पहला भाग
नौकरी मिल गई थी -स्थानापन्न थी मगर कमीशन से थी . व्याख्याता का राजपत्रित पद, मगर यह समझ में ही न आये कि स्थानापन्न का मतलब क्या होता है . कई महीनों बाद जाकर सटीक अर्थबोध हुआ कि कोई मेरे पद पर था मगर कहीं अन्यत्र चला गया है ,मगर उसका 'धारणाधिकार' इस पद पर बना हुआ है . मतलब उसके आते ही मेरा पत्ता गोल। यह सुनकर मेरा दिल बैठने लगता और मैं सोचता कि फिर लोक सेवा आयोग से चुन कर आने का मतलब ही क्या रह गया। अब नए नए शासकीय शब्द मेरे शब्द कोष में जुड़ने लग गए थे -संतोष यह था कि पद स्थायी था। जानकारी यह भी मिली कि जिस सज्जन के पास इस पद का मूल धारणाधिकार था वे फील्ड में थे और जल्दी रिटायर हो जाने वाले थे .कोई 'सरस' पद छोड़कर आखिर यहाँ क्यों आएगा भला -लोग मुझे आश्वस्त करते! मुझे यह भी बाद में पता लगा कि इन्ही सज्जन ने मेरी पोस्टिंग भी इस पद पर जोड़ तोड़ से रुकवाई हुयी थी और एक साथ फील्ड का और प्रशिक्षण संस्थान दोनों पद को फंसाए हुए थे . यह तो ताराचंद छात्रावास के मेरे सहवासी बी पी सिंह (अब स्वर्गवासी ) जिन्हें अंग्रेजी में कमांड हासिल था द्वारा ड्राफ्ट किया हुआ विशेष सचिव महोदय .के नाम एक पत्र था जिसने संभवतः कमाल किया -जिसमें मेरे कमीशन से चयन के बाद भी छह माह तक नियुक्ति लटकाए जाने की बात तो थी ही ,एक वाक्य यह भी था
" मैडम कैसे कोई आपके अंडर का अधिकारी आपकी सुपरमैसी को दरकिनार कर हीला हवाली करता जा रहा है' पता नहीं उस पत्र के प्रभाव में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी का विभागीय निदेशक मत्स्य पर एक धौन्स थी या कुछ और बात एक दिन एक हरकारा मुझे ढूँढता मेरे होस्टल में पहुंचा और तुरंत निदेशक मत्स्य से मिलने के लिए फरमान सुनाया . दोस्तों ने मुझे उत्साहपूर्वक प्रयाग स्टेशन से लखनऊ रवाना किया और मत्स्य निदेशालय पहुँचने पर तत्कालीन निदेशक श्री ऐ के सिंह ने मुझ पर रौब जमाते हुए आखिर नियुक्ति पत्र थमा दिया और फिर अपराह्न में मैंने चिनहट जाकर आपनी योगदान सूचना उसी दिन, तेरह सितम्बर 1983 को दे भी दिया .
जब मैंने ताराचंद छोड़ा तो मेरे कमरे 6 /50 में विज्ञान के वैश्विक साहित्य की चुनिन्दा और महंगी किताबे थीं जिन्हें अपने एक ऐसे मित्र के भरोसे छोड़ आया जो अपने जिले जवार के थे और अपेक्षाकृत ज्यादा भरोसेमंद थे . इन पुस्तकों को मैंने उस समय पत्र पत्रिकाओं में छप रहे अपने लोकप्रिय विज्ञान साहित्य के पारिश्रमिक से खरीदा था . एक अच्छा ख़ासा संग्रह था . मगर जब मैं अपना कमरा खाली करने पहुंचा तो पाया कि इक्का दुक्का फालतू समझ कर छोड़ी गयी किताबों के अलावां सारी किताबें गायब हो चुकी थीं . मित्र सफ़ेद झूंठ बोलने में लग गए- एक गढ़ी कहानी सुनाई . मैं हतप्रभ! यह दुनियां कैसे मक्कारों से भरी पडी है यह मेरा जीवन का सबसे कटु अनुभव था -मेरा सबसे प्रिय खजाना लुट चुका था -साईनटीफिक अमेरिकन की कई जिल्दें ,डेज्मांड मोरिस की पुस्तकें ,हिन्दू धर्म दर्शन पर पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तकें -अब तो उन्हें याद करके भी मन भारी हो जाता है . बहरहाल जी कड़ा कर इस सदमें को बर्दाश्त किया . अभी तो कितने सदमें बर्दाश्त करने बाकी थे -तब यह कहाँ पता था .
उन दिनों मेरे संयुक्त निदेशक के डी पाण्डेय साहब थे जो बस्ती के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे . .ईश्वर उन्हें दीर्घायु करे, अब भी वे हैं . उनसे पहली ही मुलाक़ात अनवेलकम सी रही -उन्होंने कहा कि मैं कहीं और क्यों ट्राई नहीं करता . जाहिर है वे मेरी नियुक्ति से खुश नहीं थे . मुझे यह अच्छा नहीं लगा था क्योंकि तब शासकीय सेवाओं की 'हाईआर्कि' और उसमें भी मछली विभाग की हैसियत से मैं वाकिफ नहीं था। उनकी अनवेलकम टिप्पणी दरअसल एक हितैषी के रूप में की गयी थी मगर मैं उसे उस संदर्भ में ले नहीं सका -लेता भी कैसे, मुझे दुनियादारी का कतई ज्ञान न था . मगर यह तो एक जलालत भरी नौकरी की शुरुआत भर थी . अब एक ख्यात विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा और "किताबी" ज्ञान लेकर मैं अपने को पता नहीं कौन सा फन्ने खां समझ रहा था -व्यावहारिक सच्चाई कुछ और ही थी . मेरे कई रिश्तेदार भी मैं किस नौकरी और पद पर हूँ बताने पर हैरत से मुझे देखते और कहते यह भी कोई विभाग हुआ भला . और शुद्ध परम्परावादी ब्राह्मण के घर में पैदा होकर मछली विभाग में नौकरी ..छिः छिः .....मगर मुझे विषय और काम में सदैव पूरी रूचि रही है और इस विषय से नहीं मगर सिस्टम की बुराईयों ने मेरे हौसले को कई बार पस्त किया मगर कुछ ऐसे लोक सेवक भी मिले जिनके चलते मेरा हौसला फिर फिर कायम हुआ जिनकी चर्चा आगे आयेगी .
जारी ....
जब मैंने ताराचंद छोड़ा तो मेरे कमरे 6 /50 में विज्ञान के वैश्विक साहित्य की चुनिन्दा और महंगी किताबे थीं जिन्हें अपने एक ऐसे मित्र के भरोसे छोड़ आया जो अपने जिले जवार के थे और अपेक्षाकृत ज्यादा भरोसेमंद थे . इन पुस्तकों को मैंने उस समय पत्र पत्रिकाओं में छप रहे अपने लोकप्रिय विज्ञान साहित्य के पारिश्रमिक से खरीदा था . एक अच्छा ख़ासा संग्रह था . मगर जब मैं अपना कमरा खाली करने पहुंचा तो पाया कि इक्का दुक्का फालतू समझ कर छोड़ी गयी किताबों के अलावां सारी किताबें गायब हो चुकी थीं . मित्र सफ़ेद झूंठ बोलने में लग गए- एक गढ़ी कहानी सुनाई . मैं हतप्रभ! यह दुनियां कैसे मक्कारों से भरी पडी है यह मेरा जीवन का सबसे कटु अनुभव था -मेरा सबसे प्रिय खजाना लुट चुका था -साईनटीफिक अमेरिकन की कई जिल्दें ,डेज्मांड मोरिस की पुस्तकें ,हिन्दू धर्म दर्शन पर पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तकें -अब तो उन्हें याद करके भी मन भारी हो जाता है . बहरहाल जी कड़ा कर इस सदमें को बर्दाश्त किया . अभी तो कितने सदमें बर्दाश्त करने बाकी थे -तब यह कहाँ पता था .
उन दिनों मेरे संयुक्त निदेशक के डी पाण्डेय साहब थे जो बस्ती के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे . .ईश्वर उन्हें दीर्घायु करे, अब भी वे हैं . उनसे पहली ही मुलाक़ात अनवेलकम सी रही -उन्होंने कहा कि मैं कहीं और क्यों ट्राई नहीं करता . जाहिर है वे मेरी नियुक्ति से खुश नहीं थे . मुझे यह अच्छा नहीं लगा था क्योंकि तब शासकीय सेवाओं की 'हाईआर्कि' और उसमें भी मछली विभाग की हैसियत से मैं वाकिफ नहीं था। उनकी अनवेलकम टिप्पणी दरअसल एक हितैषी के रूप में की गयी थी मगर मैं उसे उस संदर्भ में ले नहीं सका -लेता भी कैसे, मुझे दुनियादारी का कतई ज्ञान न था . मगर यह तो एक जलालत भरी नौकरी की शुरुआत भर थी . अब एक ख्यात विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा और "किताबी" ज्ञान लेकर मैं अपने को पता नहीं कौन सा फन्ने खां समझ रहा था -व्यावहारिक सच्चाई कुछ और ही थी . मेरे कई रिश्तेदार भी मैं किस नौकरी और पद पर हूँ बताने पर हैरत से मुझे देखते और कहते यह भी कोई विभाग हुआ भला . और शुद्ध परम्परावादी ब्राह्मण के घर में पैदा होकर मछली विभाग में नौकरी ..छिः छिः .....मगर मुझे विषय और काम में सदैव पूरी रूचि रही है और इस विषय से नहीं मगर सिस्टम की बुराईयों ने मेरे हौसले को कई बार पस्त किया मगर कुछ ऐसे लोक सेवक भी मिले जिनके चलते मेरा हौसला फिर फिर कायम हुआ जिनकी चर्चा आगे आयेगी .
जारी ....
अरे वाह। लगता है पहली ही टिप मेरी होगी। पढ़ रहे हैं । सुनाते रहिये। रोचक विवरण। :)
जवाब देंहटाएंबहरहाल जी कड़ा कर इस सदमें को बर्दाश्त किया . अभी तो कितने सदमें बर्दाश्त करने बाकी थे -तब यह कहाँ पता था .
हटाएं:(
जीवन है। होता है। :(
:(
जवाब देंहटाएंलोकसेवा में प्रवेश के समय प्रतिभागियों का उत्साह समय के साथ कम होता जाता है ,सिस्टम की बदौलत !
जवाब देंहटाएंरहस्योद्घाटन और भी होंगे !
बहुत बधाई आपको, ३० वर्ष पूरा करने के लिये। जब पहली बार हम नौकरी में आये थे, हमारे वरिष्ठ ने ऐसा ही एक झटका दिया था, कभी उस पर भी लिखेंगे।
जवाब देंहटाएंअपने प्रिय किताबों का गुम होना कितना दर्द दे सकता है वो बहुत अच्छे से समझ सकता हूँ. हालाँकि एक गलती के बाद जीवन बे दुबारा ये गलती नहीं होती है.
जवाब देंहटाएंऊब गए नौकरी करते करते हम तो . .
जवाब देंहटाएंअभी पूरे १५ माह और काटने हैं :)
एक ब्राह्मण के लिये मत्सय विभाग मे काम करना वास्तव मे उतना ही कठिन रहा होगा जितना हमारे लिये जीव जंतुओं का डिसेक्शन करना ! ३० वर्ष पूरे हुए , मानो एक युग बीत गया . बधाई पण्डित जी .
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंअजी किताबों की चोरी श्रेष्ठ मानी जायेगी दूसरे भी पढ़ लिए आप के सौजन्य से। खुशवंत सिंह जी सम्मेलनों से बैठकों से जहां उन्हें सदारत करनी होती थी पेन चुराया करते थे।समय से पहले पहुंचकर पहले पड़ोसी का पेन अपनी जेब के हवाले कर दिया करते थे लिखाड़ी जो ठहरे, हो सकता है वह पढ़ाकू रहें हो महाशय जो आपका संकलन हड़प गए और डकार तक न ली। बढ़िया शौक है यह। बहरहाल संस्मरण धारदार है सत्य कथा सा निमं वृत्तांत।
पूरा करते रहिये !
जवाब देंहटाएंनौकरी के तीस पूरे किए और जीवन के पचपन ! वैवाहिक जीवन के और ब्लॉग-लेखन के भी कुछ साल पूरे किए होंगे.
हार्दिक शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जीवनयापन अभी भी दुनिया में बड़ी समस्या है। सम्मान के साथ तो लगता है पुरा एक युद्ध है।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं आपको..... अनचाही जद्दोज़हद भी जीवन का हिस्सा बनती ही है कभी कभी
जवाब देंहटाएंडा0 भाई..यह सच है कि जब कोई भी व्यक्ति नौकरी शुरू करता है तब उसे कोई अनुभल नहीं होता..समय के साथ कार्य की परेशनियाँ आदि व्यक्ति को अनुभवी बनाती जाती है.. 25 वर्ष की सेवा मैने भी पूरी की है 12 अगस्त को..बहुत कुछ सीखा..समय के साथ..सच तो यह लगता ही नहीं इतना समय हो गया है..!!!
जवाब देंहटाएंआप तो बिल्कुल प्रेमचन्द की तरह लिखने लगे हैं , अब मुझे लगता है कि आप कोई उपन्यास लिखना शुरु कर देंगे और वह " गोदान " की तरह प्रसिध्द भी हो सकता है ।
जवाब देंहटाएंक्या बात है -ऐसे ही झाड़ पर चढाये रखिये :-)
हटाएंहम्म .. शायद यही जिंदगी है...हमेशा कुछ unexpected सा ही होता है..पर हौंसला हमेशा कायम रहे ..यही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है :)
जवाब देंहटाएंजब तक पोस्ट अपने में पूरी तरह गोता लगाने लगता है कि ..ये क्या ? फिर क्रमश:.. बढ़िया है..
जवाब देंहटाएंप्रवाह युक्त वेगवती धारे अनभव को साधे हुए आयें हैं इस पोस्ट में। शुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई आपको, ३० वर्ष पूरा करने के लिये...अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंशब्दों की मुस्कुराहट पर ....क्योंकि हम भी डरते है :)
भाई साहब जीवन और नौकरी ऐसे ही लुक छिपी में बीत जाती है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का। प्रेरण उत्प्रेरण काम आता है।
जवाब देंहटाएंनौकरी के दौरान के उतार-चढ़ाव वाली यह श्रृंखला आगे भी रोचक रहेगी और कम अनुभव वालों के लिये उपयोगी भी, प्रतीक्षा जारी रहेगी ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया और रोचक।
जवाब देंहटाएंबुरे अनुभव न होते तो ... आज आप ये सब कैसे लिख रहे होते :)