शनिवार, 21 नवंबर 2009

नहीं भूलेगी वो कैटिल क्लास की मानवता !(यात्रा वृत्तांत -अंतिम भाग)

पुष्पक एक्सप्रेस से एक आशा तो थी ही कि काश यह मिथकीय पुष्पक विमान की तरह एक अतिरिक्त जगह भी दिला दे तो इसके नाम के अनुरूप काम भी हो जाय ! मगर डिब्बे मे घुसते ही थरूर क्लास की जनता की भेडिया धसान देख होश फाख्ता हो गए ! जाकिर को खुद अपनी आरक्षित बर्थ ढूंढें नहीं मिल रही थी -आखिर बर्थ नंबर १७ तक हम किसी तरह ठेल ठाल कर पहुंचे भी तो उस पर पूरा एक कुनबा विराजमान था ! पति पत्नी बंच्चे सभी पूरे अधिकार से वहां जमे थे! मुझे खुद आत्मग्लानि हो रही थी कि बिना वाजिब टिकट के मैं भी एक आक्रान्ता की तरह उसी डिब्बे में घुस आया था ! पता नही ऐसे मौकों पर मैं क्यूं अतिशय विनम्रता का शिकार हो जाता हूँ ! मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं  फूट पा रहे थे! हाँ ज़ाकिर का हड़काना जारी था -फलतः १७ तो नहीं हाँ सामने वाली बर्थ  पूरी खाली कर के दे दी गयी -हुकुम आप सब तो बैठो सामने ! मैं या तो खुद बैठ गया धम से या रिक्त बर्थ ने ही तेज गुरुत्व बल से मुझे बिठा लिया था ! वे  अच्छे विनम्र लोग थे! जौनपुरी ही थे ,मेरी ही तरह ! मुम्बई से शादी व्याह के चक्कर मे साले बहनोई अपने भरे  पूरे परिवार के साथ यात्रा कर रहे थे! उनकी भी समस्या यह थी कि उनके पास सीटें तो थी कुल चार मगर वे थे पॉँच अदद ,रेजगारिया अलग ! मतलब थरूर क्लास अपने चरित्र का पूरा निर्वहन कर रहा था !  मेरा स्कोप अब कमतर होता दीख  रहा था !

मैंने थोडा सांस संभलने पर डिब्बे के अन्तःपुर का सजग निरीक्षण किया ! विंडो बर्थ पर दाहिनी ओर एक भद्र मुस्लिम परिवार का पूरा कुनबा महज दो बर्थों पर समाया हुआ था - आठ सीटों के इस जन संकुल  स्पेस में कुल आठ बच्चे थे-पूरा वातावरण एक जबरदस्त ऊर्जा के प्रवाह ,किलकारियों से गुलजार हो रहा था ! बायीं ओर की  मोहतरमा इतनी बढियां ठेठ अवधी बोल रही थी कि मैं मंत्रमुग्ध  हुआ जा रहा था - कोई खाटी अग्रेज भी क्या इतनी धाराप्रवाह अंगरेजी बोलेगा ! रहा न गया तो मैंने भी ठेठ में पूंछ लिया कि आखिर यह नारी प्रतिभा कहाँ से बिलांग करती हैं -जवाब मिला गोंडा ! और प्रश्न के जवाब देने के एवज में उन्होंने अपने लगातार रोये जा रहे बच्चे को डांट कर चुप करते रहने का जिम्मा मुझे पकड़ा दिया ! किसी अजनबी पर इतना भरोसा या अधिकार ? सहसा मैं असहज होते हुए भी इस नए मिले काम को अंजाम देने में लग गया !

जाकिर तब तक कुछ और रोबदाब  दिखा कर ऊर्ध्वगामित यानि सबसे ऊपर के बर्थ पर लम्ब लेट चुके थे! और कमाल देखिये मैं इधर थरूर क्लास की मानवता की सेवा में जुटा/जुता खुद मानवीय होता रहा  - पूरे ६-7 साथ घंटे और जाकिर ऊपर सोते रहे -बाद में मासूमी से बोले थे कि वे बस पलक ही मूदे थे-भला चिल्ल पो में किसी को नीद भी आती है ! बहरहाल उनकी साफगोई किसी को भी कन्विंस नहीं कर पाई थी ! सब मन ही मन सोच बैठे थे कि चलो किसी एक ने तो अपना नीद का कोटा पूरा कर लिया है -सभी को रात में सोने की रणनीति तंग कर रही थी ,खास तौर पर मुझे !

इसी बीच टी टी भी आ कर जा चुका था -मुझसे उसने बिना वाजिब टिकट के यात्रा करने पर लगने वाली फाईन २५० रूपये और साधारण तथा स्लीपर क्लास के टिकट का डिफ़रेंस किराया कुल ४५० रूपये वसूल कर लिए थे -मगर कुछ अतिरिक्त शुल्क  में पूरी ट्रेन में किसी भी श्रेणी में बर्थ दिला पाने के मेरे प्रस्ताव को पूरी ईमानदारी से उसने ख़ारिज कर दिया था ! आखिर ईमानदारी दिखने का मौका बार बार थोड़े ही आता है ! जब ट्रेन पुष्पक हो और खचाखच भरी हो ,फिर तो ईमानदारी छलक ही पड़ती है ! बहरहाल मैं अब तक काफ़ी विनम्र हो चुका था और कोई जो भी कुछ कहता था फौरन ही मान  लेता था ! तभी जानकारी हुई कि ट्रेन तो भोपाल  से होकर जायेगी ! मुझे कई ब्लॉगर बन्धु याद आ गये ! एकबारगी तो घोर इच्छा हुई कि किसी/कुछ  को फोन कर स्टेशन पर ही बुला लूं मगर फिर लगा कि वे यहाँ ब्लॉग पर तो आते नहीं स्टेशन तक क्या आयेगें ! वैसे आज पाबला जी से कोई ब्लॉगर  बन्धु आकर मुरैना स्टेशन पर मिल लिए हैं ! अब अपना अपना नसीब है भाई! फिर मन  हुआ कंचन जी को फोन करुँ और भोपाल में ही इस विपदा से मुक्त हो लूं ! मगर फिर घर जल्दी पहुँच जाने का सहज बोध जोर मारने लगा ! हरिवंश राय  जी की कविता बदस्तूर याद हो आई.....बच्चे प्रत्याशा में होंगे ,नीड़ों से झाँक रहे होंगे -यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है ...दिन जल्दी जल्दी ढलता है ! ट्रेन तेज गति से भागती जा रही थी!

लगता है जाकिर ने रात्रि शयन की एक रणनीति पहले ही बना रखी थी ! मुझे पूरी बर्थ दे दी, खुद नीचे अख़बारों पर चद्दर बिछा और दोहर में मुंह छुपा अव्यक्त हो गए -और मुझे अपनी अव्यक्त कृतज्ञता की असहज अनुभूति के साथ रात बिताने की सौगात दे दी ! कहने को ही कैटिल क्लास है ,यहाँ तो मानवता के कूट कूट के दर्शन हुए ! सुबह लखनऊ समय से आ गये थे! फिर  उच्च दर्जे का बनारस तक का टिकट ३३४ रूपये मे लेकर अमृतसर हावड़ा मेल की ३ ऐ सी में जा विराजा ....मात्र ६१ रूपये का अंतर अदा किया और शाम तक वाराणसी पहुंचा तो खूब  उत्फुल्ल ,प्रफुल्लित था !

19 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग पर तो आते नहीं स्टेशन तक क्या आयेगें
    :-)

    कहने को ही कैटिल क्लास है ,यहाँ तो मानवता के कूट कूट के दर्शन हुए
    बात बिल्कुल सही है

    पिछली पोस्ट्स भी पढ़ता हूँ

    बी एस पाबला

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  2. आप मुझे चिंता में डाल दिए। 24 को ही मुम्बई जाना है और आने जाने दोनों ओर वेटिंग के टिकट हैं। सोच रहा हूँ न जाऊँ। बाकी तो नौकरी है - ठेलन करेंगे तो फ्लाइट की फरमाइश करूँगा। वैसे मुझे सुविधाजनक 2 ए सी में लम्बी यात्राएँ करने में मजा आता है लेकिन ऐसी हालत में तो कत्तई नहीं...
    एक तरफ नायिका भेद और दूसरी तरफ यह यात्रा वृतांत! कैसे सँभाल ले रहे हैं!
    ... यह वृतांत भी एक उपलब्धि है अपनी सहजता और प्रवाहमय विवरण के लिए। कष्टगाथा इतनी स्वाभाविक लगी की मैं भी कष्टग्रस्त हो गया। परदु:ख कातर स्वभाव है न ;)

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  3. बहुत अच्छा लगा आपका ये वृताँत शुभकामनायें

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  4. डाग्दर साहिब, क्या कभी पैसिंजर में बिना रिजर्वेशन यात्रा किए हैं। हम तीन बरस रोज पैसिंजर में ऊपर-नीचे (up-down)करत रहे।
    बीसेक बरस पहिले एक शादी में जाने को अईसे ही बीबी-बच्चन के साथ कोटा से सीकरी अउर आगरा होइ के मथुरा गए। भांत-भांत के लोगन से मिलन को जो अबसर इहाँ मिलत है, किधर भी नाहीं।
    @गिरजेश जी,
    इतने सारे भावों वाली नायिकाओं से भी भेंट का अवसर यहाँ बहुत है।

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  5. पूरा वृत्तान्त अत्यन्त रोचक रहा ! हजारॊं की मी की लम्बी यात्रा के बाद दिनों बाद थके मांदे बनारस पहुंचने का सुख एक अलग सुख है ! पूरा कैण्ट स्टेशन ही काव्यात्मक हो उठता है !

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  6. संकोच में मारे गये आप वर्ना भोपाल में मौज करते थोड़ा। अंत भला तो सब भला। अब इसके बाद कौन नायिका वर्णन है? ट्रेंड यही चल रहा है न इसलिये पूछा!

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  7. हुजूर !
    रीतिकालीन कविता कि पंक्ति है ---
    '' नयो नयो लागैं ज्यों ज्यों निहारिये ...''
    यह बात आपके दोनों किश्म के विवेचनों पर सही
    साबित हो रही है ...

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  8. रोचक शैली में लिखा गया तकलींफदेह यात्रा का बेहतरीन वृतांत ।

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  9. मजा आ गया आप की यात्रा पा पढ कर, मै तो घंटा दो घंटे नै ही तंग हो गये थे,लेकिन वो भी दिन थे जब हम थर्ड कलास मै दरवाजे पर लटक करभी सफ़र करते थे, या तो हमारे नखरे बढ गये है या फ़िर हम हद से ज्यादा नाजुक हो गये है, मै तीस साल बाद सिर्फ़ इस लिये बेठ रेल मै कि मुझे पुराने दिनो का कुछ मजा आय़ॆ ले्किन वो बात नही रही.

    धन्यवाद

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  10. भैया यह तो लोहे का घर है और घर मे ऐसा होता है ।

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  11. जिसको, जब भी जहां जाना हो, कृपया कार्यक्रम देख कर हमें फोन करें। अगर ट्रेन भोपाल से गुजरती हो तो बताएं। संभव हुआ तो मिलने का प्रयास करेंगे।

    बाकी पोस्ट अच्छी थी।
    जैजै

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  12. सफर अलग थोड़े ही था जीवनचर्या से । ऐसी ही हाच-पाच, अवसरानुकूलन, सदभाव - सब के सहज ही दर्शन हो जाते हैं ।
    बाकी ३३४ की यात्रा तो क्षणिक है ।

    यात्रा का इतना सजीव वर्णन, और अनगिन अभिव्यक्ति-प्रयुक्तियों के साथ - कम ही पढ़ा है । आभार ।

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  13. सफ़र में अच्छा सफर (अंग्रेज़ी वाला) किया...

    जय हिंद...

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  14. रोचक संस्मरणावली..... इस 'मेल' गाड़ी के बीच में जो 'फीमेल' कंपार्टमैंट लगाया वो भी अच्छा था..... परंपरा जारी रखें बनारसी बाबू... (पता नहीं क्यों आज देवानंद याद आ रहे हैं)

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  15. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  16. .
    .
    .
    आदरणीय अरविन्द जी,

    बहुत अच्छा लगा आपका यात्रा वृतान्त... ऐसे लग रहा था कि हम भी साथ-साथ 'सफर' कर रहे हों...

    @ आदरणीय अनूप शुक्ल जी,

    यह भी नायिका वर्णन ही तो है... नायिका है "लौहपथगामिनी"....... :)

    आओ 'शाश्वत सत्य' को अंगीकार करें........प्रवीण शाह

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  17. पुरानी वाली पोस्ट पढ़ लें पहले फिर इसे पढ़ना सही होगा.

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  18. मतलब ये हुआ की Conference से ज्यादा मज़ा उसकी यात्रा में आया.

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  19. अंत भले का भला... लौट के मिसिर जी घर को आए :)

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