विगत लगभग एक साल से नारी अस्मिता और सम्मान को तारतार करने के ऐसे अप्रिय और शर्मनाक मामले मीडिया के जरिये चर्चित हुए हैं कि हमें खुद के सभ्य होने पर शंका होने लगी है। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि कठोर दंड के प्रावधानों के बावजूद भी इन घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि ये मामले अशिक्षित, गंवार और जाहिल लोगों के बीच के हैं बल्कि नारी की अस्मिता से खिलवाड़ का आरोप लोकतंत्र के लगभग सभी स्तम्भों के नुमाइंदों पर लगा है -जज ,विधायक-सांसद ,अधिकारी और पत्रकार सभी इस के दायरे में है जो खासे पढ़े लिखे और शिक्षित हैं। आखिर सामजिक स्थापनाओं की एक अहम् कड़ी बल्कि कर्णधारों पर ऐसे आरोपों का सबब क्या है ?
.... और आधी दुनिया पर भारत में यह क़यामत क्यों बरपा हुयी है। इस अत्यंत ही विषम समस्या के पहलुओं पर गहन विचार विमर्श और उनके कारणों और निवारण पर उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यवाही समय की मांग है। मात्र कानूनी प्रावधान -दंड व्यवस्था के बल पर इससे निजात मिलना मुश्किल लगता है। इस समस्या के मूल कारणों के सभी सामाजिक ,आर्थिक और जैवीय पहलुओं को गम्भीरता से समझना होगा। मीडिया ट्रायल या नारी समर्थकों की अति सक्रियता भी इसे प्रकारांतर से उभार ही रही हैं ऐसा लगता है।
मुझ पर अपनी बातों की बार बार पुनरावृत्ति के आरोप की कीमत पर भी जैवीय पहलुओं को यहाँ इंगित करना मैं जरूरी समझता हूँ -नारी का प्राचीन मानवीय सभ्यता में घर के भीतर तक सीमित रहने का रोल सभ्यता की प्रगति के साथ तेजी से बदला है। अब नारी का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित न रहकर उसका कार्यक्षेत्र विस्तृत हो चला है -डेजमांड मोरिस जैसे विश्व प्रसिद्ध जैव व्यवहार विद के शब्दों में कहें तो नारी अब पुरुष के बाहरी विस्तृत "आखेट के मैदान " में उसकी बराबर की सहभागी बन रही है। यह एक बड़ा रोल रिवर्जल है। उसका नित एक्सपोजर अब एक बड़े " आखेट के मैदान" में हो रहा है। और यहाँ उसका सामना विभिन्न हैसियत के पुरुषों से हो रहा है।
मनुष्य का विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण किसी से छुपा नहीं है। पुरुष ऐसे जैवीय आकर्षणों या यूं कहिये "जैव कांपों" (बायो ट्रैप ) से बच नहीं पाता, सहज ही फंसता है । इस मामले में उसका आचरण ज्यादा मुखर होता है। प्रकृति ने उसे सम्भवतः ऐसा ही बनाया है क्योंकि ऐसा होने में उसके सामने कोई जैवीय या सामाजिक रिस्क नहीं है।जबकि नारी का लम्बा प्रसव काल और शिशु के लम्बे समय तक पालन पोषण उसके लिए सबसे बड़ा बंधन है , इसलिए प्रकृति ने उसे विपरीत सेक्स के प्रति जब तक कि उसकी संतति के लालन पालन के लिए एक जिम्मेदार सहचर न मिल जाय प्रायः उदासीन ही बना रखा है। मगर पुरुष की ऐसी किसी बाध्यता के न होने से उसके यौनिक आग्रह प्रायः ज्यादा मुखर होते हैं। यह एक बड़ी असहज स्थिति है. जानवरों में तो मादा के चयन के लिए बाकायदा भयंकर शक्ति का प्रदर्शन होता है और जो सबसे बलिष्ठ होता है वही मादा को हासिल करता है। वहाँ पूरी तरह जैवीय -कुदरती व्यवस्था लागू है। मगर मनुष्य ने शादी विवाह के कई सामाजिक पद्धतियों को वजूद में ला दिया है। वह आज भी एक तरह से अपनी उसी आदि आखेटक की भूमिका और बलिष्ठ नर होने का गाहे बगाहे प्रदर्शन का 'कु -प्रयास' कर बैठता है।
मनुष्य ने विकास क्रम में अपनी एक सामाजिक व्यवस्था विकसित की है और कई कायदे क़ानून बनाये हैं। स्त्री पुरुष के ऐसे ही जैवीय लिहाज से भी अनुचित संसर्गों से बचने के लिए धर्म में स्त्री के पर्देदारी ,यौनिक दृष्टि से परिपक्व विपरीत लिंगियों यहाँ तक कि पिता पुत्री तक के एकांतवास पर तरह तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं। धार्मिक साहित्य में स्त्री से दूर रहने के लिए ऐसे तमाम निषेध हैं और उसे जानबूझकर कर दुखों और अपयश की खान तक कह डाला गया है। कहा गया है कि नारी संसर्ग/प्रसंग पुरुष के ज्ञान -बुद्धि सभी को नष्ट भ्रष्ट कर देने वाला है। इसका अभिप्राय केवल यही लगता है कि विज्ञ जन नारी से दूर रहें -उनके आकर्षण से बचें।
पूरी दुनिया में नारी के पुरुष से कंधे से कंधा मिलाकर चलने के चलन ने हमें 'सभ्य युग' के कई शिष्टाचार के पाठ भी पढ़ाये हैं। कंधा से कंधा मिलाना महज एक अलंकारिक उक्ति है जबकि सामाजिक रहन सहन में उंगली भी छू जाय तो शिष्टाचार का तकाजा है कि तुरंत सारी बोला जाय। मगर बायोट्रैप का क्या कहिये, बसों रेलों में ईव टीजिंग की घटनाएं होती रहती हैं। जाहिर है पुरुषों के लिए जैव कांपों से खुद को बचने का सलीका अभी आया नहीं है। बहुत प्रशिक्षण और कठोर पारिवारिक संस्कारीकरण की जरुरत बनी हुयी है. ऐसे में कार्य स्थल जो मनुष्य के आदिम आखेट स्थलों के नए स्वरुप हैं में नारियों को भी कई सुरक्षा और सावधानियों का अपनाना जरूरी है। यहाँ मैं नारीवादियों की उन्मुक्त रहन सहन के बड़े दावों से सहमत नहीं हूँ। अनेक दुखद घटनाएं हमें बार बार चेता रही हैं कि आज कार्यस्थलों पर नारी के भी आचरण को मर्यादित रखने के प्रति सजग होना होगा। अनावश्यक प्रदर्शनों जिसके कि अनजाने ही गलत अर्थ -जैवीय संकेत निकलते हों के प्रति सावधानी अपेक्षित है।
पुरुषों के लिए तो खैर कार्यस्थलों पर आचार विचार के लिए कठोर दण्ड के कानूनी प्रावधान लागू हो ही गए हैं मगर साफ़ दिख रहा है कि इससे भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। इस समस्या की जड़ें कही और है और हम कहीं और समाधान के प्रयास कर रहे हैं। भारत में कार्यस्थलों पर विशाखा प्रावधानों के लागू होने के बाद तो स्थिति पुरुष सहकर्मियों के लिए काफी निषेधात्मक और चेतावनीपूर्ण हो गए हैं।महिला सहकर्मी के किस हाव भाव या उपक्रम को गलत समझ कर प्रतिवाद हो जाय यह भी असहज सम्भावना बनी हुयी है। इसलिए आज पुरुष सहकर्मियों को भी कार्यस्थलों पर अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरुरत है। बस काम से काम उनका मंतव्य हो, जैवीय 'काम' से बस दूर से ही नमस्कार! अन्यथा बस फजीहत ही फजीहत है। नारी प्रसंग से बचिए श्रीमान!
@अनेक दुखद घटनाएं हमें बार बार चेता रही हैं कि आज कार्यस्थलों पर नारी के भी आचरण को मर्यादित रखने के प्रति सजग होना होगा। अनावश्यक प्रदर्शनों जिसके कि अनजाने ही गलत अर्थ -जैवीय संकेत निकलते हों के प्रति सावधानी अपेक्षित है।
जवाब देंहटाएं---- पहनाव तो व्यक्तिगत है परन्तु प्रदर्शनात्मक पहनाव पर हर वर्ग को सोचने की आवश्यकता है ,फेशन के जगत से प्रभावित वर्ग में खुलापन और सेक्सी कमेंट्स तेजी से बढ़ रहा है ! इससे आपके जैविक सिद्धान्त को और बल मिलता है
अनेक दुखद घटनाएं हमें बार बार चेता रही हैं कि आज कार्यस्थलों पर नारी के भी आचरण को मर्यादित रखने के प्रति सजग होना होगा। अनावश्यक प्रदर्शनों जिसके कि अनजाने ही गलत अर्थ -जैवीय संकेत निकलते हों के प्रति सावधानी अपेक्षित है।
नई पोस्ट वो दूल्हा....
नई पोस्ट <a href="http://vichar-anubhuti.blogspot.in/2013/12/blog-post.html?sh> हँस-हाइगा</a>
अहा, प्रकृति ही अपराधी है। क्या करें अन्य अपराधों का, समाज की व्यवस्था मनमानी को नहीं करने दे सकती।
जवाब देंहटाएंसम्यक -सटीक एवम् समयानुकूल संरचना ।
जवाब देंहटाएंसमय रहते सबको चेत लेना चाहिए। चाहे स्त्री हो या पुरुष।
जवाब देंहटाएंअब वह समय चला गया ,जब “चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी” हुआ करती थी।
सच में समस्या ही जड़ें कहीं और हैं .... कानून का दुरूपयोग तो महिला हो या पुरुष दोनों ही कर सकते हैं .... आपका विवेचन स्पष्टता लिए हैं .....
जवाब देंहटाएंअगर अपने समाज में स्त्री और पुरुषों के बीच जो लैंगिक दीवार किशोरवय से ही खड़ी हो जाती है वह अगर नहीं हो तो कई तरह की कुंठाओं और ईव टीजिंग जैसी समस्याओं पर काफी हद तक अपने आप नियंत्रण हो जाएगा. पारिवारिक संस्कार की भूमिका भी एक अहम् है, जैसा आपने लिखा है. यहाँ की समस्याएँ तो दूसरे किस्म की हैं लेकिन कम से कार्यस्थल अथवा सामान्य जीवन में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिलता है. मुझे ऐसा लगता है कि यहाँ ऐसा उस दीवार के अस्तित्वहीन होने की वजह से ही संभव हुआ है.
जवाब देंहटाएंक्या कोई कानून ऐसा भी बन सकता है कि जो विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण को भी खत्म कर सकता है?
जवाब देंहटाएंअब यही बाकी बचा है।
सही कहा है आपने कि "इस समस्या की जड़ें कही और है और हम कहीं और समाधान के प्रयास कर रहे हैं..."
जवाब देंहटाएंअब तो संतोष त्रिवेदी जी के सुझाव पर शोध की ही जरूरत ज्यादा प्रतीत होती है...
स्त्रियाँ भुक्तभोगी हैं , यह दर्द कहीं ज्यादा है ! क़ानून में बदलाव शुभ संकेत हैं ! आशा करिए कि उनका दुरुपयोग न हो !
जवाब देंहटाएंसौ दिन सुनार के एक दिन लुहार का. अब वही समय आ गया है. सशक्त कानून अपना काम करता दिखाई दे रहा है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बस काम से काम उनका मंतव्य हो, जैवीय 'काम' से बस दूर से ही नमस्कार! अन्यथा बस फजीहत ही फजीहत है। नारी प्रसंग से बचिए श्रीमान!
जवाब देंहटाएंआपकी शिक्षा गांठ बांध ली है.:)
रामराम.
A really balanced article Pandit ji!! Without any malice towards any gender or sex!!
जवाब देंहटाएंदोनों ही पक्षों को संतुलित रहने की आवश्यकता है। यह जरुर है कि अब तक स्त्रियां ही अधिक प्रताड़ित रही है , इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए कानून ने अच्छा काम किया है इन दिनों।
जवाब देंहटाएंअब नसीहतें स्त्रियों के साथ ही पुरुष को भी दी जा रही है , समाज में एक सकारात्मक बदलाव की शुरुआत है
ये चीजें क़ानून से जरूर सुलझती हैं पर उनका कठोरता से पालन जरूरी है और सही क़ानून का होना जरूरी है ... सामाजिक चेतना तो जरूरी है ही ...
जवाब देंहटाएंक़ानून अपनी जगह है और जुर्म अपनी जगह । प्रॉब्लम सिर्फ कुछ एंटी सोशल एलिमेंट्स तक होती तो बात और थी । एक समाज के रूप में हमें यह सोचना है कि बेसिक गलती हो कहाँ रही है और वहाँ इलाज होना होगा ।
जवाब देंहटाएंविपरीत के प्रति आकर्षण एक बात है और उस आकर्षण के चलते अपने अआप को दूसरे मनुष्य पर थोपना दूसरी बात।
एक और बड़ी प्रॉब्लम है - न सिर्फ इस एक मुद्दे पर बल्कि हर मुद्दे पर - क़ानून बनाये जाते हैं किसी भी अपराध के विक्टिम की मदद को । लेकिन असल विक्टिम्स की मदद कितनी होती है कितनी नहीं यह तो छोड़ दीजिये, बने हुए क़ानून का फायदा नकली विक्टिम्स खूब उठाते हैं जबरन किसी पर आक्रमणकर्ता लेबल कर अपने पर्सनल फायदे या दुश्मनी को पोस कर । ऐसे लोगों की वजह से क़ानून उतने सख्त नहीं बन पाते जितने हो सकते थे। ऐसे लोग भी अपराधों के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं ।
और हाँ - हमारे समाज में सेक्स के प्रति एक पागलपन की हद तक छुपाव और घिन की भावना भरी है । इसके चलते भी यह सब बढ़ता है क्योंकि रोक हमेशा किसी भी वस्तु को आकर्षक बना देती है । पागलपन की हद तक डरे हुए लोग अक्सर वायलेंट होते हैं ।
और एक पहलु यह भी है कि कई रेप यौनाकर्षण की वजह से कम और डोमिनेंस के लिए यह इगो पूर्ती को भी हो रहे हैं ।
सॉरी टिप कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गयी ।
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जवाब देंहटाएं.
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नारी प्रसंग से बचिए श्रीमान!
बहुत सामयिक सलाह है... नकली विक्टिम्स के बारे में शिल्पा जी की आशंका भी विचारणीय है... शीघ्र ऐसे लोगों के द्वारा कानून का दुरूपयोग भी होने लगेगा, जैसे दहेजरोधी व जातिगत भेदभाव रोकने वाले कानूनों का हो ही रहा है...
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इस प्रसंग से बचना डॉन को पकड़ने की तरह मुश्किल नहीं, नामुमकिन है:)
जवाब देंहटाएं’काम’ को धर्म, अर्थ और मोक्ष के समकक्ष भी तो रखा गया है, ये हमारी अपनी सोच और मानसिकता है कि किन शब्दों को किस अर्थ में लेते हैं। आकर्षण सहज और स्वाभाविक है, ’अति’ अस्वाभाविक है फ़िर वो चाहे आकर्षण की हो या विरक्ति की।
'नारी प्रसंग से बचिए श्रीमान! ' बढ़िया चेतावनी है बस समझने वाला जीन भी होना चाहिए....
जवाब देंहटाएंविचारणीय
जवाब देंहटाएंइस विषय को सुलझाने के सारे प्रयास विफल ही रहे हैं।
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