बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

क्या सचमुच भाग्य से अधिक और समय से पहले कुछ नहीं मिलता?( सेवा संस्मरण-7)

चिनहट में नौकरी के दिन मेरे जीवन के सबसे सृजनात्मक दिन थे . अपनी पहली विज्ञान कथा  गुरु दक्षिणा मैंने यहीं  लिखी जिसमें एक रोबोट में मानवीय संवेदना का प्रस्फुटन सहसा हो जाता है . उन दिनों मेरे चिनहट आवास पर सृजनकर्मियों का आना जाना लगा रहता था . कुछ मीन भोजी लोग भी आते . घर पर तो मीन -व्यंजन बन नहीं पाते थे तो उनकी व्यवस्था अलग से की जाती . तभी मैंने यह जान लिया था कि किसी मत्स्य प्रेमी को मत्स्य भोज पर आमंत्रित कर उसका दिल जीता जा सकता है . हो सकता है "आमाशय से दिल तक पहुँचने'' की कहावत मत्स्याहार -व्यंजनों के चलते ही वजूद में आयी हो :-) . और कोई बंगाली मोशाय हों तो फिर पूछिए ही मत -उनका तो मत्स्य प्रेम जग विख्यात है .

मेरे क्लासफेलो और कभी रूम मेट रहे तब किंग्स जार्ज में एम डी कर रहे डॉ राम अशीष वर्मा अक्सर अपने डाक्टर मित्रों के साथ मीन भोज पर आते और तृप्त होकर जाते . दोस्त की यह तृप्ति मुझे संतृप्त करती . देवेन्द्र मेवाड़ी जैसे जाने माने विज्ञान लेखक ने मेरे चिनहट आवास को आकर धन्य किया . उन्ही दिनों ज्ञानी जैल सिंह जी राष्ट्रपति थे और वे लखनऊ में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने आये . अमृत प्रभात ने मुझे इस कार्यक्रम को कवरेज के लिए मानदेय का एक आकर्षक 'पैकेज' भी आफर किया था . मैंने अपने कई विश्वविद्यालय मित्रों को इस अवसर पर बुलाया और भव्य उद्घाटन के अलावा अन्य सेशन में उनका प्रतिभाग सुनिश्चित कराया . क्या दिन थे वे? .नौकरी पर तलवार भले लटक रही थी मगर दिन बहुत सुनहले थे और ख्वाहिशों को पंख लग गए थे . नैतिक उत्साह का पारावार नहीं था . 
उन्ही दिनों ही मुझे अपनी पी एच डी सबमिट करने हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाना पड़ा -दो माह का अवकाश लिया और विश्वविद्यालय जीवन में फिर लौटा . एक दिन मुझे इन्डियन कौंसिल आम मेडिकल सायिन्सेज (आई सी ऍम आर ) के प्रकाशन विभाग से सहायक सम्पादक/वैज्ञानिक अधिकारी पद का इंटरव्यू पत्र मिला तब याद आया कि इस पद हेतु भी मैंने आवेदन किया था . मेरे कई लोकप्रिय विज्ञान लेख तब तक प्रकाशित हो चुके थे . इसी पद के लिए मेरे एक सीनियर डॉ विजय कुमार श्रीवास्तव जी को भी साक्षात्कार का बुलावा आया था . इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राणि शास्त्र विभाग में 1 9 78 से 1 9 8 2 के कालखंड में विज्ञान के लोकप्रियकरण की एक अलख मैंने जगायी थी और मात्र संयोग नहीं है कि आज दिल्ली में विज्ञानं लेखन की कई नामचीन हस्तियाँ इसी कालखंड में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राणी शास्त्र विभाग में अध्ययनरत थीं .

डॉ विजय कुमार श्रीवास्तव जी यह आश्वस्त होना चाह रहे थे कि मैं इस इंटरव्यू में जाऊँगा या नहीं और इसके उपरान्त ही वे खुद अपने प्रतिभाग के बारे में निर्णय ले पाते .उन्होंने अपने बैच मेट डॉ. जगदीप सक्सेना जो मेरे गुरु भाई थे और एक साल के सीनियर थे को यह दायित्व दिया कि वे मुझसे यह पुख्ता जानकारी लेकर उन्हें दें -मैं चूँकि साक्षात्कार में उनके बैचमेट और मित्र का एक पोटेंशिअल कम्पटीटर था तो  इस मामले में डॉ विजय कुमार श्रीवास्तव जी पूरी तरह मुतमईन हो जाना चाहते थे .  डॉ जगदीप सक्सेना जी  खुद मुझसे प्रेरित हो उन दिनो विज्ञान लेखन में छिट पुट हाथ आजमा रहे थे।  उन्होंने  मेरा मन टटोला कि क्या मैं उक्त इंटरव्यू में जाऊंगा . मैंने पता नहीं किस खयामख्याली में आकर उस इंटरव्यू में न जाने का फरमान सुना कर उनके मित्र को अभयदान दे दिया-डॉ विजय जी निर्द्वन्द्व होकर साक्षात्कार के लिए गए और चुने भी  गये. आज वे पब्लिकेशन डिवीजन के सर्वे सर्वा हैं -डाईरेक्टर जनरल, पब्लिकेशन डिवीजन,आयी सी एम आर . कभी कभी सोचता हूँ आखिर क्यों मैंने उस इंटरव्यू में न जाने का मूर्खतापूर्ण निर्णय लिया था?
दो स्पष्ट कारण थे -कई मित्रों ने बरगलाया था कि पब्लिक सर्विस कमीशन से राजपत्रित पद पर चयन के फलस्वरूप मेरी प्रोन्नति की काफी संभावनाएं थीं . दूसरा कारण मेरा खुद का ईजाद किया हुआ एक दिमागी फितूर था . वह यह कि मुझे ऐसा आभास होता था कि एक मनुष्य को जीवन के दौरान कई समझौते करने पड़ सकते हैं . तो मैं अपने शौक-लोकप्रिय विज्ञान  लेखन के साथ समझौते न करने का दृढ निश्चय किया और इस निर्णय पर जा पहुंचा कि अगर मैं विज्ञान लेखन को अपनी जीविका का साधन बनता हूँ तो बहुत संभव है मुझे कई समझौते ऐसे करने पड़े जो मेरे जमीर (? ) को गंवारा न हों . हाँ जीविकोपार्जन के लिए कोई अन्य नौकरी हुयी तो समझौते किये भी जा सकेगें . सो मैंने मोहकमाये मछलियान को जीविकोपार्जन के लिए चुना और लोकप्रिय विज्ञान लेखन के शौक को बोले तो अपना जीवन आधार। मगर यह मेरी एक नासमझी  ही थी-हाबी में भी समझौते करने पड़ते हैं और जीविकोपार्जन के लिए नौकरी में  भी . तब विज्ञान लेखन का ही कैरियर क्या बुरा था?
मैं यह मानता हूँ कि मुझमें सही वक्त पर सही निर्णय लेने की क्षमता कभी नहीं रही . और इस अक्षमता का परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है . मैं भाग्य और भवितव्यता में कतई विश्वास नहीं करता मगर हाँ सही मौके पर सही निर्णय न लेने से उत्पन्न दुर्संयोगों की संभावना से इनकार कैसे किया जा सकता है? .और लोगों के जीवन में ऐसे ही दुर्संयोगों के चलते ही "भाग्य से अधिक और समय से पहले  कुछ नहीं मिलता" जैसी चतुरता भरी उक्ति का बोलबाला बना हुआ है . देखिये भाग्य और भवितव्यता से मेरी आँख मिचौली कब तक चलती है! :-) जारी ....

19 टिप्‍पणियां:

  1. पढ़ रहे हैं आपके संजोये अनुभव .... वैसे सही समय पर सही निर्णय न ले पाने के पीछे हर किसी के जीवन में कई सारे कारण होते है , जिससे भी पूछो सबके मन में ये पश्चताप होता ही है , काश ऐसा किया होता या ऐसा न किया होता

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  2. जब भी पढ़ने आता हूँ भाग खड़े होता हूँ
    तन्मयता से पढ़ ही नहीं पाता
    कहीं भी पैराग्राफ अलग नज़र नहीं आते ना ही दो वाक्यों का अंतर दिखता है
    मूड ही नहीं बना पाता
    ऐसा ही एक बार एक लेखिका को कह दिया था
    तब से नाराज़ हैं वो

    आप तो नाराज़ नहीं होंगे?

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  3. अगर उस समय आप ने भविष्य को देखकर निर्णय लिया होता तो आज पब्लिकेशन डिवीजन के सर्वे सर्वा होते !
    जो होता है अच्छे के लिए होता यह भी कह सकते हैं .रोचक शृंखला.

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  4. हमारे पापाजी ने कहा था 'बेटा, जीवन में केवल एक बार मौका मिलता है, अगर छोड़ दिया तो पछताने के अलावा कुछ और नहीं मिलेगा, और जो भी मौका मिले, पहले अपने आप को टटोलो अपने से पूछो, अगर अच्छे संकेत हैं, तो बढ़ चलो, मौके के लिये कभी किसी की राय मत लो, यह तुम्हारा जीवन है, किसी और का नहीं', बस हम तो इसी सीख पर चल रहे हैं ।

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  5. जीवन में किस्मत की भी भूमिका है , मगर कर्म भी आवश्यक ! हर मनुष्य का जीवन यही कहता है , आपका भी !

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  6. अरविंद जी ! मुझे ऐसा लगता है कि ऊहापोह की स्थिति में प्रायः निर्णय हम नहीं लेते कोई अदृश्य शक्ति हमारे लिए जो सर्वाधिक शुभ है , वही निर्णय लेने के लिए हमें बाध्य करती है । चाण्क्य ने कहा है कि समझदार व्यक्ति के मन में संतोष का होना आवश्यक है|

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  7. कभी कभी हम तुरन्त सोच नहीं पाते हैं कि हमारे साथ ठीक हो रहा है या नहीं। कई वर्ष बीतने के बाद स्थितियाँ स्पष्ट होती हैं। रोचक अनुभव, पढ़ने में अच्छा लग रहा है।

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  8. बढ़िया लिख रहे हो उस्ताद , आनंद आ रहा है !

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  9. ये संस्मरण तो धीरे-धीरे आत्मकथा का रूप लेता जा रहा है.. बढ़िया है..

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  10. ये सब समय की बात है ... अग्गर अच्छा हो जाता है तो लगता है निर्णय सही था ... अगर कुछ ऊओंच नीच तो लगता है निर्णय में कुछ कमी रह गई या निर्णय न लेने की बात सामने आ जाती है .. पर सही मानों में निर्णय तो था ही ... आपका रोचक अनुभव अच्छा है ...

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  11. जीवन का पुनरावलोकन करने पर तो सब कुछ तयशुदा ही लगेगा क्योंकि सब कुछ फ्रीज़ हो चुका है। जीने की कला में सही सोच,निर्णय और संतुलन महत्वपूर्ण हैं। गलतियाँ तो सबसे ही होती हैं। हाँ, हर गलती कुछ अनुभव देकर भविष्य की गलतियों से बचा सकती है यदि पुरानी गलतियों का सबक याद रखा गया हो।

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  12. काश! प्रकाशन विभाग के निदेशक होते आज।
    बहरहाल, जो मिला, उसी में आनंद लें।

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  13. शौक/रूचि और पेशे के बीच किधर ज्यादा जाए मन ..इसका द्वन्द काफी भयंकर होता है. आपकी विज्ञान कथाएँ कहीं उपलब्ध है ऑनलाइन?

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  14. प्रकाशन विभाग में होते तो वैज्ञानिक न बन पाने का रो रहे होते। :)

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  15. शौक को कैरियर बनाने का स्वर्णिम अवसर मिला था आपको...

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