यादों के वातायन में वापस लौटता हूँ वर्ष 1988 में,झांसी। मैं इस मामले में शायद अतिरिक्त रूप से सजग था कि "झांसी गले की फांसी" है, मगर इस बारे में आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया कि यह कहावत है क्यों? जिस किसी से पूछता वह अपनी अलग व्याख्या देता। कोई कहता कि बुंदेल खंड में ट्रांसफर होने के बाद पूरे सर्विस पीरियड में वहीं रह जाना पड़ता है। मेरे सामने ऐसे मामले आये जिसमें 14 साल यानी एक पूरी वनवास अवधि कई स्टाफ वहीं गुजार चुके थे जबकि वे रहने वाले पूर्वांचल के थे। पूर्वांचल का मैं भी था तो मुझे भी आशंका होती कि कहीं मैं भी वहीं का न होकर रह जाऊं। मुझे वहाँ सहायक निदेशक का प्रभार मिला था जिसके आहरण और वितरण का दायित्व उप निदेशक मत्स्य को था -एक तरह से यह अनुचित आदेश था क्योकि मैं खुद एक राजपत्रित अधिकारी था। मगर मौलिक पद व्याख्याता का होने के कारण उच्च अधिकारी मुझे आहरण वितरण का दायित्व देने से कतराते थे जबकि वित्तीय नियमों के अधीन यह एक स्पष्ट व्यवस्था है कि आप जिस पद का काम करेगें आपको उस पद का वित्तीय अधिकार भी होना चाहिए।
उन दिनों और अब भी लगभग सभी जनपदों में वर्ल्ड बैंक के सहयोग से एक और योजना आरम्भ हुयी थी -मत्स्य पालक विकास अभिकरण जिसके अध्यक्ष जिलाधिकारी (अब जिला पंचायत अध्यक्ष ) होते थे और मत्स्य विभाग के सहायक निदेशक सचिव होते हुए इस स्वयं शासी संस्थान के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सी ई ओ ) होते थे /हैं। मुझे तब इस पद यानि सी ई ओ का पूरा वित्तीय अधिकार दिया गया था। तब किसी भी संस्थान का सी ई ओ एक तोप माना जाता था। मैंने ठाठ से इस पदनाम से एक विजिटिंग कार्ड भी छपवा लिया था। तब तो कई साध और शौक और भी थे और साथ थी पूरी अपरिपक्वता :-) । लोग बाग़ सुनते कि मैं कहीं का सी ई ओ हूँ तो ज्यादा तवज्जो देते और व्याख्याता कहने पर कोई ख़ास तवज्जो नहीं देते। धन्य है हमारा परिवेश और समाज!
हलाँकि तब मेरे मंडलीय अधिकारी /उप निदेशक मत्स्य वी कुमार साहब जो आगे चलकर निदेशक मत्स्य उत्तर प्रदेश हुए, मीठी झिड़की देते हुए कहते कि मुझे सहायक निदेशक मत्स्य ही लिखना और प्रगट करना चाहिए मगर मेरा जवाब रहता कि उस पद का पूरा अधिकार ही मेरे पास कहाँ था। वे कहते कि नहीं पूरे जनपद का प्रभार आपके पास ही है। और मुझे इस द्वंद्व में नहीं रहना चाहिए अन्यथा मेरी कार्य क्षमता प्रभावित हो सकती है। मगर कहने से क्या होता था, मुझे असलियत तो पता ही थी। मेरे बाबुओं ने आखिर एक दिन इस मामले में एक असहज स्थिति उत्पन्न कर ही दी. उन्होंने मुझे पता नहीं कैसे यह कन्विंस कर लिया कि सहायक निदेशक मत्स्य के रूप में मैं चतुर्थ श्रेणी यानि मछुआ के पदों पर कार्यरत कर्मियों का ट्रांसफर कर सकता हूँ और मुझसे एक दो नहीं कोई आधा दर्जन मछुओं का ट्रांसफर करा दिया। हड़कम्प मचना ही था सो मचा। बाबूओ ने ट्रांसफर हुए स्टाफ पर अपनी खुन्नस मेरे जरिये निकाली थी। आदेश के एक दो दिन बाद ही वी कुमार साहब ने मुझे तलब कर लिया।
आपने यह क्या कर डाला? मैंने दृढ़ता से उत्तर दिया 'सर, जनपदीय अधिकारी के अधिकार से मैंने वे ट्रांसफर किये हैं ,अब क्या जनपदीय अधिकारी को यह भी अधिकार नहीं है ? " वे कन्विंस नहीं थे ," यह अधिकार केवल उप निदेशक और उच्च अधिकारियों को है, सहायक निदेशक को नहीं " अब मैं असहज सा हुआ, "यानि कि सहायक निदेशक को जिस पर पूरे जनपद की जिम्मेदारी है को अपने चतुर्थ श्रेणी के कर्मियों को एक जगहं से दूसरी जगह पदस्थ करने का अधिकार नहीं है ? " "बिलकुल नहीं है और यह करके आपने अधिकार सीमा का ऊल्लंघन किया है और यह दंडनीय है " अब मुझे काटो तो खून नहीं और विस्मित सा अलग। "चलिए मैं इसे अनदेखा करता हूँ मगर आईन्दा आप अपने अधिकारों के ऊपर जाकर काम नहीं करेगें और बाबुओं के प्रस्ताव पर सजगता से और विभागीय निर्देशों की पूरी जानकारी करके ही निर्णय लिया करिये।" मेरी नयी नौकरी पर यह उनका उदार निर्णय था। वे अभी भी हैं हालांकि सेवा निवृत्त और कभी कभी फोन पर मेरी हाल चाल लेते रहते हैं।
उनसे कई बार बहस भी हो जाती थी क्योकि मत्स्य विभाग में सहायक निदेशक यानि जनपदीय अधिकारी को जिम्मेदारी तो बहुत दी गयी है मगर कोई भी प्रशासनिक अधिकार नहीं है -न तो किसी भी तरह दंड देने का और न ही ट्रांसफर करने का। उस पर अपेक्षा यह की जाती है कि वह अपने अधीनस्थ पर यथेष्ट नियंत्रण रखे। और यह व्यवस्था विगत तीस वर्षों में जस की तस है, जो प्रशासनिक समस्या मेरे सामने तीस वर्ष पहले थी वही आज भी है। इन्ही मुद्दों को लेकर मेरी तत्कालीन उप निदेशक वी कुमार साहब से तल्ख़ बहसें भी हो जाती थीं मगर वे एक परिपक्व और बड़े विजन के अधिकारी थे और मुझे डांटने के बजाय दूसरों से मेरी बड़ाई ही करते और कहते ," कम से कम कोई अधिकारी ऐसा तो है जो मुझसे बहस करने की हिम्मत रखता है " और मैं जब यह सुनता तो लज्जित सा हो उठता।
उनके साथ मेरे संबंध उत्तरोत्तर अच्छे बनते गए थे और जब वे निदेशक बने तो भी उनका वही स्नेह मुझे मिलता। एक बार तो लखनऊ जाने पर मुझे अपनी राजकीय कार में बिठा कर हजरतगंज ले गए और जनपथ की तब एक निर्जन सी चाट के दुकान पर मुझे गोलगप्पे खिलाये और खूब बतकही की -मैं तब बनारस जनपद में सी ई ओ था मगर उनके हाव भाव में कहीं भी निदेशक होने का भाव नहीं था -एक गाइड एक अभिभावक के रूप में ही वे दिखे बल्कि मित्रवत भी। ऐसे अधिकारी अब कितने कम से कमतर होते गए हैं।
जारी ……
आपको अतीत की छोटी-छोटी घटनायें आज भी याद हैं और उन घटनाओं का वर्णन आप इतनी कलात्मकता से कर रहे हैं कि आपसे ईर्ष्या हो रही है । काश मैं भी आप की तरह लिख पाती । रोचक- प्रवाह-पूर्ण प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंकभी कभी सीधा और सपाट बोल देना अच्छा रहता है, स्पष्ट रहता है।
जवाब देंहटाएंसच्ची बात कही थी हमने......!
जवाब देंहटाएंस्पष्टता से बात कहने के अपने जोखिम हैं लेकिन कद्र भी होती है।
जवाब देंहटाएंआपकी बेबाकी को मान मिला अच्छी बात है
जवाब देंहटाएंkaahe tranfer kiye the becharon ke aapne ? :)
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि सारी पोस्ट समूहिक रूप से प्रकाशित कर दी जाएं तो अलग से आत्मकथा लिखने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी :)
जवाब देंहटाएंaapka idea likiyane wala hai......umeed hai bare bhaiji 'vichar' karenge............
हटाएंpranam.
बाबुओं के झांसे में आकर आधे दर्जन मछुओं के तबादले कर दिये।
जवाब देंहटाएंक्या बात है। विवेक का अभाव। :)
तारीफ़ सुनकर लज्जित होते हुये कित्ते तो हसीन लगते होंगे। :) :)
घटनाएँ भी रोचक हैं और आपके लिखने की शैली भी। बहुत बढ़िया। आपके सेवानिवृत्त होने के बाद यह विभाग के कर्मियों के पास अमूल्य धरोहर के रूप में सहेजा जाने वाला है।
जवाब देंहटाएंआपकी ईमानदारी आपकी पोस्ट से झलकती है !
जवाब देंहटाएंआपके सेवाकाल के रोचक वर्णन उत्सुकता जगा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंट्रान्सफर तो जब भी होता है... बिना हंगामे के नहीं. चाहे वो निर्णय परिपक्वता से लिया जाय या नहीं. 'झांसी गले की फांसी' को तो आपने निश्चय ही झुठला दिया :)
जवाब देंहटाएंस्पष्टवादी होना कष्ट देता है , मगर इसके कई लाभ भी हैं ! स्मृतियों के आत्मकथात्मक अंश ख़ासा रोचक है।
जवाब देंहटाएंसरकारी तंत्र में सिद्धान्त के ऊपर व्यवहार की दबंगई अक्सर दुखी करती है। इस तंत्र की दक्षता भी उसी अनुपात में नष्ट होती है जिस अनुपात में फौरी/ निजी लाभ के लिए सिद्धान्तों और नियमों से समझौता कर लिया जाता है।
जवाब देंहटाएं१. आपके इस ब्लाग पर आकर पोस्ट्स बिना पढ़े वापस जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है ;) मैं कुछ और करने के पहले बस एक बार देखने आया था लेकिन पूरा पढ़ना पड़ा , इतना रोचक है .
जवाब देंहटाएं२..... अच्छा , अगर इस (उप निदेशक मत्स्य ) मुहावरे में मत्स्य की जगह मछली प्रयोग किया जाय तो कैसा रहेगा ! ! ! ......एक बार बोल कर देखते हैं ...उप निदेशक मछली :) :) :)
॒सरकारी तंत्र में सिद्धान्त के ऊपर व्यवहार की दबंगई अक्सर दुखी करती है......बिलकुल सही है ...यह एक प्रकार के अज्ञान की उपज है , मुझे लगता है .....मैं इसी प्रकार के मामले में मानवाधिकार आयोग की सहायता ले रहा हूं , CAT भी काम की चीज है ! :)
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