही विकृत अवस्था में सुल्तानपुर में पायी गयी ! भाईयों ने लाश की शिनाख्त करके पंचनामा आदि करा कर बनारस में दाह संस्कार किया पूरे विधि विधान से ! "हूँ " मेरी सक्षिप्त प्रतिक्रिया  थी ! एक काले युग का अंत तो हुआ !

मगर मेरे ही नहीं अब  स्तब्ध होने की बारी पूरे गाँव की थी -गाँव में दीवाली की ही सुबह जंगल में आग की तरह खबर फैल गयी कि राम उजागिरा जिंदा है -लखनऊ के जेल में ही फर्जी नाम से बंद है -किसी के हाथ चिट्ठी भिजवाई है -उसका बेटा लखनऊ जा चुका है ! .....और आज ही यह  पुष्ट हो गया है कि   वह नराधम सचमुच जिंदा है -गाँव में विचित्र माहौल है ! हंसने रोने की बीच सा कुछ ! मगर फिर वह लाश किसकी थी  जिसे गधों ने बैकुंठ तक पहुँचने  का कर्मकांड रच डाला ?
"पुलिस छान बीन कर रही है " -मुझे बताया गया !

सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले नहीं रहे ! नमन !

गाँव के पैतृक आवास से दीवाली अवकाश मनाकर लौटा ही हूँ  कि शैशव, बजरिये चिट्ठाचर्चा पर यह स्तब्ध कर देने वाली खबर मिली -प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले नहीं रहे ! मन क्लांत हो उठा -भारत में आम आदमी के लिए विज्ञान लेखन का शलाका पुरुष नहीं रहा ! स्वतन्त्रता के पश्चात (स्वातंत्र्योत्तर ) भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चतुर्दिक विकास और उसे आम लोगों के बीच पहुचाने /पहचानने की दिशा में प्रधानमंत्री नेहरू जी के "वैज्ञानिक मनोवृत्ति " (scientific temper ) के आह्वान को अमली जामा पहनाने में मुले जी का अप्रतिम योगदान रहा ! उस समय कोई अपनी बोली भाषा में विज्ञान को आम जन तक ले जाने के गुरुतर दायित्व को उठाने का साहस भी नहीं कर सकता था -सर्वत्र दोयम दर्जे की अंगरेजी का बोलबाला था (जो दुर्भाग्य  से आज भी है )  ऐसे में वे एकला चलो की एकनिष्ठता और कार्य समर्पण की भावना से विज्ञान को जन जन तक, घर घर तक पहुचाने को वे  कृत संकल्पित हुए और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा ! उनकी बदौलत ही वर्तमान पीढी से ठीक पहले  की पीढी  जमीन -आसमान ,सागर -सितारों और चाँद सूरज के बारे में ,वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों के विषय में हिन्दी में जानकारी प्राप्त कर पायी !उनकी दृष्टि खोजपरक थी -वे एक गंभीर अध्यता तो रहे ही ,वे एक शोधार्थी भी रहे -पुरा लिपियों पर उनका लेखन आज भी प्रामाणिक माना जाता है !

मगर दुखद यह है कि विगत १३ अक्तूबर को इस सरस्वती पुत्र के अवसान की खबर इतनी देर से मिल रही है ! मुद्रण माध्यमों के लिए यह शायद पहले या किसी भी पन्ने  की खबर नहीं रही ! और दृश्य माध्यमों की तो हालत और भी शोचनीय  है ! यहाँ भी ब्लागजगत ने अपनी तत्क्षण खबरिया प्रकृति और खबर के चयन की उत्कृष्ठता को बरकरार रखते हुए अपने सुधी पाठकों को वंचित नहीं किया  -यह हमें चिट्ठाजगत के उत्तरदायित्वबोध के प्रति भी आश्वस्त करता है !


   आखिर यह फोटो मिल ही गयी ! (साभार : साईंस ब्लॉगर असोशिएसन )

मुले जी आज के अनेक हिन्दी विज्ञान लेखकों की पहली पंक्ति के पुरोधा रहे -हिन्दी विज्ञान लोकप्रियकरण के पितामह ! उनका लेखन  सरल था मगर फिर भी गंभीर परिशीलन की मांग रखता था -अभिव्यक्ति  का छिछोरापन /सतहीपन उनको गवारा  नहीं था ! वे विज्ञान की गरिमा से समझौता न करने वालों मे रहे ! जबकि उनके कुछ बाद के और आज के कई स्वनामधन्य विज्ञान प्रचारकों ने विज्ञान की बखिया  उधेड़ डाली है, उनके नामोल्लेख यहाँ अभिप्रेत नहीं -कहीं अन्यत्र उनके भी अवदान बल्कि प्रति-अवदान चर्चित होगें ही !

मैं मुले जी से १९८८  में इलाहाबाद में आयोजित एक विज्ञान  संगोष्ठी के समय पहली बार मिला था -धीर गंभीर व्यक्तित्व , बहु विज्ञ ,बहु पठित -मैं नत मस्तक था ! उनकी एक अभिलाषा थी साईंस फिक्शन को आगे बढ़ाने की क्योंकि वे खुद इस दिशा में अपरिहार्य कारणों से योगदान नहीं कर पाए -उनकी प्रेरणा ने मुझे इस उपेक्षित विधा की ओर और भी मनोयोग से लग जाने को प्रेरित किया ! उनके अनुगामी   दिल्ली के विज्ञान लेखकों ने उनसे ईर्ष्या भाव भी रखा जबकि वे पूरी तरह निश्च्छल   
थे-यहाँ तक कि कृतघ्न पीढी ने यह तक कहा कि उन्हें आम लोगों में  विज्ञान के संचार की समझ नहीं थी -ऐसी ही कृतघ्न पीढी सरकारी पुरस्कारों से भी नवाजी जाती रही है ! यह देश का दुर्भाग्य है ! गुणाकर मुले जी  74 वर्ष के थे।  पिछले डेढ-दो वर्षो से बीमार चल रहे थे। उन्हें मांसपेशियों की एक दुर्लभ जेनेटिक बीमारी हो गई थी जिससे उनका चलना-फिरना बंद हो गया था। उनका जन्म  महाराष्ट्र के अमरावती जिले के सिंधू बुर्जूग गांव में हुआ था .वे मूलतः   मराठी भाषी थे, पर उन्होंने पचास साल से अधिक समय तक हिन्दी में विज्ञान लेखन किया। उनकी करीब तीन दर्जन  पुस्तकें  छपीं हैं । उनके परिवार में पत्नी, दो बेटियां एवं एक बेटा है।

उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने  जीवन पर्यन्त एक पूर्णकालिक विज्ञान लेखक के रूप मे आजीविका  चलाई जो एक चुनौती भरा काम था ! उन्होंने सरकारी नौकरी नहीं की और सरकारी इमदादों के पीछे  नहीं रहे -स्पष्ट और खरा बोलने वालों में रहे -शायद यही कारण है कि कई  सरकारी विज्ञान संस्थाओं/तंत्र के पसंद नहीं बने !


मुले का जीवट का व्यक्तित्व किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है -वे सही अर्थों में विज्ञानं को आम आदमी तक ले जाने को पूर्णरूपेंन समर्पित रहे और बिना नौकरी और सरकारी टुकडों पर पले पूर्ण कालिक विज्ञान लेखन की अलख जगाते रहे ! मेरा नमन !

यहाँ भी पढें !


शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

यह मिनी पोस्ट महज दीवाली जगाने के लिए है !

पैतृक गाँव आया हूँ जौनपुर -दीपावली मनाने ! यहाँ मान्यता है कि दीवाली की रात जिसका जो काम हो वह उसे अवश्य करे .मतलब जो भी काम जो करता हो उसे दुहराए -कर दिखाए -नहीं तो आगामी पूरे साल उस काम की लय  ताल बिगड़ जायेगी .समझ लीजिये यह कुछ टोटका सरीखा ही है -मतलब विद्यार्थी अपनी किताबों पर नजरे फिरा लें ,व्यवसायी अपने काम को साध ले और अखबारों के हाऊस अपने अखबारों के संस्करण निकाल ले -पत्रकार  बंधुओं की आज छुट्टी नहीं रहती -कल अल्ल सुबह तभी आप को अखबार दिख जायेगें ! इसे ही दीवाली जगाना कहते हैं ! यहाँ तक कि चोर उचक्के भी अपना हाथ साफ़ करने से आज की रात नहीं चूकते और जुआरी बड़ी रकम पर हाथ साफ़ करने या गँवा देने से भी!लक्ष्मीभक्त टकटकी लगाये सारी रात उलूकवाहिनी का रास्ता तकते रहते हैं -मुझे तो ज्यादा बाट नहीं जोहनी उनकी मगर माँ  सरस्वती के चरण में यह मिनी पोस्ट अर्पित कर मैं अपनी दिवाली जरूर जगा लेना चाहता हूँ ! मैंने कुछ मित्रों से बात भी की ,कुछ का फोन ही नहीं लगा और कुछ ने काट भी दिया -यह तो कहीं  न कुछ अपशकुन सा न हो -जी संशयग्रस्त है कि पता नहीं ऐसे मित्रों से कल से ही पूरे साल सहज संवाद शायद ही रह पाए ! काश उन्हें पता होता कि मैं दीवाली जगाने के लिए ही उनसे बात करना चाहता था ! बहरहाल ..

आप सभी को यह ज्योतिपर्ब सर्वविध मंगलकारी हो -दीप  रश्मियाँ आपके जीवन को बहुविध आलोकित करे ! मनोज के लैपटाप से यह मिनी पोस्ट है -उन्हें भी मैंने कह दिया है कि वे ब्लाग लेखन में नियमित हों ! उन्होंने हामी भर दी है और नीचे की लाईन में अपनी दीवाली भी जगा रहे हैं -
आदरणीय सुधी स्नेही जन, आप सभी को दिवाली मंगलमय हो -मैं जल्द ही आपके बीच लौटता  हूँ-
माँ पलायनम का संकल्प है जो मेरा  (सादर ,मनोज )  

रविवार, 11 अक्टूबर 2009

तेल देखिये और तेल की धार से दाढी बनाईये!



                                                        किसिम किसिम के ओलिव फल 
जी हाँ तेल देखिये और तेल की धार से दाढी बनाईये ! आहिस्ता आहिस्ता ! भारत में ओलिव आयल तेजी से मशहूर हो रहा है ! यह मूलतः एक खाद्य तेल है -कहते हैं बहुत फायदेमंद है ! और तो और  आप इससे दाढी भी  बना सकते हैं ! ये दावा भी देखा तो  मैंने भी सोचा क्यों न ट्राई मारा ही जाय -दाढी तो बन गयी मगर बात कुछ जमी नहीं -मतलब मजा नहीं आया सटाक सटाक वाला ! कुछ कुछ तो मुझे चिकनाई से चिढ सी है -चिकनी चुपडी बातों और चिकने लोगों से भी .जाहिर है ओलिव आयल की चिकनाई रास नहीं आई -इसमें वह ओल्ड स्पाईस वाला फ्रेगरेंस और मर्दानगी -अहसास कहाँ ! मगर फिर भी  चाहें तो आप भी एक बार ट्राई मार लें ! हाँ अपनी त्वचा की देखभाल के लिए स्वभावतः सतर्क  महिला ब्लागर मित्रों  के लिए इसकी भरपूर सिफारिश करता हूँ -वे इसे इस्तेमाल करने के पहले यह छोटा सा वीडियो देख भर लें

ओलिव आयल में मोनो और पाली अनसचुरेटेड वसा अम्ल प्रचुर मात्रा में होते हैं इसलिए दुनिया भर में इसकी चाहत बढ़ रही है

भारत में भी कुछ उद्योगपतियों ने इसका भारी आयात शुरू कर दिया है -एक नेट्वर्किंग बहुराष्ट्रीय कम्पनी एमवे ने इसे यहाँ लांच किया है -४०० रूपये के एक लीटर के साथ २५० ग्राम की शीशी मुफ्त ! मगर यह ओलिव पोमेस आयल है -बिलकुल शुद्ध आलिव आयल नहीं ! ओलिव आयल के कई प्रकार होते हैं -एक्स्ट्रा विरिजिन ,विरिजिन ,फाईन  विरिजिन,सेमी विरिजिन  और यह विरिजिनिटी यानी शुद्धता उनकी कमतर अम्लीयता पर निर्भर है -प्रीमिंयम् एक्स्ट्रा विरिजिन ओलिव  आयल अपने कुदरती रूप में होता है और इसकी अम्लीयता बहुत कम (०.२२५%) होती है ! यह सलाद में डाल कर सीधे खाया जाता है ! दरअसल यह जब पहली बार ओलिव फल से निचोडा (प्रेस ) कर निकाला जाता है -यह अपने शुद्धतम रूप में होता है -फिर दूसरी बार इसकी बिनौली को दबा कर जो तेल निकलता है वह सेमी विरिजिन या पोमेस आयल होता है और इसमें कुछ साल्वेंट मिलाया जाता है !.इसे प्रायः खाने वाले रिफाइंड आयल के साथ मिला कर खाने के लिए इस्तेमाल करते हैं !

आलिव आयल में ओलिक अम्ल   की मात्रा ज्यादा होती है फिर लिनोलेयिक अम्ल और लिनोलेनिक अम्ल मिलता है जो दिल की बीमारियों के लिए ठीक है -क्योंकि इनमें रक्त की धमनियों में खून के जमने से रोकने वाला पदार्थ ओमेगा 6 होता है ! आप चाहें तो इसका इस्तेमाल कर सकते हैं -तेल की धार खुद देख सकते हैं और इसकी धार से दाढी भी सफाचट कर सकते हैं १ हो सकता है यह आपको  भा ही जाय ! या इस तेल को आप ही भा जायं   ! तो ले ही लीजीये एक ट्रायल पैक ,मगर भाव ताव समझ के ,हाँ !
खान पान और जीवन शैली

शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

एक खूबसूरत फिल्म है वेक अप सिड ! इस वीकेंड में देख ही डालिए !

कल रात  देखी वेक अप सिड -सोचा आपसे इस बारे में बतिया लूं ! काफी दिनों बाद एक खूबसूरत फिल्म  देखने को मिली है -सहज सरल सी मगर आज की युवा पीढी को एक जोरदार सन्देश देती हुई ! फिल्म के कई कोण हैं ! किस से शुरू करुँ ? हूँ ! अच्छा ये हल्का वाला एंगिल लेते हैं -एक स्वावलंबी विचारधारा की  लडकी(आयशा बनर्जी=कोंकन सेन शर्मा )  कोलकाता से मुम्बई (फिल्म में बार बार बम्बई के संबोधन से बवाल मचा है ) जा पहुंचती है अकेले कोई काम ढूँढने !यहाँ पहुचते ही  उसकी   बड़े  बाप के  एक मनमौजी  मगर दिल से अच्छे  बेटे (सिद्धार्थ उर्फ़ सिड =रणबीर कपूर )  से पहली मुलाक़ात होती है -जीवनशैली और विचारों   में धुर असमानता के बावजूद दोनों में कुछ ऐसा है जो वे बार बार मिल बैठते हैं ! लडकी को एक पत्रिका के प्रकाशन डिवीजन में काम मिल जाता है -मगर तभी नाटकीय मोड में बेटे की नालायकी से खीज बडे बाप जी बेटे को घर से  बाहर निकल देते हैं -महाशय सड़क पर आ जाते हैं ! और उस  आयशा  के उसी फ्लैट पर जा पहुँचते हैं जिसे  सजाने सवारने में उन्होंने काफी मदद की थी ! यहाँ तक तो मुंबई जैसे महानगर में कई ज्ञात और अज्ञात जोखिमों से जूझती एक लडकी के आत्मनिर्भर होने का  एंगिल है ! मगर बड़े बाप के लड़कों की अपनी खुद की कोई पहचान न होने और महा नगरों में  आज के युवा होते बच्चों की जीवन शैली का एक मार्मिक मगर खबर्दारिया कोण  फिल्म में मुख्य रूप  से उभरा है !

वह लडकी,आई मीन नायिका  (आयशा बनर्जी ) ,सिड की सहजता से प्रभावित तो है मगर उसे अपरिपक्व /बच्चा ही मानती है -एक दिन भावुक क्षणों में सिड को  कह भी देती है कि तुम अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं हो -मुझे तो अपने पति के रूप मे कोई ऐसा चाहिए जो पूरी तरह परिपक्व हो-माको/माचो  हो  और जीवन के प्रति स्पष्ट मकसद रखने वाला  हो ! और ऐसी झलक उसे अपने एडिटर इन चीफ में दिखती है लेकिन एक दिन अपने उसी एडिटर की झिड़क कि आयशा तुममे अभी भी पूरी मेच्योरिटी नहीं है से उसका मोहभंग होता है और  वह फिर सिड की ओर उन्मुख हो जाती है -सिड भी तब तक बहुत बदल गया रहता है -आयशा के सामने अपने को साबित करने में दिन रात लगा रहकर काफी  जिम्मेदार भी बन जाता है ,एक नौकरी भी पा जाता  है -आखिर मुम्बई की बरसात में वे मरीन ड्राईव पर भींगते हुए जीवन भर के लिए आ मिलते हैं ! कहानी सुखांत है !

फिल्म की कहानी और प्रस्तुतीकरण की सबसे बड़ी खूबी है उसकी यथार्थवादिता का पहलू, मतलब रियलिस्टिक प्रस्तुति ! आज बच्चों में अपने माँ बाप की समृद्धि के चलते भविष्य  को गंभीरता से न लेने की मनोवृत्ति बड़े शहरों में बढ़ रही है -फिल्म इसी एंगिल को उभारने में सफल हुई है मगर  यथार्थवादी चित्रण के साथ ही निर्देशक की अद्भुत कल्पना शीलता ने फिल्म के वातावरण को रूमानियत से जोड़े भी रखा है ! मानव  सम्बन्धों /व्यवहार की कुछ  नाजुक गुत्थियों ,पूर्वाग्रहों ,और सम्भ्रमों को   भी खूबसूरती से इंगित किया गया है -माता पिता और पुत्र के अंतर्संबंधों और संवादहीनता  ने कई बार पूरे हाल के दर्शकों को झकझोरा और बरबस ही आँखों से आंसू टपकवा दिए !


फिल्म करण जौहर ने प्रोड्यूस की है और लाजवाब निर्देशन किया है अयान मुखर्जी  ने ! नायक और नायिका और बाप के रोल में अनुपम खेर ने कुछ  दृश्यों में बेजोड़ अभिनय किया है !मैं इसे पॉँच में से साढ़े तीन  अंक देता हूँ -डेढ़ बचाकर रख लेता हूँ ,आखिर यह कोई सुदामा का चावल तो है नहीं कि पूरा गप कर लूं और सब कुछ न्योछावर कर दूं !
विकीपीडिया पर कुछ और जानकारियां है !

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

जो बीत गयी सो बात गयी .....

 जो बीत गयी सो बात गयी .....जी हाँ हरिवंशराय बच्चन जी की यह शीर्षक -कविता आज शिद्दत से याद हो आई है ! बच्चन मेरे पसंदीदा कवियों में हैं  -उनकी रचनाएँ मनुष्य की जिजीविषा को ललकारती हैं और उसे विषम परिस्थितियों  में भी जीवन के प्रति आस्था  बनाये रखने का प्रेरक सन्देश देती हैं ! धीरे धीरे समझ कर,कवि से जुड़ कर  और समय देकर  इस कविता को पढ़ते हुए आप मुझसे सहमत हुए बिना नहीं रहेगें !कविता कालजयी क्यों बन जाती है बच्चन जी की यह कविता आपको इसका अहसास भी दिलायेगी ! कवि की निजी पीडा कैसे सार्वजनीन हो उठती है और लोगों की अभिव्यक्ति बन जाती है यह सच भी इस कविता में उद्घाटित हुआ है !

            
  
 जो बीत गयी सो बात गयी !   
                     
जीवन में एक सितारा था ,
माना ,वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो

कितने इसके तारे टूटे ,
कितने इसके प्यारे छूटे ,
जो छूट गए फिर कहाँ  मिले  ;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता  है !
जो बीत गयी सो बात गयी 
जीवन में वह था एक कुसुम ,

थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया ;        
मधुबन की छाती को देखो
सूखी इसकी कितनी कलियाँ
मुरझाई  कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं   फिर कहाँ खिली ;
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है !
जो बीत गयी सो बात गयी
 जीवन में मधु का प्याला था ,
तुमने तन मन दे डाला था ,
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो ,
कितने प्याले हिल जाते हैं ,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं ,
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछ्त्ताता  है !
जो बीत गयी सो बात गयी
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए ,
मधुघट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आये हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं ,मधुप्याले हैं ,
जो मादकता के मारे  हैं ,
वे मधु लूटा ही करते हैं ;
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट -प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
वह कब रोता है ,चिल्लाता है  !
जो बीत गयी सो बात गयी




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सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

पिता जी की अंतिम कविता !

आज पिता जी की पुण्य तिथि है ! बल्कि कहिये पुण्य दशाब्दि वर्ष ! देखते देखते दस वर्ष होने को आयें उनसे विछोह के ! उनके व्यक्तित्व के कई  शेड   थे   -तत्कालीन कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में श्री कल्याणमल लोढ़ा  और आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी के साहचर्य में विद्याध्ययन के बाद विगत शती के छठे दशक में वे गाँव क्या आये कि यहीं  गाँव के ही होकर रह गए ! उनकी रचनात्मक ऊर्जा कई दिशाओं में बिखरी -समाज सेवा ,साहित्य प्रणयन ,संगीत की धुन- इन सभी दिशाओं में उनकी दखल बनती गयी -मानस के अनन्य प्रेमी और रामकथा के प्रसार में पूरी तरह  रमे हुए ! क्या सरस्वती ,क्या धर्मयुग ,क्या दिनमान उनकी रचनाएं अपने युग की किन मशहूर पत्र पत्रिकाओं में नहीं  छपी -पर उन्हें चाकरी से एलर्जी थी ! हर कीमत पर स्वतंत्र होकर जिए ! किसी की भी छत्रछाया नहीं स्वीकारी -आज उनके उस उद्धत रूप और किसी मुद्दे पर हम बच्चों की मान मनौवल  और उनका अपने स्टैंड पर नुक्सान सह कर भी अडिग रहना आँखों में आँसू ला देता है !



जौनपुर जिले के अनेक राजनीतिक उच्च पदों को भी उन्होंने सुशोभित किया मगर एक एक कर सभी से त्यागपत्र भी देते गए ! मुझे उनका राजनीति में रहना कभी नहीं रास आया  -मैं आज  जानता हूँ कि राजनीति ने उनकी सृजनात्मक संभावनाओं को कमतर  किया -या यूं कहें कि कभी उन्होंने राजनीति से अनुचित लाभ नहीं लिए -नहीं तो जिस व्यक्ति का प्रशंसक भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री और आज भी कविता कर्म के मर्मग्य  अटल जी रहे हों और सहपाठी आचार्य  विष्णुकांत शास्त्री जी जो हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे हों और श्री माताप्रसाद  जी जैसे मित्र जो अरुणांचल प्रदेश के राज्यपाल रहे -कुछ जुगाड़ कर कहीं  का कहीं तो पहुँच ही गए होते  ! पर उन्हें जुगाड़ से सख्त नफरत थी ! वे मूल्यों की राजनीति करना चाहते रहे और धीरे धीरे राजनीति ने उन्हें खुद से अलग कर दिया !



पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि उनका मूल भाव, अंतस साहित्य को समर्पित था -यह उनकी मौलिकता थी ! संगीत  की उनकी पकड़  भी  एक मुकाम तक पहुँच चुकी थी -जब भी उद्विग्न होते और अक्सर होते ही हारमोनियम पर जम जाते ..सोलो ही - दो तीन  घंटे लगातार आत्मविस्मृत से ! संगीत उन्हें राहत देती थी ! मेरा उनका  जुडाव ख़ास तौर से साहित्यिक सृजनशीलता से था -वे बहुत अधयनशील / स्वाध्यायी रहे  ! वेल रेड ! मुझे गैर पाठ्यकर्म के लेखन की ओर उन्होंने ही उन्मुख किया -बल्कि ऐसा उनके सानिध्य में अपने आप हो गया ! मुझे याद है जब मेरी प्रथम पापुलर साईंस की  रचना "अथ ऊलूकोपाख्यानम" १९८८ के आसपास धर्मयुग में छपी तो वे अपने हित मित्रों को गर्व से सीना फुलाकर दिखाते फिरते रहे और मैं इम्बैरैस्मेंट से कोनो अतरों में छुपता रहा था ! यादे... यादें ...यादें ....उनका दैहिक अवसान अकस्मात और स्तब्धकारी था ! बिलकुल स्वस्थ .निरोग ,मोहक व्यक्तित्व के धनी तो वे रहे ही ५ अक्टूबर १९९९ को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें सहसा हमसे छीन  लिया -हृदयाघात से एकदम अप्रत्याशित था उनका जाना -जब मैं भागकर घर पहुंचा था तो अपार जन सैलाब देखकर हतप्रभ था -उन्होंने जीवन भर रूपये पैसे नहीं आदमी कमाए और वही अपार जन समुदाय वहां रोता विलखता उपस्थित था ......

खैर इस वर्ष हम उनकी पुण्य स्मृति दशाब्दी मना  रहे -साल भर उनकी स्मृति में कई रचनात्मक कार्यों की रूप रेखा बन उठी है ! मेरे चाचा ( पिता जी के छोटे भाई ) नासा में वैज्ञानिक रह चुके डॉ सरोज कुमार मिश्र भी इस हेतु पधार रहे हैं -अगले माहों उनकी पुण्य दशाब्दी से जुडी रपट और उनकी कुछ रचनाएँ यहाँ भी आयेगीं ! वे एक श्रेष्ठ गद्य लेखक भी रहे -उनके चुनिन्दा लेख भी यहाँ मैं दे सकूंगा -मगर अभी तो उनकी अंतिम कविता जो उनकी मेज पर उनकी ही हस्तलिपि में एक कार्ड पर मिली थी मैं यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ -


.........अब दिन  लगा ढलने !
जन्म के साथ ज्योति जगी संभावनाओं की 
चाँद और तारों से भविष्य लगा सजने 
'बालू से भी तेल' के संघर्ष में दिन रीत गये 
कुछ नहीं  हाथ तो विवेक लगा जगने
आदि और अंत मध्य केवल प्रतीक्षा रही ,
सम्मोहन ,वशीकरण सिद्ध नहीं  सपने 
चुम्बकीय कामना के इन्द्रधनुष लुप्त हुए 
लौट चलो घर अब दिन लगा ढलने 

यह कुछ अनगढ़ सी कई जगह करेक्शन की हुई  कविता थी जो उनकी मृत्यु  के उपरांत  उनकी मेज पर पडी मिली , वे  इसे फेयर  भी नहीं कर पाए थे  ! शायद जाने का पूर्वाभास या यूं कहें कि जीवन की निस्सारता समझ आ गयी थी उन्हें !

रविवार, 4 अक्टूबर 2009

एक जब्तशुदा प्रेम पत्र के कुछ अंश



मूंगफली का सीजन शुरू हो गया ! मगर पहली ही खरीद दुखी कर गयी -यानि बिस्मिल्लाह ही बुरा हुआ ! मूंगफली से ज्यादा उसके ठोंगें ने सहसा ही ध्यान खींच  लिया -जब्तशुदा प्रेम पत्र ....! मगर किसके प्रेम पत्र -यह हिस्सा फटा हुआ था ! पत्रिका भी कौन ,यह भी नहीं जाना जा सका -खैर पत्र के मजमून पर निगाहें फिसलती गयीं और जहाँ रुकीं उसके बाद का अंश भी गायब !
मन बोझिल हो उठा ! कई प्रश्न जेहन में तैर उठे -क्षमां करें वे आपके मन   में भी उठेगें ही और आप भी क्लांत हो उठेगें मगर फिर भी न जाने क्यों इसे आपसे बाटने को मन हो आया है -और प्रेम पत्रों की मूंगफली के ठोगों तक की नियति भी कोई कम   
दुखदायी है ? प्रेम पत्रों से दुनिया का साहित्य समृद्ध हुआ है -साहित्य का एक पहलू इनमें जीवंत होता है ,दस्तावेज बनता है ! तो यह ब्लॉग जगत भी उससे अछूता क्यों रहे और क्वचिदन्यतोअपि भी ! लीजिये पढ़ लीजिये -

ऐसा क्या है प्रिये  जो मैं चाहता हूँ और तुम दे नहीं सकती  ? वह क्या है जिस पर एक मानव सम्बन्ध की बलि आसन्न /अपरिहार्य  दिखती है ? देह को तुमने पवित्र कुरान बना लिया है  ! जबकि मन का एक क्षणिक समर्पण भी देह की अनंत आहुतियों के आगे गौण है ! तुमने खुद स्वीकार किया है कि क्षण भर के लिए तुम विचलित होती हो ,मनुष्य होती हो और फिर अगले ही पल दानवता के आगे घुटने टेक देती हो ! अज्ञेय का क्षणवाद पढों -उन्होंने मानव जीवन की उच्चता को इसी क्षणिकता के अहसास से अनुभूत किया था !

तुम समझ नहीं रही हो तुम कितनी बड़ी हिंसा और अत्याचार पर उतर आई हो ! हर चीज की एक सीमा होती है -बहुत सी बातें इस क्षुद्र मनुष्य के वश में नहीं हैं -मैं लाख न चाहूं लेकिन खुद  ही बोझ बनते जा रहे सम्बन्ध स्वयं इतिश्री को प्राप्त हो ही जाते हैं -यही प्रक्रति का विधान रहा है ! बोझ बनते संबंधो की नियति ही है यही -कोई चाहे या न चाहे !  मैं अपराजेय और अपौरुषेय शक्तिओं का स्वामी नहीं हूँ -समस्त मानवीय कमजोरियों का ही एक सहज प्रस्तुतीकरण हूँ ! और अपवाद नहीं हूँ ! तुम शायद हो ! 


तुम्हे परिणय सम्बन्धों  की सहज परिणति स्वीकार्य नहीं है  तो रोज रोज का बवाल टंटा बंद करो =जिस तरह तुमने उस दिन  बात की मैं अशांति और पीडा से कराहता रहा  -सुबह हो गयी  ! लगा कि नहीं नहीं तुमसे आख़िरी बात कर ही लेनी  चाहिए ,नहीं तो मैं ही इस आरोप का भागी क्यों बनूँ कि "सखि वे मुझसे कह कर जाते "

तुम देह को पवित्र काबा और कुरान बनाए रखो -मुल्लों   की कमी नहीं है इस देश में  ! उन्ही का हक़ ज्यादा है इन पवित्रतम चीजों पर -और वे इनके लिए मरने मारने के लिए भी उतारू  रहते हैं ! मुझे तो त्याग के  आनंद का पूर्व अनुभव भी है -बहुत असहज नहीं  रह गया है त्याग मेरे लिए ! पर चिंता तुम्हारी है -तुम्हे अकेला छोड़ देने की सोच से ही आत्मा कांप उठती है ! मगर शायद मनुष्य के इतिहास  में पुरुष की इस मनोंनुभूति को ठीक से उभारा  नहीं जा सका ,समझा भी नहीं जा सका -कारण कि पाषाण होना  मनुष्यता का पर्याय मान  लिया गया  -पुरुषार्थ मान    लिया गया है ! कहीं खुद  राम का दिया कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता और नहीं यह अपेक्षा की गयी कि जाना जाय कि सीता के  परित्याग पर उन पर क्या बीती होगी -उनकी मनोदशा क्या थी ? तब टीवी के रिपोर्टर नहीं होते होंगें  शायद ..... .!


और इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी गयी ! कौन कहता है दुनिया पुरुषों की ,पुरुषों के लिए और पुरुषों द्वारा   ही बनायी गयी है ! राम के मन  का झंझावत सीता ने भी नहीं समझा हो शायद !   मैं भी अपने मन के इस झंझावत को आखिर किससे  बांटू ? तुम्हे सुनना नहीं है और एक और असहज ,अनचाहे परित्याग की पृष्ठभूमि पुनः  तैयार हो रही है ! मनुष्यता की पीडा की एक कथा फिर दुहराव पर है !  कहते हैं न कि इतिहास खुद को इसलिए ही दुहराता है कि हम उससे सीख नहीं लेते !


(आगे का अंश गायब है ....शायद यह सिलसिला खत्म न हुआ हो  ! मूंगफली का सीजन अभी शुरू ही तो हुआ है अब रोज शाम को मूंगफलियाँ खरीदता हूँ -शायद वांछित अंश मिल  ही जाय ! मैं पागलपन की हद तक आशावादी हूँ ! )

शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

वे मुझसे मिलने आयीं भरत मिलाप देखने के बहाने !

अभी उसी दिन उनका फोन आया था -"अरविन्द जी ,आप लोग भोपाल आईये न काफी दिनों से आप लोगों से भेट नहीं हुई है "और मेरा औपचारिक प्रत्युत्तर भी मानो प्रस्तुत होने को तत्पर था ! "आप आईये न बनारस ,आपको नाटी इमली का भरत मिलाप और रामनगर की रामलीला दिखाते हैं " और लीजिये वे बाल गोपाल संग आ भी गयीं ! मैं बात अपनी एम् एस सी की 'सहपाठिनी ' सुश्री कंचन जैन की कर रहा हूँ जो १९८४ बैच की मध्यप्रदेश में कार्यरत  आई ये एस अधिकारी हैं और ऊंचे ओहदे पर हैं ! उनके बेटे कार्तिकेय  और बेटी कल्याणी भी साथ थी .बेटे ने घर का केवल लैटीच्यूड ,लांगीच्यूड पूंछा था और उनकी कार सीधे घर के सामने आकर रुकी -यह कारनामा था कार्तिकेय के मोबाईल में जी  पी एस प्रणाली का जो उन्हें ३ मीटर की डिटेल्स के साथ रास्ता बताता  जा रहा था !


                                                             भरत मिलाप :चारो भाई
मैंने अपने परिजनों के मुंह से अमेरिका में अब आम हो चुकी इस सेवा के बारे में सुना था मगर भारत में इस तकनीक का यह  विस्मित करने वाला उपयोग मैंने पहली बार देखा ! पुराने दोस्तों की यादे ब्लागजगत में ताजा हो रही हैं -उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर ढूँढा जा रहा है ! ईश्वर करें सभी के कुछ मित्र कंचन जी जैसे भी हों जिम्हे ढूँढने की जरूरत ही न पड़े ! वे खुद आपको ढूंढ ले -दोस्ती में ओहदे बाधा न बनें !

बहरहाल हमने साथ में सपरिवार भरत मिलाप देखा -चार भाईयों का वह अभूतपूर्व मिलन का साक्षात किया जो लोकस्मृति  में स्थाई बन चुका है -हम सब की आँखें नम हो आयीं !यह  नाटी इमली के भरत मिलाप का महात्म्य है ! यह ऐसे ही एक विश्व प्रसिद्ध आयोजन नहीं बन गया है -अवश्य देखिय देखन जोगू  !चिर विछोह के बाद जिस भावावेग से यह भ्राता  मिलन यहाँ दृश्यमान होता है कि बस मत पूछिए ! यह आम आदमी की भावनाओं को झंकृत करता है -वे खुद को मंच पर पाते हैं ! और यही इस लोक आयोजन की बड़ी उपलब्धि है -लख्खी  मेला कहते हैं इसे ! अपार जन सैलाब इस दृश्य को आँखों मे कैद कर लेने को उमड़ पड़ता है ! इस मेल मिलाप का एक और महात्म्य -बिछडे  भी यहाँ मिल जाते हैं ! वी वी आई पी पंडाल में जैसे कंचन जी से यहाँ बनारस के मंडलायुक्त की  अकस्मात मुलाक़ात हो गयी -दोनों एक ही बैच के आई  ये एस निकले !

वर्तमान  काशी नरेश भी आये भरत मिलाप देखने 



बहरहाल ! कंचन जी को मैंने रामनगर की रामलीला भी दिखाई जो इस मामले में जग प्रसिद्ध है कि यहाँ कोई भी आधुनिक ताम झाम नहीं है -कोई भी नहीं का मतलब कोई भी ! ५-६ किलोमीटर में फैला पूरा भू भाग ही रामलीला का मंच है विश्व का सबसे बड़ा नाट्य मंच ! और लीला के मुख्य स्थल विधिवत बने हुए -पूरे स्थायी तौर पर ! यहाँ जनकपुरी है तो अयोध्या भी है लंका  भी है तो चित्रकूट भी ! लीला प्रेमी दृश्यों के साथ चक्करघिन्नी बने चलते रहते हैं ! न कोई बिजली .न कोई फोटोग्राफी ! न लाउडस्पीकर ! मतलब आधुनिक जीवन की कोई साज सज्जा नहीं -काशी नरेश की आज्ञां से ! यहाँ रामलीला अपने नैसर्गिक रूप और परिवेश में पिछले तीन सौ सालों से अविराम होती आई है -यह एक अविस्मर्णीय अनुभव है ! इतिहासविदों और सामाजिक बदलावों के अध्येताओं  के लिए भी एक पुन्य स्थल ! हमने युद्धोपरांत  सीता की अग्निपरीक्षा देखी और पुष्पक विमान से रामदल की वापसी -पुष्पक विमान को हाथ लगा के भी देखा ! काफी दूर उसे निहारते पैदल चले !


एक फोटो सेशन, बाएँ बैठे ,कंचन ,मैं और गोद में डेजी   ,संध्या :खडे हुए कार्तिकेय ,कल्याणी ,प्रियेषा  और कौस्तुभ

जाहिर है कंचन जी की यह यात्रा बहुत वह रही जिसे हेक्टिक कहा जाता है -वे सरकारी आतिथ्य को ठुकरा मेरे घर ही रुकीं ! इतनी सरलता ,सहजता ,विनम्रता ही मनुष्य के कद को ऊँचा रखती है ,ओहदे नहीं ! कंचन जी के आगमन ने मुझे अकस्मात विस्मृत से हो रहे तैत्तिरीयोपनिषद के दशम अनुवाक (मैंने फिर से पन्ने पलट लिए इसी बहाने ) की यह सूक्ति याद दिला दी -
न कंचन वसतौ प्रत्याचक्षीत तद व्रतं.... अर्थात अपने घर पर ठहरने के लिए आये हुए कंचन{= किसी (भी अतिथि ) को }प्रतिकूल उत्तर न दें ! यह एक व्रत है ! मैं इस व्रत के सकुशल पूरा होने का आभास कर धन्य हो रहा हूँ !

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

ब्लागिंग की जूतम पैजार और एग्रीगेटरों की भूमिका -ये लोग हिन्दी ब्लागिंग की बैंड बजा देंगे !

इन दिनों अपनी हिन्दी ब्लागिंग में  जूतम पैजार की स्थति है !जहां भी देखो  असहिष्णु पोस्टें ,टिप्पणियों ,अहम् की टकराहट ,चौधराहट यानि जितनी भी मानवीय कमजोरियां हो सकती हैं सभी खुले खेल फरुखाबादी के तर्ज पर सामने आ गयी हैं -देखते देखते सौहार्दपूर्ण माहौल न जाने कहाँ लोप हो गया है . साम्प्रदायिकता का भी  दौर दौरा है और धर्मों की श्रेष्ठता दांव पर लगा दी गयी है ! प्रकाशन का जिम्मा जब खुद अपने हाथ में आ जाय तो यह तो होना ही था ! गुणवत्ता पर ग्रहण लगना ही था ! कभी कभी लगता है कि जिस तरह अपना हिन्दुस्तान लोकतंत्र के लिए बिना परिपक्व हुए ही लोकतांत्रिक प्रणाली का प्रसाद पा गया और आये दिन हमारे चुने प्रतिनिधि इसका अहसास कराते रहते हैं ,ठीक वैसे ही खुद की पत्रिका और खुद ही लेखक ,प्रकाशक बन जाने का एक मौका ब्लॉग लेखन ने यहाँ  थमा दिया है उनको भी जिनकी शायद   ही कोई रचना ,धर्मवीर भारती ,मनोहर श्याम जोशी या समकालीन प्रभाष जोशी की सम्पादकीय से पास होती ! वे मूंगफली बेच रहे होते या नून तेल  की दूकान चला रहे होते !


लोग कहेगें कि मैं भी क्या अनुचित बात ले बैठा हूँ -ब्लॉग तो निजी डायरी है -जो भी लिखो डंके की चोट पर लिखो कौन ****वाला है रोकने वाला ? किसी भी के ** बाप का क्या जाता है ? मगर भाई रुकिए जरा थोडा दिमाग पर जोर डालिए न ! क्या ब्लॉग का माध्यम सचमुच आपको निजी डायरी सा लगता है ? किसी ने ब्लॉग के आगमन के साथ यह बात कह दी थी तो क्या वह ब्रह्मा की लकीर बन गयी ? आप खुद सोचिये क्या ब्लॉग सचमुच निजी डायरिया ही हैं ? अगर हाँ तब हम इन्हें सार्वजनिक किये क्यों घूम रहे हैं ? एक साथ निजी भी और सार्वजनिक भी -यह तो विरोधाभास हुआ ! निश्चय ही अंतर्जाल के ब्लॉग हमारी पारम्परिक डायरियों से भिन्न हैं -पारम्परिक डायरियां हम लोगों से छुपाते थ और इन डायरियों को दिखाने को लालायित रहते हैं ! मतलब अंतर्जाल की  ये डायरियां अब अपने प्राचीन रोल से अलग एक नया स्वरुप ले चुकी हैं -ये अब पूरी तरह सार्वजनिक हैं और ज़ाहिर हैं सार्वजानिक हैं तो इन्हें सार्वजनिक सरोकारों ,श्रेष्ठ मानवीय संस्कारों से भी जुड़ना होगा ! हम यह  लेखन गैर जिम्मेदारी से नहीं कर सकते !


और यही भूमिका आती है ब्लॉग एग्रीग्रेटरों की -वे अब महज चिट्ठों पर उड़ेली जा रही गंदगी को ढोते जाने को ही अभिशप्त क्यों हों ? मेरे विचार से वे चिट्ठों के संकलन में चयन का जिम्मा भी संभाल सकते हैं ! मतलब वह एक यांत्रिक काम न होकर जिम्मेदारी का काम हो और महज संकलन न होकर वह संचयन हो जैसे मधुमखी चुन चुन कर पराग कणों को इकठ्ठा करती है  और सोमरस सरीखे मधुकोष का निर्माण करती है ! मुझे खुशी है कुछ सामाज सेवा का जज्बा लिए समर्पित लोग इस काम में जुट गए हैं ! हिन्दी ब्लागिंग को अगर गर्त से उबारना है  तो यह जिम्मेदारी हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटरों को उठानी होगी ! नहीं तो मेरे एक मित्र के शब्दों में समाज के गंदगी ब्लॉग जगत में फैलाने वालों को ,
"यकीनन  रोकना होगा वरना ये लोग हिन्दी ब्लागिंग की बैंड बजा देंगे."

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