गुरुवार, 31 मार्च 2011

लौंडों की दोस्ती ढेलों की सनसनाहट

यह एक सीख थी जो काफी पहले  एक बड़े बुजुर्ग से मिली थी.और यह इसलिए दी गयी थी कि कम उम्र वालों से ज्यादा मेल मिलाप घुलना मिलना एक सीमा तक ही ठीक है इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाय .मतलब  अपने समान वयी लोगों से घनिष्ठता तो ठीक है मगर ज्यादा उम्र के अंतर वालों से दोस्ती में थोड़ा विवेक जरुर बरतना चाहिए अन्यथा वही हो रहता है जो मेरे साथ तो कई बार हुआ है और अभी हाल में एक ट्यूशन पढ़ाने वाले गुरु जी के साथ हो गया ...पहले गुरु जी की बात ..

गुरु जी गाँव के एक रईस/खानदानी अभिजात्य  परिवार में बच्चों का ट्यूशन करते हैं .अब बच्चे रईस परिवार के हैं तो गाँव के बच्चों /स्ट्रीट अर्चिंस से उनका मेल जोल न के बराबर है .लेकिन उनका ट्यूशन कर रहे मास्टर साहब पहले तो गाँव के बच्चो से आते जाते हिल मिल गए मगर उनकी शरारतों से ऊब कर उनसे दूरी बढाने लगे या यूं कहिये थोड़ी अभिजात्यता उनमें भी आ गयी ....गवईं बच्चों ने यह भांप लिया और उनका आक्रोश इतना बढ़ा कि एक दिन ट्यूशन से वापस लौटते वक्त बच्चों ने हंसी हंसी में पहले तो उनका नजर का चश्मा उतारा और फिर उन्हें एक सड़क के किनारे गड्ढे में धकेल कर ढेलों की बौछार कर दी ....सड़क से गुजरते कुछ यात्रियों की नजर इस वाकये पर गयी तो मास्टर साहब की समझिये जान बची ...जैसे ही मैंने इस पूरे वाकये को सुना जी धक् से रह गया सो अलग, वो सीख भी याद हो आयी -लौंडों की दोस्ती ढेलों की सनसनाहट! 

बच्चे, नव युवा मुझे भी आकर्षित करते हैं -कारण स्पष्ट है वे अपेक्षया निश्छल होते हैं और भविष्य की अनन्त संभावनाओं की आहट  लिए होते हैं -उनका दिमाग दुनियादारी से कम प्रदूषित होता है ...सहज होते हैं ,मित्रवत भी ....मगर उनका जो सबसे नकारात्मक पहलू होता है वह है उनकी नादानी -कहते भी हैं नादान दोस्त से दानेदार दुश्मन अच्छे होते हैं ....मुझे यह पता है बल्कि शिद्दत से इस मर्म से गुजरा भी हूँ . मगर उनकी मासूमियत ,आखों में भविष्य की चमक मुझे खींचती है ...ब्लागजगत में मेरे कितने ही युवा मित्र हैं मगर उनकी नादानी मुझे गाहे बगाहे दुखी करती रहती है ....एक मेरे नादान मित्र ने मेरे पिछले पच्चीस सालों के श्रमपूर्वक लिखे डार्विन के मेरे आलेखों को नेशनल बुक ट्रस्ट से अपने नाम  से छपवा लिया ....एक दूसरे कम वयी मित्र मुझे एक उस संस्था के अध्यक्ष पद से बेदखल करने की धमकी दे चुके हैं जो मैंने ही उन्हें प्रेरित कर और उनके ही इमेज बूस्टिंग के लिए वजूद में लाई है  ....ये घटनाएं बड़े बुजुर्गों के सुदीर्घ अनुभव से दी गयी सीखों पर ही मुहर लगाती  हैं-कम उम्र वालों से दोस्ती तो करें मगर विवेक के साथ और एक दूरी बनाकर ही ....एक जगह मेरे अनवरत  रचनात्मक योगदान को ही परे धकेलते हुए जनहित के एक बहुत ही महत्वपूर्ण ब्लॉग को हमेशा के लिए डिलीट कर दिया गया ....शायद उम्र के इस बेमेल मित्रवत सम्बन्ध के बारे में यह अंगरेजी की कहावत ज्यादा मौजू है -फैमेलियारिटी ब्रीड्स कन्टेम्प्ट!...ज्यादा घुलना मिलना भी अपमान की स्थितियों को बढ़ावा दे सकता है ..इसलिए ही अनुभवी लोग रिश्तों में एक मर्यादित दूरी बनाए रखने की वकालत करते हैं ..

अब छोटों को केवल यह मानकर कि वे उम्र में छोटे हैं नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता -कई तो बड़ों के कान काटने में खूब अभ्यस्त होते हैं -बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभान अल्लाह..और यह भी कि 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर .." मगर एक समन्वयवादी दृष्टि अपनानी ही पड़ जाती है  क्योंकि यह भी आगाह किया  जा चुका है कि 'रहिमन देख बडेंन को लघु न दीजिये  डार जहाँ काम सुई करे कहाँ करे तलवार!

मगर जब आप किसी को ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं और अगर वह पर्याप्त विवेक वाला नहीं हुआ  जैसा कि अक्सर होता ही है तो आपके दिए सम्मान/संपत्ति  को वह 'टेक फार ग्रांटेड' ले लेता है ...और आपके किन्ही कारणों से दूरी बनाते ही वह आक्रामक और डिमांडिंग होने लगता है -बढ़त बढ़त सम्पति सलिल मन सरोज बढ़ जाय ,घटत घटत पुनि न घटे बरु समूह कुम्हलाय वाली स्थति  प्रगट हो उठती है ..नव युवाओं में अमूमन बहुत सी सकारामक बातें तो होती हैं मगर उनका बहुत जल्दी नेम फेम पा जाने ,जल्दी ही धनाढ्य और पूज्यनीय होने की प्रवृत्ति जो इन दिनों उफान पर है ,उन्हें काफी धक्के भी देती है -स्थायी सफलता का कोई शार्ट कट रास्ता नहीं होता ...इसे बार बार कहने की जरुरत नहीं है ...मुझे तो लगता है अपने लक्ष्य के प्रति  निरंतर प्रयासरत रहना ,अपने से योग्य बड़ों का बिना संशय सम्मान ,विनम्रता और  कार्य आचरण की इमानदारी आज के युग में भी सफलता के सूत्र हैं ...

ये विचार कई दिनों से मन में उमड़ घुमड़ रहे थे मगर आज ज्यादा प्रबल होकर आपके सामने प्रस्तुत हो गए ..निश्चय ही आपका मंतव्य पहले की ही तरह मुझे इस मुद्दे पर लाभान्वित करेगा..

64 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ा आकर्षक और अनूठा लेख लिखा है आपने .....पहले बधाई स्वीकार करें !

    हम जैसे जल्दवाज और त्वरित प्रतिक्रिया करते वयस्क, ऐसी समस्याओं से अक्सर दो चार होते रहते हैं. लोग अक्सर सम्पूर्ण प्यार का अहसास करने में असमर्थ अथवा अयोग्य होते हैं ऐसे में गलती समझदारों की ही मानी जानी चाहिए जो नादानों से समझदारी की अपेक्षा करते हैं :-(
    ....

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  2. @ "एक जगह मेरे अनवरत रचनात्मक योगदान को ही परे धकेलते हुए जनहित के एक बहुत ही महत्वपूर्ण ब्लॉग को हमेशा के लिए डिलीट कर दिया गया "

    सन्दर्भ मुझे नहीं मालुम मगर लगता है आप काफी व्यथित है !

    मेरा आपसे अनुरोध है कि तुरंत नतीजे पर न पंहुच कर अपने उन मित्र से बात अवश्य करें ...

    शायद आपके मित्र किसी ऐसे बात से नाराज हों जिसका आपको अहसास भी ना हो ! अक्सर बरसों पुरानी दोस्ती, गलत फहमियों के कारण क्षणों में धुल धूसरित होते देखी गयी है :-(

    भावुक इंसान के अच्छे दिल की पहचान हर इंसान नहीं कर पाता ...सो नाज़ुक मौकों पर भावुकता के कारण आये क्रोध पर काबू रखियेगा !

    देर सवेर लोग आपकी ईमानदारी पर यकीन करेंगे और आप जैसे मित्र के दूर होने पर शायद पछतावा भी करें !

    हार्दिक शुभकामनायें ...

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  3. @सतीश भाई,
    आज तो आप त्रिकालदर्शी, ब्रह्म तेज से ओतप्रोत हुए जाते हो!
    आप ब्राह्मण क्यों हुए ,बल्कि आज से मैं आपका ब्राह्मणत्व- संस्कार करता हूँ!
    हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ,आपकी वाणी पर आज सरस्वती विराज गयी हैं ..

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  4. nisandeh.....apke vichar......anubhav
    ki kasauti par khare utarte hain.....

    ap sab se bahut chota ye balak apne se adhe vayas walon se bhi sanjidgi se hi sambodhit hota raha hai......
    lekin bare bhaijee satishji ke nishchal byvbhar aur apki iminadari
    se sahaj swikarya bhyvhar ke karan kai ek baar vyktigat sambodhan ke saath chutili baten bhi kari hai...

    niti bhi kahti hai 'shresht ko samman evan choton ko sneh milni chahiye...'

    pranam.

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  5. मुझे सन्दर्भ नहीं मालूम लेकिन इतना कहूँगी कि इतनी अधिक अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए. जहाँ अपेक्षा होगी, उसके पूरे ना होने पर दुःख होगा. हाँ, कम उम्र लोगों की परिभाषा किस उम्र से किस उम्र तक है ये बता दीजिए :-) .आपसे छोटी तो मैं भी हूँ, लेकिन समझदार हूँ. कुछ लोग कम उम्र में ही बहुत समझदार हो जाते हैं और कुछ पचीस-छब्बीस की उम्र पर पहुँच के भी किशोरावस्था वाली हरकतें करते हैं. समझदारी का उम्र से बहुत अधिक लेना-देना नहीं होता... हाँ कुछ हद तक ये सही है.
    बात छोटे या बड़े की नहीं है. हर रिश्ते में एक दूरी, एक स्पेस होना ज़रूरी होता है, उसके विस्तार के लिए. अगर ये अपेक्षित दूरी ना हो तो घुटन होगी, टकराहट होगी. मैंने देखा है कि आपकी ये आदत है कि बड़ी जल्दी किसी पर विश्वास कर लेते हैं, उसे सिर चढ़ा लेते हैं और बाद में पछताते हैं. पहले से ही सावधानी क्यों नहीं बरतते?

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  6. @मुक्ति,
    साक्षात सरस्वती ही जिह्वाग्र हैं आपके भी!आज मुझे दिख भी रही हैं -अदृश्य सरस्वती का आभास तो सदैव रहा है आपमें!
    मैं कुछ नहीं कहूंगा!

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  7. अनुभव भी आदमी को समझदार बनाता है।

    आपकी बोधकथा गाँठ में बाँध रहा हूँ। शायद काम आये...।

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  8. eg: अपने बारे में - जब किशोर थे तो जवान थे। जब जवान हुये तो परेशान थे। जब अधेड़ हुये तो किशोर हो गये... वाह रे हम!
    :)
    मैं एक पोस्ट लिख दूँ कि सभी ब्लॉगर अपनी आयु का खुलासा करें ताकि उनसे दोस्ती दुश्मनी असंपृक्त होने का हिसाब किताब कर लिया जाय।

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  9. is mayavi duniya main koie kisi ka dost nahi aur koie kisi ka istahi dusman nahi hai ....

    kal mohali mai jo huya duniya ne dekha .....

    santam saswatam........

    jai baba banaras....umer 41 saal....
    jai baba banaras.....

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  10. आपका लेख विचारणीय है अरविन्दजी, हमें रिश्तों के अनुरूप व्यवहार भी करना चाहिए|
    आपको नहीं लगता सर की हर उम्र में और हर उम्र से हम बहुत कुछ सीखते हैं...

    शुभकामनाएँ

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  11. @"हर उम्र में और हर उम्र से हम बहुत कुछ सीखते हैं"
    सहमत कविता जी!

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  12. मुक्ति की बात से काफी हद तक सहमत हूँ. बात छोटे बड़े की नहीं परन्तु हर रिश्ते में कुछ स्पेस और औपचारिकताएं होनी चाहिए ज्यादा नजदीकियां गलत फहमी का कारण बन जाती हैं.
    आपकी इस बात से -
    ज्यादा घुलना मिलना भी अपमान की स्थितियों को बढ़ावा दे सकता है ..इसलिए ही अनुभवी लोग रिश्तों में एक मर्यादित दूरी बनाए रखने की वकालत करते हैं .
    १००% सहमत.

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  13. आपकी इस पीड़ा वाली पोस्ट के एक दो सन्दर्भ तो मुझे पता है . सफलता के सूत्र जो आपने बताये या बुजुर्गों द्वारा अनुभवजन्य है वो हर काल में प्रभावी होगे .

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  14. अरविन्द जी
    आप मुद्दे से क्यूँ नहीं जुड़ कर लिखते हमेशा नेटवर्क से जुड़े दिखते हैं । सच और सही के साथ खड़े हो जाईये और भूल जाइये आप के साथ कौन हैं और कौन नहीं इस आभासी दुनिया मे । उम्र का एहसास तब क्यूँ हो रहा हैं जब आप के साथ गलत हुआ ?? तब क्यूँ नहीं उम्र कि गरिमा याद आती हैं जब दूसरो के साथ गलत होता हैं । ब्लॉग जगत मे बड़ा छोटा नहीं होता , दोस्त दुश्मन नहीं होता , बस मुद्दा होता हैं ।

    आप दोस्ती करते हैं और उस दोस्ती के गुण अवगुण ब्लॉग पर डाल देते हैं ।

    कल विचार शून्य कि पोस्ट पर पढ़ा आप कह रहे थे "कुछ ब्लॉगर भी हैं जिन्होंने मुझे अपनी दारुण कथा बताई है"
    http://vichaarshoonya.blogspot.com/2011/03/blog-post_28.html?showComment=1301414817069#c806991681554342007

    उससे पहले आप कि पोस्ट पर ही पढ़ा था "कहाँ लिख पा रहे ,सर्प संसार अधूरा पड़ा है नागिन छोड़ के चली गयी ।क्या करे नाग विचारा ॥अकेले कब तक बीन पर नाचेगा?इक्कीसवी सदी की नागिन है"http://mishraarvind.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1294014602461#c2162074200135959429

    क्या आप अपने मित्र होने कि गरिमा और वो भी उम्र मे बड़े मित्र होने कि गरिमा को निभाते हैं ???

    मित्र को कुछ भी बताने का मतलब अपने मन के गुबार को हल्का करना होता हैं पर आप तो उस निजता को कभी निभाते ही नहीं

    जाकिर प्रकरण मे भी बात मित्रता कि क्यूँ हो रही हैं वो आप के मित्र हैं और आप के फवोर मे उनके कमेन्ट हमेशा रहे हैं आप से ज्यादा तो उनको दुःख हो रहा होगा पर अभी तक व्यक्तिगत पोस्ट पर कहीं ये मुद्दा वो ब्लॉग जगत मे नहीं लाये हैं ।

    आप व्यक्तिगत मित्रता को क्यूँ पोस्ट और कमेन्ट का मुद्दा बनाते हैं ।

    पढ़ा था
    जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहिं विलोकत पातक भारी।।


    no offence intended mr mishra delete the comment if you want

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  15. मेरा भी मानना है कि हर रिश्ते में एक दूरी, एक स्पेस होना ज़रूरी होता है और यह सुखकर भी है दोनों पक्षों के लिये।

    इसी मुद्दे को लेकर गिरिजेश जी ने एक पोस्ट लिखी थी -

    प्रगाढ़ आत्मीयता बस 'चरम प्रेम' में ही अनुभवहीन हो जाती है अन्यथा अधिक निकटता होने पर व्यक्तित्त्व के खोटे पहलू दिखने लगते हैं, आप के व्यवहार को प्रभावित करने लगते हैं। सच्ची मित्रता मित्र के दोषों को भी स्वीकारती है। मित्र को सम्पूर्ण रूप से स्वीकारती है - सदोष। लेकिन क्या इस आभासी संसार में भी वैसा हो सकता है?

    यह रहा उस 'राप्चिक पोस्ट' का लिंक -

    http://girijeshrao.blogspot.com/2010/04/blog-post_10.html

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  16. मुझे नहीं लगता कि इन सब बातों का उम्र से कोई सम्बन्ध है ...विचार मिलते हों और आपस कि समझ हो तो कोई परेशानी नहीं होती ..सबसे बड़ी बात कि स्वयं के विचारों को दूसरे पर थोपना नहीं चाहिए ..सबकी सोच अलग अस्तित्त्व रखती है ...वैसे जब किसी को मित्र माने और उससे मित्रता के रूप में निराशा मिले तो शायद यह सब बाते मन में आ जाती हैं ...

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  17. @रचना जी ,

    "आप मुद्दे से क्यूँ नहीं जुड़ कर लिखते हमेशा नेटवर्क से जुड़े दिखते हैं । सच और सही के साथ खड़े हो जाईये और भूल जाइये आप के साथ कौन हैं और कौन नहीं इस आभासी दुनिया मे । उम्र का एहसास तब क्यूँ हो रहा हैं जब आप के साथ गलत हुआ ?? तब क्यूँ नहीं उम्र कि गरिमा याद आती हैं जब दूसरो के साथ गलत होता हैं । ब्लॉग जगत मे बड़ा छोटा नहीं होता , दोस्त दुश्मन नहीं होता , बस मुद्दा होता हैं ।"

    कोई भी मुद्दा मनुष्य से ऊपर नहीं है -मनुष्य है उसके अन्तर्सम्बंध है तो मुद्दे भी हैं -मुद्दो को मनुष्य से पृथक नहीं किया जा सकता -मनुष्य उसका समाज, उसके रिश्ते मुद्दों के केंद्र में है -आपका तर्क /स्टैंड बस केवल तर्क के लिए तर्क है -हकीकत यह है की मूलतः हम नेटवर्किंग में ही जीते हैं और मुद्दों को जन्मते हैं और हल करते चलते हैं ....

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  18. "आप दोस्ती करते हैं और उस दोस्ती के गुण अवगुण ब्लॉग पर डाल देते हैं ।"

    ब्लॉग पर न डालें तो कहाँ डालें? यह एक विमर्श का जीवंत फोरम है -यहाँ हम मन की बात भी इसलिए डाल जाते हैं कि अपनी खुद की गलतियों का कंफेसन हो जाय और यह भी जांच हो जाय कि मैंने कोई गलती सचमुच की है -आज पारदर्शिता एक वैश्विक आन्दोलन है ..मैं तो चाहता हूँ कि कुछ भी गोपनीय न रखूँ ...मगर लोगों की कसमें वादे याद आ जाते हैं ...

    "कल विचार शून्य कि पोस्ट पर पढ़ा आप कह रहे थे "कुछ ब्लॉगर भी हैं जिन्होंने मुझे अपनी दारुण कथा बताई है"
    http://vichaarshoonya.blogspot.com/2011/03/blog-post_28.html?showComment=1301414817069#क८०६९९१६८१५५४३४२००७"


    सच है ! गोपनीयता के शपथ से बंधा हूँ .....और कुछ बातें लोकहित में भी नहीं हैं .....जहाँ लोकहित नजर आएगा मैं उन्हें वश्य उजागर करना चाहूँगा ...समर शेष है .....

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  19. "उससे पहले आप कि पोस्ट पर ही पढ़ा था "कहाँ लिख पा रहे ,सर्प संसार अधूरा पड़ा है नागिन छोड़ के चली गयी ।क्या करे नाग विचारा ॥अकेले कब तक बीन पर नाचेगा?इक्कीसवी सदी की नागिन है"http://mishraarvind.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1294014602461#क२१६२०७४२००१३५९५९४२९"


    याद है मुझे . यह राज की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में लाईटर वींन में दिया गया जवाब था .....अब ह्यूमर भी कोई न करे ? इसमें किसी के भी प्रति असम्मान अभिप्रेत नहीं था ....न आज है !

    "क्या आप अपने मित्र होने कि गरिमा और वो भी उम्र मे बड़े मित्र होने कि गरिमा को निभाते हैं ??? "


    कोशिश तो यही रहती है ,हाँ मुझे तेज गुस्सा जल्दी आ जाता है खैर जाता भी उसी तरह है :) और मैं भी हाड मांस का बना एक बहुत साधारण सा इंसान ही हूँ ..कोई फ़रिश्ता नहीं -दिल ही तो है न संगो खिश्त दर्द से भर न जाय क्यूं, रोयेंगें हम हजार बार कोई हमें रुलाये क्यूं ?

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  20. "मित्र को कुछ भी बताने का मतलब अपने मन के गुबार को हल्का करना होता हैं पर आप तो उस निजता को कभी निभाते ही नहीं.."

    बराबर निभाया है यहाँ वही प्रसंग हैं जिन्होंने मुझे बहुत गहरे आंदोलित किया,क्योकि ये जिनसे भी सम्बन्धित हैं उन्हें मैं खुद का एक अंग मानता रहा और अब भी वे मेरे फैंटम लिम्ब (गूगल सर्च निवेदित ) ही हैं ....नहीं तो कितने ही प्रसंग हैं बाते हैं उनकी भी जिक्र यहाँ कर देता ....लेकिन उनकी कोई खास अहमियत अब नहीं रही ...

    "जाकिर प्रकरण मे भी बात मित्रता कि क्यूँ हो रही हैं वो आप के मित्र हैं और आप के फवोर मे उनके कमेन्ट हमेशा रहे हैं आप से ज्यादा तो उनको दुःख हो रहा होगा पर अभी तक व्यक्तिगत पोस्ट पर कहीं ये मुद्दा वो ब्लॉग जगत मे नहीं लाये हैं । '

    क्या जाकिर को खुद अपने लिए आपका प्रवक्ता बनना रास आएगा? यह उन पर ही छोडिये -

    "आप व्यक्तिगत मित्रता को क्यूँ पोस्ट और कमेन्ट का मुद्दा बनाते हैं।
    तो किन किन बातों को अपने ब्लॉग पर लिखूं ? गैर व्यक्तिगत मित्रता क्या है ? "

    "पढ़ा था
    जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहिं विलोकत पातक भारी।।"
    सही पढ़ा है!
    कमेन्ट करने के लिए आभार !आपने अपनी उस मित्र का जिक्र नहीं किया जिन्होंने साहित्यिक चोरी की अत्यंत घृणित मिसाल पेश की :) यह मुद्दा भी तो यहाँ उठा है ? मैंने अपने नादान दोस्त को तो माफ़ कर दिया मगर उन मोहतरमा को तो कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा जिन्होंने मेरे नादान दोस्त के साथ मिलकर दुरभिसंधियाँ रचीं....मामला अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है -सारे आप्शन्स खुले हैं !

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  21. अरविन्द जी,

    युवाओं में नव उर्जा होती है जो व्यस्को के लिये भी योगदान स्वरूप होती है। किन्तु सभी युवा पूर्ण परिपक्व नहीं होते। पर व्यस्कता तो पूरी परिपक्व होती है। उसके पास तो अनुभव का ज्ञान होता है। परख की कुशलता होती है। फ़िर क्यों युवा मित्र की परिपक्वता को परख नहीं पाता?
    शायद किसी अपेक्षा का आवरण, परख का निर्णय नहीं लेने देता। ऐसी दशा में त्रृटि व्यस्क से ही होतई है।

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  22. शुभ-शुभ से क्‍या नाइत्‍तेफाकी.

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  23. @सुज्ञ जी ,
    शायद किसी अपेक्षा का आवरण, परख का निर्णय नहीं लेने देता। :)
    सही कहते हैं मित्र !

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  24. निश्चय ही सफलता के सूत्र नहीं बदले हैं. बाकी हम तो आपको अभी भी जवान ही मानते हैं :)

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  25. आज कुछ अलग ही तरह से टीप देने का मन हुआ,......



    @सक्सेना जी,
    भावुक इंसान के अच्छे दिल की पहचान हर इंसान नहीं कर पाता ..

    पर आपमें ये योग्यता है, टचवूड. ये मैने माना है.

    @डॉ साहिब,
    ,बल्कि आज से मैं आपका ब्राह्मणत्व- संस्कार करता हूँ!

    करवाएं साहेब, जरूर करवाएं, ....... वैसे हम भी लाईन में हैं.

    @मुक्ति जी,
    हर रिश्ते में एक दूरी, एक स्पेस होना ज़रूरी होता है, उसके विस्तार के लिए. अगर ये अपेक्षित दूरी ना हो तो घुटन होगी,

    १००% सहमत हूँ जी, और आज आपने एक नए फलसफे को दिशअ दी, अभी तक मेरा मानना भी यही था - जो डॉ साहिब ने अपनी पोस्ट में लिखा है.


    @eg: जब किशोर थे तो जवान थे। जब जवान हुये तो परेशान थे। जब अधेड़ हुये तो किशोर हो गये... वाह रे हम!

    क्या क्या न हुवे हाय रे सनम आपकी की खातिर...... ये जान भी जायेगी सनम

    @पूर्विया ... उमिर ४१.......... काहे भाई गले में टैग लगा कर घूम रहे हो.

    @कविता प्रसाद, हर उम्र में और हर उम्र से हम बहुत कुछ सीखते हैं...
    १००% सहमत हूँ जी,

    @रचना जी,
    @ब्लॉग जगत मे बड़ा छोटा नहीं होता , दोस्त दुश्मन नहीं होता , बस मुद्दा होता हैं
    बस वही मुद्दा ही तो जान का दुश्मन होता है ........ या फिर कहें दोस्ती का सबब.

    @सतीश पंचम जी,
    मेरा भी मानना है कि हर रिश्ते में एक दूरी, एक स्पेस होना ज़रूरी होता है और यह सुखकर भी है दोनों पक्षों के लिये।
    सत्य वचन जी,

    इसके बाद

    देखिये पंडित जी, सोरी डॉ साहिब, अब टीप बोक्से में भी आप अपनी पोस्ट लिखे जा रहे हैं.... यानी की प्रति टीप में बहुत कुछ लिख रहे हैं, इतने में तो के पोस्ट और तैयार हो जाती.

    @सुज्ञ जी,
    सभी युवा पूर्ण परिपक्व नहीं होते। पर व्यस्कता तो पूरी परिपक्व होती है।
    कैसी बात कर दी अपने, अगर आप ३०-३२ साल की उमर को व्यस्कता की श्रेणी में रख तो देखो क्या युवराज की हरकतें न्याय संगत हैं.


    बदिया है, ऐसी बहस चलनी चाहिए, क्या है की स्वस्थ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा लगती है, इस के आगे बस जुटे चलते है,.......... :)

    टचवूड, लोकसभा टीवी पर एक बार देखा था :)

    यानी हेलमेट पहन कर ब्लॉग्गिंग करें.



    जय राम जी की.

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  26. @ अरविन्द जी ,
    कहावत के लौंडपने का संबंध आयु से नहीं है इसके दायरे में कोई प्राणत्यागी वय का व्यक्ति भी हो सकता है ! कहावत गढते वक्त बौद्धिक अपरिपक्वता का आशय ही रहा होगा पर लोग इसे अपनी अपनी सुविधानुसार वापरते रहे हैं !

    सामान्यतः दोस्ती के कोई निर्धारित नियम नहीं हैं ! यह वयगत सहजीविता के चलते आमतौर पर हमउम्र लोगों में हो जाया करती है लेकिन इसके लिए कम या ज्यादा उम्र का निषेध नहीं है ! दोस्ती के कारण जो भी हों और जितने भी हों ? उनमें से एक बौद्धिक परिपक्वता की सादृश्यता हो भी सकता है और 'नहीं भी' ! तो मेरा ख्याल ये है कि लौंडपने को इस 'नहीं भी' वाली दोस्ती से जोडकर देखा जाना चाहिए :)

    डार्विन वाले मसले पर मैं अपना अभिमत दे चुका हूं और आज भी उसपर कायम हूं ! ज़ाकिर भाई वाले दृष्टान्त पर अभी कोई कमेन्ट नहीं करना चाहूँगा क्योंकि मुझे इस प्रकरण के अपडेट्स पता नहीं हैं !

    जैसे कि बौद्धिक परिपक्वता वैसे ही योग्यता भी हर आयु के व्यक्ति की चेरी हो सकती है अतः आपके आलेख के अंतिम पैरे पर संशोधन करके देख रहा हूं / पढ़ रहा हूं ...वय में बड़ों या छोटों की योग्यता के प्रति आदर /स्नेह दर्शाना अपना सदगुण है !

    और वय में बड़े या छोटों के लौंडपन को समय पर चीन्ह लेना अपनी योग्यता ! कुसूर अपना भी है जो हम इसके ढेलों से सनसना गये :)

    कई लोग लौंडपने को विश्वासघात और छल से जोड़कर भी देखते हैं क्योंकि मित्रता में अपेक्षायें स्वाभाविक हैं और छल अस्वाभाविक किन्तु अघट नहीं !

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  27. दोस्ती में छोटी बड़ी उम्र कभी बाधा नहीं बनती..अब देखिए मुक्ति कम उम्र होकर भी ऐसी टिप्पणी कर गई कि हम प्रभावित हुए बिना नहीं रहे..

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  28. निजकृत कर्म भोग सब भ्राता !!
    सारे युवा कूप-ढकेलू नहीं हैं !
    “जिमि दसनन मह जीभि बिचारी”-का माहौल छूटा तो पहले खुश होइये, जिसकी वजह से ग्यान-मंडल को राहु समये-समये ग्रसता रहा।
    मुक्ति जी और अली जी को मिलाकर मेरी बात(टीप) समझें। आभार..!!

    जवाब देंहटाएं
  29. .
    .
    .
    "मुझे तो लगता है अपने लक्ष्य के प्रति निरंतर प्रयासरत रहना ,अपने से योग्य बड़ों का बिना संशय सम्मान ,विनम्रता और कार्य आचरण की इमानदारी आज के युग में भी सफलता के सूत्र हैं ..."

    देव,
    आप सही हैं पर क्या यह भी सही नहीं कि 'सफलता' को भी हर कोई अलग-अलग तरीके से परिभाषित करता है... और यह बार-बार आहत होने से बचिये, मैं तो जानता-मानता हूँ कि सब कुछ अस्थाई होता है, संबंध भी, वह तभी तक चलते हैं जब तक सामने वाले के लिये आपका कोई उपयोग हो... जब भी आप अनुपयोगी हो/रह जायेंगे, सामान्यतया दूसरा, चाहे आपका रक्त संबंधी ही क्यों न हो, किनारा कर लेगा... बिरले ही ऐसे मिलेंगे जो बिना कुछ आपसे अपेक्षा किये संबंधों को ताउम्र निभायेंगे... और ऐसे 'बिरले' केवल कुछेक सौभाग्यशालियों को ही मिलते हैं... मानव स्वभाव के इतने रूप आप अब तक देख चुके होंगे कि अब आपको इस तरह के किसी भी व्यवहार से 'आहत' होने की आदत छोड़ देनी चाहिये...

    आभार!


    ...

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  30. Vyavharik gyan par aadhrit anubhavjanit post.
    Mera bhi manana hai ki rishton mein aanshik duri to kayam rahni hi chahiye, isase paraspar samman aur garima kayam rahti hai. Dosti chand hi logon se honi chahiye, jismein apeksha ki gunjaaish n ho. Shesh logon se 'Ji' jaise visheshanon ke sath sammanjanak duri sanbandhon ko apekshayakrit lanba to khinch hi deti hai, anyatha jyada najdiki doshon ko ujagar kar matbhed hi badhati hai.
    (by Mobile)

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  31. "मुझे तो लगता है अपने लक्ष्य के प्रति निरंतर प्रयासरत रहना ,अपने से योग्य बड़ों का बिना संशय सम्मान ,विनम्रता और कार्य आचरण की इमानदारी आज के युग में भी सफलता के सूत्र हैं ..."
    सहमत हूँ..... सौ प्रतिशत

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  32. अरविंद जी,
    मुझे स्मरण है कि मुझे यह सिखाया गया था कि मित्रता को प्रातःकाल की छाँह जैसा न हो कर दोपहर की छाँह जैसा होना चाहिए।

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  33. @ प्रवीण शाह ,
    गज़ब की टिप्पणी रही प्रवीण भाई ! हम तो यह ठोकरें खाते ही रहते हैं मगर अपने को सुधार नहीं पाते :-(
    कुछ और रास्ता सुझाएँ ?

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  34. कभी कभी व्यक्तित्वों के आकलन में भूल हो जाती है। युवा उत्साह का प्रतीक हैं।

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  35. अनुभव से बेहतर ज्ञान और कोई नहीं...\\\


    वैसे काम का आलेख है गर कोई सीख लेना चाहे.

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  36. लौंडों की दोस्ती ढेलों की सनसनाहट
    ...मेरी समझ से यह खीझ भरा कटाक्ष है। जब कोई अपने नादान मित्र के कारण चोटिल होता है तो ऐसे ही उदगार व्यक्त करता है। इसका संबंध कम वय से नहीं है। युवाओं, इस ब्लॉग जगत के ही युवाओं की प्रतिभा के आगे बड़े-बड़ों को दांतो तले उँगली दबाते देखा गया है।
    ...मैने तो यह भी पाया है कि जहाँ समझदारी है वहीं उसी ब्लॉगर में पूर्वाग्रह भी है। धर्म के प्रति, जाति के प्रति, आस्था के सवालों पर, सेक्स के प्रति या फिर अपना क्षेत्र वाद। कहीं किसी का अहम टकराता है तो कहीं किसी का। हम सभी इससे उबर नहीं पाते। कहीं न कहीं अपना पूर्वाग्रह प्रदर्शित कर ही देते हैं। हम खुद के अलावा सभी में कमियाँ ढूँढते हैं। यह मानव का स्वभाव है। ऐसा ही चलता रहेगा। जब तक सत्य का ज्ञान न हो जाय।
    ...एक ब्लॉग ने( संभवतः यहाँ भी उसी का संदर्भ है) होलिका दहन में हरे वृक्षों के काटने का विरोध किया था। मैने कभी हरे वृक्षों को काटे जाते नहीं देखा था। मुझे खराब लगा। मैने लिखा ..लो होली पर भी नजर लग गई विद्वानो की।.. हो सकता है यह मेरा अपने धर्म के प्रति पूर्वाग्रह हो। हो सकता है उस ब्लॉग लेखक में ही चर्चा पाने का पूर्वाग्रह हो जिसके कारण उसने ठीक होली के दिन ऐसी पोस्ट लिखी। अब इसका फैसला कौन करे! सरल रास्ता यही है कि हम अपने विचार व्यक्त करें वो अपने, फैसला शेष पर छोड़ दें। यह नहीं कि आपस में झगड़ कर परस्पर किये जाने वाले अन्य अच्छे कार्यों की भी तिलांजली दे दें। किसी न किसी मोड़ पर तो विचारों में टकराहट हो ही सकती है।
    किसी शायर ने अच्छा लिखा है। शेर याद नहीं लेकिन भाव याद है..कि आपस में झगड़ते वक्त हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि जब कभी मिलें तो सर शर्म से न झुक जाय।
    .....मुझे तो लगता है अपने लक्ष्य के प्रति निरंतर प्रयासरत रहना ,अपने से योग्य बड़ों का बिना संशय सम्मान ,विनम्रता और कार्य आचरण की इमानदारी आज के युग में भी सफलता के सूत्र हैं ...
    ...यह आदर्श सूत्र है। लेकिन क्या करें सशंय हमारा स्वभाव है!

    जवाब देंहटाएं
  37. .
    .
    .
    गज़ब की टिप्पणी रही प्रवीण भाई ! हम तो यह ठोकरें खाते ही रहते हैं मगर अपने को सुधार नहीं पाते :-(
    कुछ और रास्ता सुझाएँ ?


    @ आदरणीय सतीश सक्सेना जी,

    फर्क यहीं पर है देव, मैं इन अनुभवों को 'ठोकर' नहीं मानता, जीवन यात्रा के यह Mandatory Collateral Damages हैं... मैं 'ठोकरों' को तुरंत भूल उन लम्हों को हमेशा अपने दिल में जीता हूँ जब किसी ने मुझ गिरे हुऐ को उठाने के लिये हाथ बढ़ाया था... मैं अपने गिलास को हमेशा उसके भरेपन से नापता हूँ न कि खालीपन से... और सबसे बड़ी बात यह कि मैं कभी भी अपने आप को गंभीरता से नहीं लेता, मुझे विश्वास है कि मैं किसी के लिये भी इतना अहम, इतना महत्वपूर्ण नहीं हूँ कि वह मुझे 'ठोकर' मार स्वयं को सुखी समझ सकता है...

    आप भी ऐसा ही करिये... 'मस्त' रहेंगे !


    ...

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  38. उड़ने दो परिन्दों को अभी शोख हवा में
    फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते

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  39. Most of the people I know believe that there can't be any love without attachment. Yes, to some extent that is true if we have to interact with others. For most of us, real love does not exist as normally it is full of selfish motives. Maybe, attachment can also be categorised in three ways. Sattvic attachment is that which is devoid of selfish motive, like that of mother for her child.
    Rajasik contains self-interest but is harmless for others but can turn into hate if the person does not act according to one's will. Tamsic is attachment is lust, infatuation, greed and craving for something at the cost of others.
    The essence of life is that there is no harm in getting attached but one must be prepared to get detached at a moment's notice. The secret of life is to remain attached outwardly but be detached inwardly like a father playing snake and ladder with his son.
    Both are about to win but father shows agitation outside but is cool from inside.

    Rama left Ayodhya within 12 hours without a second thought and never looked back, Krishna was supposed to be very much attached with the Gopis of Vrandavan but once he left Vrandavan, he never went there again.

    This reminds me of two instances. A man's son had gone abroad and was to return for a short holiday with his wife and child after five years. The man was very excited. When his son with family came out, the son told him that they have decided to go to his in-law's place in Gurgaon since the house there is more comfortable. The man was shocked and went back home and had a heart attack. That is attachment.

    On the contrary, one fine morning a retired man's son informed him that he got married and is leaving for the States for a few years. The parents sent them all the blessings and told him that they were always available to him and he could always come back to them in the hour of need.
    That is love with detachment.

    Inner Voice - Love with detachment
    AK Bhargava innervoice@hindustantimes.com


    Dr Mishra I wanted to reply to your comments but this says every thing in better choice of words then i could . This is my thinking for myself and my life .

    जवाब देंहटाएं
  40. http://epaper.hindustantimes.com/PUBLICATIONS/HT/HD/2011/04/01/index.shtml

    ht page 13 1/4/11
    please note the link

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  41. आदमी दोनों चीजें चाहता है अहंकार को पालना भी और संसार से ढेर सारा प्रेम भी।
    या तो अपनी अभि‍जात्‍यता संभालें या बच्‍चों से घुल मि‍ल जायें, शरारतों से नि‍पटने के उपाय शरारतों में से ही नि‍कल आयेंगे।
    बयां वाकयों जैसा ही एक वाकया हमारे साथ भी हुआ। जहां तक हमें समझ आया - ये तो दुनि‍यांदारी की हकीकत है, पर असलीयत और भी है वो ये कि‍-

    "खुश वही है जो कुछ नहीं है।" समय मि‍ले तो इसपर गौर कीजि‍येगा।

    जवाब देंहटाएं
  42. Thanks MS.Rachna,
    An erudite piece of writing! But its nothing new, Geeta alraedy advocates same philosophy! Action without attachment! Its difficult to practice but not impossible!

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  43. @ प्रवीण शाह ,
    शुक्रिया प्रवीण भाई...कोशिश करता हूँ अपने दिल को मज़बूत बनाने के लिए हालांकि लगता नहीं कर पाऊंगा ! प्यार जहां दिखता है वहीँ फिसल कर अक्सर हाथ पैर तुडवा लेता हूँ :-(
    आभार !

    जवाब देंहटाएं
  44. ये तो लग रहा है कि वित्त वर्ष के आखिरी में मित्र लाभ-हानि का लेखा-जोखा टाइप पेश किया गया। :)

    पुराना याद किया श्लोक याद आता है:

    पुत्रस्य कामाय पुत्रम प्रियम न भवित। आत्मन्स्तु वै कामाय पुत्रम प्रियम भवति ( पुत्र की कामना के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता। पुत्र अपनी कामना के लिये प्रिय होता है) यह समीकरण मित्र के लिये भी लागू होता है। :)

    एक और शेर-श्लोक याद आया वसीम वरेलवी का

    शर्तें लगायी नहीं जाती दोस्तों के साथ
    कीजै मुझे (उन्हें) कुबूल मेरी (उनकी) हर कमी के साथ।--वसीम बरेलवी


    ज्यादातर संबंधों में व्यक्ति का मूल स्वभाव बदलता नहीं। जिसकी जैसी अकल होती है वह वैसा व्यवहार करता है। इसलिये मस्त रहा जाये। :)

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  45. 'किसी अपेक्षा का आवरण, परख का निर्णय नहीं लेने देता'
    सुग्य जी ने बहुत सही कहा है.अधिकतर ऐसा ही होता है.
    हर रिश्ते/सम्बन्ध में कुछ दूरी बनाये रखना ज़रुरी होता है.
    कहते हैं ,'खुद अपने से बढ़कर इंसान का 'अपना कोई नहीं हो सकता.

    जवाब देंहटाएं
  46. आदर और विनम्रता सहित आपके कथन से पूर्ण असहमति व्यक्त करना चाहूँगा ...
    पहली बात तो यह कि विवेक का उम्र से कोई सम्बन्ध नहीं होता... एक एक कम उम्र का युवा एक बुजुर्ग व्यक्ति से ज्यादा परिपक्वता और दुनियादारी की समझ रख सकता है.. पोस्ट कुछ लोगों/घटनाओं का सामान्यीकरण करके लिख दी गयी लगती है.. और जो बातें बच्चों की नासमझी और दुस्साहस के उदाहरण के रूप में दी गयी हैं... उनसे ज्यादा और घटिया व्यवहार के उदाहरण बड़ों के व्यवहार के लिए दिए जा सकते हैं(बड़ों के कम उम्र वालों के साथ किये जाने वाले नासमझी वाले व्यवहार भी)....
    मुझे तो हमेशा आनंद आता है अपने से छोटे और बड़े लोगों से बात करके... बहुत कुछ ऐसा सीखने को मिलता है जो आप हमउम्रों से नहीं सीख सकते ...

    जवाब देंहटाएं
  47. @अल्पना जी ,
    जहे नसीब,आप तशरीफ़ लाईं
    पहली वाली बात से तो मैंने भी सुज्ञ से सहमति जाहिर की थी ..
    सम्बन्धों की निकटता से दूरी बनाए रखने के मेरे मुक्तलिफ़ विचार हैं -
    कैवियेट है !
    मुझे लगता है जिन्हें खुद पर आत्मविश्वास कम होता है या अपनी ही कमियों से डरते हैं ,मन में चोर होता है वे दूरी की वकालत करते हैं ....मैं समझता हूँ जिनसे सम्बन्ध बने गहरा और घनिष्ठ बने और दूरी हो तो फिर पोर्ट आफ स्पेन और जमैका की दूरी ...
    फासले वाली बात तो दुनियादारी है ! सहजता नहीं है! मगर हाँ निकटता परिपक्वता की मांग करता है !
    सहमत या असहमत ?

    जवाब देंहटाएं
  48. सतीश चन्द्र जी ,
    बात नादान दोस्तों की है -अपने परिप्रेक्ष्य में बात रखी थी!
    कुछ लोग अंडे खाने के बजाय मुर्गी को ही जिबह कर देते हैं !
    और हाँ सुधी मित्रों ने पहले भी स्पष्ट कर दिया है कि अक्ल का उम्र से कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं होता
    उसी बात पर आप भी जोर दे रहे हैं ! दरअसल पोस्ट को उसकी टिप्पणी समाहित समग्रता के साथ विवेकानुसार लिया जाना चाहिए! आपकी इस बात से भला असहमति कैसे हो सकती है?

    जवाब देंहटाएं
  49. @प्रवीण शाह जी ,
    आपने स्वार्थ दर्शन जो सामने रखा वो अनुमोदित है मगर अपवाद इस सिद्धांत के भी हैं
    हम और आप अपवाद हैं! भीड़ के आदमी नहीं !

    जवाब देंहटाएं
  50. @अली सा,
    "कुसूर अपना भी है जो हम इसके ढेलों से सनसना गये :)" आपने कहा !
    हम तो जनम जनम के कसूरवार ठहरे !

    जवाब देंहटाएं
  51. @देवेन्द्र जी,
    बिलकुल खीझ भरी प्रतिक्रिया है जी ,कोई क़त्ल कर डाले और हम आह भी न भरें !

    जवाब देंहटाएं
  52. जब दोस्ती करने के लिए ही की जाए तो ही दुःख देती है , सहज मैत्री का उम्र और विवेक से कोई रिश्ता नहीं है ...
    घटनाओं के सन्दर्भ मुझे पता नहीं है , परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है बहुत कुछ !

    जवाब देंहटाएं
  53. रहिमन निज मन की व्यथा...

    1. छोटे तो छोटे, बडे माशा अल्लाह! आपने मित्र का नाम छिपाकर सलीके से अपने दिल की व्यथा कही और बुज़ुर्गों ने पब्लिक के सामने नाम ही उजागर कर दिया। ज़रा बताइये, बडों का बडप्पन कहाँ गया?

    2. वे काटें तो प्यार-मुहब्बत, हम बोलें तो अत्याचार
    भावुकता से काम कैसे चलेगा? जीवन में इंसान की परख और भावनात्मक संतुलन (इमोशनल इंटैलिजैंस) तो पकडकर रखनी ही पडेगी।

    3. मेरे दादाजी के शब्दों में कहूँ तो -
    "न तू इतना कडवा बन, जो चखे वो थूके
    न तू इतना मीठा बन के खा जायें भूखे
    "

    जवाब देंहटाएं
  54. "न तू इतना कडवा बन, जो चखे वो थूके
    न तू इतना मीठा बन के खा जायें भूखे"
    क्या बात है अनुराग जी! -दादा जी की युग दृष्टि से ही पटाक्षेप करते हैं !

    जवाब देंहटाएं
  55. बुज़ुर्गों ने पब्लिक के सामने नाम ही उजागर कर दिया। ज़रा बताइये, बडों का बडप्पन कहाँ गया?





    जब नाम नहीं लिया जाता हैं तो सब मित्र शक के दायरे में दिखते हैं । सलीका होता तो या तो पोस्ट ना होती या नाम के साथ होती । कभी कभी लगता हैं जैसे मित्रता करके आप उस दूसरे को "अहसान मंडित " कर रहे हैं । जैसे आप को खो कर उसका सब कुछ खो जाएगा । ये एक ऐसा अहम् हैं जो अपने को हमेशा दूसरो के ऊपर देखता हैं । किसी को ब्लॉग बनाना बता दिया तो क्या वो आप का गुलाम होगया । मित्रता में क्या लेना और क्या देना । हमेशा खुद को निर्दोष और मित्र को दोषी ये भी क्या बड़प्पन हैं स्मार्ट इंडियन जी । और आप क्या हैं बड़े , छोटे , बुजुर्ग या बचकाने या फिर लौंडे । उत्तर प्रदेश के अलावा लौंडा शब्द कहीं भी लड़कपन का द्योतक नहीं हैं

    जवाब देंहटाएं
  56. आदरणीय बड़े भाई अरविन्द जी
    अगर आप सार्वजनिक मंच पर अपने उदगार ना लिखते तो ज्यादा अच्छा होता यहाँ सब मौज ही लेंगे अभी जाकिर जी ने आपको एक आन्दोलन बताया इसके बाद एकदम से दुराव की स्थिति. कभी गलबहियां कभी गलादाब. फिर आप लिखो या ना लिखो लेकिन इशारा "जाकिर जी" और "मनीष" की तरफ ही है. खुलकर लिखते तो बेहतर था.
    अगर मेरी बाते आपको तकलीफ दे तो आप मेरा कमेन्ट डिलीट कर दीजियेगा अगर ठीक लगे तो मन से मैल ख़तम कर दीजिये
    आपसे छोटा हूँ प्रार्थना कर सकता हूँ. आप बड़े है क्षमा कर सकते है. गलती इनसान से होती है.आप वैज्ञानिक अप्रोच युक्त है एक बार आग्रहों पूर्वाग्रो से मुक्त होकर निरपेक्ष भाव से सोचे.
    आपका अनुज
    "पवन "

    जवाब देंहटाएं
  57. प्रिय अनाम ,
    पता नहीं अनुराग जी आपका कमेन्ट देखें या न देखें ..
    आपकी प्रतिभा का पता तो इसी से चलता है कि अब वो ब्लॉग बनवाने वाला मामला भी जुड़ गया
    अभी और भी कई हैं ,मगर उनकी पब्लिसिटी का मेरा ध्येय नहीं था -चंद उदाहरण केवल प्रवृत्ति से सावधान करने
    का था -व्यक्ति गौण है! मैं तो सहज ही बिना उम्र का फर्क देखे अपना मित्र बना लेता हूँ लोगों को ..मेरे मित्रों के उम्र का फलक
    १२ वर्ष से ८० वर्ष तक है ...और बड़ों का यथा संभव मैं लिहाज करता हूँ-हाँ छोटों की डांट डपट का अधिकार भी मानता हूँ ..
    मेरे मन में इंगित कोई ग्रंथि नहीं है -
    जहां तक अपने यू पी में लौंडा शब्द के अर्थ का मामला है -
    लवनडई,लवंडा लफाड़ी आदि शब्द अपरिपक्व व्यवहार की ओर संकेत करते हैं ..
    और लौंडेबाजी का एक पूरा अलग संदर्भ ही है ....ब्लॉग जगत विवेचित कर ही चुका होगा और यहाँ वह प्रासंगिक भी नहीं है !

    जवाब देंहटाएं
  58. डॉ. पवन ,
    मैंने तो किसी का नामा ही नहीं लिया ,,
    बात प्रवृत्ति और मुद्दे की है ..
    व्यक्ति गौण होते हैं !

    जवाब देंहटाएं
  59. मेरा अपना मानना है कि जीवन के तमाम सम्बंध स्वार्थ पर टिके होते हैं! आमतौर से कुछ सम्बंध ऐसे होते अवश्य हैं, जिनमें कोई स्वार्थ नहीं दिखता, पर वहां भी स्वार्थ छिपा होता है, अपने वजूद की स्वीकृति मिलने का स्वार्थ, अपनी बातों के अंधसमर्थन का स्वार्थ, अच्छे व्यक्तित्व जैसा पा लेने का स्वार्थ अथवा अपने सपनों के सच होते दिखने का स्वार्थ! कारण और भी बहुत से गिनाए जा सकते हैं। इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि मैं उसका नि:स्वार्थ मित्र हूं, वे या तो स्वयं भ्रम में होते हैं अथवा दूसरों को भ्रम में रखने का प्रयत्न कर रहे होते हैं!

    इसके साथ ही साथ सम्बंध सिर्फ किसी एक व्यक्ति के निभाने से नहीं निभते! मेरे एक अच्छे मित्र हैं, (उम्र में मुझसे ढाई गुना बडे, इसे संयोग ही कहा जाए कि मेरे ज्यादातर मित्र मुझसे उम्र में बडे ही हैं), उनका कहना है कोई भी मित्रता तभी टिक सकती है, जब आप अपने मित्र के गुणों के साथ उसे दोषों को भी ज्यों का त्यों स्वीकारें! लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ज्यादातर लोग इस बात को समझ ही नहीं पाते! यही कारण है कि अधिकतर सम्बंध एक न एक दिन टूट जाते हैं!

    और हां, जैसा कि कहावत है, ताली एक हाथ से नहीं बजती! इसी प्रकार सम्बंध भी किसी एक व्यक्ति के बचाए रखने से नहीं बचते, उसके लिए दोनों लोगों को सतर्क और सजग रहना पडता है! इसके लिए बहुत से मुददों पर जानबूझकर चुप रहना पडता है और बहुत ही जगहों पर गलत होते हुए भी दूसरे का समर्थन करना पडता है!

    साहित्य, विज्ञान के साथ ही साथ गल्ती से मेरी व्यवहार विज्ञान में भी रूचि है, इसीलिए कोशिश करता हूं कि जहां तक हो सके सम्बंधों को बचा कर रखा जाए! क्योंकि मित्र बहुत ​मुश्किल से मिलते हैं और शत्रुओं की कहीं भी कभी भी कोई कमी नहीं होती!

    और हां, उम्र का समझदारी अथवा अनुभव से कोई सम्बंध नहीं होता! क्योंकि अगर ऐसा होता, तो आज हिमालय के पहाड इसके लिए जाने जाते!

    मैं यहां पर कमेंट नहीं करना चाह रहा था, पर कई जगह मेरा नाम लिया गया, इसलिए मुझे लगा कि यहां पर मुझे भी अपनी बात स्पष्ट कर देनी चाहिए!

    जवाब देंहटाएं
  60. प्रवृत्ति और मुद्दे का स्रोत तथा संधान व्यक्ति ही है अतः व्यक्ति को गौण करके कोई काम कर ही नही सकते मानव के सभ्यता की कहानी उसके चेतनात्मक उद्विकास की कहानी है.
    आपने कमेन्ट डिलीट नही किया तो मै समझता हूँ कि बड़े भाई ने मन से मैल ख़तम कर दिया.
    "जहा सुमति तह सम्पति नाना
    जहा कुमति तह विपति निदाना"
    सहयोग की सहज अवधारना निर्मलता से हम एक दूसरे को बाँध लेते है और इसी बांध से ऊर्जा की निष्पत्ति होती है
    पुनश्च आभार

    जवाब देंहटाएं
  61. असली जवाब तो यहाँ है -जो आत्म विमोचन और आत्म मुग्धता को बयां करती है -
    टहनी को पेड़ समझना किस वैज्ञानिक निरीक्षण का सबब है?

    "वर्तमान युग विद्रूपताओं का युग है। आज का मानव अपने स्‍वार्थ में इतना अंधा हो गया है कि वह अपनी गल्तियों को सही साबित करने के जुनून में सरेआम बेशर्मी और बेहयाई की चादर ओढ़ने में भी गर्व का अनुभव करने लगा है। एक ओर जहां धरती के समक्ष आसन्‍न खतरों के मद्देनजर कुछ समझदार लोग विद्युत शवदाह ग्रहों को अपनाने की सलाह दे रहे हैं, वहीं रूढि़यों में जकड़े कुछ तथाकथित विद्वान ऐसे भी हैं, जो विक़ृत परम्‍पराओं की खातिर हरे पेड़ों की कटान को भी सही साबित करने पर उतारू हैं। पर सुखद यह है कि सच को समझने वालों का प्रतिशत धीरे-धीरे ही सही बढ़ रहा है। इस बढ़ते हुए प्रतिशत की एक शानदार मिसाल है डॉ0 पवन कुमार मिश्र का ब्‍लॉग ‘हरी धरती’।
    http://za.samwaad.com/"

    जवाब देंहटाएं
  62. @आदरणीय अरविन्द सर
    जी, जल्दबाजी में सारी टिप्पणियाँ नहीं पढ़ पाया था.. वरना पहले कही गयी बात को ही दुहराने का कोइ अर्थ नहीं था...

    जवाब देंहटाएं
  63. My relatives always say that I am wasting my time here at net, except I know I am getting knowledge every day by reading such pleasant posts.
    Here is my blog post ... give it a try

    जवाब देंहटाएं

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