विश्वप्रसिद्ध पत्रिका टाइम के अभी एक हालिया अंक ने मानव समाज में आ रहे कई आमूलचूल बदलावों के प्रति खबरदार किया है जिनमें लोगों में अकेले जीवन यापन की बढ़ती प्रवृत्ति भी है। आज स्वीडन की लगभग आधी आबादी अकेले जीवन गुजार रही है। मतलब वहां से दाम्पत्य जीवन का लोप हो चला है। ब्रिटेन में 34, जापान में 31, इटली में 29, दक्षिणी अफ्रीका में 24, केन्या में 15, कनाडा में 27, अमेरिका में 28 और ब्राज़ील में 10 फीसदी लोग एकला चलो की जीवन शैली अपना चुके हैं। गनीमत है भारत में यह प्रतिशत अभी भी काफी कम है - तीन फीसदी मगर 'दूधौ नहाओ पूतो फलो' की मान्यता वाले देश में भी अब अकेले रहने की यह प्रवृत्ति मुखरित हो उठी है।
सर्वे के मुताबिक़ अमेरिका में 1950 के दशक में महज 40 लाख लोग अकेली जिन्दगी गुजार रहे थे वहीं अब तीन करोड़ से अधिक लोग अकेले रह रहे हैं जो घर परिवार वाले सभी लोगों का 28 फीसदी है। साफ़ है इन घरों में नई पीढी की किलकारियां नहीं गूजेंगी। मतलब इन परिवारों को अब अपने जैवीय वंशबेलि की चिंता नहीं है। जनसंख्या में भारी गिरावट आसन्न है। अमेरिका में जहां बिना शादी हुए भी आकस्मिक यौन सम्बन्ध से जन्मे बच्चे पालने में अनवेड माता पिता को कोई ख़ास सामाजिक अवमानना नहीं झेलनी पड़ती वहीं जापान के समाज में यह पाप तुल्य है। वहां स्वच्छंद यौन सम्बन्ध तो बनते हैं मगर कोई बिना विवाहित हुए बच्चे नहीं पाल सकता। यहां संस्कृति का अंतर स्पष्ट है। यही स्थति भारत में भी है। मगर यहां यौन सम्बन्ध उतने स्वछन्द नहीं हैं। पश्चिम और पूरब के संस्कृतियों के ये फर्क बड़े स्पष्ट हैं। अकेली आबादी का बड़ा हिस्सा महिलाओं का है।
वैसे अकेले रहना, अकेला हो जाना, अकेलापन महसूस करना अलग अलग बातें हैं। कोई जरूरी नहीं कि बन्धु बांधवों और एक सहचरी के सानिध्य के बाद भी कोई अकेलेपन की अनुभूति न करता हो या फिर अकेले रहकर भी अकेलापन महसूस करता हो। किसी ऐसे के साथ जिसके साथ रहना पल पल दूभर हो रहा हो अकेले रहना ज्यादा आनंददायक है। हां कुछ समाजशास्त्रियों ने अकेलेपन के ट्रेंड को मानव सुख शान्ति के लिए अच्छा नहीं बताया है। उनके मुताबिक़ मनुष्य कई बार अपने मन की बात किसी से साझा करने को अकुला उठता है -यह उसका स्वभाव है - ऐसे में वह घनिष्ठता चाहता है, सानिध्य चाहता है किसी बेहद करीबी का। मगर दूसरी ओर कुछ समाज विज्ञानियों का मानना है कि आज अंतर्जाल इस कमी को पूरा करने की भूमिका में उभर रहा है - आज फेसबुक सरीखी सोशल नेटवर्क की साइटें कितने ही मनचाहे लोगों से सम्बन्ध बनाने के नित नए अवसर मुहैया करा रही है। एक वह जो आपका समान मनसा है, समान धर्मा है - एक आत्मा और दो शरीर है - फिर एक अदद पत्नी/पति की जरुरत कहां है? और अब तेजी से बढ़ता ऑटोमेशन घर के सभी कामों को, गृहिणी के कामों को चुटकी बजाते करने को तत्पर है। स्मार्ट माशीने हैं, रोबॉट हैं जो अगले कुछ वर्षों में घर का सब काम संभाल लेंगे।
मगर कई तरह के खतरों के भी संकेत हैं। पी डी जेम्स ने 1992 में एक उपन्यास लिखा था - 'चिल्ड्रन ऑफ मेन' जिसमें ब्रिटेन जैसे एक देश की भावी तस्वीर प्रस्तुत की गयी थी, जहां की एक बड़ी जनसंख्या अकेले रह रही है और उनकी यौन संसर्गो में रूचि नहीं रह गयी है। और धीरे धीरे वे संतानोत्पत्ति के काबिल नहीं रह गए हैं - मनुष्य जाति विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंची है। हां मातृत्व का सहज बोध है, बच्चे नहीं तो पालने में महिलाएं गुड्डों गुड़ियों को लेकर ही आत्मतोष कर रही हैं। जिन पुरुषों में अभी भी प्रजनन की क्षमता है उनके लिए सरकारी ख़ास पोर्न हाउस खोले गए हैं जो उनमें यौन भावना के चिंगारी उत्पन्न कर सकें। खुदकुशी बढ रही है, बाहर के तीसरी दुनिया के लोगों को काम क्रीडा या श्रमकार्य के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। मगर उनके बूढ़े या अक्षम होने पर धकिया कर बाहर किया जा रहा है। जापान में ऐसी स्थिति आने में अब ज्यादा वक्त नहीं है।
अभी हाल में ही पेंगुइन बुक्स ने एरिक क्लीनेन बर्ग की पुस्तक, 'गोंइंग सोलो' प्रकाशित की है, जो कुछ राहत देने वाली बातें सामने रखती है। किताब के अनुसार सर्वेक्षित 300 अमेरिकी लोगों में जो अकेले रह रहे हैं, यह जरूरी नहीं है जो अकेले रह रहे हों वे दुखी आत्माएं ही हों। ऐसे लोग सामाजिक रूप से बहुत सक्रिय पाए गए बनिस्बत परिवार वालों के जिन्हें घर से फुरसत ही नहीं मिलती। ऐसे लोगों ने अपने 'महान उद्येश्यों से कभी समझौते नहीं किये, ना ही अनुचित दबाव से डरे। वे अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहे क्योंकि परिवार न होने से उनकी आवश्यकताएं काफी कम थीं। उन्होंने अपनी निजी स्वच्छन्दता, व्यक्तिगत नियमन और आत्मबोध की जिन्दगी के आड़े किसी को आने नहीं दिया और समाज की सेवा की। हम क्या चाहते हैं, कब चाहते हैं, कितना चाहते हैं, अकेलापन हमें अपनी शर्तों पर मुहैया करा सकता है . हम किसी के मुखापेक्षी नहीं रहते। यह घर बार और गृहिणी/ गृहस्वामी की आये दिन की धौंस, उसकी हर उचित अनुचित फरमाइश से भी मुक्त रखता है। और सबसे मजेदार बात यह कि अकेले रहना ही हमें फिर से दुकेले होने को उकसाता भी है और बदलती दुनिया में उसके भी परिष्कृत साधन और संसाधन जुट रहे हैं।
'लिव-इन-रिलेशनशिप' जैसी आधुनिक मान्यताएं इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा दे रही हैं.संयुक्त-परिवार की भारतीय परंपरा तो हम शहरों में बसकर पहले ही खत्म कर चुके हैं.इसके अलावा नैतिक मूल्यों में दिनों-दिन ह्रास हो रहा है और हम बहुत पढ़े-लिखे होने का चश्मा लगाये हुए हैं.
जवाब देंहटाएंअकेलापन अवसाद ज़्यादा लाता है.सुख के भागीदार तो कई मिल जाते हैं पर जब हम दुःख नहीं बाँट पाते तो वही दुःख और बड़ा होकर अवसाद बन जाता है.
अच्छे दोस्त और साहित्य-सृजन करके इसे हल्का किया जा सकता है.मुश्किल यही है कि जो दोस्त आपने चुने हैं वो आपके अकेलेपन में कितना काम आते हैं.
अकेलापन दूर करने का फौरी उपाय विवाह है और सही उपाय भी है फिर भी कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो विवाहित होते हुए भी अकेलापन महसूसते हैं.उनके ज़ज्बात सुनने वाला कोई नहीं होता !
सुखी या दुखी होना हर व्यक्ति के अपने व्यवहार पर निर्भर करता है , कोई बिना बात दुखी रहता है , कोई बड़े दुःख में भी ख़ुशी से जीता है ! परिवार के साथ या अकेले रहने से क्या फर्क पड़ता है !
जवाब देंहटाएंbahut hee umda lekh aur jaankaari!!
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है अगर परस्पर प्यार न हो तो अकेला रहना अधिक श्रेयस्कर है मगर अकेलापन काटता है अरविन्द भाई !परिवार के अपने सुख हैं ...
जवाब देंहटाएंजीवन की धुरी बस अपने आप तक सिमट रही है.......सामाजिकता की सोच का लोप हो ही रहा है......
जवाब देंहटाएंप्रभावी लेख सर जी |
जवाब देंहटाएंबधाई ||
चलो एकला मन्त्र है, शक्तिमान भरपूर |
नवल-मनीषी शुभ-धवल, सक्रिय जन मंजूर |
सक्रिय जन मंजूर, लोक-कल्याण ध्येय है |
पर तनहा मजबूर, जगत में निपट हेय है |
उत्तम किन्तु विचार, बने इक सुघड़ मेखला |
सबका हो परिवार, चलो मत प्रिये एकला |
lok-parivar se pyar se jure/rahne se
जवाब देंहटाएंisai duniya me swarg dikhti hai.....
lekin irshya-dwesh-ghrina ke saath
raho to nark sarikha jiban ho jata hai......
akelapan ka ruch/jach/pach jana parmeshwar ke dwar khol deta hai...
gar na viprit hue to vin pani ke machhli saman jiban ho jata hai....
pranam.
मेरी मकान मालकिन एक ७५ के आसपास की महिला है, शादी नही की। संपत्ति काफी है, सीडनी मे दो अपार्टमेंट है, ओपेरा हाउस के ठीक सामने, दोनो को एक खाड़ी अलग करती है।
जवाब देंहटाएंवह कहती है कि जब तक हाथ पांव चलेंगे तब तक अकेली जिंदगी का लुत्फ लेगी, जिस दिन हाथ पांव साथ नही देंगे, सारी संपत्ति बेच कर ओल्ड एज होम चले जायेगी। सारी दूनिया घूमते रहती है, पिछले सप्ताह शंघाई गयी थी, सितंबर भारत आ रही है।
अकेले होते हुये भी कभी अकेली नही होती है, जिंदगी के पूरे मजे ले रही है।
अकेलापन हमारे विचारो मे होता है, लोग भीड़ मे भी अकेले होते है, वही कुछ अकेले होते हुये भी लोगो से घिरे होते है।
गृहस्थी को झंझट मानकर एकला चलो का सिद्धान्त अपनाने वालों को बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंअकेला रहना और अकेलापन झेलना अलग अलग स्थिति है .... हर बात के कुछ फायदे और कुछ नुकसान होते हैं .... सतीश जी की बात सटीक लगी
जवाब देंहटाएंसुख दुःख तो अपने मन के होते हैं.
जवाब देंहटाएंआधुनिक विकास की सौगात है अकेलापन .
जवाब देंहटाएंमनुष्य ने विकसित होकर पहला काम सीखा था --समूह में रहना .
आज फिर जीवन चक्कर घूम कर आदि मनुष्य के समय में पहुँच गया लगता है .
हम पश्चिम की तरफ क्यों भाग रहे हैं ......?
जवाब देंहटाएंदरअसल अर्थशास्त्र हावी हो गया है हम पर ...!!अकेलापन पश्चिम की देन है ....!!
'वैसे अकेले रहना, अकेला हो जाना, अकेलापन महसूस करना अलग अलग बातें हैं। कोई जरूरी नहीं कि बन्धु बांधवों और एक सहचरी के सानिध्य के बाद भी कोई अकेलेपन की अनुभूति न करता हो या फिर अकेले रहकर भी अकेलापन महसूस करता हो। किसी ऐसे के साथ जिसके साथ रहना पल पल दूभर हो रहा हो अकेले रहना ज्यादा आनंददायक है। हां कुछ समाजशास्त्रियों ने अकेलेपन के ट्रेंड को मानव सुख शान्ति के लिए अच्छा नहीं बताया है। उनके मुताबिक़ मनुष्य कई बार अपने मन की बात किसी से साझा करने को अकुला उठता है -यह उसका स्वभाव है - ऐसे में वह घनिष्ठता चाहता है, सानिध्य चाहता है किसी बेहद करीबी का। मगर दूसरी ओर कुछ समाज विज्ञानियों का मानना है कि आज अंतर्जाल इस कमी को पूरा करने की भूमिका में उभर रहा है - आज फेसबुक सरीखी सोशल नेटवर्क की साइटें कितने ही मनचाहे लोगों से सम्बन्ध बनाने के नित नए अवसर मुहैया करा रही है। एक वह जो आपका समान मनसा है, समान धर्मा है - एक आत्मा और दो शरीर है - फिर एक अदद पत्नी/पति की जरुरत कहां है? और अब तेजी से बढ़ता ऑटोमेशन घर के सभी कामों को, गृहिणी के कामों को चुटकी बजाते करने को तत्पर है। स्मार्ट माशीने हैं, रोबॉट हैं जो अगले कुछ वर्षों में घर का सब काम संभाल लेंगे।'
जवाब देंहटाएंभाई साहब आखिरी वाक्य में स्मार्ट मशीनें कर लें .नवीनतम लायें हैं आप ब्लॉग जगत में .फिर भी -तुम मेरे पास होते हो ,गोया जब कोई दूसरा नहीं होता .विवाहित लोग अवसाद के कम शिकार होतें हैं .अविवाहित महिलाओं को ब्रेस्ट एवं सर्विक्स कैंसर ज्यादा होता है फिर भी डबल इनकम नो किड्स यानी 'DINK' के बीज भारतीय समाज में भी बोये जा चुकें हैं .पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना .कृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.in/
मंगलवार, 8 मई 2012
गोली को मार गोली पियो अनार का रोजाना जूस
अकेले रहना भी एक कला है ,जिसे साध लेने पर व्योम का विस्तार और एकाकीपन दोनों प्यारा लगता है..अंतिम पंक्तियों में आपने सब कह ही दिया है..
जवाब देंहटाएंगुरुदेव अतिभौतिकता कहीं न कहीं इस चिंतन को बढ़ावा दे रही है |आपका आलेख बोधगम्य और अच्छा है |यह आलेख आज के सच को उजागर कर रहा है |
जवाब देंहटाएंपश्चिम की अपनी समस्यायें है और जीवन के मजे लूटने के अपने रंग ढंग ! क्या किया जा सकता है :)
जवाब देंहटाएंदाम्पत्य जीवन का नहीं होना उनकी जीवन शैली में उनका चयन है ! वंशबेल की चिंता ना सही ! पर एक सुखद संभावना भी है ...
देखिये एशियाई मूल ,खास कर चीन , भारत ,पाकिस्तान , बांगलादेश वगैरह के लोग वहां बहु संख्या में बस रहे हैं सब संभाल लेंगे :)
@अली भाई,
जवाब देंहटाएंबेहतर परफार्म न कर पाने के कारण वहां से धकियाये भी यही जायेगें !
इंसान अकेला ही आया है, अकेला ही जायेगा।
जवाब देंहटाएंभीड़ कितनी जुटा लें लगा लें मेले
सच यही है जहाँ से जायेंगे अकेले
:(
हम पर अर्थशास्त्र हावी हो गया है
जवाब देंहटाएंसामाजिकता की सोच का लोप हो रहा है...
अकेले रहना और अकेलापन निश्चित ही दो अलग बातें हैं. मैं अकली रहती हूँ और खुश हूँ, लेकिन अपने तमाम दोस्तों को जानती हूँ, जो आई.ए.एस. जैसी परीक्षा में चयन के बाद भी खुश नहीं हैं.
जवाब देंहटाएंअकेले रहकर खुश रहना भी सबके बस की बात नहीं है. मेरी तमाम सहेलियां मुझसे कहती हैं कि उन्हें आश्चर्य होता है कि मैं अकेली कैसे रह लेती हूँ, वो कभी नहीं रह सकतीं. पर क्या करूँ, अकेले रहना कुछ हद तक मेरा खुद का निर्णय है और कुछ हद तक परिस्थितिजन्य बाध्यता.
मेरा खुद का निर्णय था- कभी शादी ना करने का क्योंकि बचपन से ही मेरा उद्देश्य समाज के लिए कुछ करना था और औरतों का शादी के बाद ऐसा करना मुश्किल हो जाता है. क्योंकि पति के अलावा उन्हें ससुराल वालों की अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना होता है... मैंने सोचा था कि मैं अपने पिताजी के साथ रहूँगी. पर वो साथ छोड़ गए. सो अब अकेले रहना बाध्यता बन गई. मैंने इसी में अपनी खुशी ढूँढ ली और मैं अपने इस निर्णय से बहुत खुश हूँ. अपने दिल की बात कहने के लिए बहुत से मित्र हैं, जिनमें महिला और पुरुष दोनों ही हैं. ब्लॉगिंग ने भी बहुत से मित्र उपलब्ध कराये हैं. हाँ, फेसबुक जैसी सोशल साइटों के द्वारा मित्र बनाने से मैं अभी कतराती हूँ और कभी 'चैटरूम' में नहीं जाती.
जानती हूँ कि अविवाहित रहने और बच्चे ना पैदा करने के कई जैविक दुष्परिणाम भी हैं, विशेषकर औरतों के लिए, लेकिन ये किसी अनचाहे साथी के साथ जबरन निबाहने से ज्यादा नुकसानदायक नहीं है. कम से कम इसका चिकित्सकीय इलाज तो संभव है.
आज का इंसान केवल अपने ही सुख के बारे में सोंचता है | और नतीजे में दुःख और अकेला पन पाता है | और तब लगता है तलाशने दोस्त, प्यार और अपने इस आभासी दुनिया में | नतीजे में जल्द ही मायूसी हाथ लगती है |
जवाब देंहटाएंप्रभावी लेख
जवाब देंहटाएंbahut बढ़िया लेख ...अकेलापन वाकई सब पर तेजी से हावी हो रहा है ....
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लेख ऐसे लेख मानवीय जीवन की नई समस्या की ओर इशारा करती है
जवाब देंहटाएंपरिवर्तक का दौर है ... अपने से बाहर दिखाई नहीं देता ... शायद जब तक खून में गर्मी रहती है ऐसा होता है ... पर धीरे धीरे उम्र के साथ साथ अकेलापन सताने लगता है ...
जवाब देंहटाएंऐसे में कई बार कगता है अपने पूर्वजों की दृष्टि कितनि दूरगामी थी ...
दरअसल ज़िन्दगी एक पैकेज है यहाँ कडवा मीठा दोनों हैं .कुछ लोग न अकेले रह पाते हैं न किसी के संग क्योंकि वह पैकेज में यकीन नहीं करते या फिर उन्हें मालूम ही नहीं है ,'ज़िन्दगी नफा नुकसान नहीं है' बस जी जाती है साथ निभाते हुए ,सहते हुए सहलाते हुए संतोषी बनके .असल ख़तरा ऐसे ही लोगों से हैं अकेलों से नहीं .बढ़िया लेखन .आपकी टिप्पणियाँ हमारी चार्जिंग करतीं हैं ,लिख्वातीं हैं हमसे निरंतर अच्छा और अच्छा ,अच्छे से अच्छा .शुक्रिया .
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