मंगलवार, 29 नवंबर 2011

कौए की निजी ज़िंदगी

बात यहाँ से शुरू हई यानि  रावेन मिथ  पर कौए पर संपन्न चर्चा से....  यह एक कनाडियन विदुषी और मेरी नयी नयी बनी फेसबुक मित्र  का ब्लॉग है ...उन्हें मिथकों में जीवन्तता दिखती है और मुझे भी ....समान रुचियों वाले और समान धर्मा लोगों के बीच मेल जोल सहज ही हो जाता है ...इसी ब्लॉग पोस्ट पर काक मिथक की सर्व व्यापकता को लेकर विस्तृत जानकारी के साथ ही टिप्पणियों में कौए के बारे में चाणक्य की एक उक्ति का उल्लेख  भी हुआ है ....चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य को तमाम पशु पक्षियों से कुछ न  कुछ सीखना चाहिए और कौए से यह सीखना चाहिए कि यौन संसर्ग सबकी नजरों से  अलग थलग बिलकुल एकांत में करना चाहिए - ...और यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि कौए की  प्रणय लीलाएं और संसर्ग आम नज़रों से ओझल रहती हैं ....यह एक विचित्र पक्षी व्यवहार है .
जंगली कौआ 

खुद ग्राम्य परिवेश का होने के बावजूद मैंने आज तक कौए की इस निजी जिन्दगी का अवलोकन नहीं किया जबकि पक्षी व्यवहार में मेरी रूचि भी रही है ...कहीं इधर उधर घूमते हुए भी मेरी नज़रे बरबस ही आस पास के पेड़ों और पक्षी बसाहटों की ओर उठती रहती हैं -मुझे अक्सर लोगों की यह टोका टोकी भी सुनने को मिलती है कि मैं चलते समय नीचे क्यों नहीं देख कर चलता ..मगर यह विहगावलोकन जैसे मेरा सीखा हुआ सहज बोध सा है . गरज यह कि अपने परिवेश के पक्षी और पक्षी व्यवहार पर पैनी नज़र के बावजूद भी मैंने आज तक कौए के नितांत निजी व्यवहार को देखने में सफलता नहीं पायी है ...मगर बड़े बुजुर्गों की राय में यह मेरा सौभाग्य है ..

अब मेरा सौभाग्य क्यों? इसलिए कि लोक जीवन में 'काक -संभोग'   देखना बहुत ही अशुभ माना गया है . अंतर्जाल पर भी कुछ चित्र और वीडियो हैं मगर मैथुन का दृश्य नहीं है ....एक तो कतई काक मैथुन नहीं लगता बल्कि काक युद्ध सरीखा है ... और मैं उन्हें यहाँ लगाकर मित्रों के लिए किसी भी प्रकार का अशुभ नहीं करना चाहता क्योकि   लोक मान्यता यह भी है कि ऐसा देखना मृत्यु सूचक है ..एक बड़ा अपशकुन है,दुर्भाग्य है . 

पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि कौए खुले में मैथुन नहीं करते ...और इसलिए उनका यह जैवीय कृत्य लोगों की आँखों से प्रायः ओझल रहता है ....मगर वे ऐसा क्यों करते हैं ..उन्हें किससे लज्जा आती है?  और क्या उनका दिमाग लज्जा जैसी अनुभूतियों तक विकसित हो चुका है -ऐसे प्रश्न आज भी पक्षी विशेषज्ञों के लिए पहेली बने हुए हैं -यह खुद की मेरी जिज्ञासा रही है इसलिए इस रोचक पक्षी व्यवहार को आज आपसे साझा कर रहा हूँ ....कौए बाकी पक्षियों से बहुत बुद्धिमान हैं ..एक प्यासे कौए का घड़े से पानी निकालने के लिए उसमें कंकड़ डालते रहने की काक कथा केवल कपोल कल्पित ही नहीं लगती -क्योंकि काक व्यवहार पर नए अनुसन्धान कई ऐसे दृष्टान्तों को सामने रखते हैं जिसमें कौए ने औजारों का प्रयोग किया और उन्हें मानों यह युक्ति कि  " बिना उल्टी उंगली घी  नहीं निकलता " भी मालूम है और वे जरुरत के मुताबिक़ औजारों का आकार प्रकार चोंच और पैरों की मदद से बदल देते हैं -तारों को मोड़ कर ,गोला बनाकर खाने का समान खींच लेते हैं ....वे कुछ गिनतियाँ भी कर लेते हैं ....जैसे अमुक घर में कितने लोग रहते हैं ये वो जान जाते हैं और सभी के बाहर जाने के बाद वहां आ धमकते हैं..पक्के चोर भी होते हैं ..घर से चमकीली चीजें उठा उठा कर ये अपने घोसले को अलंकृत करते रहते हैं ...मुम्बई में एक बार एक कौए के घोसले से कई सुनहली चेन वाली घड़ियाँ बरामद हुयी थीं ....
घरेलू कौआ (दोनों चित्र विकीपीडिया ) 
लोक कथाओं के रानी के नौ लखे हार को कौए ने चुराया था -यह भी कथा बिल्कुल निर्मूल नहीं लगती  ....मतलब यह कि काक महाशय बड़े शाणा किस्म के प्राणी हैं -अपने आस पास कोई काक दम्पति देखें तो भले ही आप उनसे बेखबर रह जायं वे आपको लेकर पूरा बाखबर और खबरदार रहते हैं ... :) और तो और पक्षी विज्ञानी बताते हैं कि इनका एकनिष्ठ दाम्पत्य होता है मतलब जीवन भर एक ही जोड़ा रहता है इनका .....अब इतनी खूबियों और कुशाग्रता के बाद हो न हो इन्हें खुले में यौनाचार करने में शर्मिन्दगी आती हो, कौन जाने? आश्चर्यजनक है अभी तक इस आश्चर्यजनक काक -व्यवहार की व्याख्या पर मैंने किसी भी पक्षी विज्ञानी को कुछ लिखते पढ़ते नहीं सुना है ...आखिर वे आड़ में मैथुन क्यों करते हैं? 

कौए के व्यवहार के और भी बड़े रोचक पहलू हैं ..राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत के पक्षी " (प्रकाशन विभाग ) में लिखा है कि भारत में चित्रकूट और कोडैकैनाल (दक्षिण भारत ) में कौए नहीं पाए जाते ..मुझे यह बात पता नहीं थी ..नहीं तो चित्रकूट तो कई बार जाना हुआ है ..ध्यान से देखते !....अब चित्रकूट में वे क्यों नहीं मिलते इसकी एक मिथक -कथा है . वनवास के समय सीता की सुन्दरता से व्यामोहित इंद्र के बेटे जयंत ने कौए का रूप धर उनके वक्ष स्थल पर चोंच मारी थी.  कुपित राम ने उसे शापित किया था -लोग आज भी कहते हैं इसी कारण कौए चित्रकूट में नहीं मिलते --मगर इसका वैज्ञानिक कारण क्या हो सकता है समझ में नहीं आता क्योंकि चित्रकूट तो एक वनाच्छादित क्षेत्र रहा है ....वहां से भला कौए क्यों पलायित हो गए? 

कौए की कोई छः प्रजातियाँ भारत में मिलती हैं ..सालिम अली ने हैन्डबुक में दो का ही जिक्र किया है -एक जंगली कौआ(कोर्वस मैक्रोरिन्कोस ) तथा दूसरा घरेलू कौआ( कोर्वस स्प्लेन्ड़ेंस)...पहला तो पूरा काला कलूटा किस्म वाला है दूसरा गले में एक भूरी पट्टी लिए  होता है -शायद इसी को देखकर तुलसीदास ने काग भुशुंडि नामके अमर मानस पात्र की संकल्पना की हो ... जिसके गले में कंठी माला सी पडी है ....यह काक प्रसंग अनंत है -फिर कभी अगले अध्याय की चर्चा की जायेगी ....
पुनश्च:
गिरिजेश जी ने एक काग साहचर्य का अनुपम उदाहरण फोटू यहाँ दिया है ....

रविवार, 27 नवंबर 2011

अब हमारे बीच में है शब्द की दीवार ........

बच्चन जी मेरे मेरे प्रिय कवियों में रहे हैं .आज उनका जन्मदिन है .मेरा मन भी कल से ही उझ-बुझ सा उद्विग्न है ...तो क्यों न आज उनकी यह कविता आपसे मैं साझा कर लूं -यह कहा भले ही जाता हो कि कवितायेँ बड़ी व्यक्तिपरक,व्यष्टिगत  होती हैं मगर उत्कृष्ट रचनाएं दरअसल समष्टि -जन जन की पीड़ा-मनोभावों से जा जुड़ती हैं और इस अर्थ में कालजयी बन जाती हैं -बच्चन जी की निम्न कविता कुछ इसी श्रेणी की कविता है -

क्षीण कितना शब्द का आधार! 

मौन तुम थीं ,मौन मैं था,मौन जग था, 
तुम अलग थीं और मैं तुमसे अलग था ,
जोड़-से हमको गए थे शब्द के कुछ तार 
क्षीण कितना शब्द का आधार! 

शब्दमय तुम और मैं,जग शब्द से भरपूर ,
दूर तुम हो और मैं हूँ आज तुमसे दूर 
अब हमारे बीच में है शब्द की दीवार 
क्षीण कितना शब्द का आधार! 

कौन आया और किसके पास कितना ,
मैं करूं अब शब्द पर विश्वास कितना 
कर रहे थे   जो  हमारे  बीच छल व्यापार 
क्षीण कितना शब्द का आधार! 

(हरिवंश राय बच्चन,२७ नवंबर १९०७ – १८ जनवरी २००३ 
कवि कर्म कौशल से सर्वथा विहीन मुझ जैसे व्यक्तियों का क्या हुआ होता जो अगर बच्चन सरीखे कवि न जन्मे होते, तब  अपने मन के भावों को कभी व्यक्त ही न कर पाते हम -आज ये कालजयी युग द्रष्टा कवि घोर पीड़ा ,दिशाहीनता और हताश क्षणों में  हमारी वाणी बन जाते हैं ...और अभिव्यक्ति  का सहारा  बन मानो  व्यथा को कुछ पल के लिए ही हर लेते  हैं ......शत शत नमन ......

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

तीस वर्षों बाद ननिहाल की एक अतीत यात्रा

मशहूर ब्रितानी विज्ञान फंतासी लेखक एच जी वेल्स की फंतासी -जुगत टाईम मशीन में ही नहीं वास्तविक संसार में भी स्थान परिवर्तन करके आप अतीत गमन की अनुभूति बटोर सकते हैं -अतीत विरही हो सकते हैं ..खुद को समय में पीछे गया हुआ पा सकते हैं -डेजा वू या जामिया वू जैसी झुरझुरी महसूस कर सकते हैं -ऐसा ही कल कुछ हुआ जब मैं अपने मूल जनपद के ही एक उस भौगोलिक हिस्से में पंहुचा जो मेरी ननिहाल है ...और पूरे तीस साल बाद मैं  वहां एक श्राद्ध अनुष्ठान जिसे गया का भात कहते हैं और जो पुरखों की स्मृति में किया जाता  है  में हिस्सा लेने पहुंचा ..मेरा ननिहाल जौनपुर शहर से दस किलोमीटर दक्षिण की ओर है जहां  बगल से जौनपुर -इलाहाबाद  रेलमार्ग गुजरता है -सटा हुआ रेलवे स्टेशन सल्खापुर है ....मैं बिलकुल बचपन में भी ननिहाल में नहीं रहा ...और नाना के सानिध्य सुख से ज्यादातर वंचित ही रहा यद्यपि उनका गौर वर्ण और लम्बी कद काठी  मुझे आकर्षित करती  -वे प्रायः मेरे घर पर (अपने समधियान ) ही आते रहते ...मेरे दादा जी और उनमें कहीं कुछ संवादहीनता सी थी ....और मुझे जान से भी ज्यादा प्यार करने वाले दादा जी को यह गुजारा नहीं था कि मैं ऐसे बीहड़ जगह जो तब चम्बल के बीहड़ों की सी प्रतीति कराता था जाऊं ....मगर यह कोई बात हुयी भला? ननिहाल से भी भला कोई बच्चा जहां उसकी माँ का जन्म हुआ हो पृथक किया जा सकता है ..मगर तब के अनुशासन बहुत कठोर थे -उन्हें तोड़ने की हिम्मत किसी को न थी ..मगर मैं भी तो कोई कम नहीं..बचपन से ही जड़ परम्पराओं का विद्रोही! ..जैसे ही स्नातक की शिक्षा पूरी हुयी नैतिकता और बुद्धि का आवेग उभरा ,मैं ननिहाल जाने लगा बिना माँ के साथ ही ...
 यह दृश्य दिखते ही छठी हिस ने ननिहाल पहुँचने का संकेत दे दिया
और माँ ही कहाँ मायका प्रेमी थी और हैं ,आज भी? शायद विश्व की अकेली माँ हैं मेरी जो  मायका प्रेम से सर्वथा मुक्त हैं कम से कम प्रगटतः तो अवश्य ही ....और यहीं वह धुर विरोधाभास भी है माता जी और पत्नी के व्यवहार का  -पत्नी जी धुर मायका प्रेमी हैं -मैं वास्तव में इस मामले में तटस्थ रहने की कोशिश करता हूँ - मेरा झुकाव ननिहाल की ओर ही रहता है ..ननिहाल प्रेम मेरे वन्शाणुओं (जींस) में ही है... बचपन में विवश था वहां जा नहीं सकता था ...नाना घर ही आ जाते थे -मुझसे ही मिलने आते होगें ..विजयप्रकाश मामा भी आते और खूब साईकल पर घुमाते और फिर चले जाते मगर मुझे ननिहाल जाने की  मनाही थी ...परवश मैं भला क्या करता ....इसलिए थोड़ा होशियार होते ही खुद ही ननिहाल जाने लगा  ....जौनपुर के भंडरिया स्टेशन पर अल्लसुबह पांच बजे जा इलाहबाद पसेंजर (ऐ जे ) पकड़ता और अगले १० मिनट में सल्खापुर स्टेशन से पैदल मटरगश्ती करता ननिहाल जा पहुँचता .....उन्ही दिनों मेरे एक मामा जी जो बडौदा गुजरात में रेलवे के ऊँचे पद पर थे के कान्वेंटी स्कूल के पढ़े लिखे समवयी   बेटे प्रमेश चौबे से मुलाकात हुयी जो  बज्र देहात  में भी मेरी सोहबत में सकून पाने लगे  ...और वे आगे हर छुट्टियों में मामा के साथ आने लगे और हमारी जोड़ी जमने लगी ....उनका कान्वेंटी होना और मेरा बज्र देहाती होना कभी संवादहीनता का कारण नहीं बना बल्कि यह शायद सम्बन्धों के लिए सिनेर्जिक बन गया .....आज भी .....इस बार का बुलावा भी  उन्ही की तरफ से था.....
पितरों के श्राद्ध का अनुष्ठान समापन हवन:मेरी एक मामी श्रीमती सत्यप्रकाश जी पूरे घूंघट में

मेरा विवाह हुआ तो शायद मेरे स्वजनों की आशा जगी थी कि मेरी ननिहाल की उत्कट उन्मुखता कम होगी -मगर मैं  अपने सर्वप्रिय कवि संत तुलसी की इस बात -'ससुरार पियार भई जबसे रिपु रूप कुटुंब भये तबसे' के भी विपरीत हो रहा और ननिहाल प्रेम बना रहा ....हाँ  नौकरी में आने के बाद तो ननिहाल स्वप्न सा हो गया ....लेकिन जब प्रमेश ने यह बताया कि वे सपरिवार एक  अनुष्ठान में हिस्सा लेने गाँव पधार रहे हैं तो मेरा फिर से वही सुषुप्त ननिहाल प्रेम उमड़ पडा ..माता जी से फोन पर बात हुयी... वे सहज ही अनुत्सुक लगीं मगर मैं गाँव गया और उन्हें लेकर ननिहाल पहुंचा ...रास्ता भूलते भटकते ....लेकिन जैसे ही बीहड़ जिसे यहाँ की बोलचाल की भाषा में नार खोर कहते हैं दिखा मेरी छठी हिस सजग हो गयी -माता जी से बोल पडा ..देखिये हम आ पहुंचे -और सामने ही तो घर दिखा मगर वो पुराना मकान  नहीं, नए नए निर्माण ..मामा लोग जो रिटायर होकर आ गए हैं उनके ....एक मामा तो लखनऊ में हैं शिक्षा विभाग से रिटायर हुए हैं प्यारे मोहन जी -कितना आग्रह किया है कि मैं लखनऊ आऊँ ..माता जी के बिना कहे मैंने अनुष्ठान में ५०० रुपये का निमंत्रण दिया तो उन्होंने मुझे १०००/ रूपये वापस किया -बड़ी धरहरिया (आर्गूमेंट ) होने लगी मगर वे अडिग रहे की घर की बेटी के न्योता की वापसी का यही रिवाज है ...वाह रे भारतीय सामाजिकता कितने ही प्रवंचनो के बावजूद भी रीति रिवाज निभाये जा रहे हैं ..प्रमेश कोटा में फाईबर केबल बिछाने वाली और भारतीय रेलवे के  एक उपक्रम में बड़े अफसर हैं दोनों बेटों को लेकर आये थे..मेरे दूसरे मामा रजनीश बडौदा से आये थे .....माता जी को मिली बडौदा की कीमती साड़ी पर उनकी दोनों बहुओं की आह निकल गयी -माँ का मायका /नैहर आज भी देनदारी में नंबर वन पर है -हंसी ठिठोली  हुई:) 
 एक मामा प्यारेमोहन जी और उनके बाएं प्रमेश तथा अन्य कुटुम्बजन  हविदान करते हुए
सब अपनी जड़ों की देख भाल के लिए वापस लौट रहे हैं और मेरे ननिहाल की रौनक फिर बढ़ने लगी है .....पूर्वजों के श्राद्ध को सब मामा और उनके पुत्रों ने मिलकर किया है ..उसी के क्रम में गया के भात का बड़ा अनुष्ठान था जिसमें नात रिश्तेदारों को निमंत्रित किया गया था....यह एक नेक काम था इसलिए यहाँ भागीदारी मैं अपना सौभाग्य समझ रहा था ....अतीत की कितनी ही स्मृतियाँ उमड़ घुमड़ आयी हैं मगर यहाँ व्यक्त कर पाना दूभर हो रहा है ....कभी रेखा श्रीवास्तव जी ने मुझसे गर्मियों की छुट्टियों पर  संस्मरण मांगे थे ....मैं वही लिंक देना चाहता हूँ ....अतीत गमन से वापस वर्तमान में आ चुका हूँ ....

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

सनी लियोन के बहाने बदलती भारतीय यौनिकता पर एक बहस(A)..

नोटिस:यह पोस्ट शुचितावादी नैतिकता  आग्रही बन्धु बांधवियों को आपत्तिजनक लग सकती है!अतः वे इसे अपनी जोखिम पर पढ़ें!  लिंक भी आपत्तिजनक हो सकते हैं!पारिवारिक परिवेश में कृपया उद्धृत लिंक को न खोलें! 


 बिग बॉस सीजन पांच की गिरती टी आर पी को संभालने के लिए आयोजकों /निर्माताओं को  कैलिफोर्निया की हार्ड कोर पोर्न स्टार  सनी लियोन को आमंत्रित करने का  फैसला करना पडा है जिसके अपने स्पष्ट निहितार्थ हैं. मजे की बात यह है  कि बिग बॉस के घर में बचे सदस्यों को सनी लियोन के बारे में  पता ही  नहीं है कि वे एक पोर्न स्टार हैं और एक तरह से निर्माताओं ने घर के सदस्यों से  छल किया है ....बिग बॉस में पहले पामेला एंडरसन आ चुकी हैं मगर उनका पोर्न स्टार जैसा  कोई खुला स्टेटस नहीं रहा है हालांकि उनके भी कई अश्लील अवैधानिक चित्र/वीडिओ  अंतर्जाल पर मौजूद हैं ...एक आम  संवेदनशील भारतीय दर्शक को पामेला की 'सुन्दरता ' वीभत्स लग सकती है जबकि लियोन  खूबसूरत हैं और सौन्दर्य के भारतीय प्रतिमानों के अनुकूल भी ..आपके दर्शन सुख के लिए उनका एक सात्विक चित्र नीचे लगा रहा हूँ .. उनकी  आफिसियल वेबसाईट पर भी कहीं कोई दुराव छुपाव नहीं है सब बातें पारदर्शी है बिंदास हैं, खुल्लमखुल्ला हैं ....वे दर्शकों को एक पूर्वावलोकन का आमंत्रण देकर कहती हैं कि अगर आपको और ज्यादा देखना हो तो फिर मेरी वेबसाईट पर पंजीकृत होईये मगर वहां प्रतिदिन के हिसाब से डालरों में भुगतान की व्यवस्था है ...जाहिर है यह सब  सौन्दर्य को, यौन क्रीडा प्रदर्शनों  को भी भरपूर भुना लेने की व्यावसायिक मानसिकता लिए है  ....यौनिकता के व्यवसाय का यह खुला खेल /दुष्चक्र /धंधा  पश्चिम के लिए कोई नया नहीं है मगर भारतीय संदर्भ में स्वच्छन्द यौनिकता का यह आह्वान गले नहीं उतरता ....बिग बॉस के निर्माता /निर्माताओं की यह जुगत उन पर भारी पड़ने वाली है ऐसा मुझे लगता है -दोष सनी लियोन का नहीं है क्योकि वहां तो कोई दुराव छुपाव है ही नहीं, सब कुछ शीशे सा साफ़ है ...मगर बिग बॉस के लोगों की नीयत में स्पष्ट खोट है जिनका साध्य और साधन सब कुछ गन्दी मानसिकता लिए लग रहा है ....

बिग बॉस के घर में घुसते ही वहां पहले से ही मौजूद सदस्य पूजा बेदी ने सहज ही लियोन से पूछ लिया कि उनका प्रोफेसन क्या है तो असमंजस से  लियोन  ने कहा माडलिंग /टी वी शोज ... यहाँ घर के सदस्यों को   यह पता नहीं कि उनका साहचर्य अब किसके साथ है ....यह तो सरासर छल है, आपत्तिजनक है ..गैर कानूनी भले न हो मानवीय संचेतना के विरुद्ध है और इसलिए अनैतिक है ....उन्हें कैसा लगेगा जब यह पता लगेगा कि वे अपने सरीखे  कोई   नए मेहमान नहीं बल्कि एक हार्ड कोर पोर्न  स्टार के साथ समय बिताये हैं? तब क्या  वे खुद को छला हुआ महसूस नहीं करेगें? या फिर वे भी कुछ वैसी ही शख्सियतें रखते हैं?

हाँ दर्शकों को अब लियोन के बारे में सब कुछ पता है -थैंक्स टू मीडिया और अंतर्जाल! उनके भारत आगमन पर मीडिया और नेटवर्क साईटों में सुगबुगाहट शुरू हो गयी ...सवालों के बौछारों में लियोन वैश्या  और पोर्न स्टार के फर्क को समझाती रहीं -झल्ला कर कहा मैं वैश्या नहीं हूँ!पैसे लेकर उन्मुक्त कामक्रीड़ा की संलग्नता के बावजूद वे वैश्या नहीं हैं यह बात भारतीय आडियेंस को कैसे गले उतर सकती है ....मैंने इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए विकीपीडिया के इस पृष्ठ का अध्ययन किया जो पोर्न स्टार की परिभाषा और वैधानिक सावालों का पर्याप्त उत्तर देता है ....पश्चिम में भी खुले व्यभिचार /अश्लीलता को रोकने के कड़े कानून हैं ....और पोर्न स्टार और वैश्या के अन्तर्सम्बन्धों  को बखूबी परिभाषित किया गया है! वहां भी व्यावसायिक अश्लीलता को वैश्यावृत्ति के बराबर ही मानने के  वैधानिक दृष्टांत  हैं ...अगर यौन आमंत्रण तथा यौन क्रिया के लिए भुगतान की शर्त है तो यह वैश्यावृत्ति है और अगर यह सृजनात्मक कार्यों -फिल्म आदि में नग्न देह प्रदर्शन या  यौनक्रिया का  अभिनय प्रदर्शन है तो यह वैश्यावृत्ति नहीं है -ऐसा एक  विभेद कैलीफोर्निया  राज्य के विधायी प्रावधानों के अंतर्गत है ...मगर इन बारीक भेदों का फायदा उठा वहां अश्लीलता का व्यवसाय खूब फल फूल रहा है ....स्पष्ट है लियोन कह भले कुछ लें वे देह व्यापार में ही लिप्त हैं ...मगर न जाने क्यों वे इस बात को भारतीय मीडिया के सामने छुपा रही हैं जबकि अंतर्जाल पर सब कुछ साफ़ साफ़ दिख रहा है ...

मुझे भी  ऐसा खुला दैहिक प्रदर्शन ,वासना का खेल पसंद नहीं है ...यह एक व्यसन है एक व्यभिचार है .. ....यह खुलापन  भारतीय मन स्वीकार नहीं कर सकता ...लियोन जहाँ हैं वहीं ठीक हैं -इस तरह उन्हें भारतीय टी वी शो में लाकर दर्शकों में  परोसना एक कुत्सित मानसिकता है ..और निश्चय ही बिग बॉस का यह सीजन बुरी तरह फ्लाप होने वाला है ...क्योकि टी वी एक पारिवारिक परिवेश का अंग है और यहाँ ऐसे शो स्वीकार्य नहीं हो सकते ...जहां उन्मुक्त यौन सबंध की पक्षधर, उसकी एक ब्रैंड अम्बेसडर सामने हो और रियल्टी शो में जम कर भागीदारी कर रही हो ....मगर हाँ भारतीय संदर्भ में लियोन के पदार्पण ने यहाँ की संभ्रमित नारी नारीवादियों का जरुर पुरजोर आह्वान कर दिया है  जिसमें वे नारी उन्मुक्तता आधुनिकता और जीवन जीने, रहन सहन के अधिकार से जुड़े कई प्रश्नों का उत्तर ढूंढ सकती हैं और आश्वस्त हो सकती हैं ....

रविवार, 20 नवंबर 2011

एक अतुकांत कविता ...युगांतर की आस!

कविता लय  ताल यानि छंद बद्ध अर्थात  तुकबंदी युक्त होनी चाहिए या फिर बिना तुकबंदी के, इस पर विद्वानों के बीच निहायत साहित्यिक /अकादमिक किस्म के गंभीर वाद विवाद होते रहते हैं -कोई कहता है जब कविता लय ताल बद्ध होती है तो वह प्रकृति के ही लय ताल से जुडती है और ऐसी  उपलब्धि बहुत साधना के बाद हासिल होती है ....उनके लिए लयताल निबद्ध कविता ब्रह्म के नाद सौन्दर्य से तालमेल करती नज़र आती है और मन को निसर्ग से जोड़ने में सफल होती है ..वहीं छंद मुक्त  कविता के समर्थक तुकबंदी की कविताओं में  भावनाओं के उन्मुक्त बहाव को बाधित हुआ पाते हैं ..बहरहाल बहस जारी है और इसी की आड़ में मैं एक अतुकांत कविता आपको झेलने के लिए यहाँ पोस्ट कर देता हूँ .... :) 
युगांतर की आस
फूलों की वादियाँ 
बुलाती हैं  मुझे बार  बार 
खिंचता उनके मोहपाश में
पहुंचता हूँ जब उनके पास 
तो अचानक वे ओढ़ लेती हैं 
बर्फानी चादरें,
फूलों की घाटी तब्दील 
होती जाती है बर्फानी वादियों में
और मैं हतप्रभ  बर्फ के  ढेर को 
अपनी उँगलियों से
 कुरेदता हूँ इस चाह में कि
 नीचे दबे उन मोहक फूलों का
 दीदार हो सके 
मगर नीचे तो एक 
धधकता ज्वालामुखी सा 
आकार  लेता दीखता है 
और मैं फिर डरता हुआ 
हठात उँगलियों को खींचता 
देता हूँ खुद को दिलासा 
कि कभी तो हटेगीं 
ये बर्फानी चादरें,
नीचे दबा ज्वालामुखी
 कभी तो शांत होगा
बहारें कभी तो आयेगीं ..
और मैं ठहर जाता हूँ 
एक युगांतर की आस लिए ...
अब यह पूछने की हिम्मत या बेहयाई कैसे करूँ कि कविता कैसी है? 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

हुई ब्लॉग की वापसी -कृतज्ञता ज्ञापन!

परसों यानि १६ नवम्बर   की बात है जब शाम को नेट पर एक बहुत जरुरी (ब्लागिंग नहीं!) काम कर रहा था और अचानक एक पाप अप खिड़की खुली और सन्देश मिला कि मेरा जी मेल अकाउंट डिसेबल कर दिया गया है ..मैंने इसे एक स्पैम माना और मेसेज डिलीट कर दिया ...काम पूरा करके जो दरअसल यहाँ के लिए एक संक्षिप्ति (सारांश )  थी ...जैसे ही  भेजना चाहा अपने अकाउंट में लागिन नहीं कर पाया और वही सन्देश फिर आया कि आपका जी मेल अकाउंट डिसेबल कर दिया गया है ...एक अनहोनी का अहसास कंपकपी सा दे गया ...तो यह समस्या वास्तविक थी .....जी हाँ सौ फीसदी वास्तविक और मेरे पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी ..मैं घबराहट के मोड में आ चुका था ....आनन फानन ब्लॉगों का हालचाल लेने गया और वहां प्रमुखता से जो सन्देश उभरा उसने मेरा रहा सहा धैर्य भी किनारे कर दिया -'आपके ब्लाग को रिमूव कर दिया गया है' सन्देश ने मेरी सिट्टी पिट्टी गुम कर दी...ब्लॉग क्या, पूरा ब्लॉगर  डैश बोर्ड ही गायब था ....मैंने इधर उधर कुछ प्रयास किये मगर मामला गंभीर होने का अहसास मुझे हो गया -कोई बड़ी अनहोनी हो चुकी थी ...

अब हम आपको क्या बताएं क्या क्या न हो गया चंद पलों में ...लगा यह संसार नश्वर है ..लगा कि आभासी दुनियाँ में से मैं चल बसा ...कहीं इस सदमे से वास्तविक दुनियाँ से भी नाता न छूट जाय इसलिए अपनी उन तमाम जीवनीय शक्तियों का आह्वान किया जो अब तक के बहुत बुरे वक्त में मेरे काम आयी हैं और अपने को संभाला ...लेकिन ऐसा जरूर आभास हो गया कि मेरी एक टेम्पररी मौत हो चुकी है और अगर अब और देर पी सी पर रहा तो बड़ी घटना घट सकती है इसलिए उसे तुरंत आफ कर दिया -इस वक्त भी उन क्षणों को याद कर सारे शरीर में एक झुरझुरी सी फ़ैल जा रही है ....मुझे सबसे बड़ी चिंता ईमेल अकाउंट की हो रही थी जिस पर कितने ही लेबल ,डाक्यूमेंट ,बुकमार्क सेव थे और मैं अब पूरी दुनियाँ से कट चुका था -मेरा पूरा प्रोफाईल गायब था ,पिछले तीन -चार सालों की मेहनत मिट्टी में मिल चुकी थी ....सभी ब्लॉग -साईंस फिक्शन इन इंडिया ,साईब्लाग और क्वचिदन्यतोपि  गायब थे....फिर दिल और दिमाग का खुद को तसल्ली देने का सिलसिला शुरू हुआ -"क्या है तुम्हारे लिए लेखन ....यह तो हाथ का मैल रहा है ...लिखा जैसे हथेली को रगड़ा और मैल को फेक दिया ..अपने लिए तो था नहीं लेखन(इदं न मम)  दूसरों के लिए था गया सो गया उसके लिए क्या सोच! आदि आदि " अब केवल समस्या मेल अकाउंट की थी जो भीषण लग रही थी ... घबराहटें गतिविधियों की एक चेन प्रतिक्रिया शुरू करा देती हैं ..मैंने उससे सायास बचने की कोशिश तो की मगर पूरी तरह सफल नहीं हुआ ..

उसी समय उम्मतें वाले  अली भाई का फोन आया तो उन्होंने बी एस पाबला जी से फ़ौरन सलाह लेने की बात की ..मैंने उन्हें फोन मिलाकर समस्या बताई तो उन्होंने पहले तो बड़ी खरी खोटी सुनायी कि उनके बार बार सलाह के बाद मैंने बैक अप क्यों नहीं लिए थे-मगर अब इन बातों का कोई फायदा नहीं था ...यह वे भी समझ गए और बात को आखिरी मुकाम पर लाते हुए मुझसे ई मेल आई डी और पासवर्ड माँगा ...वक्त की नजाकत और  पाबला जी की इंटिग्रिटी को देख मैंने उनके सलाह के  मुताबिक़ उन्हें सौप दी ....अब जो होगा देखा जाएगा की राह पर आ गया था ....एक मजे की बात है कि आकस्मिक अवसाद  के क्षणों में मुझे नींद आने लगती है -यह एक विचित्र व्यवहार है मगर मेरे लिए सदैव जीवनदाई रहा है..शायद  मेरे मस्तिष्क  ने खुद को ऐसा प्रोग्राम्ड  कर रखा है ..मैं सो गया ....पत्नी का कहना था कि उनके वैवाहिक जीवन का वह पहला मौका था जब मैंने रात का खाना नहीं  खाया था -ये मुई ब्लागिंग जो न करा दे ....उन्हें इस मौके की बेसब्री से तलाश थी कि कोई रात तो मैं उन्हें महिला श्रम से मुक्त कर दूं -और यह सुनहरा मौका उनके जीवन में आन पहुंचा था ....सुबह तीन बजे ही नींद खुल गयी ..कम्यूटर की ओर  देखने का भी मन नहीं हो रहा था ..उजड़ी दुनियाँ को भी कोई मुड़ कर देखना चाहता  है भला! बेमन बिस्तर पर पड़े करवटें बदलता रहा -गूगल की गुंडागर्दी पर कुढ़ता रहा ...मन मार कर उठा,कंप्यूटर आन कर सीधे फेसबुक पर गया ..सोचा चलो यहाँ तो अपुन का वजूद है ..अपने हादसे को वहीं लिख मारा ....सुबह मेरी प्यारी रोजाना की सुबह -सुबहे बनारस आ पहुँची थी -तय किया अब वर्डप्रेस में जाकर नया ब्लॉग बनायेगें -सुबहे बनारस .....फिर सोचा नहीं नहीं अब ब्लागिंग से बिना टंकी पर चढ़ने के आरोपण के कुछ राहत तो मिलेगी -यह सब तो छुपा हुआ वरदान -अंगरेजी में बोलें तो 'ब्लेसिंग इन डिज्गायिज ' है -इस मौके का मुझे लाभ उठाना चाहिए ...ऐसे न जाने कितने ही विचारों की रेल पूरी ताकत से दिमाग में दौड़ रही थी ....

इस बीच मित्रों के फोन आने शुरू हो गए थे ..संतोष त्रिवेदी जी इसमें आगे रहे और मास्टर ब्लास्टर ब्लॉगर प्रवीण त्रिवेदी जी ..अनुराग जी का फोन पिट्सबर्ग से आया ...गिरिजेश जी दिल्ली प्रवास  पर होने के बाद भी फोनियाये और हम लोग काफी देर तक आभासी जीवन की निस्सारता पर विचार मग्न रहे ...अनूप शुक्ल जी ने एस एम् एस भेजकर मुझे एक लिंक के सहारे मेरे ब्लागों की हूबहू आर्काईव ही सौंप दी ...कल शाम उनका भी फोन आया ....फेसबुक पर अल्पना वर्मा जी ,आराधना चतुर्वेदी जी ,रैंडम स्क्रिबलिंग वाली ज्योति मिश्र ने, अपने उन्मुक्त जी ने ,राजेन्द्र स्वर्णकार जी ,रायकृष्ण तुषार,पंकज मिश्र,  ..  और भी कई सुहृदों ने ऐसे नाजुक मौके पर मेरा हौसला बनाये रखा और कुछ और भी मित्राणियों ने नामोल्लेख न करने की रिक्वेस्ट के साथ अपने सुझाव और हौसले दिए(वे ऐसी गोपनीयता क्यों बरतती हैं :( )  ....शिव मिश्रा जी ने फेसबुक पर मेसेज भेजकर हालात का जायजा लिया .....अमरेन्द्र जी ने अनुभवों को आपसे बाँटने को प्रेरित किया ...बेटे कौस्तुभ ने अपनी बड़ी व्यस्तता के बावजूद भी बंगलौर से फोन पर जरुरी टिप्स दिए ..बेटी प्रियेषा ने दो टूक कहा कि पापा इस मौके का फायदा उठा आप व्यायाम को प्राथमिकता देकर पहले अपना मोटापा दूर कीजिये ....हाँ उसे भी मेरे ब्लाग्स के गायब होने का बड़ा मलाल था ....पत्नी ने कल शाम को बताया कि मुझे बुखार भी हो आया है ....बहरहाल अब किस्सा  कोताह यह कि मित्रों की मदद और शुभकामनाओं के चलते  २४ घंटों के भीतर मेरा मेल अकाउंट बहाल हो गया है और सुबह सुबह ब्रह्म बेला में जयकृष्ण तुषार जी ने फोन करके अति प्रिय सूचना दी की मेरे ब्लागों की वापसी हो चुकी है ....लगा जैसे जन्नत की वापसी हो गयी हो ...उनकी मिठाई ड्यू हो गयी है ..हाँ अब यह मुद्दा मेरे और सभी के लिए बहुत मौजू बना है कि अंतर्जालीय वजूद में रहने के लिए  हमारी सावधानियां और तरीके बड़े पुख्ता किस्म के होनी चाहिए .....बाकी कुछ और विवेचन टिप्पणियों में होंगे ही ...
मित्रों बहुत आभार आपका 

रविवार, 13 नवंबर 2011

आप किस बच्चे को ज्यादा प्यार करते हैं?

टाईम पत्रिका के ताजे अंक (नवम्बर १४,२०११) की आमुख कथा बच्चों के प्रति माँ-बाप के भेदभाव पर केन्द्रित है ....क्या हम अपने बच्चों में किसी को कम किसी को ज्यादा चाहते हैं? क्या इसका कोई जैवीय /जीनिक आधार भी है या फिर सामाजिकता और परिवेश ऐसे निर्णयों पर हावी हैं ? टाईम का आलेख निर्णायक  नहीं है ....बल्कि संभ्रमित अधिक करता है ....वह पशु पक्षियों पर किये अध्ययनों का सहारा लेता है -जहां श्रेष्ठ की उत्तरजीविता ज्यादा मायने रखती है और इसलिए वहां वही ज्यादा प्यार दुलार पाता है जो बलिष्ठ ,हृष्ट पुष्ट होता है और संतति संवहन में सर्वथा समर्थ लगता है -आखिर वही तो वंश परम्परा का संवाहक है! इसलिए ही पेंगुइनें छोटे और कमज़ोर अंडे को खुद पैर से ढकेल बाहर करती है और ईगल(गरुंड) पक्षी की एक प्रजाति की माँ अपने ही एक बलशाली बच्चे को अपने से कमज़ोर का चीथड़ा उड़ाते देखकर भी चुपचाप रहती है .....तो क्या मनुष्य में भी कोई ऐसी ही प्रवृत्ति अंतर्निहित  है?  क्या वह भी अपने होनहार बच्चे को ही ज्यादा मानता है? उस पूत को जिसके पाँव पालने में ही दिख जाते हैं? 



लेखक जेफरी क्लुगर ने एक अध्ययन के हवाले से कहा है कि ७० फीसदी पिताओं और ६५ फीसदी माताओं में बच्चों के प्रति ऐसे भेदभाव के प्रमाण मिले हैं हालाँकि वे ऐसी किसी बात को प्रत्यक्षतः प्रगट नहीं करते ....पिता के मामले में प्रायः उसकी सबसे छोटी बिटिया और माँ के मामले में उसका सबसे बड़ा लड़का ..यानी 'पैलौठी" -पहला बच्चा -लड़का!..पैलौठी के बच्चे को पसंद करने का एक और कारण अध्ययन में  बताया गया है जिसे   जिसे "रूल आफ संक कास्ट"(rule of sunk cost) कहा गया है और जो कारपोरेट जगत का माना जाना नियम है -जिस प्राडक्ट पर जितना अधिक धन -संसाधन लगता है उसे व्यवसाय जगत ज्यादा फलना फूलना देखना चाहता है ....सबसे बड़ा बच्चा ऐसा ही एक कैपिटल है माँ बाप के  लिए ....मगर क्या मानव सम्बन्ध ठोस व्यावसायिकता से प्रेरित हैं? 

अपने एक लंगोटिया मित्र  से बिना उनकी अनुमति के क्षमा याचना  सहित  उनके   बचपन की  एक बात यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ. उनकी माँ  ने उनसे एक बार कहा था  -" पैलौठी के बच्चे को तो जन्म लेते ही मर जाना चाहिए, जीवन भर उसे जिम्मेदारियों का बोझ और तरह तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं " कहना न होगा कितना खराब लगा था तब उन्हें यह सुनकर मगर माँ का  प्रसाद मानकर मेरे मित्र ने  यह ग्रहण किया था  ....लेकिन  क्या यह वाकई सच है? पता नहीं ये  इमोशनल बातें यहाँ उठाना भी चाहिए या नहीं मगर मेरे मन में बैठा विज्ञानी इन सबसे पूरी तरह तटस्थ है और वह तथ्यान्वेषण को ज्यादा तवज्जो देता है? ऐसे  उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें सबसे कमजोर बच्चे के प्रति माँ बाप का स्नेह (माँ का विशेष ) ज्यादा होता है और इसका आधार भावात्मक है ...इस व्यवहार का  एक नजीर पक्षी जगत में एक  पनडुब्बी (कूट ) में भी देखने को मिलता है जो बच्चों में सबसे बाद के निरीह बच्चे का ज्यादा ध्यान रखती है और उसे खाने खिलाने में ज्यादा व्यस्त रहती है ....कूट्स के सभी बच्चे एक सा ही दीखते हैं मगर सर की सबसे चटख गुलाबी कलंगी सबसे छोटे वाले को  अलग करती है ....मतलब मनुष्य में भी इन मामलों में कोई एक निश्चित व्यवहार प्रतिरूप विकास यात्रा में नहीं उभरा है बल्कि यहाँ कई प्राणियों के मिश्रित  व्यवहार ही अवतरित होते दीखते हैं ...

भारत की तो बात ही मत पूछिए यहाँ तो देश काल परिस्थितियों में लड़का लडकी को लेकर जबरदस्त बायस देखा जाता रहा  है ...घुघूती बासूती जी ने अनचाही बच्चियों के जन्म पर उनसे किये जाने वाले भेदभाव पर एक रिपोर्ट  दी है!  यहाँ बड़े पैमाने पर तो लड़कों को लड़कियों के बजाय ज्यादा तवज्जो दिया जाता रहा है ...मगर यह सहज जैवीय व्यवहार नहीं है क्योकि परिवेश और सोच के बदलाव से  ऐसी बातें कम होती जा रही हैं ....किन्तु  यहाँ अच्छे पढ़े लिखे परिवारों में  क्या बिना जेंडर भेद के भी बच्चों के बीच  ऐसा कोई पक्षपात किया जाता है? मैंने एक वाकया अपने एक अन्य मित्र से और भी सुना है जब कमासुत बच्चे (कमाने वाल बच्चा ) को ज्यादा तवज्जो दिया जाता है ...उसके खान पान में ज्यादा ध्यान दिया जाता है ..प्रेम के प्रतीक के रूप में उसे परसी गयी दाल में देशी घी की मात्रा ज्यादा डाली जाती है जबकि बगल का बेरोजगार बच्चा इस देशी -घी प्रेम से वंचित रह जाता है .....और  प्रायः पिता की ओर से  ताने भी सुनता  है -न काम का न काज का ढाई सेर आनाज का ....हमारे मिथकीय पात्रों में एक राजा पुरु हुए हैं जिन्होंने अपने पिता के कहने भर से उन्हें अपनी जवानी सौंप दी थी जबकि उनके  दूसरे बेटो ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया था ..यहाँ भी एक ख़ास लाडले  पुत्र और  पिता के सम्बन्ध का एक पहलू उभरता है ....

जो भी हो अपना तो यह मानना है कि मानव व्यवहार बहुत जटिल है और ऐसे अध्ययन अंतिम नहीं कहे जा सकते ..हाँ वे इन विषयों की ओर अकादमिक/ अन्वेषण की  रूचि जरुर जगाते हैं ..और अन्वेषण तो मनुष्य की मूलभूत चाह ही है ! 

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

एक उदास शाम,देव दीपावली और पुण्य श्लोक राजमाता देवी अहिल्याबाई होलकर

आज बनारस का एक लख्खी मेला देव दीपावली है ..लख्खी का मतलब जहाँ कम से कम एक लाख की भीड़ होती हो ....यहाँ पहले से कई लख्खी मेले विख्यात हैं -जैसे नाटी इमली का भरत मिलाप ,चेतगंज की नक्कटैया ,तुलसीघाट की नाग नथैया तथा सिगरा के पास की रथयात्रा जिसके नाम पर एक चौराहे का ही नामकरण हो गया है ....इन सभी अपार जनसमूह वाले मेलों में लगभग एक दशक से देव दीपावली का भी नाम आ जुड़ा है और इसे वैश्विक पर्यटन का आकर्षण दे दिया गया है -देश विदेश से पर्यटकों का एक बड़ा हुजूम आज यहाँ आ पहुँचता है ...और बनारस के गंगा घाटों पर असंख्य दीप जगमगा उठते हैं ....आतिशबाजी भी होती रहती है और अस्ताचल को बढ़ते चंद्रमा की रश्मियाँ गंगा जी में एक स्वर्ण पट्टी बिखेरती चलती हैं ....

देव दीपावली पर बनारस के बस एक घाट का नज़ारा (सौजन्य गूगल ) 

डॉ.राजेन्द्र प्रसाद घाट (पारम्परिक दशाश्वमेध घाट)  पर गंगा आरती का दृश्य और पार्श्व में शिव तांडव स्त्रोत का पाठ - अद्भुत  दृश्य और अध्यात्मिक अनुभव -जीवन का एकबारगी का समग्र अनुभव देता है ....मैं स्वजनों के साथ, परिवार के साथ ,राज्य अतिथियों के साथ पिछले लगभग हर वर्ष इस मेले का आनन्द उठाता आया हूँ -इस बार न बच्चे हैं ,न घर (तेलितारा ,जौनपुर)  से कोई आया और न ही कोई मेहमान ही सो मेले में नहीं गया हूँ और बैठे ठाले विगत जीवन के कुछ सिंहावलोकन की ओर अनायास उन्मुख हो इस शाम को ही उदास कर बैठा हूँ -लोगों के बनावटी पन,चालाकी ,मित्रों के विश्वासघात,ब्रीच आफ ट्रस्ट आदि के मंजर अचानक ही याद हो आये हैं -कोई बच्चा मेला जाने से बिछुड़ गया हो तो वह ऐसी ही कई विचारों,अकेलेपन और असहायता  से गुजरता है ..बस समझ लीजिये ऐसा ही कुछ बेहद खराब सा अनुभव हो रहा है ...
देवेन्द्र  पांडे जी ने मेले से लौट कर  देर रात भेजा यह  चित्र -देखिये स्वर्ण पट्टी  


कहते हैं देव दीपावली के कई मिथकीय कारणों के साथ ही इस समारोह को महारानी अहिल्याबाई होलकर से भी जोड़कर देखा जाता है ...मैं आज से अच्छा और उचित अवसर कोई और नहीं समझता जब इस अवसर पर मैं इस महान भारतीय नारी के बारे में आपसे कुछ साझा न  करूं..महारानी लक्ष्मीबाई से यहाँ का बच्चा बच्चा परिचित है -उन पर कवियों की खूब लेखनी चली है ....फ़िल्में और सीरियल भी आयें हैं मगर आश्चर्य है कि अहिल्याबाई होलकर के बारे में ज्यादातर लोग बहुत कम जानते हैं ...विकीपीडिया के अंगरेजी और हिन्दी संस्करणों ने इस महान महिला के बारे में यहाँ और यहाँ जानकारी दी है -अंगरेजी की जानकारी प्रभूत और पर्याप्त है ..अगर आपके समय हो तो अवश्य चंद मिनट वहां दें ..कई प्रान्तों में हिन्दू मंदिरों का पुनरोद्धार इन्हीने कराया ..काशी के प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का एक तरह से जीर्णोद्धार ही इनके द्वारा हुआ ..गया के विष्णुपाद मंदिर को भी इनकी ही कृपा से नया रूप रंग मिला ....
पुण्य श्लोक राजमाता अहिल्याबाई होलकर 

इसके बावजूद एक प्रचलित लोक कथा के अनुसार काशी के लालची पंडों  ने इनके विश्वनाथ मंदिर में घुसने के समय इनके मार्ग पर हीरे जवाहरात बिछाए ताकि शूद्र के चरण से स्पर्शित हो पवित्र स्थल अपवित्र न हो जाय और बाद में मंदिर के गर्भगृह और आस पास के  प्रांगण  को  गंगा जल से धुलवाया ....तत्पश्चात महारानी ने यहाँ के पोंगा पंडितों को तब सीख दी जब वे गंगा स्नान के बाद जल धारा  से बाहर नहीं निकल रही थीं -अपनी सेना भेजकर उन्होंने उन्ही लालची पंडों को बुलाया और कहा अब तो मेरे स्नान के बाद  पूरी गंगा ही अपवित्र हो गयीं है इसे पवित्र करो तभी मैं बाहर आऊँगी ....लज्जित पंडों ने उनसे माफी मांगी ....ऐसी ही पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होलकर ने हजारा दीपस्तम्भ से यहाँ के एक गंगा घाट -पञ्चगंगा घाट पर देव दीपावली की शुरुआत की जो आज एक वैश्विक मेला बन चुका है .
लख्खी मेले पर उमड़ा जन सैलाब (यह चित्र भी देवेन्द्र पांडे जी के सौजन्य से ) 

केवल इस मेले को ही देखकर आप बनारस आने का औचित्य साध सकते हैं और जीवन को धन्य कर सकते हैं ...मेरी बात का भरोसा कीजिये एक अनिर्वचनीय अनुभव के साथ आप वापस जायेगें ...और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अपने संस्मरण छोड़ जायेगें ..इस पोस्ट को पूरी करते करते मैं अपने अवसाद से मुक्त हो रहा हूँ .....बाकी तो बेचैन आत्मा एलियास देवेन्द्र पाण्डेय जी ने आश्वस्त किया है कि इस बार  मेरे संती (हिस्से का ) भी मेला वे देखेगें और उसकी चौचक रिपोर्ट आपको  तक पहुचायेगें  ......मुझे उन्होंने फोटो उपलब्ध करने का भी वादा किया है मगर मुझे सब्र कहाँ और इस उदास शाम के गम को गलत करने का कोई और सहारा भी तो नहीं था -सो थोड़ी सृजनात्मकता का सहारा ले लिया और यह पोस्ट लिख दी है ......
शुक्रिया देवेन्द्र पाण्डेय जी आपके फोटो अवदान के लिए 
और देर रात आयी देवेन्द्र जी की यह आँखों देखी टटकी रिपोर्ट 

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

मेरे पसंदीदा शेर -सेशन 4

कई  सेशन पहले भी हो चुके हैं  ..कुछ बीते अफ़साने फिर से याद आने लगे हैं और हम भूले बिसरे चंद शेर फिर से गुनगुनाने लगे हैं ..मुलाहिजा फरमाएं ...
न जाने क्यों तेरा मिलकर बिछड़ना याद आता है 
मैं रो  पड़ता हूँ जब  गुज़रा ज़माना याद  आता  है 
नहीं  भूला  हूँ  अब  तक  तुझे  ऐ  भूलने  वाले 
बता तुझको भी क्या मेरा फ़साना याद आता है 
तेरी तस्वीर को बस देखते ही बेवफा मुझको 
मुझे वो प्यार का मौसम सुहाना याद आता है 
न कर गम मेरी बरबादियों का भूलकर इशरत 
मुझे अब भी तेरी कसमों का खाना याद आता है 
(इशरत अंसारी ) 
अब आईये एक और शेड में चलें ...
कभी कहा न किसी से तेरे फ़साने को 
न जाने कैसे खबर हो गयी ज़माने को 
सुना है गैर की महफ़िल में तुम न जाओगे 
कहो  तो  आज  सजा  दूं  गरीबखाने  को 
दुआ बहार की माँगी तो इतने फूल मिले 
कहीं  जगह  न  रही मेरे आशियाने  को 
दबाके कब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम 
ज़रा  सी  देर  में  क्या  हो  गया  ज़माने को
(मुन्नी बेगम ने गाया है किसका है पता हो तो बताएं )  
और अब यह भी ......
अशआर  मेरे  यूँ  तो  ज़माने के लिए  हैं 
कुछ शेर फकत उनको सुनाने के लिए हैं 
आँखों में जो भर लेगें तो काँटों से चुभेगें 
ये ज़ख्म तो पलकों पे सजाने के लिए हैं 
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें 
कुछ दर्द कलेजें  से  लगाने  के लिए  हैं 
ये  इल्म  का  सौदा  ये रिसाले ये किताबें 
एक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं 
इस  सेशन में बस इतना ही .... शेरो सुखन के अगले सेशन में फिर मुलाकात होगी ...जाते जाते यह बात फिर कि महीन भावों की अदायगी का जो जज्बा और ताकत उर्दू जुबान में है वह शायद दुनिया की किसी भी लैंग्वेज में नहीं है .....इसलिए थोडा उर्दू की शेरो शायरी का आनन्द उठाईये और इस जीवन को तनिक तो भावनाओं से लबरेज कीजिये .....
और मेरी बहुत प्रिय गायिका मुन्नी बेगम जिनसे कभी क्रश तक हुआ था उनकी आवाज में यह भी सुन लीजिये ...

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

बच्चों को और उनकी माँ को भी जरुर दिखाईये रा.वन!

अभी अभी रा.वन देखकर लौटा हूँ और सिफारिश करता हूँ बच्चों को जरुर दिखाईये  ...यह एक विज्ञान फंतासी  है और रोबोट (एन्थिरान) के बाद लगभग उसी स्टाईल की फिल्म है ...भारत में विज्ञान कथा फिल्मों,साहित्य के साथ एक मजाक यह बना हुआ है कि यहाँ इसे  बच्चों का साहित्य मान लिया जाता है और कई फिल्म निर्माता पुस्तक प्रकाशक भी इस विधा के साथ अन्याय करते हुए इसे बच्चों के लिए बनाते और प्रचारित करते हैं ....जबकि हालीवुड में बनने वाली साईंस फिक्शन फ़िल्में अनिवार्यतः बच्चों के लिए ही नहीं होती बल्कि कामन आडियेंस /सभी के लिए होती है ..अब अवतार क्या बच्चों के लिए ही थी? मगर ताज्जुब है अपने  फिल्म निर्माताओं /निर्देशकों को कि वे अच्छी खासी थीम वाली साई फाई फिल्मों को भी बच्चा संस्करण बना देते हैं जैसा कि रा. वन को बना दिया गया है .और मैं लहरें वाली पूजा उपाध्याय के इस विचार से अब सहमत हूँ कि यह फिल्म बच्चों के लिए है ..यह सचमुच ही बच्चों के लिए काट छाट दी गयी है ....जबकि जब तक इसे नहीं देखा था इसी खुशफहमी में  था कि ऐसी कोई चिपकी इस पर नहीं लगी होगी.....मगर एक लिहाज से इन फिल्मों का बच्चों के लिए होना भी ठीक है क्योंकि यही पीढी इस तरह की  अभिरुचि के लिए संस्कारित हो और भारत में भी कभी ऐसी मौलिक फिल्मों की क्रेज बढे ....



फिल्म एक शाश्वत भारतीय  सोच "बुराई पर अच्छाई की जीत' का टेक लेती है और यद्यपि रा .वन नाम एक कम्प्यूटर प्रोग्राम का संक्षिप्ताक्षर है यह हमारे मिथकीय रावण की प्रतीति कराता  है ..फिल्म का रा.वन दरअसल रावण सरीखा एक महा खलनायक है जिसे मारना आसान नहीं है ..फिल्म की एक रोचक संकल्पना यह भी है कि कम्प्यूटर गेम अनिवार्य रूप से नायक (सुपर हीरो) प्रधान ही क्यों हों? खलनायक प्रधान क्यों नहीं? कम्प्यूटर गेम एक्सपर्ट का बेटा खलनायकों और उनकी ढिशुंग ढिशुंग का दीवाना है और अपने पापा से एक खलनायक प्रधान गेम के लिए मनुहार करता रहता है ....और पुत्र प्रेम में पड़कर पिता एक ऐसा ही गेम बड़ी तैयारी के साथ बना देता है मगर जो पात्रों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता लिए होता है ....बिना बिचारे जो करे सो पीछे पछताय वाली कहावत तब चरितार्थ हो जाती है जब गेम का खलनायक कृत्रिम  बुद्धि  के सहारे  खेल की आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में आ धमकता है ....और इस खेल को खेलते हुए पहले ही स्तर पर  इसे  बीच में छोड़ कर चले गए कम्प्यूटर गेम विशेषज्ञ के बेटे को प्रतीक को (खेल में ल्यूसिफर ) को खोजता फिरता है -तब मुझे रावण की याद आती रही जो अपने प्रतिद्वंद्वियों के पास जाकर ललकार ललकार के कहता है -युद्धं देहि युद्धं देहि .....ऐसा ही रा. वन है जो अधूरा खेल छोड़कर चले गए खिलाड़ी को ललकारते  हुए आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में आ धमकता है ....और हश्र बहुत बुरा होता है..और सबसे पहले अपने सर्जक कम्प्यूटर गेम विशेषज्ञ को ही मार डालता है ..अरे अरे यह तो पश्चिमी सोच है ..यहाँ तो  भस्मासुर शंकर को  कहाँ  मार पाया था?  ....हाँ मेरी शेली के फ्रैन्केंनस्टीन में जरुर खेल खेल  में वजूद में आ गए दानव ने अपने ही सर्जक को सपरिवार मरने को अभिशप्त कर दिया था ..यहाँ भी कुछ ऐसा होता है और अपने सर्जक को निपटाने के बाद रा.वन उसके कम्प्यूटर खेल प्रेमी  बेटे और माँ के पीछे लग जाता है और उनके वतन (भारत ) वापसी तक उनका पीछा करता है -वह तो उसके विनाश का एक और प्रति -खलनायक (नायक ) जी वन भी उसी कम्प्यूटर विशेषज्ञ द्वारा  बनाया गया होता है जिसे उसका बेटा खोज निकालता है और अपने बुद्धिचातुर्य तथा जी वन के पावर के सहयोग से  से अंततः रा. वन का विनाश कर करता है ..फिल्म हैपी एंडिंग लिए हैं ...

हाँ यह फिल्म उन लोगों को जरुर चूं चूं का मुरब्बा लगेगी जो हालीवुड फिल्मों को देखते आये हैं -कई फिल्मों से सीन चुराए गए हैं ..यहाँ तक कि एक  मार धाड़ दृश्य में रोबोट के चिंटी खुद भी फ्रेंडली अपेयिरेंस में पधार गए हैं ....फिल्म में भारतीयता का पूरा टच  देने की सोच से देशी त्योहारों -करवा चौथ और दशहरा के रोचक सीन हैं और कम्प्यूटर गेम वाले रावन और मिथकीय रावण को एक ही फ्रेम में फिट करने की दृश्य रोचकता भी है जिससे एक तरह के काल विपर्यय (एनाक्रोनिज्म ) का प्रभाव पैदा किया गया है जो साईंस फिक्शन में एक आम  बात है ....यह फिल्म बच्चों को तो निश्चित ही पसंद आयेगी और केवल उन्हें बिलकुल नापसंद होगी जिन्हें विज्ञान कथाओं का ककहरा भी पता नहीं है ...हाँ , विज्ञानकथा फिल्मों के शौक़ीन  इसे औसत दर्जे की साई फाई फिल्म मानेगें ....

एंथिरान (रोबोट ) में  विशेष दृश्य प्रभावों को डालने वाले स्टेंन विंस्टन ने इस फिल्म में भी चमत्कारी दृश्य प्रभाव डाले हैं ...और मैंने तो थ्री डी वर्जन नहीं देखा मगर उसकी कल्पना कर सकता हूँ ...थ्री डी तो बहुत जबरदस्त होगी ....फिल्म अच्छी है ..बच्चों को  और उनकी माँ को भी जरुर दिखाईये..आप बोनस में देखिएगा और बच्चों की  किलकारी में अपने आनन्द की तलाश करियेगा!  

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अभी उनसे दोस्ती के जुमा जुमा चंद हफ्ते ही बीते हैं........

जी हाँ ,अभी उनसे दोस्ती के जुमा जुमा चंद हफ्ते  ही तो  बीते हैं ...आदमी बहुत उखमजी किस्मके हैं ,डूब डूब कर पानी पिए हैं ....बहते पानी के साथ और न जाने कितनी नौकाओं में कितने लोगों के साथ सैर सफ़र कर चुके हैं ....उस क्षेत्र से हैं जहां से हिन्दी के कई उद्भट विद्वान राष्ट्र स्तर पर सुशोभित और समादृत हो चुके हैं ..विवरण वे खुद इस लेख में अपनी टिप्पणी में दें यह उनसे करबद्ध निवेदन है ...बशर्ते इस पोस्ट के बाद वे टिप्पणी करने की मनस्थिति में रह पायें!मुझे याद है अभी कुछ महीने पहले ही मेरी एक पोस्ट पर वे कोई प्रशंसात्मक टिप्पणी तो किये मगर मुझे मठाधीश के अत्यंत अप्रिय संबोधन से संबोधित किये ....और मैंने उन्हें अपनी नाराजगी से तुरंत ही अवगत करा  दिया और यह भी जता दिया कि यह उपाधि श्रीयुत अनूप शुक्ल फ़ुरसतिया जी के लिए लिए ब्लॉग जगत द्वारा पहले ही सर्वाधिकार सुरक्षित किया जा  चुका है और कुछ भी हो यह उपाधि उनसे छीनकर मुझे देने से उनकी शान में गुस्ताखी तो नाकाबिले बर्दाश्त है मेरे लिए..तब वे बोले कि वे इस पर समझौता करने को कतई तैयार नहीं हैं और फुरसतिया के साथ मुझे भी वे इसी उपाधि से नवाजते रहेगें ....अब देखिये न कैसे मुंहफट इन्सान भी हैं ये महाशय !

अब आपके मन में इस महान शख्सियत के बारे में जिज्ञासा प्रस्फुटित हो चुकी होगी ..मगर इस लिहाज से कि धैर्य का फल मीठा होता है अभी अपनी जिज्ञासा पर अंकुश बनाए रखिये ...मेरे दिल्ली के अप्रिय प्रसंगों की एक लम्बी फेहरिस्त है और उसमें भी एक नयी आमद इन्ही महानुभाव ने करायी है ....वह यह कि दिल्ली की बोल चाल की भाषा बड़ी कटु है बड़े छोटों का कोई लिहाज नहीं है यहाँ ...वैसे दिल्ली के इस अप्रिय प्रसंग से मैं सौभाग्यवश सर्वथा अपरिचित ही रहा क्योंकि आज तक मेरे किसी भी दिल्ली के मित्र ने मुझसे दिल्लीनुमा अबे तबे की शैली में कभी बात नहीं की ....मगर अपने आज के चरित नायक इसका निर्वहन बड़ी सहजता से करते हैं -क्या कर रहे हो? ,फलां पोस्ट पढ़ा? चलो बाद में बात करते हैं ...रात ज्यादा हो गयी सो जाओ ...कल बात करना ....सुनो क्या कर रहे हो ....जैसे जुमलों का इस्तेमाल वे सहजता से करते हैं ...शुरू शुरू में और यदा कदा आज भी यह बातचीत की शैली से समझिये मेरा कुछ सुलग सा जाता है, मगर क्या करें इन दिनों तो यही महाशय यारों के यार की रेस में हैं तो कुछ कहते भी नहीं बनता ..मैंने अपनी समस्या अमरेन्द्र  जी के सामने रखी,उनसे गिड़गिड़ाया   तक कि भैया उनकी इस आदत के प्रति आप ही उन्हें सचेत कर कुछ तब्दीली का प्रयास करें  मगर वे भी लगता है धनुहा धर दिए हैं और उन्ही की तरफदारी करते हैं ..कहते हैं वे दिल्ली की आम बोलचाल की भाषा बोलते हैं और उनका ह्रदय मासूमियत से भरा है और  इसे झेलते रहिये ...अब मैं कैसे समझाऊँ इस भाषा से मेरा वास्ता बहुत कम पडा है और मैं इसे बिलकुल भी झेल नहीं पाता....

फिर मैं इस शख्सियत को झेलता क्यों हूँ? कारण इनकी अकादमीय प्रतिभा है और बेलौस बिंदास बोलने का जज्बा है ....महोदय कभी जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठित अखबार के नियमित लेखक रहे हैं और अब भी गाहे बगाहे लिखते हैं वहां मगर अब ज्यादातर ब्लागजगत के अच्छे लेखों की अनुशंसा करते हैं छपने के लिए ....एक महीन संवेदना के धनी व्यक्ति हैं जिनका निदर्शन और दर्शन उनकी रचनाओं में होता है ...शेर वेर तो ऐसा लिखते हैं कि बस बलि जाऊं इनकी अंदाजे बयां पर और तो और वे भौकते भौंकतियों का ऐसा मुंह बंद  कराते हैं कि एकलव्य जैसा धनुर्धर भी शर्मसार हो जाय उनकी इस काबिलियत पर ....अब क्या ब्लॉग जगत को यह भी बताना पड़ेगा कि एक बार  एकलव्य ने एक बुरी तरह भौंकते कुत्ते (ग्रन्थों में जब  इसी जेंडर का उल्लेख है तो मैं भी कोई रिस्क क्यों लूं?:)  ) के मुंह को बाणों से ऐसा भर दिया कि उसकी भौंक तो बंद हो गयी मगर उसका बाल तक बांका न हुआ ...ऐसी प्रतिभाओं का जाहिर हैं ब्लागजगत में भी बेहद जरुरत है ....और मैं अपने इस चरित नायक की इस काबिलियत से पूरी तरह मुतमईन हूँ और इस पर मुझे फख्र भी है ...मेरे आराध्य चार्ल्स डार्विन के एक अनुयायी हक्सले साहब को लोग डार्विन का बुलडाग कहते थे...तो आखिर मुझे भी एक ऐसे भक्त और समर्पित फालोवर के सानिध्य से फख्र क्यों न हो?


बैसवारी के संतोष त्रिवेदी 
अब तक आपकी जिज्ञासा ब्रह्मान्ड की आख़िरी परत को दरेच रही होगी तो सुन लीजिये यह शख्सियत कोई और नहीं अपने प्रिय संतोष त्रिवेदी जी हैं जो आज इस ब्लॉग के स्तम्भ चिट्ठाकार चर्चा के अतिथि बने हैं .....वे बैसवारी के हैं ...और बैसवारी के बारे में वे आपको और विस्तार से बतायें तो मेरा भी और ज्ञानार्जन हो जाएगा...हम तो अभी तक बस बसवारी के बारे में जानते रहे हैं जो गाँवों में यत्र तत्र आज भी दिख जाती है और बच्चों को वहां जाने से मनाही रहती है ..कारण कि वहां तरह तरह के सांप गोजरों का जमावड़ा होता है .....संतोष त्रिवेदी की  तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत किया जाय:)  

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