शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

चिनहट का चना सचमुच लोहे का चना बन गया था :-) (सेवा संस्मरण -8)

मेरी  चिनहट पोस्टिंग के दौरान ही कुछ मजेदार वाकये हुए थे जो जब भी याद आते हैं बरबस ही होठों  पर मुस्कराहट आ जाती है।  उन दिनों ही मत्स्य मुख्यालय /निदेशालय पर एक सीनियर  अधिकारी थे -एस  एन सिंह जो अपनी ओर  के ही, बनारस के थे. उन्हें मैंने या किसी और ने यह जानकारी दे दी थी कि तत्कालीन कांग्रेस पार्टी जो उन दिनों उत्तर प्रदेश में सत्ता में थी के  प्रदेश महासचिवों में इंदिरा जी के बड़े विश्वासपात्र और स्वतंत्रता सेनानी देवराज मिश्र जी थे जो पत्नी की ओर से हमारे सगे मामा थे  -सिंह साहब ने मुझे चिनहट से बुलाया -बहुत स्नेह से हालचाल पूछा और खुद को एक मेरे बड़े हितैषी के रूप में प्रस्तुत किया।  इस अहैतुक स्नेह सम्मान की वजह मेरे मामा जी ही थे यह मुझे जल्दी ही समझ में आ गया।  और एक  अवसर भी आ गया जब  उन्होंने मुझसे अपने स्नेह -दुलार का प्रतिदान मांग लिया। 

 उनका अचानक  ट्रांसफर हुआ तो उन्होंने मुझसे मामा जी से हस्तक्षेप के लिए प्रबल आग्रह किया।  मेरे मामा जी (अब दिवंगत ) बहुत धीर गंभीर और एक सहज ही सम्माननीय व्यक्ति थे। मैंने खुद कभी अपनी नौकरी की विसंगतियां उन्हें नहीं बतायी थी जबकि वे अपने लालबाग के निवास से मुझसे और अपनी भांजी (पत्नी) से मिलने सपरिवार आते थे और हम लोग भी छुट्टियों में उनसे मिलने जाते थे।  मुझे उनसे ट्रांसफर जैसे विषय  और वह भी किसी और के, पर बात करने की हिम्मत ही नहीं पड़  रही थी।  सिंह साहब ने जब बहुत आग्रह किया तो मैं  विवश हुआ मगर मामा जी के घर जाने के बजाय उनसे कहा कि चलिए उनसे कांग्रेस पार्टी(पी सी सी आई)  के मुख्यालय पर ही मिल लिया जाय।  वे खुद अपने सरकारी वाहन पर मुझे बिठा कर ले गए मगर खुद  दूर रहे और मुझे मुहिम पर लगा दिया।  

मैं घबराते हुए मामा जी के चैंबर में घुसा मगर वे वहां नहीं थे।  कोई और बैठा था।  मैंने उनसे मामा जी के बारे में दरियाफ्त किया मगर यह जानकारी नहीं मिल सकी कि वे कहाँ हैं? हाँ उन सज्जन ने मुझसे मेरा परिचय पूछा और काम पूछा।  मैंने जैसे ही अपना परिचय उन्हें दिया मेरी  कद्र सहसा ही बढ़ गई ।  उन्होंने कहा कि छोटा सा काम है वे खुद ही विभागीय मंत्री से सिफारिश कर देगें। मामा जी से कहने की क्या जरुरत है। मैं थोड़ा अविश्वास और संकोच से विदा हुआ और रिपोर्ट सिंह साहब को दे दी -उन्हें तो चैन ही नहीं था।  मैं मामा जी से मिल लूं उनका यह आग्रह बराबर बना ही हुआ था। बहरहाल उन्हें यह आश्वस्त कर कि मैं उनसे घर पर मिल लूँगा मैंने उनसे छुट्टी पायी मगर मामा जी के घर गया ही नहीं -चिनहट  लौट आया।  मगर आश्चर्यों का आश्चर्य उनका ट्रांसफर रुक गया था।  

बात आयी गयी हो गयी थी।  सिंह साहब की नज़रों में मैंने अपना और भी बढ़ा हुआ सम्मान देखा था।  एक हप्ते  बाद मैं मामा जी के पास गया।  वे बड़े संयत और मितभाषी थे -मुझे प्यार से बुलाया और जताया कि मैंने उनके मित्र को ट्रांसफर का जो काम सौंपा था वह ठीक नहीं था क्योंकि भले ही विभागीय मंत्र्री के हस्तक्षेप से वह ट्रांसफर  रुका था मगर मंत्री  द्वारा उसका पूरा  अहसान मामा जी पर डाल  दिया गया था।  जबकि मामा जी को तो पूरा प्रकरण ही बाद में पता चला -साफ़ था कि इस ट्रांसफर में मामा जी की अनभिज्ञता में ही उनके रसूख का इस्तेमाल कर लिया गया था।  मुझे बड़ी शर्मिन्दगी सी महसूस हुयी थी और आगे से  ऐसे पचड़े में न पड़ने का संकल्प लिया।  काश मैंने उन दिनों मामा जी के रसूख का इस्तेमाल खुद अपनी सेवा की बेहतरी के लिए किया होता -मगर क्या करूं अपने स्वभाव से मजबूर रहा हूँ! कष्ट सह लो मगर जहाँ तक संभव हो किसी की मदद न लेनी पड़े।  और मेरा यह स्वभाव यह आज भी बना हुआ है - मैं बेहयाई पर उतर ही नहीं पाता :-) 

एक और मजेदार पर घटना घटी। उन्ही दिनों सचिवालय में मत्स्य अनुभाग में सेक्शन आफिसर कोई डी के सिंह थे.. मुझे एस एन  सिंह साहब बिना मतलब सचिवालय भी खींचे  ले जाते और मैंने देखा कि वे तथा अन्य विभागीय अधिकारी तो सेक्शन आफिसर को देवता तुल्य मानते थे।  मेरा ताजा विश्वविद्यालीय खून यहाँ विद्रोही हो उठता।  इस सेक्शन आफिसर में ऐसी कौन सी खूबी थी जो मेरे कुछ  विभागीय अधिकारी उसे देवता सा सम्मान देते थे -हुंह! और मैंने यह देखा था कि सेक्शन आफिसर महोदय बातूनी और गपबाज थे तथा किसी लखनऊ के नवाब से कम रोब  नहीं गांठते थे। मेरे सामने भी जब उन्होंने रोब गांठना शुरू किया तो मेरे चेहरे पर आते अप्रसन्नता के बढ़ते भाव को सिंह साहब ने ताड़ लिया और तुरंत बीच बचाव की मुद्रा अपनाई -"सिंह साहब ये अभी अभी विभाग में आये हैं, इन्हें कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है " किस पद पर हैं ? "अरे वही चिनहट में व्याख्याता के पद पर.."   … "हाँ हाँ पता है मुझे, मगर हम तो इनकी पोस्ट ही खत्म कर रहे हैं " उसने मूझ पर रॉब गांठा। मैं घबराया तो मगर मैंने कहा कि मुझे तो केंद्र में लेने का प्रावधान लीज डीड में है। …. " लीज डीड फाईनल होगी तब न '' एक कुटिल और विकृत हंसी के साथ उन्होंने  जवाब दिया  और तुरंत विषय बदलते हुए सिंह साहब की और मुखातिब होकर कहा कि सिंह साहब चिनहट में बहुत अच्छा चना मिलता है।  मुझे दस किलो चना चाहिए।  मैं निरुत्तर रहा।
सेक्शन आफीसर के कक्ष से बाहर आते ही सिंह साहब ने मेरा मन टटोलना चाहा -अरे यार देख लो चिनहट में चना मिलता हो तो मेरे यहाँ पहुंचा दो मैं उसे  भिजवा दूंगा। परन्तु  मेरे चेहरे के खिचाव को देखकर उन्होंने तुरंत कहा चलो मैं पैसे  दे दूंगा " मैं उबल ही तो पड़ा- "नहीं सर, यह सब अपेक्षा मुझसे मत करिए।"   और इतना क्षुब्ध हुआ कि उस दिन चिनहट न जाकर मामा जी के घर पहुंचा और चने की बात उन्हें बता दी।  वे चुप रहे केवल एक बार पूछा क्या नाम है सेक्शन आफीसर का -मैंने बता दिया।  उस दिन मैं चिनहट देर से  लौटा -देर से लौटने का कारण पत्नी को बताया।  इस घटना के तीसरे रोज हम फिर मामा जी के यहाँ गए।  उन्होने ताजी जानकारी दी कि विभागीय मंत्री ने सचिवालय प्रशासन के सचिव को उस सेक्शन आफीसर को हटाने का निर्देश दे दिया है।  मेरे लिए यह मजेदार खबर थी। चिनहट के चने सेक्शन आफिसर के लिए लोहे के चने बन चुके थे। :-)  
अब इस खबर को साझा करने को मैं व्यग्र था।  सुबह सीधे निदेशालय पहुंचा, सिंह साहब के कक्ष में. आव न ताव मैंने उन्हें  यह खबर सुना ही तो दी।  पैरो तलें जमीन खिसकना मुहावरा तो सुना था मगर उसे साक्षात पहली बार व्यवहार में आते देखा। सिंह साहब उछल कर खड़े हो गए।  मेज की घंटी बजायी। गाडी लगवाई और मुझे लगभग खींचते हुए सचिवालय ले जा पहुंचे -मैं बार बार कहता रहा कि मुझे  क्यों ले जा रहे हैं मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी।  ले जाकर सेक्शन आफीसर के सामने मुझे खड़ा कर दिया।  और कहा ये मिश्रा जी कह रहे हैं, तुम्हारा ट्रांसफर होने वाला है।  यह सुनकर उनके चेहरे की रंगत उड़ गयी मगर तुरंत संभल कर लगे  अनाप शनाप बोलने ,ट्रांसफर कराने वाले की ऐसी तैसी कर देगें,कब्र में गाड़ देंगे। ..   आदि आदि। उन्हें तो विश्वास ही नहीं था उस खबर पर।  और तभी ट्रांसफर आर्डर भी  हम लोगों के सामने ही आ पहुंचा -अब जनाब  भीगी बिल्ली  बन चुके थे -वहीं लगे सिंह साहब के सामने गिडगिडाने। कुछ कीजिये, कुछ कीजिये।  तभी किसी ने खबर दी कि सिंह साहब का भी  ट्रांसफर फिर से हो गया था।  अब वे दोनों एक ही नाव में सवार हो गए थे और डूबती नैया को बचाने की जुगत में लग गए और मैं मौका देखकर वहां से खिसक लिया। इस बार सिंह साहब और सेक्शन आफिसर का ट्रांसफर नहीं रुका था। .चिनहट का चना सचमुच लोहे का चना बन गया था :-) … जारी! 

22 टिप्‍पणियां:

  1. एक बात मनवाने के लिये कभी कभी बड़े एहसान लेने पड़ जाते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. गजब। आखिर चना चबवा ही दिए उस पिद्दे को आपने।

    जवाब देंहटाएं
  3. ये एहसान वाली बात बड़ी ठीक है। राजनीति में यही सब चलता आया है लेन देन। और तो और हम तो विज्ञान प्रगति पहले ही छोड़ भागे थे एक दिन हमारे एक छात्र ने बतलाया सर क्या हुआ क्यों नहीं लेख भेजते विज्ञान प्रगति को पांच किलो वनस्पति चावल (कच्ची बासमती )में दो लेख छपते हैं। ये छात्र 'पृथ्वी से मंगल तक वाया चाँद 'पुस्तक का मेरे से सम्पादन करवाने आया था साथ में मिठाई का डिब्बा था।मैंने कहा भाई अब वहां बड़े लोग आ गए हैं हमारा ज़माना गया हम तो हस्त लिखित ही भेजते थे। खूब छपता था। अब ये सब टंकड़ फंकड़ हमसे नहीं होता।

    बढ़िया संस्मरण अन्दर की खबर लेता घर दफ्तर की।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत रोचक संस्मरण.उत्सुकता लगातार बनी हुई है.

    जवाब देंहटाएं
  5. "यह सुनकर उनके चेहरे की रंगत उड़ गयी मगर तुरंत संभल कर लगे अनाप शनाप बोलने ,ट्रांसफर कराने वाले की ऐसी तैसी कर देगें,कब्र में गाड़ देंगे। .. आदि आदि। उन्हें तो विश्वास ही नहीं था उस खबर पर। और तभी ट्रांसफर आर्डर भी हम लोगों के सामने ही आ पहुंचा -अब जनाब भीगी बिल्ली बन चुके थे -वहीं लगे सिंह साहब के सामने गिडगिडाने। कुछ कीजिये, कुछ कीजिये।"...

    यानि ये 'शोले' वाले सूरमा भोपाली ही थे. सुन्दर श्रंखला चल रही है.

    जवाब देंहटाएं
  6. कभी कभी ऐसे ही लोगों को लोहे के चने चबवा देने चाहिये, तभी लोग ठीक रहते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  7. सरकारी दफ़्तरों, खासकर राज्य सरकार के दफ़्तरों की, ताकत डुबाने/उबारने में ही लगती रहती है।

    जवाब देंहटाएं
  8. सरकारी दफ्तर में ऐसी परिस्थितियां बन जाना , मुश्किल तो बहुत रहा होगा ....

    जवाब देंहटाएं
  9. " मैं बेहयाई पर उतर ही नहीं पाता ।" बडा अफसोस हो रहा है न ?

    जवाब देंहटाएं
  10. राज्य सरकार के अधिकारी (आई.ए.एस/ आई.पी.एस. को छोड़कर) अपने विभागीय सेक्शन ऑफीसर की कृपा प्राप्त करने के लिए सारे जतन करते हैं। जाने कब उनकी फाइल खुल जाय और एस.ओ. साहब के हाथ में गर्दन चली जाय। भ्रष्ट तंत्र ने एक आम लोकसेवक की छवि इतनी संदिग्ध बना दी है कि सही होते हुए भी परेशान हो जाना पड़ता है। आप ने नौकरी की शुरुआत में जो गलतियाँ की थीं उन्हें शायद अब न करना चाहें।

    जवाब देंहटाएं
  11. सर बहुत बढ़िया संस्मरण इसे पुस्तकाकार रूप में आना चाहिए |गनीमत है जमाना दूसरा था तब शायद घूस कल्चर नहीं थी |

    जवाब देंहटाएं
  12. दफ्तरी भावनाएं ….
    लगभग सब जगह एक जैसे मामले !

    जवाब देंहटाएं
  13. रोचक..उत्तेजक संस्मरण। वैसे ये सहेज कर रखने और अवकाश प्राप्त होने के बाद पोस्ट करने लायक प्रतीत होते हैं। :)

    जवाब देंहटाएं
  14. कई बार दूसरों के लिए एहसास लेने पड़ते हैं ... इसलिए मुझे तो लगता है बड़े पदों पे बैठने वालों से अपने लिए जितने कम एहसान हों उतना ही अच्छा होता है ...
    रोचक संस्मरण ...

    जवाब देंहटाएं
  15. .
    .
    .
    काफी रोचक लिख रहे हैं आप... बहुत कुछ आप को भी समझने का मौका मिल रहा है इस संस्मरण माला से... :)


    ...

    जवाब देंहटाएं
  16. किन बेपेंदी के लोटों के साथ काम करना पड़ा आपको! खैर, अब इन सब बातों पर हंसा जा सकता है, तब कितना गुस्सा आता होगा, आसानी से समझा जा सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  17. हमें तो बड़ा रोचक लग रहा है चना का खेल..

    जवाब देंहटाएं
  18. ऐसे चित्थड़ों ने ही लोकतंत्र का बेड़ा गर्क किया है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अब इसे ही युगबोध की संज्ञा दी जाती है.

    जवाब देंहटाएं

यदि आपको लगता है कि आपको इस पोस्ट पर कुछ कहना है तो बहुमूल्य विचारों से अवश्य अवगत कराएं-आपकी प्रतिक्रिया का सदैव स्वागत है !

मेरी ब्लॉग सूची

ब्लॉग आर्काइव