शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

झांसी में कबूतरों का आतंक और मछलियों का क्लोज सीजन - (सेवाकाल संस्मरण -14 )

झांसी में तनहा रहते हुए कुछ समय ही बीता था कि पत्नी को  साथ रखने का कर्त्तव्यबोध/इंस्टिंक्ट  तीव्र हो उठा। संयोग से एक इलाहाबादी मित्र के सम्पर्क सहयोग से सीपरी के पास आवास विकास कालोनी में तीन कमरे का आवास मिल गया  और मैंने  घर से पत्नी को लाकर अपनी दिनचर्या नियमित कर ली। मगर तब वहाँ चोरियां बहुत होती थीं और चोरों का डर हमेशा बना रहता।  पास में ही पहुंज जलाशय था जिसमें  मछली मारने का ठेका मत्स्य विभाग देता था।  लोग बताते कि वहाँ 'कबूतरों' का अड्डा है जो रात  बिरात कालोनी तक भी धावा बोल देते हैं .आये दिन अख़बारों में भी  छपता कि कबूतरे ये ले उड़े, वे ले उड़े। 

एक दिन सुबह सुबह पहुंज जलाशय का एक मछुआ भागता हुआ आया और हाँफते हाँफते बोला साहब कबूतरे जाल (मछली का जाल ) उड़ा  ले गए. मुझे सहसा तो माजरा ही समझ में  नहीं आया और वो चित्रमय कहानी याद आ गई जिसमें एक बहेलिये के पूरे जाल को कबूतर ले उड़े थे। मगर  बाद में बात समझ आयी कि झांसी में कबूतरे दरअसल लूट मार कर जीविका  चलाने वाले आदिवासी समूह हैं जिनका उस समय आतंक रहता था। पता नहीं अब भी वे हैं या नहीं। मगर उनका एक आभार है मुझ पर। 

 एक दिन मैंने  जिलाधिकारी महोदय से बड़े ही अनुरोधपूर्वक कबूतरों के करतूतों का हवाला देते हुए  अपने लिए सरकारी आवास ऐलाट करने की दुबारा गुहार लगायी। इस बार सुनवाई आखिर हो ही गई।  और मुझे आफिसर्स होस्टल एलाट हो गया -कक्ष संख्या अट्ठारह, द्वितीय तल जिसका मैंने नाम रखा था -"द सेलेस्टियल राण्डिवू (आकाशीय मिलन -स्थल ) . आफिसर्स होस्टल की लोकेशन बहुत अच्छी है। बगल में जिलाधिकारी आवास और सर्किट हाऊस यानि वी वी आइ पी लोकेलिटी। सरकारी आवासों की एक अच्छी बात है कि वहाँ सरकारी कर्मियों का एक 'मर्यादित' और निःशंक परिवेश मिलता है।  जबकि अन्यत्र रहने पर न  जाने कैसे कैसे लोगों की आवाजाही आस पास बनी रहती है। आप तब ईजिली अप्रोचेबल होते हैं. पत्नी भी अब काफी खुश थीं -उनका महिला साम्राज्य अब विकसित होने लगा था और अब वे  आवास विकास कालोनी के नीरस परिवेश से मुक्त हो गयी थीं।  पड़ोसनों का दैनिक 'बात व्योहार' आरम्भ हो गया था। एक दो की याद तो पत्नी को अभी भी है और मुझे भी ।
झांसी संस्मरणों के लिहाज से मेरे लिए आज भी बहुत समृद्ध है।  मगर दुविधा यही है कि क्या छोडूं क्या जिक्र करूं? और बहुत सम्भव है कि बहुत कुछ भूला भी हो जो महत्वपूर्ण हो और कम जरूरी बातें याद हों।  याद आता है कि तब कांग्रेस की सरकार सूूबे में थी और हमारी कैबिनेट मंत्री थीं श्रीमती बेनी बाई जी जो वहीं झांसी शहर की ही रहने वाली थीं।  मुझे कोई ऐसा वाकया याद नहीं पड़ता जिसमें उनके नगरागमन पर हमें कोई असहजता या समस्या झेलनी पडी हो।  वे प्रायः घर आतीं मगर उनका यह दौरा निजी ही होता था और सरकारी अमला जामा बस प्रोटोकाल में आते जाते  बस उन्हें नमस्कार करने की ही जहमत उठाता। यह नहीं कि अनावश्यक भीड़ भाड़ और उसे सम्भालने, खाने पीने की जिम्मेदारी विभागीय अधिकारियों की रहती ।  तब सरकारी सेवायें एक हद तक अनेक आडम्बर और अनुचित आग्रहों से मुक्त थीं -कम से कम मत्स्य विभाग तो उनके आने पर चैन की वंशी बजाता  रहता।  

हाँ एक बार मैं तलब किया गया था. बात यूं थी कि उत्तर प्रदेश मत्स्य अधिनियम 1948 में उन प्रजननकारी  मेजर कार्प मछलियों के शिकार पर माह जुलाई और अगस्त में प्रतिबन्ध था जो डेढ़ किलो से नीचे थीं और जिन्हे एक बार भी पहले प्रजनन का मौका न मिला हो।  यह मत्स्य संरक्षण के लिए एक जरूरी प्रावधान था और अपने अकादमीय रूचि के कारण मैं इस प्रावधान को कड़ाई से लागू करने के लिए सक्रियक की भूमिका में आ गया।  जबकि अनुभव ने  बार बार यह सिखाया है कि सरकारी नौकर को अपने दायरे का अनावश्यक अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।  मैंने ऐसी मछलियों की बाजार में भी बिक्री पर कड़ाई से प्रतिबन्ध लागू किया।  औचक छापे मारे।  जुर्माने लगाये और रसीदें दीं - पहली बार झांसी के मछली बाजार में हड़कम्प मच गया।  मेरे मंडलीय अधिकारी वीरेंद्र कुमार जी ने मेरी  अति सक्रियता पर थोडा लगाम लगाना चाहा -मगर तब तो नया जोश और कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। 

 मेरा अभियान चलता गया।  मेरे पास आकर्षक आफर आने लगे।  मत्स्य व्यवसायियों ने 'प्रिवी पर्स' का प्रस्ताव दिया।  कई बार मन भी डिगा।  मगर नैतिकता कचोटती -क्या इसी के लिए इतना आगे बढे थे।  मैंने दृढ हो सभी प्रलोभनों को ठुकराया। और तब थक हार कर मछुआ समुदाय के लोग माननीय मंत्री जी के पास फ़रियाद लिए जा पहुंचे और उन्हें मछली के मुसलमान व्यवसायियों ने भी सपोर्ट किया।  मेरी पेशी हुयी।  मैं  किंचित घबराते हुए मंत्री जी के पास गया  मगर उन्होंने बहुत ही सहज आत्मीय तरीके से कहा कि " ऐ डी एफ (असिस्टेंट डाइरेक्टर फिशरीज ) साहब, आप गरीबों को क्यों सता रहे हैं? उन बिचारे लोगों के पेट पर लात मत मारिये "  अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि कि अगर इसी  तरह प्रजनन काल में मछलियों को मारा जाता रहा तो एक दिन इन मछुआ परिवार के वंशजों को नदियों में मछली ही नहीं मिलेगी  और उनका जीवन निर्वाह मुश्किल हो जाएगा -पर्यावरण की कोई भी क्षति आखिरकार मनुष्य को ही प्रभावित करती है।  मगर इतना तो विवेक मुझे था कि यह बात लोकतंत्र के चुने प्रतिनिधियों को न तब और न अब भी समझा पाना मुश्किल है।बहरहाल मैंने कोशिश तो की मगर शायद सफल नहीं हुआ और यह मामला डी एम  साहब के छोर पर जा पहुंचा।  और मेरी पेशी वहाँ भी हुई। 

अब तक नए डी एम  साहब पी उमाशंकर जी आ चुके थे तो आंध्र प्रदेश मूल के आइ ए  एस थे और उन्हें  वस्तुस्थिति से अवगत कराना मुझे आसान सा लगा।  मैं ऐक्ट की प्रति उनके सामने ले गया था और प्रावधानों को उन्हें दिखाया और तब उन्होंने जिले के पुलिस अधीक्षक को भी यह कह दिया कि प्रजननकारी मछलियों को पकड़ने बेंचने में अगर मत्स्य विभाग का कोई कर्मी मदद मांगता है तो पर्याप्त आवश्यक पुलिस बल भी दिया जाय। मेरा मनोबल बढ़ा। मेरी शिकायत तत्कालीन निदेशक वीरेंद्र कुमार जौहरी साहब के यहाँ भी हुयी और उन्होंने जिलाधिकारी से जांच की अपेक्षा की और जिलाधिकारी महोदय ने मुझे क्लीन चिट  दे दिया।  यह तब की बात थी जब ज्यादातर उच्च अधिकारी अपने मातहतों के मनोबल  को ऊँचा बनाये रखने का यत्न करते थे।  मुझे याद है इसी आपाधापी में अगस्त बीत गया। और प्रतिबंधित काल(क्लोज सीजन ) ख़त्म हो गया. मगर इस घटना की गूँज बनी रही और मैंने जिलाधिकारी का विश्वास जीतने में कामयाबी पायी 
जारी ...।

17 टिप्‍पणियां:

  1. यह तब की बात थी जब ज्यादातर उच्च अधिकारी अपने मातहतों के मनोबल को ऊँचा बनाये रखने का यत्न करते थे। मुझे याद है इसी आपाधापी में अगस्त बीत गया। और प्रतिबंधित काल(क्लोज सीजन ) ख़त्म हो गया. मगर इस घटना की गूँज बनी रही और मैंने जिलाधिकारी का विश्वास जीतने में कामयाबी पायी

    पहल करने वाले का हर युग में रोल रहा है। बढ़िया संस्मरण।

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  2. आपकी लेखनी ने भी हमें 'क्लोज' किये रखा पढने के आनंद तक. चलती रहे यह सुन्दर संस्मरण श्रृंखला.

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  3. सुंदर संस्मरण ...... आपकी स्वतंत्र और प्रभावी सोच लिए

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  4. संस्मरण काफी पसंद आया,आप का ब्लॉग जीवंतता देता है...

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  5. इस संस्मरण को पढ़ने से ऊर्जा का संचार हुआ, बस वरिष्ठ अधिकारियों का सहयोग हमेशा रहना चाहिये ।

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  6. बढ़िया अनुभव रहा आपका यह भी.

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  7. चुने हुए नेता शुरू से ही ये सब करते आए हैं .. समाज को शिक्षित करने की बजाए काम चलाते रहे हैं ...
    अच्छा लगा आपका झांसी संस्मरण ...

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  8. सुन्दर संस्मरण । प्राञ्जल-प्रस्तुति । रम्या-रचना ।

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  9. मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है पंडित जी कि ये सारी घटनाएँ इतनी स्पष्ट आपकी स्मृति में हैं.. यह निश्चित तौर पर आपकी जीवन्तता का परिचायक है!! मुझे तो एक संस्मरणात्मक अभिलेख आकार लेता दिख रहा है!!

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  10. तनाव भरी परिस्थितियों से बच निकले ,वह समय और था , अपेक्षाएं और थी !

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  11. बहुत खूब कहा है। यादों को सहेजना बाँधना पहुंचना उसी काल खंड में कथा बनके अपना वजन रखता है वर्त्तमान खबर करता है।

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  12. कुछ गाँव अभी भी हैं जहाँ कबूतरबाज रहते हैं..

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  13. चैन की वंशी तो अब दन्त कथाओं में ही रह गया है .

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