शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

पैतृक आवास पर मनाई दीवाली ..शुरू हुई बाल रामलीला!

 पैतृक  आवास मेघदूत जो वाराणसी लखनऊ मार्ग एन एच 56 (जौनपुर) पर है.

कल जौनपुर स्थित अपने पैतृक  आवास से दीवाली मना कर लौटा -मगर यहाँ तो बिजली गायब ,फोन का डायल टोन गायब ,ब्राडबैंड कनेक्शन नदारद ..लगा कहीं सुदूर अतीत में आ पहुंचे हों ...बिना अंतर्जाल के जुड़ाव से यह दुनियाँ सहसा कितना बदरंग हो जाती है इसका अनुमान आपको होगा ही ...जैसे तैसे रात कटी ..आज का पहला काम बी एस एन यल आफिस में शिकायत और फिर कहीं से आप सब से जुड़ने की जुगाड़ .... .अब  इसमें सफल हुआ हूँ...
 बाल रामलीला टीम
..सोचा था विस्तार से ग्राम्य दीवाली की चर्चा करूँगा मगर अब यह संभव नहीं दीखता ...हाँ कुछ चित्रों और उनके विवरणों को जरुर साझा करना चाहता हूँ -हमारा कोई भी त्यौहार सच पूछिए तो बच्चों का ही होता है ..उनका उत्साह देखते बनता है ....घर पहुँचते ही बिटिया प्रियेषा और बेटे कौस्तुभ तथा अनुज मनोज के बेटे आयुष्मान और बिटिया स्वस्तिका ने गाँव भर के बच्चों की दिवाली की टीमें तैयार की -कोई कंदीले बनाने में जुटा तो कोई दीयों और मोमबत्तियों को संभालने में तो कोई आतिशबाजी संजोने में .....
 सीता(आस्था ) श्रृंगार में जुटी प्रियेषा

 लेत उठावत खैंचत गाढे काहूँ न लखा रहे सब ठाढ़े ...धनुषभंग बाल राम (आयुष्मान ) द्वारा
मैंने एक नयी शुरुआत कराई .बाल रामलीला की ....और बाललीला टीम का आडिशन,पात्र चयन ,संवाद अदायगी आदि का काम दीवाली के दिन ही रिकार्ड ४  घंटे में पूरा किया गया ..मेरी मदद में आयीं गाँव की ही होनहार छात्रा कीर्ति मिश्र ..उन्होंने निर्देशन का काम संभाला ..शाम को बाल रामलीला की एक नयी परम्परा ही शुरू हो गयी ...दृश्य था सीता स्वयम्बर का ..बच्चों ने ऐसी अभिनय प्रतिभा दिखाई कि लोग बाग़ बाग़ हो उठे और वाह वाह कर उठे ....बच्चों में अपनी संस्कृति और संस्कारों के प्रति प्रेम -झुकाव  आज के इस विघटन के युग में बनाए  रखना भी एक बड़ी जिम्मेदारी है ....पश्चिम की आंधी में हमारा बहुत कुछ बेहद अपना भी दूर होता जा रहा है ....अंगरेजी में कहा ही जाता है "कैच देम यंग " मतलब जिन संस्कारों की नीवें गहरी करनी हो उसके लिए बच्चों से ही शुरुआत होनी चाहिए ..अभी तो यह हमारी यह विनम्र शुरुआत ही है आगे इसके विस्तृत स्वरुप की संभावनाएं हैं .....

 मनोज ने विधिवत संपन्न कराई लक्ष्मी पूजा
आतिशबाजी हमारी एक सुन्दर सी प्राचीन कला है जिसमें विज्ञान के साथ  ही कलात्मकता का अद्भुत मिश्रण है..हम तो आतिशबाजी के बड़े वाले पंखे(फैन) हैं  ..सो एक आतिशबाज को ही पिछले साल से पड़ोस में बसा लिया गया है और उसे इस अवसर पर आर्डर देकर आतिशबाजी का प्रदर्शन करने को बुलाते हैं ..हम आतिशबाजी पर लिखने  लगेगें तो यह पोस्ट कम पड़ जायेगी....बस इतना ही कि बड़े आईटमों से बच्चों को दूर रखते हैं और तेज आवाज के पटाखे हम नहीं छुडाते ....बाकी तो स्वर्गबान ,चरखी ,राकेट ,अनार आदि का तो प्रदर्शन होता ही है -हमने इस बार भी आतिशबाजी का खूब आनन्द लिया ..बच्चों ने खूब तालियाँ ठोंकी और गला फाड़ कर चिल्लाए ...बड़ा  आनंद आया ....
 दीवाली पर दुल्हन की तरह सजा हमारा पैतृक आवास मेघदूत

दीवाली का एक मुख्य कार्यक्रम है देवी लक्ष्मी की पूजा से जुड़ा  अनुष्ठान जिसकी जिम्मेदारी मनोज ने निभाई ....और उन्होंने सभी को प्रसाद का वितरण किया ..हम लोगों के यहाँ एक मान्यता यह भी है कि हर हुनर और क्षेत्र के लोगों को दीवाली के दिन अपना काम भले ही अंशतः लेकिन करना  जरुर  पड़ता है ..जिससे साल भर उसमें कोई विघ्न बाधा न उत्पन्न हो ..बच्चों को किताब खोलना ही पड़ता है .अकादमियां का आदमी कुछ जरुर पढ़ लिख लेता है ... हम सभी ने  कुछ न कुछ बतौर शुभ करने को  अपना अपना इंगित काम किया ....इसी मान्यता के अंतर्गत रात में चोर लोग कही हाथ भी साफ़ करते हैं -इसलिए दीवाली की रात इधर चोरियां भी बहुत होती हैं .....हमने तो कुछ सामान जानबूझ कर मैदान में छोड़ भी दिया था मगर दुःख यह हुआ कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं ..जाहिर है लोग दीवाली जगाने में भी अब लापरवाही बरत रहे हैं :) 
 आतिशबाजी आसमानी

घर को सजाने में भी बाल टीम जुटी रही ...और बाल रामलीला के कलाकारों के  मेकअप को बेहद कम समय  के बावजूद प्रियेषा ने निपटाया......मेरे शंखनाद से बाल रामलीला शुरू हुई..मैंने मुख्य दृश्यों के समय रामचरित मानस के सुसंगत अंशों का सस्वर पाठ भी किया ...काफी ग्राम्य जन जुट आये थे इस नए अचरज को देखने सुनने ...अगले वर्ष से इस कार्यक्रम को व्यवस्थित रूप देना है ....प्रियेषा को दिल्ली जल्दी लौटना था इसलिए हम दीवाली के दूसरे दिन जिसे यहाँ जरता परता कहा जाता है और जिसमें कहीं आना जाना निषेध भी है ..यहाँ लौट आये हैं ....और झेल भी रहे हैं ..


और यह रही इस बार की रंगोली जो प्रियेषा और स्वस्तिका ने मिल बैठ  बनाई 


मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

खुल जाएँ भाग्य मोतियों के सीप

यह दीपावली आप सभी मित्रों को शुभ और समृद्धि देने वाली हो ....

जलते ही दीवाली के शत शत दीप
खुल जाएँ  भाग्य मोतियों के सीप 

बिना शरण और ठांव
मंजिल को बढ़ते पाँव 

शुभ्र वसना सरस्वती सा
रिश्तों के हो  रंग यकसाँ  

अरुणोदय की रक्तिम किरणें
उजास हर ह्रदय में भर भर दें 

 होठों पर हो निष्कलंक मुस्कान
मिट जाए सबके  श्रम की थकान 

दूर हट जाए घिरा  घना तिमिर
आनन्दमय हो जाए  यह  शिशिर 

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

यादों की एक सुहानी शाम

आज बंगलौर से बेटे कौस्तुभ का आगमन हुआ ...और  आज २३ तारीख को  उनका तेईसवां जन्मदिन भी है और  एक ख़ास मेहमान केक काटने के अवसर पर आज  आमंत्रित थीं ...अमेरिकावासी डॉ.रोशनी राव nee शुक्ल जो वहां के मशहूर एम डी एंडरसन कैंसर इंस्टीच्यूट टेक्सास में सर्जन हैं ...और इन दिनों भारत भ्रमण पर आयी हुई हैं...अपने काबिल पिता डॉ. एस. डी. शुक्ल की काबिल पुत्री डॉ.रोशनी राव धर्मपत्नी की सगी भतीजी हैं ..जन्मी तो भारत में थीं मगर बचपन में ही इंग्लैण्ड गयीं और अमेरिका जाकर वहां की नागरिक बन गयीं ...
केक टोस्ट आफरिंग: गेस्ट आफ आनर डॉ रोशनी राव  और कौस्तुभ 

डॉ रोशनी राव हिन्दी तो  कुछ बोल समझ लेती हैं मगर पढ़ लिख नहीं पातीं ...वे मेरा ब्लॉग देखती  हैं मगर खुद पढ़ नहीं पाती जब तक कि पापा या मम्मी उन्हें पढ़कर न सुनाएँ ...बेटे के जन्मदिन की शाम को उनके आने से सादे जन्मदिन कार्यक्रम में काफी  वैल्यू एडीशन हो गया ....बच्चे, उनकी मम्मी हम  सब खुश हो गए ...कौस्तुभ की खुशी का तो कुछ पूछना ही नहीं था ...सात समुद्र पार से कोई अपना ही इस अवसर पर संयोग से आ पहुंचा था ..इस लिहाज से यह जन्मदिन  ख़ास बन  गया ......


डॉ .रोशनी ने कैंसर के कई मरीजों की सफल सर्जरी की है जिसमें एक हेंडा सल्मेरान ही हैं जो पिछले वर्ष बनारस आयीं थी और हम लोगों के साथ पूरे चार दिन बनारस में घूमती फिरी थीं और अब वे पूरी तरह स्वस्थ हैं और डॉ.रोशनी राव  के गुण गाया करती हैं ....हेंडा की अपनी राजनीतिक अभिरुचियाँ भी हैं और अभी अभी टेक्सास राज्य में अधिसूचित हेन्डाज ला जिसमें ब्रेस्ट कैंसर की आरम्भिक जानकारी प्राप्त करने के नागरिक अधिकार को सहमति मिली है  इन्ही के अथक परिश्रम की देन है .हेंडा अब एक सेलिब्रिटी हैं ...हमें फख्र है कि हम इस बला की हिम्मती और महात्वाकांक्षी महिला के साथ कुछ बनारसी दिन बिताने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके हैं .. वे डल्लास में प्रापर्टी डीलर भी हैं और उनके सौजन्य सहयोग से डॉ.रोशनी राव को अब डल्लास में एक खूबसूरत बंगला मिल गया है ....डॉ. रोशनी राव के वर्तमान इंस्टीच्यूट -एम डी एंडरसन कैंसर इंस्टीच्यूट टेक्सास से मेरा भी एक रिश्ता रहा है ..मेरे पी एच डी के एक परीक्षक डॉ .सेन पाठक अब यहीं प्रोफ़ेसर हैं ....आज की शाम कई ऐसी यादों के साथ और भी सुहानी बन गयी ....

फर्स्ट सपर विद डॉ. रोशनी राव 

हमने साथ में बाहर खाना खाया ...डॉ. रोशनी शुद्ध शाकाहारी हैं ...मैंने आज के डिनर को "फर्स्ट सपर विद डॉ. रोशनी राव " का नाम दिया है ...अभी अभी लौटे हैं ..सोचा इन  यादगार लम्हों को ब्लॉग करके ही सोने जाऊं ...उन्होंने रेस्टोरेंट में आये ढेर से बच्चों के उधम को अच्छा नहीं माना और बताया कि ऐसे स्थलों पर अमेरिकी बच्चों को अनुशासित रहने को सिखाया जाता है और वहां घर पर आने वाले लोगों को कुत्ते भी नहीं भूंकते ...अजनबियों तक को नहीं ..वहां ज्यादातर शान्तिपूर्ण माहौल हर जगहं मिलता है ..कोई कोलाहल नहीं कोई आपाधापी और चिल्ल पो नहीं ..मैंने देखा बच्चों की उधम से वे बार बार विचलित सी हो रहीं थीं ..हम तो ऐसे माहौल के आदी हैं मगर उनके लिए यह अप्रिय सा था ....

हैपी बर्थ डे कौस्तुभ और बाय बाय डॉ रोशनी ..फिर मिलेगें ......

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

फेसबुक पर सुहागरात

अभी पिछले दिनों हम एक मित्र के परिवार के साथ सपरिवार  पर्यटन पर निकले थे.मित्र का बेटा गैजेट प्रेमी गीक है. अब खुदा खैर करे अंतर्जाल युग के इन नवयुवाओं का जो नव  मीडिया के रूप में उभर रहे सोशल नेटवर्क साईटों खासकर फेसबुक के ऐसे दीवाने हैं कि उन्हें अगल बगल देखने की फुर्सत ही नहीं रहती -चौबीस घंटों के जागृत पलों में वे बस फेसबुक अपडेट करने पर पिले रहते हैं.....चाहे नाश्ते की टेबल हो या डायनिंग की ,अगल बगल से बिलकुल कटे वे बस फेसबुक का  स्टेटस  अपडेट करने में लगे दिखते हैं मगर यह दोष उन्ही का नहीं है ...हम आप भी जो अंतर्जालीय घेरे में तेजी से आते जा रहे हैं ऐसे ही एक दुर्व्यसन के शिकार हो रहे हैं ....हम खुद घबराए हुए हैं ..मोहकमाये  मछलियान में जिन्दगी का पूर्वार्ध तो  मछली के जाल में फंस कर निपट गया और अब ये मुआ अंतर्जाल बाकी का जीवन लेने पर आमादा दिख रहा है ..मगर हम तो ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव की ओर अग्रसर हैं -नयी पीढी का क्या होगा?

 नयी अंतर्जाल पीढी अपने  भौतिक परिवेश से कितनी  असम्पृक्त  कितनी  असमाजिक  होती जा रही है? ...और अंतर्जाल की आभासी दुनिया में खोखली  सामाजिकता की पेंगे  बढ़ रही हैं ....अंतर्जालीय युवा सुबह आँख खुलते ही फेसबुक पर गुड मार्निंग कह दैनिक कार्यारम्भ करते हैं ....और वहां भी जवाब देने वाले  सैकड़ों हजारों मौजूद हैं ....मेरे फेसबुक मित्रों में अवन्तिका सेन और आराधना मिश्र   ऐसी ही सेलिब्रिटी हैं जो अपना हर काम हर पल हर अंदाज फेसबुक पर अपडेट करती चलती हैं ..दोनों प्रतिभाशाली हैं मगर उनकी सारी प्रतिभा फेसबुक पर तिल तिल चुक रही है .....खाने में क्या क्या खाया ,सब्जी कौन से बनी ,टूथ पेस्ट कौन सा और कब किया....आदि  आदि ..अब हमें या दूसरों को भी क्या  लेना देना इन बातों का ..हू केयर्स ..मगर नहीं, वहां इन बातों पर भी दसियों और कभी कभी तक सैकड़ों कमेन्ट आते हैं .....

हिन्दी ब्लागमंडल भी उधर ही खिसक रहा है ....मैंने पहले भी यहाँ और यहाँ ऐसी आशंकाएं व्यक्त की थीं..अभी कल ही तो  कनाडा वाले प्रख्यात ब्लॉगर समीरलाल  जी ने अपनी श्रीमती जी के जन्मदिन पर उन्हें मिठाई खिलाते हुए एक फोटो के साथ अपने कुछ उदगार क्या व्यक्त किये वहां बधाईयों का जो तांता लगा कि दो सैकड़ा पार हो गया ..अब अपना ब्लागजगत  कहाँ इतना रिस्पांस दे पाता?सामाजिकता में तो बिलकुल फिसड्डी होता जा रहा है यह तो ....अब लोग कहेगें कि ब्लॉग और सोशल नेटवर्क का फर्क ही यही है ...ठीक बात, मगर फेसबुक की ही अगर बात करें तो यह मात्र सामाजिकता के निर्वाह को ही नहीं वरन आपके अनेक कलात्मक अभिरुचियों को प्रगट/प्रदर्शित करने का बड़ा माध्यम बन गया है ..आप अपनी बड़ी बड़ी पोस्ट भी यहाँ 'नोट' सुविधा के अधीन  डाल सकते हैं और फोटो /वीडियो /वेबकैम से तत्क्षण रिपोर्टिंग भी कर सकते हैं ....और भी अनेक सुविधायें यहाँ मौजूद हैं ....और यही कारण है कि गीक लोगों का यह ऐशगाह बन गया है ...किन्तु अपने भौतिक जगत से पूरी तरह नाते रिश्ते  तोड़ कर एक पूरी पीढी ही फेसबुक पर आबाद हो चली है ..

.एक सज्जन अपने विवाह के सात फेरों की भी रनिंग कमेंट्री वहीं फेसबुक पर ही देने में इतने मशगूल थे कि आठवीं की ओर साड़ी की छोर से बंधी सद्य परिणीता को घसीट ले चले तो बड़े बूढों और पंडित जी ने धर पकड़कर   उन्हें यह दुस्साहस करने से रोका ....अब लोग बाग़ इसी टिपियानी शैली में अगर सुहाग रात भी मनाने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं ...वे अपनी चेतना से इस दुनियाँ में होते कहाँ हैं? बस शरीर ही यहाँ रह गया है ...फुरसतिया  ने भी इसे खूब ताड़ लिया है ...खुद को केंद्रबिंदु बनाकर इस प्रवृत्ति पर उनका मजाकिया अंदाज मजेदार रहा ..सब्जीमंडी में पहुंचकर गोभी के दो बड़े फूलों की फोटो फेसबुक पर डाल आभासी मित्रों से यह  पूंछते भये कि कौन वाली खरीदें और जब तक फैसला आता दोनों फूल बिक चुके थे और अब वे ठगे से खड़े थे और ठेलेवाला उनकी तथा उनके मोबाईल की ओर  असहाय और विस्मित भाव से देख रहा था ....भैया फेसबुक का चस्का , इसकी लत कहीं आपकी ज़िन्दगी को ही गोभी के फूल ही  नहीं कितने और फुल  मौकों से वंचित न कर दे .... 

यहाँ यह बिलकुल अप्रासंगिक नहीं  उद्धृत कर देना कि संतकवि तुलसी ने अपने समय ही कुछ ऐसी ही तत्कालीन प्रवृत्तियों पर लोगों को  चेताया था ..." तुलसी अलखै का लखे राम नाम भज नीच ...." आज भी पास बैठे लोगों को फेसबुक पर  पिले देख  ऐसी ही कोफ़्त होती है कि अगल बगल की जीवंत और ठोस रंगीनियों को छोड़ कहाँ के गैर वजूदी संसार में रमे हो यार ...सुना है एक प्रेमिका ने प्रेमी से इसी मुद्दे पर शादी के पहले ही तलाक ले लिया:)..और प्रेमी ने यह बात भी फेसबुक पर डाल दी ..मगर उसका दुर्भाग्य कि जिस सांत्वना की उम्मीद उसे थी वह भी साथ छोड़ गयी और इन दिनों वह फेसबुक पर बुझी फुलझड़ी मंगलौरी के नाम से शायरी करता दिख जाता है ....फेसबुक लोगों का जीवन तबाह कर रहा है लोग मरने मारने पर उतारू हैं ...यह मनुष्य की ज़िंदगी में प्रौद्योगिकी की धमक का एक दहशतनाक मंजर है ....

मेरे एक  बड़े उच्च अधिकारी फेसबुक पर ही मेरे ही लिस्ट में  मेरे सौभाग्य से आ गए हैं ..एक अत्यंत प्रतिभाशाली और विनम्र व्यक्तित्व है उनका .. मेरी हर घोर मानवीय चूकों पर ध्यान नहीं देते मगर बारीक नज़र रखते हैं और गाहे बगाहे इसका अहसास भी मुझे करा देते हैं ...अब उनकी सदाशयता क्या सभी नौकरी शुदा फेसबुकियों  को उनके नौकरीदाता दे सकते हैं? कभी भूल से बॉस को फेसबुक में न रखिये नहीं तो उनकी गुडबुक से एक दिन पत्ता कटा ही समझिये ..नौकरी से भी हाथ धोना पड़ सकता है ..कईयों की जा भी चुकी है ..कई और मुद्दे है सोशल नेट्वर्किंग के जिनकी चर्चा हम जल्दी ही करेगें ...

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

जी हाँ यह कविता आपको पूरी करनी है....

जी हाँ यह  कविता आपको पूरी करनी है क्योकि ऐसा लगता है कहीं कुछ छूटा सा है....कुछ और कहा जाना बाकी है ..मेरे कई मित्र हैं ब्लॉग जगत में जिनकी काव्यात्मक प्रतिभा पर मुझे नाज है. कविता तो बस एक भाव है जो शब्दों का सहारा ले अभिव्यक्त हो उठती है मगर यह अभिव्यक्ति , शब्दों के  चयन की प्रतिभा के साथ एक सतत अभ्यास की भी  अपेक्षा रखती है ....ऐसे ही कोई  भाव उठा और चंद पंक्तियाँ सहज ही अभिव्यक्त हो गयीं मगर हो सकता है कोई कुशल शब्द जेता कवि मन इसमें कुछ और जोड़ दे ....मेरे मित्र जयकृष्ण तुषार जी दूसरे अनुशासनों,क्षेत्रों के लोगों का कविता के मैदान में आ धमकना किसी हिमाकत से कम नहीं मानते ..मगर मेरी इल्तिजा है - कविता क्या अनिवार्यतः किसी कवि का ही आश्रय ढूंढती है वह स्वयं-उद्भूता नहीं हो सकती? ..हमारे जैसे कथित शुष्क विज्ञानसेवी को अपना माध्यम नहीं बना  सकती? मुझे तो सदैव यह लगता रहा है कि कवि नहीं कविता का होना ज्यादा सहज है..नासतो विद्यते भावो ... ...अभिव्यक्ति का माध्यम कोई भी बन सकता है ....मुझ जैसा  कवि कला विहीन भी ....विज्ञान का सेवी भी ...बहरहाल आप कविता पढ़ें और इसे पूरी करें ....कोई व्याख्या या स्पष्टीकरण चाहते हों तो खुलकर कहें .....

देह  से नहीं मुझे मेरी चेतना से जानो 
वय से नहीं मुझे मेरी भावना से पहचानो
 नहीं मेरा है  कोई  काल बाधित वजूद 
इक शाश्वत कामना है केवल यही मानो 

 चिर पुरातन होकर  भी हूँ चिर नवीन 
रहा हूँ बना इक अभिलाषा  युग युगीन 
बस साथ रहने को ही तेरे हर पल छिन 
अवतरित अपनाता हर मरुथल जमीन 

हर युग  में रहूँ  साथ उसके यही  कामना 
वह जो खुद भी है एक शाश्वत सी चाहना 
चिर संयोग में  फिर हो कोई क्यूं  बाधा 
युग युगों में रहूँ मैं कृष्ण और तू मेरी राधा 

अब यह आपके भरोसे कुछ और जोड़ना चाहें या फिर कोई संशोधन ..सस्नेह सादर ....
आ गया है राधा का संशोधन:
 मुझसे नहीं मेरी चेतना से मुझे जानो
समय से नहीं भावना से मुझे पहचानो
मेरा नहीं है ये काल बाधित अस्तित्व
जो भी हूँ मैं  बस हूँ  तुम्हारा ही तत्व
इक शाश्वत कामना है बस यही मानो
मुझसे नहीं मेरी चेतना से मुझे जानो
चिर पुरातन होकर भी हूँ चिर नवीन
बनकर  अभिलाषा इक  युग-युगीन
औ संग तेरे हो मेरा हर इक पल छिन
अवतरित हुआ कई-कई जन्म अगिन
युगों-युगों का साथ हो है यही कामना
निश्छल,नैसर्गिक सा शाश्वत चाहना
संयोग में न उत्पन हो कोई भी बाधा
तू ही कृष्ण हो और मैं हो जाऊं  राधा .
यह अनुष्ठान अब परिपूर्ण हुआ ....



शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

मोनल से मुलाक़ात

वैसे तो मोनल या मोनाल पक्षी के बारे में मैं जानता तो पहले से था मगर जब इसे बिलकुल करीब से देखने का अवसर मिला तो इसकी सुन्दरता को बस देखता रह गया ...सुनहले मोनल की इस जाति-क्रायिसोलोफस  पिक्टस  पर लगता है प्रकृति ने अपने पसंदीदा रंगों का खजाना ही लुटा दिया हो ...मैं बनारस के मशहूर बहेलिया टोला नाम की एक गली में पहाडी मैना ढूँढने गया था जो मनुष्य की बोली की  काफी हद तक नक़ल करने में माहिर है ....पहाडी मैना तो नहीं मिली मगर वहीं मोनल से मुलाक़ात हो गयी ....वैसे भी पहाडी मैना अब वन्य जीव अधिनियम के अंतर्गत प्रतिबंधित है ..मतलब उसे हम अब कैद में नहीं रख सकते ....मगर मोनल का मामला मुझे सदैव उलझाता रहता है ...यह प्रतिबंधित श्रेणी में है या नहीं यह वन्य जीव अधिनियम की सूची से भी साफ़ साफ़ स्पष्ट नहीं होता ..

मोनल यानि  क्रायिसोलोफस  पिक्टस


दिक्कत यह है कि जीव जंतुओं के वर्गीकरण की लीनियस प्रणाली में भी जीनस(गण) और स्पीसीज (प्रजाति ) के नाम भी हमेशा एक जैसे नहीं रहते ..इनमे भी पुराने और नए नामकरण की झंझट बनी रहती है ....अब जो सूची वन्य जीव अधिनियम में दी गयी है वहां क्रायिसोलोफस  पिक्टस नदारद है ....जबकि मेरी  अंतरानुभूति है कि इतना महत्वपूर्ण पक्षी जरुर अबध्य होना चाहिए ..इसका आम बोलचाल की भाषा में जो नाम है -मोनल या मोनल फीजेंट उसकी दो प्रजातियाँ लोफोफोरस जीनस की हैं और वे प्रतिबंधित की गयी है यानि यहाँ भी क्रायिसोलोफस  पिक्टस को क्लीन चिट है ....और यह बहेलिया टोला में उपलब्ध है ..जोड़े का दाम १५ हजार है ..अंतर्जाल पर भी इसकी बिक्री की कई साईट हैं .....

अभी कुछ वर्षों पहले बनारस में बाबतपुर एअरपोर्ट पर मोनल पक्षी के जोड़े पकडे गए ..वन्य जीव अधिनियम के अधीन केस दर्ज हुआ मगर विभाग यह साबित करने में असफल रहा कि वह जोड़ा अधिनियम की अनुसूची में दर्ज प्रजाति का ही था ..आरोपित कोर्ट से बेदाग़ छूट गए और विभाग की किरकिरी हुयी सो अलग ...यह एक बड़ा दुर्भाग्य है कि पक्षी या अन्य वन्य प्रजातियों की सही पहचान के लिए वन विभाग के पास विशेषज्ञों की भारी कमी है ...कभी कभी तो  स्थिति इतनी हास्यास्पद हो जाती है कि पकड़ा जाता है बाघ तो बताया जाता है चीता क्योकि भार्गव साहब अपने पुराने अंगरेजी -हिन्दी शब्द कोष में भूलवश टाईगर को हिन्दी में चीता क्या लिख बैठे कि  आगे की एक दो पीढी यही भूल करती गयी..जबकि टाईगर बाघ /व्याघ्र है, चीता तो भारतीय जंगलों से कब का लुप्त हो गया है ..दुर्भाग्य यह है कि जब हम अपने प्रमुख पशु पक्षियों को भी पहचान तक नहीं पा रहे हैं तो उन्हें संरक्षित क्या कर पायेगें? 
क्रायिसोलोफस  पिक्टस: एक और छवि 

अब मोनल का मामला ही ले लीजिये २००५ तक यह हिमाचल प्रदेश का राज्य पक्षी था ..और जब इसे संरक्षण की बड़ी जरुरत थी तो इसे राज्यपक्षी की पदवी से हटाकर एक दूसरे पक्षी जुजुराणा ( ट्रागोपान ) को राज्यपक्षी बना दिया  गया और कम संख्या में बचे मोनल पर और भी आफत आ गयी ...पूरी रिपोर्ट यहाँ पर है .. इन बदलावों से भी जीवों के संरक्षण में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है ..१९७२ तक भारत का राष्ट्रीय पशु सिंह था मगर प्रोजेक्ट टाईगर को लागू होते ही १९७३ से यह बदलकर बाघ हो गया .....आशय यह कि ऐसे निर्णय लिए ही क्यों जाय जिससे किसी  जानवर को बचाने के चक्कर में किसी और की शामत आ जाय ...


मोनल /फीजेंट की कई प्रजातियाँ भारत में मौजूद है मगर उनके संरक्षण स्टेटस को लेकर भ्रम है ..सम्बन्धित लोगों से गुजारिश है कि इस मामले में छाई धुंध को साफ़ करें नहीं तो यह बहुमूल्य पक्षी संपदा ही साफ़ हो जायेगी ....सुरेश सिंह ने अपने किताब भारतीय पक्षी में फीजेंट पक्षियों में कालिज,कोकलास,पोकरास,जोवार यानी   ट्रेगोपान ,कठमोर ,चिलमे (ब्लड फीजेंट ) .मोनाल (लोपोफोरस इम्पेजानस ) ,चेड,लुंगी,परबतिया (सिल्वर फीजेंट ) आदि का वर्णनं किया है ....ताज्जुब है कि अपनी  बुक आफ इन्डियन बर्ड्स (हैन्डबुक ) में सालिम अली साहब ने इन पक्षियों का जिक्र ही नहीं किया है ...इसलिए मुझे भी इनकी पहचान को लेकर संशय बना रहता है ...और यही कारण है कि मोनल से जुड़े इस अनुभव को आपसे साझा करने की जरुरत समझ में आयी ....कोई पक्षी प्रेमी इस पर और प्रकाश डालें तो मैं आभारी होउंगा ....

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

महारास की रात

आज शरद पूर्णिमा है मतलब क्वार (आश्विन ) माह की पूर्णिमा -स्निग्ध खिली खिली चांदनी पूरी रात ....गुलाबी जाड़े का संस्पर्श और खिली चांदनी आखिर क्यों न श्रृंगारिकता का उद्रेक करे ...फिर तो यही महारास भी होना था कृष्ण का ..दुग्ध धवल चांदनी में  काले गिरधारी का चेहरा निश्चय ही गोपियों को साफ़ शफ्फाक दिखता होगा और प्रेम आसक्ति का भाव गाढ़ा होता होगा ..कहते हैं इसी दिन ही रास नहीं कृष्ण महारास रचाते थे -रास में तो वे केवल राधा के साथ होते, महारास समस्त प्रेम विह्वल गोपियों का आह्वान था ....आज की चांदनी देखिये तो आपको खुद लग जाएगा कि महारास की यही तिथि क्यों चुनी गयी होगी -यह प्रेम का स्फुरण और उत्प्रेरण है ..मिलन का आमंत्रण है!



फेस बुक पर यह महारास आयोजित हो गया है ...ब्लॉग जगत न जाने क्यों रीता रीता सा है ...रास पूर्णिमा को भी यहाँ घनी कालिमा छाई हुयी है ....सोचा तनिक चेता दूं रसिक जनों को ..... :) ज्योतिषी कहते हैं कि केवल आज की रात चन्द्रमा सभी सोलह कलाओं से युक्त होते हैं जैसे वे भी नायक नायिका के अटल प्रेम को अपनी सम्पूर्णता में निरख रहे हों ....बड़ी मान्यताएं है आज के रात की ....कहते हैं चाँद आज रात भर अमृत वर्षा करता है ..सोम नाम चन्द्रमा का इसलिए ही है ...चिर जीवनीय गुणों से युक्त औषधियां इसी अमृत वर्षा से और भी गुणकारी हो उठती हैं ...अब इतने गुणकारी अमृत वर्षा को लक्ष्य कर ही वैदिक ऋषि ने कहा होगा ....तस्मै सोमाय हविषा विधेम .....यही अमृत संचित कर सेवन कर लेने के लिहाज से यह भी परम्परा है कि रात में खीर बनाकर चांदनी में रखा जाय और फिर रसास्वादन कर  आरोग्यता लाभ लिया जाय ..मैंने गृहिणी जी को इस व्यवस्था के लिए कह दिया है ..अब अनुष्ठान प्रिय तो मानव है ही और इसमें सुस्वादु खीर खाने का जुगाड़ भी है ....वैसे तो गृहिणी ना नुकर भी करतीं मगर शरद पूर्णिमा का महात्म्य बताने पर सहर्ष तैयार हो गयी हैं ....अच्छी गृहणियां ऐसी ही होती हैं न ..... :)

शरद पूर्णिमा का महारास 
कहीं कहीं व्रत भी रखते हैं -जिसे कौमुदी व्रत कहते हैं -कौमुदी चांदनी की पर्यायवाची है ....विधान यह भी है कि खीर बनायी जाय और उसी के साथ बैठा भी जाय ....रास ,महारास  के साथ रस भोग  भी  ....चांदनी में सूई में धागा भी पिरोया जाय .....पता नहीं इनमें से आप की तैयारी कुछ है भी या नहीं ..अभी भी समय है कुछ जुगाड़ कर सकते हैं ....मान्यता यह भी कि रात में लक्ष्मी जी गश्त लगाती हैं और देखती हैं कौन जग रहा है और उसे धन धान्य से परिपूर्ण कर देती हैं ...महारास  भी धन धान्य भी ..और चाहिए भी क्या? अब लक्ष्मी भगवती का यह देखना कि कौन जाग रहा है इस महारास पर्व को कोजागर पर्व  नाम भी दे गया है ...



अब कुछ ज्यादा लिखने लग गया तो आप को फिर सारे इंतजाम का मौका नहीं मिलेगा और अक्लमंद को इशारा ही काफी होता है ..क्या समझे? 

रविवार, 9 अक्टूबर 2011

फूली फूली चुन लिए काल्हि हमारी बार ....एक नए सदर्भ में ...!

वैसे तो अंगरेजी भाषा की  क्रिया -"टू वेजिटेट'' एक निष्फल सी, झाड झंखाड़ सी उगती जाती ज़िंदगी की  ओर इशारा करती है मगर एक आम जुझारू ज़िंदगी के साथ भी बहुत से खर पतवार किस्म की चीजें इकठ्ठा होती चलती  हैं , वे इसलिए और भी इकठ्ठा होती जाती हैं कि उनके प्रति हम एक आसक्ति भाव लिए रहते हैं ...जबकि कुदरत का एक 'जीवनीय' सूत्र हमें हमेशा अनेक माध्यमों से सन्देश देता रहता है कि बहुत कुछ पुराने धुराने को हमें टिकाते भी रहना चाहिए ....इसलिए कि 'पुराणमित्येव न साधु सर्वं' (यह पुराना है इसलिए श्रेष्ठ है यह बात हमेशा सही नहीं है)...प्रकृति में भी तो देखिये कई जीव जंतु तो अपने पुराने चोले को हर वर्ष त्यागते रहते हैं और त्यागकर और अधिक आकर्षक हो उठते हैं -सांप समुदाय इसमें निष्णात है ..पुरानी केंचुली उतारी नयी ओढ़ ली .....और भी कातिल सौन्दर्य हासिल कर लिया ....हमें कुदरत से बहुत बातों को सीखते रहना चाहिए खुद अपनी बेहतरी के लिए ...दत्तात्रेय नामके ऋषि ने तो इसलिए पशु पक्षियों को अपना गुरु मान लिया था ....इस पुरानी धुरानी चीजों की साफ़ सफाई को आप जानते ही हैं अंगरेजी में वीडिंग कहते हैं ...दीपावली के पूर्व घरों में वीडिंग अभियान जोरो शोरों से चलाया जाता है ..आफिसों में लाल फीतों में लिपटे कबाड़ को वीड करने के तरीकों पर तो बाकायदा शासनादेश हैं ....

मैं भी अपने साथ एक भरे पूरे उगते उस झाड झंखाड़ से आजिज आता जा रहा था जिससे कभी  मुझे बेहद लगाव था ..यह था मेरी चलती फिरती लाइब्रेरी का हर साल समृद्ध होता जाता हिस्सा जो पत्र  पत्रिकाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा है .नौकरी के पहले और बाद के करीब तीन दशक का पत्रिका साहित्य उसमें जुड़ता गया  है, अनवरत बिना नागा के ..इनसे सबसे बड़ी मुसीबत तो पत्नी जी की ही रही है जो अनेक ट्रांसफरों के समय इनकी पैकिंग को लेकर जूझती और नए जगह पर इन 'फालतू चीजों' द्वारा घर के कई कोनों को कब्जियानें पर खीजतीं -मैं लाख मनाता कि आज मैं अदना सा ही सही जो कुछ भी हूँ और जो कुछ उनके हाथ में हर महीने लाकर रख देता हूँ इसमें इनका बड़ा योगदान रहा है,तब भी एक असहमति का भाव उनके चेहरे पर से हटने का नाम ही नहीं लेता..और मैं अपनी प्रिय पत्रिकाओं,जर्नलों से जुदा होने की कल्पना मात्र से सिहर उठता ..हो सकता है कि कोई अंक कभी ज्ञान पिपासा को शांत करने में काम आ ही जाय ...और मेरी रूचि भी पागलपन के हद तक  विज्ञान के प्रचार प्रसार की रही है ...साईब्लॉग,साईंस फिक्शन इन इण्डिया और साईंस ब्लागर्स असोशिएसन ब्लागों के लिए ही कभी इनमें से कोई काम न आ जायं!कोई पुराना संदर्भ खोजने में ही मददगार न बन जायं ...लिहाजा इन्हें इकट्ठा करता रहा ...  भले ही हमेशा एक बड़ी उधेड़बुन बनी रहती ...कारण वही, पत्नी जी की प्रबल असहमति भाव ..कई बार पूरी सख्ती से प्रतिरोध भी करना पडा है कि खबरदार इनमें से कभी भी कुछ भी रद्दी में बेचा गया तो खैर नहीं ...(अब कौन जाने समुद्र से कुछ बूंदे निकल ही  गयीं हों तो!) ...यह ऐसा  उहापोह रहा कि मैं लोगों से इस समस्या के निपटान के बारे में सत्परामर्श भी लेता रहा हूँ इन बीते सालों में ....

सबसे उपयोगी सलाह  मिली डॉ. मनोज पटैरिया जी से जो भारत सरकार में विज्ञान संचार के एक ऊंचे ओहदे पर हैं ..पिछले वर्ष दिल्ली प्रवास में उन्होंने मेरे बिना पूछे ही बता दिया था  कि उन्होंने ऐसे संग्रहीत साहित्य से बड़ी बेकदरी और निर्दयी भाव से नाता छुड़ा लिया है और यह निर्दयी भाव वहां तक जा पहुंचा जब उन्होने अपने  प्राईमरी तक की मार्कशीटें भी  रद्दी के हवाले कर दीं और उनकी स्पष्टवादिता तो देखिये (या बडप्पन!) कि उन्होंने यह भी तस्दीक कर दिया कि उस ढेर में मेरा पहला कहानी संग्रह 'एक और क्रौच वध' भी था ..मैं मानों पहाड़ से गिरा ......क्या मेरे कहानी संग्रह, वह भी पैलौठी के,  की यही नियति थी ....आँखे खुल गयीं मेरी ...तभी मैंने कुछ फैसले ले लिए थे ....फिर आज इन्टरनेट के ज़माने में  शायद यह  धरोहर कोई बहुत उपयोगी नहीं रह गयी है .ज्ञान का खजाना तो अब सामने ही है ....की बोर्ड पर उंगलियाँ फिराने की देर भर है ...
कुछ यूं हुयी रुखसती :(


 पहले तो मैंने सोचा कि यहाँ इस बारे में विज्ञापित कर दूं कि जिसे भी पिछले तीन दशकों के विज्ञान प्रगति,साईंस रिपोर्टर,टाइम ,रीडर्स  डाइजेस्ट, विज्ञान और सायिन्टिफिक अमेरिकन पत्रिकाएं चाहिए वो अपने हर्ज़े  खर्चे पर यहाँ से उठा ले  जाय मगर फिर सोचा कि अपनी बला किसी और पर डालना कहाँ की नैतिकता है? अब अपनी दीवानगी पढने के मामले में कुछ अलग टाईप की थी जो इलाहाबाद में पढाई और नौकरी के भी दौरान  कटरा की सकरी  सड़क के फुटपाथों पर सजी बिछी दुकानों से किताबी मोती चुगते रहते थे.... 

आखिर एक  अप्रिय फैसले को अमली रूप देने का दिन आ ही पहुंचा ..कल अपनी  ही दशकों  तक की  प्रिय पत्र पत्रिकाओं की रुखसती भरे मन से करनी पडी ...उनका भी वक्त एक दिन आना ही था ....उनके प्रति आसक्ति भाव  भावुकता कई बातों /लोगों पर भारी पड़  रही थी ..मालकिन ने बताया कि रद्दी एक कुंतल से कुछ ही अधिक थी ...किस मोल बेंचा उस अनमोल थाती को यह तो नहीं बताया और मुझे पूछने की हिम्मत भी नहीं है जो दिल पर गुज़र रहा  है मैं ही जानता  हूँ! दिल को दिलासा दे रहा हूँ कि अतिशय  संग्रह कोई भी अच्छा नहीं होता ...पैसे या किताब किसी का  भी...मगर मैं इन किताबों का क्या करूं जो शेल्फ से अभी अभी गुजरे जलजले को जैसे  बड़ी मायूसी से निहार रही थी...फूली फूली चुन लिए काल्हि  हमारी बार ....
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जनसत्ता में पुनर्प्रकाशन 

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

क्या आप तैयार हैं रतजगा की भी कीमत पर बिग बॉस सीजन पांच को देखने के लिए?

बिग बॉस सीजन पांच शुरू हो गया है -इसकी लांचिंग सेरेमनी में मैं माहिला प्रतिभागियों की गिनती करते करते थक गया -कुल तेरह की (अ)शुभ संख्या में देवियाँ एक के बाद एक अवतरित होती गयीं और मैं नतमस्तक होता गया ..एक से बढ़कर एक हैं सब  ....एक तो चार्ल्स शोभराज की दीवानी हैं और शो के एकमात्र बिचारे (का ) पुरुष शक्तिकपूर(नाम बड़े और दर्शन छोटे)  को भी लुभाने की कोशिश में लग गयी हैं ...एक अर्धरात्रि में आईने में होठों पर लिपस्टिक फेरते हुए उन्होंने शक्ति से गुफ्तगू की कि वे उन्हें इम्प्रेस करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ने वालीं हैं .....एक प्रतिभागी को अभी जेल हुयी तो जेल से छूटते ही अपनी एक प्रतिस्पर्धी से बोल उठीं  कि जब उसे छोड़कर वे गयीं थी तो वह प्रेगनेन्ट नहीं थी मगर उसके जाते ही वह कैसे प्रेगनेन्ट हो गयीं ..एक ने दूसरी के लिए कहा  कि बड़ी आग है रे उसमें ....(मतलब कोई तो बुझाये ..आगे आग को बुझाने का विस्तार से वर्णन भी होगा ही ) 

एक बृहन्नला (यदि इस शब्द से आप अपरिचित हैं तो अपने  हिन्दी शब्दकोश ज्ञान को और बढाईये,हम नहीं बताने वाले)   प्रतिभागी भी हैं ....उनसे "सेक्सुअल अनुभव" की बातें शेयर करने पर कोई  आमादा दिखीं -यह आज की ...आधुनिक और असेर्टिव नारी हैं ....या पैसे कमाने को /व्यावसायिक समझौते के तहत किसी भी सीमा तक जाने को तैयार नारी और उनका इस्तेमाल करने की व्यवसायी सोच ....नहीं नहीं मैं कोई मोरल पुलिसिंग नहीं कर रहा बल्कि चाव से देख रहा हूँ ड्रामे को अनफोल्ड होते ....बस दिक्कत यही है कि यह काफी देर से आसमानी हो रहा है और वह मेरे लिए सोने का समय है ..यह बात अपने पाबला जी बखूबी जानते हैं मेरे बारे में यकीन न हो पूछ सकते हैं ...  हाल यह है कि इसेदेखते हुए  आँखें मुंदते मुंदते अचानक खुल सी जाती है कुछ बतकहियों और दृश्यों पर ......

यहाँ देवियों की इतनी बड़ी फ़ौज देखकर एक काफी पहले पढ़ा चुटकुला याद आ गया -दो सखियाँ आपस में बात कर रही थीं . एक ने दूसरी से कहा कि जानती हो सखी ये पुरुष लोग भी अकेले में वही बतियाते हैं जो अक्सर हम बतियाते रहते  हैं तो दूसरी बेसाख्ता बोल पडी ..हाय रे वे कितने गंदे होते हैं ..... :) बस जैसे इसी ग्रंथि से पैसा लूटने की शगल शुरू है बिग बॉस सीजन पांच में ....देखते जाईये महिलाओं की असली प्रतिनिधि दुनिया ...शौकत थानवी उर्दू के अच्छे व्यंग लेखक हुए हैं ..उनके एक व्यंग में मैंने पढ़ा था कि प्रगटतः आधुनिक देवियाँ बहुत सुशील दिखने का सारा प्रयास करती हैं मगर अँधेरे और अकेले में उनका कार्य व्यवहार बदल जाता है ....उन्होंने अपने एक लेख में इनकी इस कथित प्रवृत्ति की चुटकी लेते हुए एक उस वाकये का जिक्र किया था जब वे फिल्म देख रहे थे ...जब बगल से एक फुसफुसाहट भरी आवाज आयी कि छोडिये न मेरा हाथ क्यों पकड़ रहे हैं आप ..तो  वे अकबका के रह गए ...नहीं मैंने कब आपका हाथ पकड़ा? वे घबरा कर बोल उठे और किसी तरह सिमटे दुबके रहे ..शिव शिव करके इंटरवल हुआ तो उन्होंने मोहतरमा का दीदार करना चाहा मगर वे तो बड़ी बेरुखी से दूसरी ओर देख रही थीं...कुछ समय पहले इतनी निकटता दिखाने वाली देवि उजाले में दूरस्थ हो गयीं थीं ....इस प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति  कहीं और सुनी है आपने ? याद कीजिये!

तो क्या आप तैयार हैं बिग बॉस सीजन पांच को देखने के लिए ..रतजगा की भी कीमत पर ..हाँ जी हम तो तैयार  हैं ....आप सरीखा कोई साथी भी मिल जाय तो फिर क्या बात है?  


बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

पिता जी की पुण्य तिथि पर ...

आज उनकी पुण्य  तिथि है... जीवन में अगर किसी की प्रतिभा ने मुझे गहरे रूप से प्रभावित किया तो वे पिता जी ही थे ..डॉ. राजेन्द्र मिश्र ....आपकी नज़र में यह एक सामान्य सहज पितृ प्रेम हो सकता है ..और मैं भी यही सोचता हूँ कि पुत्र तो पिता की ही एक अनुकृति होता है -आत्मा वै पुत्रो जायते ..वे एक बहुत अच्छे गद्य लेखक और निबंधकार थे....उनकी पुस्तक आधुनिक हिन्दी निबंध के कई लेख /निबंध खासकर मनुवाद का यथार्थ बहुत चर्चित हुआ था ..अपने लेखों में  वे कभी कभी कुछ पद्यात्मक अभिव्यक्तियाँ कर जाते थे ..उन्ही में से कुछ चयनित करके यहाँ प्रस्तुत है ....
...थी नहीं मंजिल कहीं.... 
उम्र गुज़री हसीन सपनो में 
चाँद तारों के सब्ज बागों में, 
डूब गया दिल खुलीं जब आँखें 
कैसी थी साजिश आसमानों में 

रहे पिटते हम विजेता नहीं थे 
हो गए गुमनाम हम नेता नहीं थे 
खुली पुस्तक सी रही यह जिन्दगी 
पढ़ लिया लोगों ने अभिनेता नहीं थे 

बहुत लम्बी है यह रात क्या किया जाए 
नहीं बनती है कोई बात क्या किया जाए 
''आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक''
नहीं है हाथ में इक उम्र क्या किया जाए 

उम्र भर  चलता रहा
मकसद समझ पाया नहीं 
था नहीं राहों का राही 
थी नहीं मंजिल कहीं ...
 आज मेरे पैतृक आवास पर हर वर्ष की भांति उनके पुण्य स्मरण का अनुष्ठान है ..अनुज  डॉ. मनोज मिश्र उसका संयोजन कर रहे हैं .नौकरी के चक्कर में मैं  नहीं जा पा रहा हूँ .. पिता जी अक्सर यही यह उद्धृत करते रहते थे कि पराधीन सपनेहु  सुख नाहीं -नौकरी के बारे में भी यह बड़ी सटीक उक्ति है ..और यही अनुभूति मुझे 
 शिद्दत के साथ हो रही है ....
पुण्य स्मरण....... 

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

अगर गया के पण्डे न होते तो फिर बुद्ध भी न होते ...(बनारस से बोध गया और गया तक की एक ज्ञान यात्रा -3)

गया के आगे ....
गया से लौट कर विक्षुब्ध मन लुम्बिनी में रात बितायी..लुम्बिनी एक ठीक ठाक होटल है ..खाने के जायके ने  मन को कुछ हल्का किया ...दिन भर के थके मादे  तो थे ही ..बस ऐसी नीद लगी जिसे  घोड़े बेंच के सोना कहते हैं ...सुबह जल्दी जल्दी तैयार हो निकल पड़े बोध गया के मूल  स्थल को ...जिसके बारे में अभी तक बस इतना ही मालूम था कि यहीं एक पीपल के पेड़  के नीचे गौतम बुद्ध को ज्ञान मिला था ....स्थानीय लोगों से बात चीत करने पर यह आभास हो गया था कि मुख्य दर्शनीय स्थल 'बोधि वृक्ष' वही पीपल का पेड़ ही है ....मेरी उत्कट इच्छा हो रही थी कि मैं भी तनिक उस वृक्ष के तले कुछ देर ठहर लूं -भले ही सारा ज्ञान महात्मा बुद्ध ले गए हों तब भी कुछ जूठन शायद बची खुची  हो जो परासरण (आस्मोसिस= इधर तो कुछ भी नहीं है न!) के चलते इस किनारे भी आ लगे और याचक का कल्याण हो जाय   -कुछ यही भाव मैंने फेसबुक पर टिपियाया भी ...सो बड़े जोश खरोश से उस स्थल पर सदल बल जा पहुंचा -बड़े बोर्ड पर लिखा था विश्व धरोहर (यूनेस्को ,२७ जून २००२ ) ...
जाहिर है उत्कंठा अब और बढ़ चली थी ..आस पासके परिवेश की भव्यता अहसास होने लगी थी जैसे  सचमुच हम किसी अलौकिक स्थल पर पहुँचने वाले हों  ....अचानक सामने निगाह उठी तो एक भव्य मंदिर दिखा ....यहाँ मंदिर? ..स्तूप के जगह  मंदिर?? -मैं भौचक रह गया ....भगवान् बुद्ध से जुड़ा कोई स्मारक स्तूप के बजाय मंदिर? अक्ल सचमुच चकरा गयी! पूछ ताछ शुरू हुई तो रहस्यों का अनावरण होने लगा ..
नील वर्णी बुद्ध के साथ मैं ,पत्नी संध्या और मित्र कंचन जैन जी 
.... यह पता चला कि सामने का भव्य और नयनाभिराम मंदिर महाबोधि (महाविहार ) मंदिर है जो बोध गया का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है और यहीं ईसा से छठवीं शती पहले गौतम बुद्ध को ज्ञान/बोध /बुद्धत्व प्राप्त हुआ था ..मगर यहाँ मंदिर कैसे? कोई स्तूप क्यों नहीं? दरअसल अपने मूल रूप में यहाँ ईसा पूर्व तीसरी शती में सम्राट अशोक का बनवाया हुआ स्तूप ही था मगर इसे दूसरी शती में तोड़ा गया और फिर बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गयी...सातवीं शताब्दी में गुप्त राजाओं ने  इसे अंतिम रूप दिया ....यहाँ एक विरोधाभास् स्पष्ट था ...गौतम बुद्ध वैदिक कर्मकांडों ,पाखंडों ,धर्म के नाम पर छद्म आचरणों के विपरीत अलख जगाते रहे ...यह मात्र संयोग ही नहीं है कि उन्होंने अपनी वैचारिक क्रान्ति का बिगुल गया से ही  फूंका -अब गया से बढ़कर और कहाँ कर्मकांडों का भोंडा प्रदर्शन और जीवन के बाद भी आत्मा की अवधारणा को लेकर तरह तरह के अनुष्ठानों ,यज्ञों   का विधि विधान था ? सर्वथा उचित ही था कि बुद्ध ने यही से अपने 'बुद्ध मार्ग' प्रवर्तन किया ....
यद्यपि बुद्ध ने  ऐसा कुछ नहीं कहा जो उपनिषदों से सर्वथा अलग रहा हो ...नैतिकता ,अहिंसा ,सत्य के प्रति आग्रह,  करुणा हिन्दू जीवन दर्शन के मूल अवयव बन चुके थे ....याज्ञवल्क्य  पहले ही धर्म के ९  लक्षण बता चुके थे ...(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना) , दान, संयम (दम) , दया एवं शान्ति)  बुद्ध ने भी ऐसे ही आचरण को अपनाने पर बल दिया -मगर पोंगा पंथ ,अंधविश्वास पर कुठाराघात किया ...एक तरह से गौतम बुद्ध हिन्दू धर्म दर्शन के एक बड़े सुधारक /उद्धारक नजर आते हैं और कालांतर के मनीषियों ने इस बात को अच्छी तरह समझ भी लिया था ...
शंकराचार्य ने बुद्ध की मान्यताओं -उनकी व्यावहारिक दृष्टि को अपनाया -प्रछन्न(छिपे ) बुद्ध तक कहे गए ...बुद्ध परिसर में ही हमने एक शंकराचार्य का मठ भी देखा ...थोडा आश्चर्य भी हुआ कि सनातनियों ने किस तरह बुद्ध को अपने में समाहित कर लिया .... हाँ धर्म को व्यवसाय बना चुके ब्राह्मणों को बुद्ध रास नहीं आये ...अब यह कोई सोची समझी रणनीति रही हो या कुछ विवेकवान मनीषियों की दिव्य दृष्टि कि मूर्ति  पूजा के विरोधी बुद्ध की खुद मूर्तियाँ बन गयीं -उन्हें हिन्दू दशावतारों में पद प्रतिष्ठा दे दी गयी -सामने का भव्य मंदिर तो जैसे यही कहानी बता  रहा था...बहरहाल हम बुद्ध की वैचारिक विराटता के सामने नतमस्तक थे ..एक नीलवर्णी बुद्ध प्रतिमा के सानिध्य में हमने फोटो भी खिंचाई ...निकट ही एक बैठे हुए विशाल बुद्ध की ८० फीट ऊंची प्रतिमा तो बड़ी ही भव्य थी ...
हम आगे बढे ..सामने ही एक पट्टिका लगी हुयी थी जो बुद्ध के इस वचन की उद्घोषणा कर रही थी कि कोई भी जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण होता है ......इस मंदिर में बुद्ध की प्रतिमा बड़ी ही सम्मोहक लग रही थी .....मंदिर  के ठीक पीछे पीपल का एक विशाल वृक्ष है जिसे बोधि-वृक्ष की पांचवीं पीढी का बताया जाता है ...इसी के नीचे 623 ईसा पूर्व वैशाख पूर्णिमा जो संयोगवश (?) उनका जन्म और परिनिर्वाण दिन भी है ,गौतम बुद्ध को 'ज्ञान बोध' हुआ था ...और इसलिए ही कालान्तर में स्थान का नामकरण हुआ बोध गया ....
इस आशा में बोधि-वृक्ष के नीचे खड़ा रहा कि शायद कुछ बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाय 
एक विषद  परिसर है यहाँ और बुद्ध के ध्यानस्थ होने के दौरान के कई प्रसंग यहाँ अभिव्यक्त हैं .....यहाँ का विस्तृत वर्णन चीनी घुमक्कड़  यात्री हुयेन त्सांग ने भी ६७३ ईस्वी    में किया था ...मैंने बोधि वृक्ष के नीचे खड़े होकर प्रशांति का अनुभव किया...फेसबुक पर टिपियाया और फोटो भी खिंचाई  ....बोधि  वृक्ष के नीचे जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ बौद्ध सिंहासन है .... वज्रासन -डायिमंड थ्रोन भी कहते हैं इसे ...
बोधि वृक्ष के नीचे  खड़े   खड़े  गिरिजेश राव से बतियाया तो उन्होंने वहां  पहले ही आ चुकने की कथा छेड़ दी .... सुजाता का  मौन प्रेम और खीर का अर्पण ..बुद्ध का मार (कामदेव) से संघर्ष ..गिरिजेश जी से अनुरोधपूर्वक आग्रह है कि वे ब्लॉग जगत को इन बुद्ध -प्रसंगों से अपनी शैली में समृद्ध करें ...    आगे के विशाल परिसर में चहलकदमी करते हुए मैंने विचित्र दृश्य देखे ....जिस कर्मकांड  का बुद्ध आजीवन विरोध करते रहे  सामूहिक रूप से गया के पण्डे वहां वही आहूत किये हुए थे -पिंडदान  जारी था ..जब बुद्ध दशावतार में शामिल हो गए तो इतनी छूट कालांतर में पुरोहित ब्राह्मणों को लेनी ही थी ....
हे बुद्ध! तेरे परिसर में भी पिंड दान 
धन्य है यह भारतीय मानस जहां सब कुछ गुड गोबर होते देर नहीं लगती .....और गोबर पट्टी से गुदड़ी के लाल को प्रगट होना भी आश्चर्य में नहीं डालता ..बुद्ध इधर के ही थे .... आज गया और बोध गया का कोई फर्क नहीं रह गया है ....हाँ यह स्थान एक सुन्दर से पर्यटन  स्थल के रूप में विकसित हो रहा है ...और इस लिहाज से आपको भी वहां जाना चाहिए -बुद्ध अनुयायी कितने ही देश -भूटान ,चीन ,थाईलैंड ,जापान,श्रीलंका  आदि वहां अपने अपने भव्य बुद्ध  प्रासादों / विहारों की स्थापना कर चुके हैं -सभी बहुत खूबसूरत और दर्शनीय हैं . यहाँ अब बहुतों की रोजी रोटी पर्यटन से चलती है जैसे कृष्ण भाई की जो पर्यटन साहित्य बेंचते है और उनकी बेलौस स्टाईल खरीदने वालों की जेबे हल्की जरुर करती है ..
बुद्धत्व मिले न मिले कृष्ण को रोजगार तो मिल ही गया 
कृष्ण का कहना था कि रोजगार मंदा चल रहा है सारी पूंजी तो पण्डे पिंडदान कराने में ले लते हैं पर्यटकों का ..मगर जब मैंने विदेशी पर्यटकों के क्रय शक्ति के बारे में पूछा तो कुछ छिपाने से लगे कृष्ण जी ....मतलब  साफ़ था धंधा   चोखा चल रहा था  ....पंडों को सभी कोसते हैं मगर भूल जाते हैं अगर वे नहीं होते तो फिर बुद्ध भी नहीं होते ....उनकी जरुरत ही नहीं थी तब  .... :) 
बुद्धं शरणं गच्छामि (समाप्त ) 

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