गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या.....(तीन दशकीय सेवा संस्मरण- 5)

मुबई से लौटा तो एक अच्छी खबर मेरा इंतज़ार कर रही थी .प्रदेश शासन ने एक अनंतिम लीज डीड (अनुबंध ) तैयार कर लिया था जिस पर उभय पक्षों यानि राज्य और केंद्र सरकारों के सम्बन्धित नुमाइन्दों के दस्तखत के बाद ही चिनहट के राज्य मत्स्य प्रशिक्षण संस्थान का हस्तांतरण होना था . मुझे केंद्र सरकार के प्रशिक्षण केंद्र में आमेलित करने की भी शर्त रख दी गई थी . बड़ी राहत हुई -नौकरी पर लटकती तलवार हटती दिखी . मैंने लीज डीड जो आज तक अंतिम नहीं हो पाई है को गहराई से देखा जिसमें चिनहट प्रशिक्षण संस्थान के कई हेक्टेयर क्षेत्र जिसमें एक खूबसूरत झील (कठौता ताल)भी शामिल थी को भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद(आई सी ऐ आर ) के अधीन केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान (सी आई ऍफ़ ई ) के क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान(आर टी आई) आगरा को कुछ हलके फुल्के प्रतिबंधों/ शर्तों के अधीन देने का प्रावधान था . इसके पीछे का इतिहास यह था कि सेवा निवृत्त होने वाले एक मत्स्य निदेशक ने अपनी प्रदेश सेवा के उपरान्त भी नौकरी करने की लालसा से एक भले पूरे प्रशिक्षण संस्थान के वजूद को मिटा कर इसे केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान को देकर वहां प्रोफ़ेसर का पद हथियाना चाहा था और ऐसा प्रस्ताव कर डाला था . उनके प्रस्ताव को मूर्त रूप लेने में विलम्ब होने से उनकी मनोकामना तो पूरी नहीं हुयी मगर चिनहट प्रशिक्षण संस्थान की स्थिति तो डावांडोल हो ही गई . मुझे भीतर भीतर तो यह सब बहुत बुरा लग रहा था मगर करता भी तो क्या? कौन सुनता अरण्य रोदन?
आखिर एक दिन मेरी क्रिएटिव लेखकीय क्षमता ने जोर मारा और मैंने अपना प्रतिवाद कुछ पन्नों पर उकेर लिया . एक साँस में ही मानो मैंने अपने आक्रोश को व्यक्त कर डाला हो . मन हल्का हुआ . और वह कच्चा चिटठा मैंने अपने स्टडी मेज पर रख दिया -लिख तो डाला था मगर यह अभी रफ आलेख्य के रूप में था और समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या करूँ ? सो वह मेरी मेज के एक हिस्से में पड़ा रह गया . उन्ही दिनों मेरे एक मीडिया मित्र ( उफ़ नाम याद नहीं रहा ) चिनहट की चाय के बहाने मुझसे मिलने आये . मीडिया के मित्रों से तब मेरी बड़ी घनिष्ठता हुआ करती थी . सरकारी नौकरी की आचार संहिता के चलते अब उनसे एक अनचाही दूरी हो गयी है .मगर फिर भी अभी कुछ मित्र मुझे मौके बेमौके पत्रकार ही कह देते हैं . एक दिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विख्यात प्रोफ़ेसर डॉ दीनानाथ शुक्ल ने ही कई लोगों के सामने मुझे पत्रकार कह ही दिया .बड़ी असहज स्थिति हो गयी थी .बहरहाल चिनहट पर लौटते हैं . मैंने चाय के दौरान अपने मित्र को स्टडी मेज पर उपेक्षित पड़े चिनहट वृत्तान्त को उन्हें सौंप दिया और कहा कि इसे इत्मीनान से पढ़ लीजियेगा और बताईयेगा . मेरा यह सोचना था कि वे महानुभाव उसे पढ़कर मुझसे कुछ विचार विमर्श करेगें और तब आगे की कोई कार्ययोजना बनेगी . मगर होना तो कुछ बहुत ही अप्रत्याशित था ...
सुबह उठते ही लखनऊ के एक तत्कालीन प्रमुख समाचार पत्र अमर उजाला के मुख्य पृष्ठ पर ही "मत्स्य विभाग में बह रही है उल्टी गंगा " शीर्षक समाचार देख मैं चौक पड़ा . अरे यह तो सब मेरे ही लिखे शब्द दर शब्द थे . मुझे काटो तो खून नहीं . मीडिया मित्र ने विश्वास का धोखा दे दिया था . तब न तो घर पर फोन था और न मोबाईल . मुझे उनके इस हरकत पर क्रोध था और डर भी लग रहा था कि अब क्या होगा . तब खबरे जंगल में आग की तरह ही हुआ करती थीं . लपट मुझ तक बस पहुँचने ही वाली थी . और आफिस पहुंचते पहुंचते प्राचार्य का सन्देश मिल ही गया कि मुझे निदेशक मत्स्य ने बुलाया है . मगर उनसे मिल ने के पहले मैंने पत्रकार मित्र से मिलकर उन्हें उलाहना देने का निर्णय लिया . स्कूटर उठायी और उनके इंदिरा आवास स्थित घर पूछते पाछते पहुंचा . मुझे देखते ही उनके चेहरे पर कुछ आवाभगत तो कुछ प्रतिकार के मिले जुले विचित्र से भाव उभरे -दुआ सलाम के बाद मैंने अपनी अप्रसन्नता उनसे व्यक्त की और कहा कि मेरी रिपोर्ट को खबर के रूप में छापने के पहले महराज कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता . उनका जवाब था -''मिश्रा जी वह एक इतनी मुकम्मल रिपोर्ट थी ,कामा फुलस्टाप दुरुस्त कि बस मैंने केवल शीर्षक बदला और अपने मुख्य संपादक को दे दिया . और उन्होंने भी तुरंत उसे छपने की अनुमति दे दी . अब घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ? मैंने तो अखबार देखा नहीं ..तो आज छप गयी वह खबर .......'? " हाँ महराज और वह भी मुख्यपृष्ठ पर ....और मैं निदेशक महोदय द्वारा तलब कर लिया गया हूँ . मेरा वाक्य पूरा होते ही वे स्प्रिंग की तरह उछले और तुरंत घर में घुस गए . मैं कुछ समझ पाता तब तक वे पैंट शर्ट पहने निकले और बोले तुरंत अमर उजाला दफ्तर चलिए . आखिर क्यों ? बस चलते रहिये उनका कमांड था .....जारी .....

22 टिप्‍पणियां:

  1. पत्रकारों से दोस्ती कोई बुरी बात नहीं है परन्तु कब उसे घांस मिल जाए कहा नहीं जा सकता. आगे का इंतज़ार है.

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  2. अब आगे क्या होगा? पत्रकार बन्धु बहुधा काम आ जाते हैं।

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  3. उम्मीद है , पत्रकार दोस्त ने आपको मुसीबत से बचा लिया होगा, शुभकामनायें !

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  4. हैरान होने वाली बात है ...आगे सब अच्छा ही हुआ होगा

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  5. अत्यंत रोचक..आगे की प्रतीक्षा रहेगी।

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  6. वाह ! यह तो जीवंत उपन्यास बनता जा रहा है ! सुन्दर और दिलचस्प विवरण !

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  7. एक कड़ी में सिर्फ़ एक बात? यह तो टीवी चैनेलों के धारावाहिकों की तरह बेचैन करने वाला होता जा रहा है। अगली कड़ी मिस करने को सोच भी नहीं सकते :)

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  8. रोमांच और रहस्य से भरी हुई श्रंखला बनती जा रही है.

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  9. अतीत को झांक कर , वर्तमान में स्थिर रहकर हमें भविष्य को देखना है । प्रवाह-पूर्ण प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

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  10. सही मायने के पत्रकार …… फ़िर क्या हुआ !

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  11. तीन दशकीय सेवा का रोचक संस्मरण . आगे के विवरण की उत्सुकता बनी हुई है .

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  12. कड़ी-दर-कड़ी रु-ब-रु होना अच्छा लग रहा है..

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  13. इसके पीछे का इतिहास यह था कि सेवा निवृत्त होने वाले एक मत्स्य निदेशक ने अपनी प्रदेश सेवा के उपरान्त भी नौकरी करने की लालसा से एक भले पूरे प्रशिक्षण संस्थान के वजूद को मिटा कर इसे केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान को देकर वहां प्रोफ़ेसर का पद हथियाना चाहा था और ऐसा प्रस्ताव कर डाला था . उनके प्रस्ताव को मूर्त रूप लेने में विलम्ब होने से उनकी मनोकामना तो पूरी नहीं हुयी मगर चिनहट प्रशिक्षण संस्थान की स्थिति तो डावांडोल हो ही गई . मुझे भीतर भीतर तो यह सब बहुत बुरा लग रहा था मगर करता भी तो क्या? कौन सुनता अरण्य रोदन?

    आजकल यही मेटने विलय करने का काम राजनीति के धंधे बाज़ कर रहे हैं अपने चहेतों के लिए बड़े पैमाने पर। तिहाड़खोरी की आदत है सबको।

    आखिर मुरारी को उस पत्रकार ने हीरो बना ही दिया जबकि उसका कोई ऐसा उसका खुद का कोई इरादा नहीं था।

    अगली क़िस्त ज्यादा उत्तेजक होगी।

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  14. खेद प्रकाश :इस पोस्ट में उल्लिखित समाचार पत्र दरअसल अमृत प्रभात था न कि अमर उजाला। इस असावधानीवश हुई भूल के लिए खेद है।

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