राज्य सरकार के अधीन मत्स्य प्रशिक्षण केंद्र चिनहट का वजूद समाप्त होने का असहज इंतज़ार हमें था किन्तु लीज डीड फाइनल न होने के कारण आगरा स्थित केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान की रीजनल इकाई द्वारा टेक ओवर नहीं किया जा पा रहा था . इसी उहापोह में दिन बीत रहे थे . मुझे लगता था कि केद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान द्वारा चिनहट केंद्र का अधिग्रहण कर लेने के बाद मेरा पद केंद्र सरकार के किसी बराबर के पद और वेतनमान में समायोजित हो जाएगा .ऐसा लोग आश्वस्त करते . फिर भी अज्ञात का भय बना रहता था .इसी बीच एक अनहोनी घट गई . रीजनल ट्रेनिंग सेंटर आगरा के प्रिंसिपल कोई चौधरी जी काफी स्मार्ट निकले और एक तार उन्होंने प्रदेश सरकार और उसकी प्रतियां हमारे चिनहट स्थित कार्यालय को रवाना किया -ऐसा चालाकी और सावधानी भरे शब्दों के मजमून का तार मैंने कम ही देखा है -आज तक उसके शब्द मुझे याद हैं-"पेंडिंग फाइनैलाईजेशन ऑफ़ द लीज डीड वी आर मूविंग टू टेक ओवर चिनहट ट्रेनिंग सेंटर विदिन अ वीक ." निश्चय ही यह राजनीतिक पहल का परिणाम था और केंद्र सरकार के तत्कालीन कृषि मंत्री से इसके लिए हरी झंडी मिल चुकी थी . उत्तर प्रदेश शासन के मत्स्य अनुभाग में हलचल बढ़ी और आनन फानन में प्रदेश सरकार का एक आदेश जारी हो गया .
विशेष सचिव मत्स्य के स्तर से जारी होने वाले आदेश में मुझे छोड़कर बाकी सभी स्टाफ को अन्यत्र पदों पर स्थानांतरित कर दिया गया था और स्पष्ट आदेश था कि चिनहट प्रशिक्षण संस्थान के प्राचार्य/ सहायक निदेशक प्रशिक्षण पद का प्रभार लोक सेवा आयोग से चयनित व्याख्याता के पास अग्रिम आदेशों तक रहेगा . प्राचार्य और व्याख्याता दोनों पद राजपत्रित (समूह ख ) का था किन्तु प्राचार्य का पद मुझसे उच्च वेतनमान का था . इस आदेश को लेकर मेरे उच्च विभागीय अधिकारियों और उनके सलाहकारों के बीच एक लम्बी मंत्रणा की जानकारी मुझे हुयी . और फलस्वरूप जो आदेश मत्स्य निदेशालय से निर्गत हुआ उसमें प्राचार्य पद का दायित्व मंडलीय अधिकारी को दिए जाने का निर्देश था -मुझे जानकारी हुई कि विभागीय अधिकारियों को मुझे एक उच्च पद का प्रभार दिया जाना गंवारा नहीं था . जबकि शासन का आदेश इस संबंध में स्पष्ट था . मैंने प्रतिवेदन भी दिया मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेगीं . यह मेरे कैरियर का एक बड़ा सेट बैक था -मुझे व्याख्याता के पद पर दो से भी अधिक वर्ष कार्य करने का अनुभव भी हो गया था और मुझे प्राचार्य के पद का प्रभार देने का पूरा औचित्य था . मगर विभागीय लोगों की परपीड़नात्मक मनोवृत्ति के चलते यह सम्भव नहीं हुआ . कमीशन से आने के कारण विभागीय प्रोन्नति पाये लोग मुझसे एक द्वेष सा रखते थे। अब मैं कमीशन से चुन कर आया था तो मेरा इसमें क्या दोष था भला ? उनकी कोफ़्त थी कि उनकी विभागीय प्रोन्नति समय से नहीं हुयी तो इसका प्रतिशोध वे शायद अपने तरीके से ले रहे थे . .
केंद्र सरकार का रीजनल सेंटर मय माल असबाब के चिनहट आ पहुंचा . प्रदेश सरकार का सारा साजो सामान मंडलीय कार्यालय ,मत्स्य निदेशालय जहाँ भी जगहं मिली ले जाया गया और प्रादेशिक सरकार का अब चिनहट में कोई अधिपत्य नहीं रह गया . मुझे भी जनपदीय कार्यालय से संबद्ध कर दिया और अब मुझे सप्ताह में तीन दिन के बजाय हर रोज स्कूटर से लखनऊ के जनपदीय मत्स्य कार्यालय में आना जाना पड़ता . घर पर पत्नी सुबह से गए गए मेरा शाम के छह बजे तक व्यग्र इंतज़ार करतीं . यह सिलसिला यही कोई पांच छह माह चला . इसी बीच मैंने फील्ड के कर्मचारियों के कार्य कलाप और दायित्व को निकट से देखा . एक रोचक व्यक्तित्व की याद भूले नहीं भूलती -वे थे निगम साहब ,सुपरवाइजर। वे पूरे लखनऊ शहर को अपनी एक बाबा आदम के ज़माने की साईकिल से खांचते रहते . और बहुत कम समय के लिए आफिस में दिखते . एक दिन उनकी डायरी स्टाफ के हाथ लग गयी तो उसमें तहसील सदर के किस बाबू को कब कब चाय पिलाई, कब कलेक्ट्रेट के किस अर्दली को कितनी बख्शीश दी आदि आदि का पूरा रोजनामचा लिखा मिला और सारा स्टाफ निगम साहब की डायरी पर परिचर्चा में मशगूल हो गया था . मैंने निगम साहब से इसकी चर्चा की तो उन्होंने कहा कि "साहब आप नए हैं, सब जान जायेगें धीरे धीरे .... और यह सब व्यवस्था है " वे अपनी बात चीत में व्यवस्था शब्द का प्रायः उल्लेख करते . वे किस व्यवस्था की बात करते इसका एक असहज अहसास मुझे होने लग गया था .
मुझे पता लगा कि मेरे विश्वविद्यालय के जान पहचान के एक मेधावी छात्र प्रेम नारायण जी (जी एन झा छात्रावास) उन्ही दिनों मलीहाबाद के उप जिला मजिस्ट्रेट(एस डी एम ) थे . एक दिन मैं सपत्नीक उनसे मिलने गया .तब वे डालीबाग में रहते थे .बड़े उत्साह से वे मिले .उनकी पत्नी भी बड़ी ही मितभाषी और सहृदय थी। हम अक्सर मिलते रहते .मलीहाबाद के असली दशहरी आम जैसे उनके यहाँ खाये और झोले में भरकर लाये गए वे फिर कभी खाने को नहीं मिले,साईज और स्वाद दोनों में। इस परिवार की आत्मीयता की यादें आज भी मुझे एवं पत्नी को है .आज प्रेम नारायण जी प्रदेश शासन में उच्च पद पर हैं .वे संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता है और शकुंतला के सौंदर्य की चर्चा उन्होंने कालिदास के एक श्लोक ( अनाघ्रतम पुष्पम ......अनाबिद्धं रत्नम ....) से की थी जिसे मैंने उनके सौजन्य से ही तभी कंठस्थ कर लिया था।उनके यहाँ एक एक्वेरियम था जिसे इस पोस्ट के मेरे हीरो निगम साहब द्वारा ही लगाया गया था।
अभी तक मेरी नौकरी का भविष्य स्पष्ट नहीं था।।केंद्र सरकार में जाना था या प्रदेश सरकार में ही बने रहना था -यह सब बहुत धुंधला धुंधला सा था . मगर अब प्रदेश में मत्स्य व्याख्याता की तो कोई पोस्ट ही नहीं रह गयी थी .शासन के आदेश में चूंकि मेरी पोस्ट समाप्त करने का निर्णय नहीं था इसलिए विभागीय अधिकारी मेरा वेतन देते जा रहे थे . अगर शासन के उक्त आदेश का सहारा न होता तो मेरे विभाग ने तो कब का नोटिस मुझे पकड़ा दिया होता . काश पकड़ा भी दिया होता! मगर मुझे तो अभी आगामी कई दशकों तक मछली के जाल में ही फंस के रह जाना था :-) जारी ....
विशेष सचिव मत्स्य के स्तर से जारी होने वाले आदेश में मुझे छोड़कर बाकी सभी स्टाफ को अन्यत्र पदों पर स्थानांतरित कर दिया गया था और स्पष्ट आदेश था कि चिनहट प्रशिक्षण संस्थान के प्राचार्य/ सहायक निदेशक प्रशिक्षण पद का प्रभार लोक सेवा आयोग से चयनित व्याख्याता के पास अग्रिम आदेशों तक रहेगा . प्राचार्य और व्याख्याता दोनों पद राजपत्रित (समूह ख ) का था किन्तु प्राचार्य का पद मुझसे उच्च वेतनमान का था . इस आदेश को लेकर मेरे उच्च विभागीय अधिकारियों और उनके सलाहकारों के बीच एक लम्बी मंत्रणा की जानकारी मुझे हुयी . और फलस्वरूप जो आदेश मत्स्य निदेशालय से निर्गत हुआ उसमें प्राचार्य पद का दायित्व मंडलीय अधिकारी को दिए जाने का निर्देश था -मुझे जानकारी हुई कि विभागीय अधिकारियों को मुझे एक उच्च पद का प्रभार दिया जाना गंवारा नहीं था . जबकि शासन का आदेश इस संबंध में स्पष्ट था . मैंने प्रतिवेदन भी दिया मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेगीं . यह मेरे कैरियर का एक बड़ा सेट बैक था -मुझे व्याख्याता के पद पर दो से भी अधिक वर्ष कार्य करने का अनुभव भी हो गया था और मुझे प्राचार्य के पद का प्रभार देने का पूरा औचित्य था . मगर विभागीय लोगों की परपीड़नात्मक मनोवृत्ति के चलते यह सम्भव नहीं हुआ . कमीशन से आने के कारण विभागीय प्रोन्नति पाये लोग मुझसे एक द्वेष सा रखते थे। अब मैं कमीशन से चुन कर आया था तो मेरा इसमें क्या दोष था भला ? उनकी कोफ़्त थी कि उनकी विभागीय प्रोन्नति समय से नहीं हुयी तो इसका प्रतिशोध वे शायद अपने तरीके से ले रहे थे . .
केंद्र सरकार का रीजनल सेंटर मय माल असबाब के चिनहट आ पहुंचा . प्रदेश सरकार का सारा साजो सामान मंडलीय कार्यालय ,मत्स्य निदेशालय जहाँ भी जगहं मिली ले जाया गया और प्रादेशिक सरकार का अब चिनहट में कोई अधिपत्य नहीं रह गया . मुझे भी जनपदीय कार्यालय से संबद्ध कर दिया और अब मुझे सप्ताह में तीन दिन के बजाय हर रोज स्कूटर से लखनऊ के जनपदीय मत्स्य कार्यालय में आना जाना पड़ता . घर पर पत्नी सुबह से गए गए मेरा शाम के छह बजे तक व्यग्र इंतज़ार करतीं . यह सिलसिला यही कोई पांच छह माह चला . इसी बीच मैंने फील्ड के कर्मचारियों के कार्य कलाप और दायित्व को निकट से देखा . एक रोचक व्यक्तित्व की याद भूले नहीं भूलती -वे थे निगम साहब ,सुपरवाइजर। वे पूरे लखनऊ शहर को अपनी एक बाबा आदम के ज़माने की साईकिल से खांचते रहते . और बहुत कम समय के लिए आफिस में दिखते . एक दिन उनकी डायरी स्टाफ के हाथ लग गयी तो उसमें तहसील सदर के किस बाबू को कब कब चाय पिलाई, कब कलेक्ट्रेट के किस अर्दली को कितनी बख्शीश दी आदि आदि का पूरा रोजनामचा लिखा मिला और सारा स्टाफ निगम साहब की डायरी पर परिचर्चा में मशगूल हो गया था . मैंने निगम साहब से इसकी चर्चा की तो उन्होंने कहा कि "साहब आप नए हैं, सब जान जायेगें धीरे धीरे .... और यह सब व्यवस्था है " वे अपनी बात चीत में व्यवस्था शब्द का प्रायः उल्लेख करते . वे किस व्यवस्था की बात करते इसका एक असहज अहसास मुझे होने लग गया था .
मुझे पता लगा कि मेरे विश्वविद्यालय के जान पहचान के एक मेधावी छात्र प्रेम नारायण जी (जी एन झा छात्रावास) उन्ही दिनों मलीहाबाद के उप जिला मजिस्ट्रेट(एस डी एम ) थे . एक दिन मैं सपत्नीक उनसे मिलने गया .तब वे डालीबाग में रहते थे .बड़े उत्साह से वे मिले .उनकी पत्नी भी बड़ी ही मितभाषी और सहृदय थी। हम अक्सर मिलते रहते .मलीहाबाद के असली दशहरी आम जैसे उनके यहाँ खाये और झोले में भरकर लाये गए वे फिर कभी खाने को नहीं मिले,साईज और स्वाद दोनों में। इस परिवार की आत्मीयता की यादें आज भी मुझे एवं पत्नी को है .आज प्रेम नारायण जी प्रदेश शासन में उच्च पद पर हैं .वे संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता है और शकुंतला के सौंदर्य की चर्चा उन्होंने कालिदास के एक श्लोक ( अनाघ्रतम पुष्पम ......अनाबिद्धं रत्नम ....) से की थी जिसे मैंने उनके सौजन्य से ही तभी कंठस्थ कर लिया था।उनके यहाँ एक एक्वेरियम था जिसे इस पोस्ट के मेरे हीरो निगम साहब द्वारा ही लगाया गया था।
अभी तक मेरी नौकरी का भविष्य स्पष्ट नहीं था।।केंद्र सरकार में जाना था या प्रदेश सरकार में ही बने रहना था -यह सब बहुत धुंधला धुंधला सा था . मगर अब प्रदेश में मत्स्य व्याख्याता की तो कोई पोस्ट ही नहीं रह गयी थी .शासन के आदेश में चूंकि मेरी पोस्ट समाप्त करने का निर्णय नहीं था इसलिए विभागीय अधिकारी मेरा वेतन देते जा रहे थे . अगर शासन के उक्त आदेश का सहारा न होता तो मेरे विभाग ने तो कब का नोटिस मुझे पकड़ा दिया होता . काश पकड़ा भी दिया होता! मगर मुझे तो अभी आगामी कई दशकों तक मछली के जाल में ही फंस के रह जाना था :-) जारी ....
निगमीय व्यवस्थता :-)
जवाब देंहटाएंबेबाकी आपकी फितरत है। पोलिटिकल करेक्टनेस गयी तेल लेने...।
जवाब देंहटाएंबड़ी अनिश्चित स्थिति दिख रही है
जवाब देंहटाएंअधर पड़े हम,
जवाब देंहटाएंइधर पड़ें थे,
उधर पड़े हम,
व्यथा बढ़ाता,
अस्त व्यस्त क्रम।
एक दिन उनकी डायरी स्टाफ के हाथ लग गयी तो उसमें तहसील सदर के किस बाबू को कब कब चाय पिलाई, कब कलेक्ट्रेट के किस अर्दली को कितनी बख्शीश दी आदि आदि का पूरा रोजनामचा लिखा मिला और सारा स्टाफ निगम साहब की डायरी पर परिचर्चा में मशगूल हो गया था . मैंने निगम साहब से इसकी चर्चा की तो उन्होंने कहा कि "साहब आप नए हैं, सब जान जायेगें धीरे धीरे .... और यह सब व्यवस्था है " वे अपनी बात चीत में व्यवस्था शब्द का प्रायः उल्लेख करते . वे किस व्यवस्था की बात करते इसका एक असहज अहसास मुझे होने लग गया था .
जवाब देंहटाएंसारा बंदोबस्त ही ऐसा है भाई साहब। कुछ लोग इससे वाकिफ थे शुरू से ही।
बेबाकी आपकी आदत है:-)
जवाब देंहटाएंअनिश्चिताओं के बीच भी निश्चितता की राहें बनती रहती है..
जवाब देंहटाएं"साहब आप नए हैं, सब जान जायेगें धीरे धीरे .... और यह सब व्यवस्था है "
जवाब देंहटाएंअब तक व्यवस्था की समझ काफ़ी आ गयी होगी साहब को। :)
यह अव्यवस्था ही व्यवस्था ..... :)
जवाब देंहटाएंदुश्चिंताओं भरे दिनों में भी शकुंतला के सौंदर्य की चर्चा को आपने सहृदयता से आत्मसात किया :)
जवाब देंहटाएंअब तो शिष्य भी आपकी बेबाक आदतों का कद्रदान हुआ जा रहा है :)
विभागीय परपीड़नकारी मनोवृत्ति के चलते अन्याय हुआ आपके साथ ! आपसे पूर्ण सहमति !
आपने भी कम पापड नहीं बेले :), रोचक है नौकरी पुराण !
जवाब देंहटाएंभले ही शुरुआती दिनों ने जो दुश्वारियां दी हों आपको पर हमें वृतांत का पूरा आनंद मिल रहा है.
जवाब देंहटाएंरोचक वृत्तांत.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : दीप एक : रंग अनेक
आपकी व्यथा-कथा बडी मार्मिक है पर बहुत रोचक भी है पर लिखते समय आपका ज़ख्म हरा हो जाता होगा इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- " अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादॉश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ॥"
जवाब देंहटाएंमुझे पता लगा कि मेरे विश्वविद्यालय के जान पहचान के एक मेधावी छात्र प्रेम नारायण जी (जी एन झा छात्रावास) उन्ही दिनों मलीहाबाद के उप जिला मजिस्ट्रेट(एस डी एम ) थे . एक दिन मैं सपत्नीक उनसे मिलने गया .तब वे डालीबाग में रहते थे .बड़े उत्साह से वे मिले .उनकी पत्नी भी बड़ी ही मितभाषी और सहृदय थी। हम अक्सर मिलते रहते .मलीहाबाद के असली दशहरी आम जैसे उनके यहाँ खाये और झोले में भरकर लाये गए वे फिर कभी खाने को नहीं मिले,साईज और स्वाद दोनों में। इस परिवार की आत्मीयता की यादें आज भी मुझे एवं पत्नी को है .आज प्रेम नारायण जी प्रदेश शासन में उच्च पद पर हैं .वे संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता है और शकुंतला के सौंदर्य की चर्चा उन्होंने कालिदास के एक श्लोक ( अनाघ्रतम पुष्पम ......अनाबिद्धं रत्नम ....) से की थी जिसे मैंने उनके सौजन्य से ही तभी कंठस्थ कर लिया था।उनके यहाँ एक एक्वेरियम था जिसे इस पोस्ट के मेरे हीरो निगम साहब द्वारा ही लगाया गया था।
जवाब देंहटाएंसुपर नायक तो इस "व्यतीत "के आप ही हैं जो वर्त्तमान पर भी हावी हैं तो इसीलिए -हर हाल आपके अंदर का पत्रकार निस्पृह भाव सब देखता बूझता रहता ,है प्रेक्षक बना।
अनुभव प्रसूत है ज़नाब का सारा लेखन ,भोगे हुए का सार परोसा है आपने।
जवाब देंहटाएंउत्सव श्रृंखला मुबारक -नरकासुर पूजा से लाकर दूज भैया तक।