अपनी जड़ों को जानने की छटपटाहट की एक बानगी यहाँ देखी जा सकती है. हमारा उदगम कहाँ हुआ ? हम कौन हैं और कहाँ से आये? किसी भी जिज्ञासु मन को ये सवाल मथते हैं तो यह सहज है .मगर ऐसे अंतर्द्वंद्व बहुत व्यग्र भी करते हैं -इसलिए ही 'सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगत गति ....' खुद पर तरस आता है कि हम उस कटेगरी के मूढ़ न हुए ...होते तो दिन रात की राहत तो होती .मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा मगर जो रहे हैं उनकी इन विषयों में अरुचि देखकर खुद के इतिहास 'विद ' न होने का मलाल भी नही है .मेरी शिक्षा दीक्षा चूंकि विज्ञान पद्धति में है इसलिए सामान्य (निर्गमनात्मक ) तर्क ,विश्लेषण का सहारा लेकर भारतीय परिप्रेक्ष्य की अब तक की कुछ बेतरह उलझी गुत्थियों को सुलझाने का मैं भी बाल प्रयास करता रहा हूँ -यह बात दीगर है कि जितना एक सिरा सुलझाता रहता हूँ दूसरा उलझता जाता है और बार बार के प्रयासों के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाता .ऐसी ही एक गुत्थी है सैन्धव सभ्यता और आर्यों का उनसे सम्बन्ध.
सैन्धव -आर्य गुत्थी को सुलझाने की दिशा में मेरे पास जो नवीनतम तथ्य है वह है जीनोग्राफी अध्ययन -जिसके सहारे मनुष्य के आदि प्रवासों की जानकारी और भ्रमण पथ की खोज बीन चल रही है .मैंने अपनी खुद की जीनोग्राफी कराई तो पता लगा कि मेरे और ईरानियों के जीन में बहुत साम्य है . ईरानियों के धरम ग्रन्थ अवेस्ता और हमारे ऋग्वेद में अद्भुत साम्य है .लेकिन अभी हम जीनोग्रैफी की ही बात करें .इस अध्ययन से यह पुष्ट हो चुका है कि भारत भूमि पर पहला अफ्रीकी मानवी जत्था केरल के समुद्र तट की ओर से आया था ,३५ -४० हजार वर्ष पहले .मान्यता है कि इसके पहले यह धरती मानवों से रहित थी (कुछ मेरी व्यक्तिगत शंकाएं है यहाँ मगर मैं मौन होता हूँ इसलिए कि मेरे पास इसके उलट कोई प्रमाण नहीं है फिलहाल .) स्पष्ट है ये पहले आदि वासी थे भारत भूमि के .....और हजारो साल बेधड़क निर्द्वंद्व यहाँ घूमते रहे ,अक्षत संसाधनों का उपभोग करते रहे.
३०- ३५ हजार साल मनुष्य सरीखी मेधा के लिए बहुत है ....मेरी जोरदार अनुभूति है कि यही काले मूलस्थानी हमारी अग्रतर सभ्यताओं के आदि जनक हैं .एक सुदीर्घ कालावधि में ये दक्षिण तक ही सीमित तो नहीं रहे होगें -दायें और ऊपर भी फैले होगें -दायीं ओर तो ये आस्ट्रेलिया तक जा पहुंचे ...जीन प्रमाण मौजूद हैं .ऊपर उत्तर भारत को भी इन्होने आबाद किया ही होगा .बहुत समय था उनके पास , अथाह संसाधन ,फुरसत का समय .....हिम युग से भी यह भू क्षेत्र उतना संतप्त नहीं था ....लिहाजा कुछ ऐसा हुआ कि एक सांस्कृतिक विकास की निर्झरिणी सिन्धु नदी के आस पास बह चली होगी ..तब तक के जैवीय विकास से अलग हट कर कोई १५-२० हजार वर्ष पहले ! बुद्धिजीवियों, क्या यह सैन्धव सभ्यता थी ?
यहाँ तक तो ठीक है .मुश्किल इसके आगे है .क्या ये लोग राज्य विस्तार हेतु आगे बढे? मतलब ऊपर की ओर अपना साम्राज्य विस्तार करने या कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि दस हजार वर्ष पहले हिमयुग का संघात कम होने पर युरेशियाई उन मानव समूहों का दस्ता जो पहले ही अफ्रीका के थल मार्ग से वहां ऊपर तक पहुँच चुका था आगे बढा ? या हमारे ये मूल उत्तर (आदि)वासी आगे बढे हों या फिर और भी उत्तर से आया दस्ता इनकी ओर बढा हो -एकजोरदार भिडंत / मुठभेड़ हुई होगी!बुद्धिजीवियों,क्या यही तो देवासुर संग्राम की स्मृति शेष/मिथक मुठभेड़ नहीं है ? क्या कैस्पियन सागर तो समुद्र मंथन का स्थल नहीं बना ? ये 'वाईल्ड ईमैनिजेशन ' ही हैं -कहिये कि प्राक्कल्पना मात्र ! मगर हाँ एक ढांचा जरूर रूपाकार हो सकता है, अगर हम बिखरी कड़ियों को जोड़ते रहें ..शायद तस्वीर साफ़ होती जाय .....निश्चित रूप से भारत भूमि आज की भौगोलिक सीमाओं में नहीं सीमित हुई थी ....मगर यह सही है कि यह ऊपरी भूभाग ही "रक्त मिश्रण"- वस्तुतः जीन मिश्रण की एक बड़ी जीती जागती मैदानी प्रयोगशाला बनती रही . आगे भी यहाँ मुठभेड़ें जारी रहीं .मगर यहाँ से ही संस्कृति और उसके अवयवों -साहित्य, ज्ञान आदि सभी का प्रसार ईरान अरब यूनान आदि तक होता रहा है .कौन नहीं ,शक, हूंड, चंगेज खान हर किसी की टोली यहाँ आती रही और अपना जीन समावेशन करती रही है -अब तक के जेनेटिक अध्ययन यही बताते हैं .
अब कुछ और 'वाईल्ड ईमैजिनेशन' -राम रावण युद्ध! यहाँ के विशुद्ध रक्ती आदि मूल स्थानियों से मिश्रित वर्णी "आर्य ' लोगों की मुठभेड़ जो दक्षिण में जाकर संपन्न हुई ...राम का सावला होना मिश्रित जीन अभिव्यक्ति का द्योतक है .लक्ष्मण गोरे इंगित हुए हैं.रावण के बाद सम्राट राम हैं जो धुर दक्षिण तक जाने में सफल हो पाए .रावण -महा विशाल कज्जल गिरि जैसा ! वह काले रंग का मूलस्थानी है मगर वेदों का ज्ञाता ,महापंडित -बिलकुल शुद्ध रक्त वाला . मूल सैन्धव सभ्यता का प्रतिनिधि . कोई आश्चर्य नहीं वह उत्तर से ही दक्षिण तक जाकर पहला अखिल भारतीय साम्राज्य स्थापित कर पाया हो और कालांतर में उत्तर तक आ आ कर लोगों से टैक्स आदि लेता रहा हो . इसलिए लोकमन में अपनी अत्याचारी अनाचारी छवि बनाता चला गया हो .....राक्षस बन गया हो . रक्ष संस्कृति का अग्रदूत .....
शंकर तो खैर धुर उत्तर के ही हैं शुद्ध रक्त वाले -कर्पूर गौरम .....राम उनके सरंक्षण में हैं और रावण भी .अनेक पुराख्यान इस संभावना की पुष्टि में हैं .बाद का महाभारत तो उत्तर के ही कुनबों में लड़ा गया ....
आईये एक और अंतर्मंथन करें ....शायद धुंधलका कुछ स्पष्ट हो सके ........और हाँ मेरी बातें बचकानी लगती हों तो विज्ञजन मेरी इस अनाधिकार चेष्ठा को मुस्कुरा कर उपेक्षित कर दें पर एक और महाभारत को जन्म न दें प्लीज ..हम पहले से ही काफी संतप्त हैं .....
Alarma sobre creciente riesgo de cyber ataque por parte del Estado Islámico
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Un creciente grupo de hacktivistas está ayudando Estado Islámico difundir
su mensaje al atacar las organizaciones de medios y sitios web, una empresa
de se...
9 वर्ष पहले
छोटे थे तब मम्मी कहतीं थीं.... कि तुम्हे हॉस्पिटल से लाये हैं.... नाइंथ क्लास में Reproduction चैप्टर पढ़ा.... तब पता चला.....
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट बहुत परिपक्वता लिए हुए है.... Maturity हिंदी में बहुत दिक्कत आई... आपकी इस पोस्ट से रिलेटेड एक आर्टिकल है आपको कल मेल करूँगा.... बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट.....
लखनऊ से बाहर था.... इसीलिए नेट पर आना नहीं हो पाया...
जीनोग्राफी अध्ययन के बारे में जानकारी मिली और हर व्यक्ति को अपनी जड़ो के सम्बन्ध में जानने की बेहद उत्सुकता रहती है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानपरक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंजरा इन इंजीनियर साहब की बातें भी पढ़ ली जाँय।
जवाब देंहटाएंhttp://bhaarat-tab-se-ab-tak.blogspot.com
एक और इंजीनियर :)
बहुत सी जानकारी मिली. इस ज्ञानवर्धक पोस्ट का आभार.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट ने बहुत कुछ नया सोचने को दिया है। आर्य और द्रविड़ या सैंधव सभ्यता हैं निराली थीं। उन में साम्य नही था। संघर्ष के माध्यम से दोनों मिल कर एक हुईं। सैंधव सभ्यता का मूल स्थान तो भारत था यह सिद्ध है। आर्य कहाँ के थे यह अभी प्रश्नचिन्ह है। लेकिन आज की भारतीय सभ्यता में सैंधव सभ्यता के सभी लक्षण मौजूद हैं। जब कि आर्य सभ्यता के लक्षण केवल आभासी रह गए हैं। मेरी दृढ़ समझ है कि वर्तमान भारतीय सभ्यता मूलतः सैंधव सभ्यता है आर्य सभ्यता नहीं।
जवाब देंहटाएंhmm achchi jaankari hai.
जवाब देंहटाएंमिश्रा जी ,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले एक अच्छे आलेख के लिए साधुवाद !
दिक्कत ये है की मेधा , इतिहास , पुरातत्व और लोकआख्यानों में गडमड करती आई है ! अध्ययनों के लिए कोई वैज्ञानिक तौर तरीके अपनाये गए हों ऐसा लगता तो नहीं ! आप खुद ही गौर फरमाइए ऐतिहासिक अध्ययन यातो धर्मशास्त्रोंमुखी हैं या फिर तत्कालीन सत्ता से प्रेरित अतः वैचारिक वैषम्य स्वाभाविक ही है!यहाँ तर्क नहीं आस्थाएं प्रबल हैं ! विषय को लेकर व्यक्तिगत पूर्वाग्रह प्रभावी हैं !यहाँ इतिहास के अपने पंथ,प्रजाति और धर्म हैं,हिन्दू / मुस्लिम /द्रविड़ /आर्य /सैन्धव /वगैरह वगैरह ! बेचारा इतिहास सत्य का उदघाटन करे भी तो कैसे वो तो खुद धर्मों और नस्लों के स्टीकर लगाये घूम रहा है !
नस्लों की श्रेष्ठता के नाम पर पहले भी क्या कम नरसंहार हुए है ? सो यही कुछ धर्मों के मामले में भी है ? सारा झगडा अतीत को जानने का कम अपनी कथित श्रेष्ठता का बिगुल फूंकने का अधिक है ! बहुविध/बहुरंगी कथित श्रेष्ठता का दंभ हमें वैज्ञानिक ढंग से सोचने का मौका भी कहाँ देता है ? क्या हम अपने इतिहास का अध्ययन करने से पहले इन आग्रहों पूर्वाग्रहों से मुक्त हुआ करते हैं ?
आपने अपनी जीनोग्राफी कराई ,बढ़िया बहुत बढ़िया ईरानियों से साम्य और मानवों के अश्वेत उदगम से सहमत हुए ! सो मैं भी आपसे भिन्न कहाँ होऊंगा ? आपने अफ्रीका से मानव प्रवास के मार्गों का रेखांकन किया है यूरोप की ओर , भारत की ओर , और कमचटका प्रायद्वीप की ओर ? तब हम सब के पुराइतिहास में साम्य क्यों नहीं होना चाहिए इस हिसाब से हूण कुषाण और मंगोल ,हमारी तरह से एक ही पूर्वज की संताने हैं और भारत में उनकी पुनर्वापसी हाहाकार का विषय नहीं होना चाहिए ! जाहिर है की वे हमारी तुलना में कठिन हालातों वाली भूमि में प्रस्थित हो कर भीषण / कठोर समाज के रूप में विकसित हुए और तुलनात्मक रूप से हम ? प्रजातियों का विकास और मिश्रण सहज स्वाभाविक मानवीय महाप्रवासों का परिणाम है सो समाज ,संस्कृतियाँ , धर्म , पंथ भी भाषाएँ और कलाएं भी किन्तु हम उन अश्वेत पूर्वजों को छोड़ कर इनसे चिपक गए हैं ! राजनैतिक भू सीमाएं किसने गढ़ीं ? क्या ये विविधतायें श्रेष्ठताओं और हीनता का आधार बन सकती हैं ?
मित्र आपके पूर्वज वही हैं जो मेरे हैं ! आपकी जीनोग्राफी और विज्ञान इसकी पुष्टि करता है ! और जबकि इतिहास लेखन विज्ञानं सम्मत नहीं है तब हम आर्यों तथा सैन्धवों पर अतार्किक / पूर्वाग्रहों से भरी बहस में क्यों उलझ रहे हैं ? क्या हमारा उदगम यही बिंदु है ?
आख्यानों / विश्वास / आस्थाओं से लथपथ इतिहास को छोड़ कर अपना उदगम मुझसे जोड़िये मित्र ! सारे इंसानों से जोड़िये ! भूल जाइये वे किस धर्म और किस प्रजाति के हैं ! मैं आपका भाई हूँ मित्र ! वे सब भी हमारे अपने हैं !
बातें शेष हैं ...पर अभी यहीं तक !
सत्य तो तर्क और तारों को जोड़ने से निकले शायद. पर फिलहाल ये पढना रोचक रहा.
जवाब देंहटाएंAashchary........mujhe bhi bahut kuchh aisa hi prateet hota hai....
जवाब देंहटाएंBada achcha laga padhkar...aabhaar...
यह तो एक गंभीर विषय है..इस पर मनन करना अपने बस की बाहर नहीं..
जवाब देंहटाएंलेकिन जितना आप ने बताया उतनी जानकारी से ज्ञान बढ़ा ..
अभी तक इस विषय पर क्यूँ शोध नहीं किए गये?अब यह सोचने का विषय बन गया !
[आख़िरी वाक्य-:हम पहले से ही काफी संतप्त हैं ..... is that..?!!!!!!!]
बहुत अच्छी जानकारी दी आप ने
जवाब देंहटाएंआधुनिक नृतत्वशास्त्रियों का ध्यान रूस के एन्द्रोनावो पर भी गया है।
जवाब देंहटाएंवैसे यह सब बहुत पेचीदा है। मानव समूह लगातार विचरते रहे हैं। जैसा कि अरविंदजी कह रहे हैं। काले भी और गोरे (आर्य भी) गोरे भी कहीं बाहर से नहीं आए थे बल्कि वृहत्तर भारत की सीमाओं में थे। आकाश में बनते बादलों के वलयो-वर्तुलों को देखें। एक दूसरे में समाना, नई आकृतियां बनाना और फिर अलग होकर नए गुच्छों में तब्दील होना। यह सब जन समूहों में चलता रहा है-तब भी जब सभ्यताएं जन्मीं। आज तक जारी है यह क्रम। मनुष्य का गर्वबोध समूह से जुड़ा है और तब से नस्ली श्रेष्ठता ने इन तमाम विवादों को जन्म दिया। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति में जाएं तो वे असभ्य और जंगली कहलाते हैं। तब तक भारत भूमि पर कृषि संस्कृति पनप चुकी थी। एक नया शोध द्रविड़ों को जाति नहीं बल्कि खेतिहर कुऩबी ही मानता है। आर्य अर्थात वनवासी बंजारे भी सीमांत से होकर सदियों से इधर ही विचरते रहे थे। इनकी पहुंच तब तक सुदूर पश्चिम तक थी। कृष्णवर्णी लोग भी भूमध्यसागर तक बिखरे थे। किसी काल विशेष में वनवासी, यायावरों और खेतिहरों में संघर्ष हुआ होगा। यह बेहद सीमित क्षेत्र में रहा होगा पर इसकी चर्चा ही प्राचीन ग्रन्थों में श्रुतियों के आधार पर फूलती-फैलती चली गई।
यह चर्चा लगातार चलती रहेगी, मगर नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। हां, खोज के दौरान बहुत सी अन्य प्राप्तियां होती रहती हैं, उन्हें ही हासिल माना जाना चाहिए।
बढ़िया पोस्ट।
रावण के बारे में हम जानते हैं की वह द्रविड़ था....ईरान की तरफ से जो लोग आये उन्हें आर्य कहते थे और कैकई ईरान की थी....इसलिए भारत में आर्य रक्त अवश्य था...
जवाब देंहटाएंबाकी आप कहते हैं की हम अपने जड़ों के बारे में जानना चाहते हैं....!! आज तो हम अपने पूर्वजन्म के बारे तक जानना चाहते हैं....
बहुत अच्छा आलेख....सोचने को मजबूर कर दिया आपने...
Anthropology में थोड़ा-बहुत इंटेरेस्ट मुझे भी है....बात आगे बढ़िएगा ज़रूर ...पता तो चले आखिर ..चक्कर क्या है....:):)
द्रविड़ अपने आप को विशुद्ध भारतीय मानते है ....और आर्यों को विदेशी ...
जवाब देंहटाएंअब हम क्या करें ...जन्म द्रविड़ों की स्थली में हुआ और पालन-पोषण आर्यों और द्रविड़ों की भूमि के बीच .... इसी का परिणाम है कि सभी भारतीय अपने लगते हैं ....: वसुधैव कुटुम्बकम " ...
अभी इस लेख पर चिंतन मनन और होगा ...अभी बस इतना ही ...
संग्रहणीय प्रविष्टि ...!!
एक नये विषय पर रोचक जानकारी आभार....
जवाब देंहटाएंregards
यह विषय बहुत रोहक लगता है ..इस पर जितना समझ सकी आपके इस लेख से जानना अच्छा लगा ..कुछ और आगे लिखेंगे तो और अधिक स्पष्ट हो पायेगा .शुक्रिया इस जानकारी के लिए अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंकल ही समाचार पत्र में पढ़ा था की छत्तीसगढ़ में 10 करोड़ साल पुराना शंख मिला है
जवाब देंहटाएंhttp://navabharat.org/images/180110p1news10.jpg
आपके इस लिंक एड्रैस पर जाना चाहा तो एंटिवाइरस प्रोग्राम ने वार्निंग मैसेज दिखा दिया
जवाब देंहटाएंhttps://www3.nationalgeographic.com/genographic/journey.html
ek bahut hi badhiya jankari di.
जवाब देंहटाएंभारत की नस्लीय विविधता के बारे में आपसे काफी हद तक सहमती है, मैं भी भी ऐसा ही सोचता हूँ
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंश्री अली जी की टिप्पणी मेरी भी मान लें .जब तक धार्मिक सांस्कृतिक आत्म मुग्धता है ,सत्य ही आहार बनता रहा है / रहेगा . इतिहास शायद आधुनिक वैज्ञानिक आधार पर ही जाना जा सके .जीनोग्राफ़ी काफी सवालों का जबाब दे सकती है .वैज्ञानिक आधारपर भारत में अब तक जितनी आनुवंशिक विभिन्नताएं पाई गयी हैं, कहा जा सकता है की यह भूभाग संस्कृतियों का पालना ही है . बहुत ही बढ़िया विषय लिया है आपने .यह गहन गवेषणा की मांग करता है और जानकारी मनुष्यों को विकृत इतिहास से मुक्त कर करीब लाने में उपयोगी ही होगी.
@डॉ महेश सिन्हा
जवाब देंहटाएंPlease go for a Google search on
Genography Project.
बहुत जानकारी मिली
जवाब देंहटाएंबहुत सी जानकारी मिली
जवाब देंहटाएंatyant rochak aur saargarbhit aalekh, itihaas, dharmik kathaon aur vigyan ka kafi sahi rishta jodne ki koshish... bahut sambhav hai ki aisa hi hua ho..
जवाब देंहटाएंJai Hind...
बेहतरीन आलेख.
जवाब देंहटाएंजीनोग्राफ़ी तकनीक में काफ़ी कुछ सम्भावनाएं निहित हैं. बाकी निहित स्वार्थों द्वारा रची गयी आर्य आक्रमण की मनगढ़ंत कहानी तो पुर्जा-पुर्जा बिखर ही चुकी है.
अच्छा लगा आपका प्रयास..
जवाब देंहटाएंहाँ जड़ों को जानने की छटपटाहट होती है ..पर उसे किसी प्रकार भी श्रेष्टता बोध का तकाजा बनाना विवादों को जन्म देता है..जाने कब हम अनजाने अतीत की ओर ताकना छोड़ कर आने वाले भविष्य की ओर ध्यान देंगे जिसमे समानता का आधार सिर्फ मानव होना ही होगा ...जिसमे किसी भेदभाव के बिना सबको सामान अवसर प्राप्त होंगे ..यूटोपिया ही सही, पर यह एक विचार बल देता है ..और कट्टरवादियों के खिलाफ खड़े होने की शक्ति भी.
वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और अंत में वाईल्डइमैजिनेशन
जवाब देंहटाएंने पोस्ट को काफी रोचक बना दिया है.
धत्त तेरे की ,मैं आयतुल्ला खुमानी के खानदान का थोड़े ही हूँ !
..इसे पढकर भी आनंद आया.
जीनोग्राफी अध्ययन के बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
धन्यवाद अरविंद जी
जवाब देंहटाएंदरअसल जब आपके दिये लिंक और कोड का उपयोग करके मैंने आपका रिज़ल्ट देखन चाहा तो मुझे एंटि वाइरस प्रोग्राम ने ये वार्निंग दी यह साइट किसी और साइट की नकल कर रही है (fake site hai ?)
@प्रेत विनाशक - पर उन्ही आक्रमणों(?)की पृष्टभूमि पर लिखे महाकाव्यों और मिथकों को आधार बना कर विशाल भारत भूमि के एक भूखंड पर बसे एक संप्रदाय के सापेक्ष अन्य को निकृष्ट समझा जाना कहाँ तक सही है? सोंचने वाली बात यह है.
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट भी काफ़ी रोचक है. अच्छा विषय है यह और मेरी रुचि का भी. जीनोग्राफ़ी के माध्यम से सर्वप्रथम यह बात सामने आयी कि विश्व में जितनी भी प्रजातियाँ हैं, उनकी माँ अफ़्रीकी ही थी. इस प्रकार हम सभी पृथ्वीवासी एक ही हैं. आर्य-अनार्य संघर्ष के आपके निष्कर्ष मुझे राहुल सांकृत्यायन की ऐतिहासिक पुस्तक "वोल्गा से गंगा" की याद दिला रहे हैं.
बहुत कोशिश की दोस्तों ने
जवाब देंहटाएंन मिट सकी मन के आँगन की काई
पता ही न था उन्हें जो
खुद न चाहे इंसाँ तो नहीं मिटती काई
।
आप का यह लेख बहुतों के मन से काई साफ करने का काम करेगा - अगर वे चाहें तो। समस्या यह है कि एक परत साफ होती है तो दूसरी निकल आती है जो पहले से भी अधिक जिद्दी होती है। लगे रहिए।
शुभकामनाएँ।
मैंने खूब मन लगाकर पढ़ा ! अब जा रहा हूँ !
जवाब देंहटाएंलोग दूसरों में अपने व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब देखना कब छोड़ेंगे...
जवाब देंहटाएंहर पहलू एक दुसरे से जुड़ा है इसलिए बात सब पर होगी ..अगर कोई चाहे .. लफ्फाजी से कुछ हासिल नही होता है ..न ही अपने विचारों का मुरब्बा बनाने से.
@लवली जी ,
जवाब देंहटाएंखयाली पुलाव तो सुना था मगर विचारों का मुरब्बा पहली बार सुना ..आप इन दिनों अप्रतिम साहित्यिक प्रयोग कर रही हैं .
साधुवाद !
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आ पाई. बहुत ज्ञान वर्धक पोस्ट लगी
जवाब देंहटाएंआभार
@अरविन्द जी - हा हा ...मुझ अज्ञानी से ऐसी अभिव्यंजना और तथाकथित साहित्यिक प्रयोग की आशा न कीजिये ....यह मेरे द्वारा आविष्कृत नही है ..कहीं पढ़ा था, उसी तर्ज पर हमने की कह दिया पूर्वाग्रह ऐसे विचारों का मुरब्बा है जिसे आप बदलना नही चाहते .
जवाब देंहटाएंकिसने लिखा है जानने के लिए इन शब्दों पर गूगलिंग करिए ...
"वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। जिससे हमें दु:ख पहुँचा है उसपर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध हमारे हृदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह वैर कहलाता है। "
बहुत खूब है सर। आपकी प्रशांसा मिली धन्य हो गया। बसंत की बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत देर से पढी इतनी अच्छी पोस्ट न आते तो ये मुरब्बा खाने से रह जाती शुभकामनायें
जवाब देंहटाएं"roots" की याद आ गयी...शायद एलेक्स हैली की लिखी हुई है।
जवाब देंहटाएंक्रपया ये जानकारी ढ़ूढे की कर्पूर गौरम श्लोक कितना पुराना है,,अगर यह बहुत पुराना है,,तो हमे कपूर(पेट्रोलियम पदार्थ) की जानकारी दुनिया मे सबसे पहले हुई थी
जवाब देंहटाएंक्रपया ये जानकारी ढ़ूढे की कर्पूर गौरम श्लोक कितना पुराना है,,अगर यह बहुत पुराना है,,तो हमे कपूर(पेट्रोलियम पदार्थ) की जानकारी दुनिया मे सबसे पहले हुई थी
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