अब यह गे कविता है या उभयलिंगी प्रेम को समर्पित ,इस पर भी मेरी टिप्पणी करना मुनासिब नही हैं - हाँ यह लफडा इसी ब्लॉग जगत से जरूर उपजा है -यह तो तय ही लगता है !
तो कविता का शीर्षक (यह मैंने दिया है ) है -
तुम्हारा प्रेम
आभासी दुनिया में पला पगा तुम्हारा प्रेम
महज आभासी ही है ,
इसमें कहाँ है सामीप्य की ऊष्मा
और सानिध्य का अहसास
यह महज मृग मरीचिका है
बस मरुथल में झरने की खोज
का महज एक निरर्थक प्रयास
जैसे सिर पे आ गए सूरज की
प्रचंड दुपहरी में खुद की छाया
खोजने का एक विकल उपक्रम
छाया मत छूना मन होगा दुःख दूना मन
जैसी शाश्वत सतरों की याद दिलाता
तुम्हारा यह प्रेम केवल एक छलावा है
हकीकत से दूर ,बहुत दूर !!
तुम्हारा प्रेम ............
महज आभासी ही है ,
इसमें कहाँ है सामीप्य की ऊष्मा
और सानिध्य का अहसास
यह महज मृग मरीचिका है
बस मरुथल में झरने की खोज
का महज एक निरर्थक प्रयास
जैसे सिर पे आ गए सूरज की
प्रचंड दुपहरी में खुद की छाया
खोजने का एक विकल उपक्रम
छाया मत छूना मन होगा दुःख दूना मन
जैसी शाश्वत सतरों की याद दिलाता
तुम्हारा यह प्रेम केवल एक छलावा है
हकीकत से दूर ,बहुत दूर !!
तुम्हारा प्रेम ............
अब यह कविता है भी या नहीं ? मुझे मेरे मित्र का डर है -मैं तो इसे कविता ही मानता हूँ ! दोस्ती जिंदाबाद ! पर आप भी क्या इसे कविता मानते/मानती हैं / हैं ? सच सच बताईये न ! और इसमें अपेक्षित सुधार भी कीजिये ताकि मित्र का काम पूरा हो !