कल बनारस में भी जमकर पतंगबाजी हुई .वो मारा , ये काटा ,वो पकड़ा जैसी आदिम सी किलकारियों और हुन्करणों से वातावरण गुंजायमान होता रहा और मुझे भी बचपन की यादों में बार बार सराबोर करता रहा .मगर वे उल्लास और उमंग की यादें नहीं थीं, कुछ कारुणिक थीं ....कारुणिक इसलिए कि मैं बचपन में कभी भी पतंग उड़ा पाने में कामयाब नहीं हो पाया था ..और हर बार की मकर संक्रांति मेरी उस असफलता ग्रंथि को कुरेद कर आहत कर जाती है .वैसे उस बाल्य पराजय के पीछे उन हिदायतों का भी बहुत बड़ा योगदान था जो पुच्छल्ले की तरह हमेशा मेरे साथ लगी रहती थीं कि अच्छे बच्चे (प्रकारांतर से अच्छे घर के बच्चे ) पतंग वतंग नहीं उड़ाते ...लेकिन मैं आज समझता हूँ ऐसी निषेधात्मकता बच्चों में एक तरह से हीनता बोध को ही जन्म देती हैं .उनके आत्मविश्वास को क्षीण करती है . पतंगबाजी निश्चित ही एक व्यसन है और उस स्तर तक की संलिप्तता को अवश्य संयमित किया जाना चाहिए -मगर इन स्वयंस्फूर्त खेलों का पूर्ण निषेध कतई उचित नहीं है .बचपन के कुछ ऐसे ही अवसर आत्मविश्वास की नींव डालते हैं और जीवन भर के आत्मविश्वास को डावाडोल भी कर जाते हैं . अब यह तो मैं नहीं कहूँगा कि पतंग न उड़ा पाने की असफलता को जीवन के उत्तरवर्ती तमाम "परफार्मेंस की असफलताओं " से जोड़ा जाय .मगर बाल मनोविज्ञान के विकास और कालांतर के जीवन में इन घटनाओं के प्रभावों से इनकार भी नहीं किया जा सकता .
अब ऐसा बचपन और कैशोर्य भी क्या कि पतंग की पेंगें न बढ सकें और उनकी डोरें न डाली /खींची जा सकें -मुझे याद है कि उन दिनों जब हम पतंग संधान में असफल होकर भी किशोरावस्था की दहलीज तक आ गए थे तभी एक महान साहित्य सामने से गुजरा था -गुलशन नंदा की " कटी पतंग " जो हिन्दी के लुगदी साहित्य ( घटिया किस्म की लुगदी से तैयार कागज़ पर छपने वाला साहित्य ) के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया था ...किताब तो मैंने नहीं पढी मगर उसकी चर्चाओं से ही मन भर जाता रहा ...जल्दी ही एक फ़िल्म भी बन गयी इस थीम पर ..वही कटी पतंग ...अब ये गाना भी क्या उसी फ़िल्म का ही तो नहीं है ? ..ना कोई तरंग है .ना कोई उमंग है ..मेरी जिन्दगी भी क्या बस एक .कटी पतंग है ! मुझे तो लगता है कटी पतंग का हिन्दी साहित्य और लालित्य में योगदान विश्व के किसी भी अन्य भाषा के साहित्य में दुर्लभ है .कितने ही किशोरों -युवाओं के व्यक्तित्व और चरित्र निर्माण में इस साहित्य ने अभूतपूर्व योगदान दिया है -मतलब मेरे समकालीन लगभग सभी ब्लॉगरान इस साहित्य के अवगाहन से निश्चित ही उपकृत हुए हैं , मैं थोडा कम ही उपकृत हो पाया क्योंकि मुझे जासूसी उपन्यासों का चस्का था और रूमानी उपन्यास फूटी कौड़ी नहीं सुहाते थे -हो सकता है कि इसकी जड़ें मेरी पतंग न उड़ा पाने की असफलता से जुडी रही हो .यह वही दौर था जब कुछ प्रेमी जोड़ें गृहत्याग कर जाते थे और इन घटनाओं के भाष्यकार यह कह पड़ते थे कि यह सब बस कटी पतंग साहित्य की ही देन है .लो एक और बेचारी लडकी कहीं कटी पतंग न बन जाय. अब पतंग और कटी पतंग साहित्य से एक 'कुलीन परिवार' के मेरे जैसे किशोर का कोई ख़ास नाता न बन पाने के करण मेरी यह समझ में ही नहीं आता था कि आखिर मानव जिन्दगी का कटी पतंग से तुलना का अर्थ क्या है ? शायद पिता जी ने भी तभी भांप लिया था कि मुझमें साहित्यिक समझ बिलकुल शून्य है और इसलिए उन्होंने मुझे विज्ञान में दाखिला दिला दिया .मगर विडम्बना यह रही कि विज्ञान में दाखिले के बाद से ही मुझमें वह साहित्यक समझ न जाने कहाँ से आने लगी जो कटी पतंग और मानव जिन्दगी के अंतर्सम्बंधों/रूपकों को जोडती थी. और दुर्भाग्य से यह सिलसिला तब से थमा नहीं और आज भी रह रह मुझे आपने बाल्य और किशोर जीवन की गैर जीवन्तता की कचोट भरी याद दिलाता रहता है .
अब कल ही देखिये कि मुझे रास्ते में एक कटी मगर बिना लुटी पतंग दिख गयी और मन फिर से खिन्न होकर इनके साहित्यिक निहितार्थों को ढूँढने लगा .एक तो बिचारी कटी पतंग और तिस पर भी दुर्भाग्य यह कि वह लुटी भी नहीं .सहसा मन हुआ कि जा कर मैं खुद उठा लूँ -मगर फिर बचपन का निषेध हठात भारी हो आया मन पर .....अच्छे बच्चे ...कदम अकस्मात रुक गए ! मैं यह सोचने लग गया कि गुलशनी साहित्य में तो इस अवस्था का जिक्र नहीं है ..बस कटी पतंग तक की ही नियति वर्णित है वहां ..मगर यहाँ तो कटने के बाद भी नियति की क्रूरता बरकरार है -बिचारी कट भी गयी और किसी हाथों का सहारा भी नहीं मिला इसको -कैसी हतभाग्य है यह ? लुटी ही नहीं ! अगर लुट भी गयी होती तो कम से कम एक /कुछ सहारा तो मिल गया होता ....कटी भी और लुटी भी नहीं ..कैसी किस्मत है इस पतंग की ! मन अवसाद ग्रस्त हो चला...इससे तो लाख गुना अच्छी पतंगें वे हैं जो न कटती हैं और न लुटती हैं बस एक डोर से ही बंधी रह जाती हैं . मन में साहित्य के कई ऐसे ही रूप और उपमा विधान कौंधते रहे ....और मैं वापस घर की ओर लौट पड़ा ..
यादें, कुछ बचपन की कुछ पचपन की
..
अब सोचता हूँ कि उस अनलुटी पतंग को मैं ही उठा लिया होता .. अनलुटी थी इसलिए फटी चुथीं भी कहाँ थी ! ...न जाने अब किसकी हाथों में पड़ जाय .. जब अनलुटी रह गयी है तो उसका चार्म तो अभी भी बरकरार ही है ....और अब तो मैं बच्चा भी नहीं रहा और न ही कोई रोकने वाला कि .
अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते ......
हमेशा किसी का होना जरुरी नहीं..इसी लिए संस्कार होते हैं..उसी ने रोका होगा...कि अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते ......अब जिसमें जैसे संस्कार जिस मायने में पड़ जायें..
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़्कर.....
अच्छे संस्कार ही हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी गुनाह की दलदल से बचाए रखते हैं ...
जवाब देंहटाएंगुलशन नंदा के उपन्यास उच्च कोटि के साहित्य की श्रेणी में तो नहीं आते ...मगर पढ़े और सराहे खूब गए हैं ...कटी पतंग पर ऐसी दार्शनिकता ...साहित्य के साथ जासूसी उपन्यास भी खूब पढ़े हैं इस लिए इस प्रविष्टि पर भी दिमाग जासूसी करने में जुटा है ....:) ....
बचपन कि यादें और ये कटी पतंग की बात को वर्तमान से जोड़ते हुए एक अच्छा पोस्ट। बहुत ही सशक्त।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
सच कहा आपने , मुझे तो पता ही नहीं था कि कोईन पतंग पर भी इतना अच्छा लिखा सकता है । आपको मकर संक्रान्ति की बहुत-बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ,भावपूर्ण लेखन.
जवाब देंहटाएंमंदिर का बहुत बड़ा विस्तार बहुत पंतंगें कट कर आती थीं और दादी उठा कर रख लेती थी मेरे लिए। स्कूल से लौटने पर वे सब तैयार मिलती थीं। पतंगे और मंजे बनाए भी और उन्हें उड़ाया भी खूब। कुलीनता थी तो भी वह आड़े नहीं आयी। जासूसी उपन्यास पढ़ने के भी।
जवाब देंहटाएंवाणी जी ये सच है कि गुलशन नन्दा को कभी भी उच्च कोटि का साहित्यकार नही माना गया लेकिन बात यहा उपन्यास की है तो कटी पतन्ग का सन्देश और उसकी लोकप्रियता दोनो ही साहित्य के मापदन्ड से खरे उतरे है.
जवाब देंहटाएंहम तो कटी पतन्ग ही उडाते थे क्योकि उसमे सन्तुलन ठीक होने का पूरा भरोसा होता था.
नुक्कद पर मेरी पोस्ट पढे.
http://nukkadh.blogspot.com/2010/01/blog-post_3616.html
लडकियां उडाती हैं पतंगे
जवाब देंहटाएंलेकिन चरखी कोई और पकड़ता है
वो डोर पकड़ती है
पतंग को छुट्टी कोई और देता है
वो पतंग तो उडाती हैं
तंग कोई और ही बांधता है
या वो उडाती हैं
पतंगे जो कटके छत पे आती हैं
उनकी पतंग उडती भी है
आकाश में लेकिन
घरवाले आगाह करते हैं
पेच ना लड़ाने की सीख देते हैं
जो लडकियां पतंग उडाती हैं
तो उनसे ये भी कहा जता है कि
भले कोई ढील दे
तुम्हें अपनी डोर खीचके ही रखनी है
हाँ लड़किया पतंग उडाती है
पर क्या पता उसे आसमान निगलता
या धरती खाती है
शाम होते गगन में आवारा पतंगे रहती हैं
कटी पतंग के माध्यम से संस्कारों की बात बहुत खूब । ये अच्छे बच्चे ही लिख सकते हैं शुभकामनायें
जवाब देंहटाएं"...कदम अकस्मात रुक गए ! मैं यह सोचने लग गया कि गुलशनी साहित्य में तो इस अवस्था का जिक्र नहीं है ..बस कटी पतंग तक की ही नियति वर्णित है वहां ..मगर यहाँ तो कटने के बाद भी नियति की क्रूरता बरकरार है -बिचारी कट भी गयी और किसी हाथों का सहारा भी नहीं मिला इसको -कैसी हतभाग्य है यह?"
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी बड़ी बात कह डाली आपने पतंग के माध्यम से !
बचपन की यादों से वर्तमान तक का सफ़र बहुत रोचक रहा. मुझे तो सब कुछ कोरिलेटेड लगता है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
लेकिन मैं आज समझता हूँ ऐसी निषेधात्मकता बच्चों में एक तरह से हीनता बोध को ही जन्म देती हैं .उनके आत्मविश्वास को क्षीण करती है
जवाब देंहटाएंमगर बाल मनोविज्ञान के विकास और कालांतर के जीवन में इन घटनाओं के प्रभावों से इनकार भी नहीं किया जा सकता .
पूर्णतः सहमत..श्रीमान..!
कटी पतंग तो जाने कितने डोरों को जोड़ देती है बस थोड़ा समझ का फेर है..
अच्छे बच्चे ...कदम अकस्मात रुक गए//
पापा की ये आवाज तो हर पल गूंजती रहती है..सच्ची में...!
मजा आ गया...कुछ यूँ भी लिखते रहा करिये...जंचता है...सच्ची....!
-------मन से लिखी है आपने यह पोस्ट,मैं तो कभी नहीं उड़ा पाई पतंग लेकिन देखना हमेशा सुखद रहा.
जवाब देंहटाएंbhavpurn lekh
जवाब देंहटाएंअच्छे संस्कारऒ मै कोन से खेल खेलने चाहिये?
जवाब देंहटाएंपतंग और जीवन मे बहुत सी समानताये है , पतंग हम है , अनुशासन हमारी डोर है ,हमारे आसमान को छुने की सीमा इस बात पर निर्भर करती है कि हमे उडाने वाला गुरू कितना माहिर है इसीलिये गुरु का बड़ा महत्व है , कब अनुशासन की डोर ढीली करनी है , कब खींच लेनी है ,आने वाली विपत्तीयो का रुख किधर है और हम किधर अच्छी तरह से उड़ सकते है जिससे हम बिना जमीन से सम्पर्क छोड़े उड़्ते रहे ( बिना कटे )।
जवाब देंहटाएंये सब बाते काफी मायने रखती है खासकर जब हम छोटे होते है इसीलिए कविताओ मे , जीवन मे ,साहित्य मे ,भाष्य मे , मुहावरो मे इसका प्रयोग होता है और बचपन से इसका प्रसंग ज्यादा है । बाकी आपके लेख पर क्या कहू ,हमेशा की तरह मुग्ध हू ।
कुछ चीजे अक्सर जीवन में पिछले पन्ने पलटा देती है जैसे पतंग ...उपन्यास ..और अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते ..जैसी बाते ..आपने तो पूरा आत्मंथन ही कर डाला इन पर ...बढ़िया लिखा है
जवाब देंहटाएंअच्छे बच्चों नें पतंग नहीं उड़ाई ? फिर तो कंचे भी नहीं खेले होंगे और शायद तैरना भी नहीं सीखा होगा ? क्या पता अच्छे बच्चों को पेड़ पर चढ़ने की मनाही भी थी या नहीं ? फिर अमिया और अमरुद के लिए गांव की बगिया में धमाल का सवाल भी पैदा नहीं होता ...और...और ...और इस तरह 'बहुतेरे बच्चेपन' से महरूम रह गए अच्छे बच्चे !
जवाब देंहटाएंअरे भाई मिसिर जी क्या बतायें ! हम पर ये सब बंदिशे तो थी नहीं... और जो लगाई गईं
(मसलन सोने और पढने को लेकर ) वो हमने मानीं नहीं ! अब जो भी हो ! जैसा भी हो !
अफ़सोस लेकिन कुछ भी नहीं !
आह गुलशन नंदा..आह! आह!! मेरी माँ के वो फेवरिट हुआ करते थे...मैंने भी आपकी तरह पढ़ने की शुरुआत जासूसी उपन्यासों से ही की है और आज भी वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक को खूब चाव से पढ़ता हूँ.. :-)
जवाब देंहटाएंपतंग से याद आया कि आपकी कहीं तस्वीर तो देखी है मैंने पतंग थामे हुये,,,शायद इसी ब्लौग पर कहीं।
पतंग कटी भी, और लुटी भी नहीं...बस नजरिया गयी !
जवाब देंहटाएंइतनी पढ़ी गयी कि लजा गयी.
काश कि कवी ने उसे उठा ही लिया होता...!
आपका यह आलेख भी हमेशा की तरह लाजवाब हो. भला हो उन संस्कारों का जिनके कारण आप इस योग्य बने कि इस प्रकार के लेखों का आस्वादन हमें हो रहा है. वैसे मैं इस मामले में बहुत भाग्यशाली हूँ कि मैंने बचपन में खूब पतंगें उड़ाई हैं और वह भी चर्खी अपने हाथों में लेकर. हाँ, इसके लिये डाँट भी बहुत सुनी और उपदेश भी. पर मैंने कभी इस तरह से नहीं सोचा.
जवाब देंहटाएंहमको भी यही बताया जाता था कि अच्छे बच्चे पतंग नही उड़ाते,मगर मै छुप-छुप कर पतंग उड़ाया करता था।मार भी खाई मगर पतंगों का आसमान मे अपनी आज़ादी का परचम लहराना दीवाना कर देता था।एक बात और महाराज पतंग पर इतना कुछ न कभी पढा और नकभी सोचा था।शानदार लिखा आपने।
जवाब देंहटाएं@अली साहब आप अन्तर्यामी लगते हैं ,खेला तो सब कुछ खेल जो आप ने ऊपर गिनाएं हैं मगर एक्सेलेंस हासिल नहीं हो सकी कभी ! आज तक उसी की कचोट है !
जवाब देंहटाएं@गौतम जी ,मैं और पतंग ? कहाँ सध सकी कभी कोई !
जवाब देंहटाएंडाक्टर साहब ,
जवाब देंहटाएंमजेदार बात यही है कि हम सबका बचपन/ हमारे खेल/ हमारी शरारतें / हमारी आदतें,भिन्न कहां हैं ?
ये हमारा मुल्क / उसकी मिटटी / और समाजी हालात हैं जो हमसे, हमारा नाम / हमारी जाति नहीं पूछते हमसे कोई द्वैध / कोई भेदभाव नहीं करते और एक हम हैं जो कथित बड़प्पन के साथ केवल अली या मिश्रा बनकर रह जाते हैं !
भले ही हमने जीवन में पतंगे उड़ाई कम हों, पर लूटी तो बहुत हैं। आखिर जो आनंद लूटने में होता है, वह उड़ाने में कहां। न मानें, तो कर के देख लें।
जवाब देंहटाएं--------
थोड़ा अनैतिक ही सही, पर इसके सिवा चारा भी क्या है?
यह खिलाडियों का नहीं, मजदूरों और किसानों का देश है।
बस मुग्ध हूँ। आप साहित्य रच दिए हैं - हम जैसों से बहुत आगे का। सच में।
जवाब देंहटाएंबहुधा लोग यहाँ साहित्य और ब्लॉग में फर्क करते हैं लेकिन ब्लॉगरी से मतलब नए तरीके और जमाने का साहित्य है। यह पोस्ट नया पुराना दोनों स्तर पर 100% खरी उतरती है।
मुझे लगता है कि आप को हर सप्ताह ऐसी एक पोस्ट अवश्य लिखनी चाहिए।
पंक्ति दर पंक्ति दुहराते बखानने लगूँ तो एक पोस्ट ही बन जाएगी। इस कला को निखारिए तो सही, मैं फरमाइश करूँगा कि ऐसी पोस्टों के लिए एक अलग ब्लॉग बना दीजिए।
गिरिजेश जी की इस माँग और तनुश्री की पहले की माँग - दोनों पर साथ ही विचार करियेगा !
जवाब देंहटाएंसच कहा गिरिजेश भईया ने ! १०० प्रतिशत साहित्य ! लालित्य तो देखिये !
आभार ।
@गिरिजेश जी बस एक हमीं मिले हैं आपको ब्लागजगत में मौज के लिए ....बचपन तो प्रवंचित बीता ही ,अब पचपन में यह तो मत करिए भाई ! .
जवाब देंहटाएंकौन कमबख्त मन-पतंग नहीं उडाता ...
जवाब देंहटाएंसही तरीका पता हो तो दूसरे की पतंग कट जाय और
बेसहूरी हो तो उंगली ही सफाचट्ट ...
.........लालित्य धन्यं , साहित्य धन्यं .......
आवारगी को कौन छोड़ पाता है ... उपदेश न न्न्नन्न्न्नन्न ...
'' वाइज का खानदान भी आकर फिसल गया '' ...आभार ,,,
@सत्येन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंपतंग की आपकी व्याख्या ने तो कायल कर दिया ..इतना अच्छा सोच कैसे लेते हैं आप ?
अपने ब्रेन की जाँच करवाएगें क्या ?
'वास्तव में पतंगबाज़ी ना देखी ना उड़ाई...टी वी पर देख कर खुश हो लेते हैं.'
जवाब देंहटाएं[सुझाव है-Post par-रिवर्स गीयर में ज़्यादा गाड़ी चलाने से गाड़ी पटरी से उतर सकती है,और ख़तरनाक भी हो सकती है.इसलिए भूत काल में अधिक ना रहा करिए ]
@मल्लिकाए आजम के हुक्म की तामील होगी ....
जवाब देंहटाएं@ Dr.Arvind ji जहाँ भी आप आजकल रहते हैं बनारस या लखनऊ ??[जाँच कमेटी ढूँढ लेगी..]
जवाब देंहटाएंवहाँ के मौसम की जाँच के लिए मौसन विभाग को खबर कर दी गयी है..वे जाँच कमेटी के साथ पहुँचते ही होंगे.
'क्वचिदन्यतोअपि'[ब्लॉग का] मौसम यकायक बदल गया है...ज़रूर कुछ तो कहीं ठीक नहीं है!
[तनु श्री जी नोट करीएगा यह पॉइंट!]
कमेटी की उत्कट /अधीर प्रतीक्षा है ,,चाय पानी का इंतजाम करके पलक पांवड़े बिछाए हूँ .....
जवाब देंहटाएंbhaavpurna abhivyakti... sanskaar bahut maayne rakhte hai...
जवाब देंहटाएंअरविंद जी आपने भी अनायास ही मेरे को मेरे बनारस के पतंगबाजी के दिन याद दिला दिए. बड़ी गुड्डीबाजी की .. सच में.. बड़ी पियरी मोहल्ले और बाद में शिवपुर में. ये ससुरी खिचडी भी क्या त्यौहार होता था.. छोटी खिचडी.. वो रंग बिरंगी पतंगे ... लिखना पड़ेगा हमें भी.. आपका आभार...
जवाब देंहटाएंमैंने बहुत पतंग उडाई है...कांच पीस कर, लेई बनाकर.रंग मिला कर,मांझा सोटा है और हां लटाई पकड़ कर उड़ाई है पतंग...मैं कन्नी बहुत अच्छी बांधती थी...
जवाब देंहटाएंऔर उपन्यास....!!! जी भर कर पढ़ा है...मुझे प्रेम की कहानियाँ नहीं पसंद थी..फिर भी गुलशन नंदा जी की कटी पतंग पढ़ी है...आज भी याद है उसमें तसवीरें भी थीं...राजेश खन्ना और आशा पारीख की...सफ़ेद साडी में......जासूसी उपन्यास आज भी पढ़ लुंगी...फिर चाहे वो वेद प्रकाश हों , या सुरेन्द्र मोहन पाठक या फिर इब्ने शफी.....मेजर बलवंत आज भी याद हैं मुझे....एक और उपन्यासकार थे ...'रानू' ..मुझे याद है उनका एक उपन्यास पढ़ा था 'काँटोंका उपहार' ..रो-रो के मेरी ऐसी हालत हुई थी की बुखार ही आ गया था...तब से कानों को हाथ लगाया ये प्रेम-व्रेम से दूर ही रहेंगे...
मिसिर जी क्या लिखते हैं...पहुंचा ही दिया हमें भी झाँकने को यादों के झरोखों से .....पीछे न जाने कहाँ तक...
अच्छा लगा ....आपका लिखना...!!