यह हम सभी को पता है कि प्राचीन काल में ऋषि मुनि बिना शिक्षार्थी की पात्रता की अच्छी भली जांच परख किये उन्हें स्वीकार नहीं करते थे .कई पौराणिक कहानियां इस बात को बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत करती हैं . जैसे कर्ण और परशुराम की कहानी को ही ले लीजिये जो कुछ यूं है (साभार विकिपीडिया) -"कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असहमति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया ............ कर्ण की शिक्षा अपने अन्तिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक जंगली कीड़ा आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण असहनीय पीड़ा को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत खून बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, और परशुरामजी ने तपबल से सब जान लिया और कर्ण के मिथ्या भाषण के कारण उसे श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी। और यही हुआ युद्ध के समय ऐन वक्त कर्ण का पहिया जमीन में जा धंसा और वह उसे निकालने में वह ऐसा बेसुध हुआ कि अर्जुन ने सहज ही उसे मार गिराया .
यह कथा यह बताती है कि शिक्षा दीक्षा के मामले में प्राचीन गुरु लोग पात्रता का बहुत ध्यान देते थे और अक्सर यह भी होता था शिष्य को अपना सम्पूर्ण ज्ञान न देकर कुछ अपने पास ही रखते थे ...इन कथाओं का मर्म यही है कि अगर पात्र व्यक्ति का चयन शिक्षा दीक्षा के लिए सही न हुआ तो ऐसा गलत चयनित व्यक्ति प्राप्त दीक्षा का दुरूपयोग कर सकता है ,खुद अपने ही गुरु के लिए भस्मासुर बन सकता है और खुद अपना नाम बदनाम करने के साथ ही गुरु का नाम भी डुबो सकता था . ऐसा नहीं है कि ऐसी पुराकथाएँ केवल भारत भूमि की हैं . ये चतुर्दिक विश्व की बोध कथायें हैं , ली फाक के प्रसिद्ध कामिक्स श्रृखला मैन्ड्रेक में मैन्ड्रेक का एक जुड़वा दुष्ट भाई भी है जिसने मैन्ड्रेक के साथ ही साथ गुरु थेरान से शिक्षा पायी ...मगर जहाँ मैन्ड्रेक गुरु से प्राप्त अपनी जादुई शक्तियों से एक समाजसेवी बना वहीं उसका जुड़वा भाई मानवता का दुश्मन बन बैठा और अपने गुरु के लिए भी कष्टकारी बन गया ..गुरु थेरान उसकी पात्रता की जांच में चूक गए ...
आज तो बड़ी विषम स्थति है -पात्रता का चयन बड़ा ही मुश्किल हो गया है .फलतः अकादमीय क्षेत्रों में चेला ही गुरु का कान काट ले रहा है . राजनीति में जिस सीढी से नौसिखिये नेता ऊपर जा पहुंचते हैं उसी को नीचे फेंक देते हैं . पहलवान अपने ही गुरु को धोखे से धूल चटा दे रहे हैं . अब परशुराम सी शक्ति तो आज बिचारे गुरुओं में रही नहीं कि अपने पथभ्रष्ट शिष्य को शापित कर सकें ..मगर आजके गुरुओं को पुराने गुरुओं की इस परम्परा को कदापि नहीं भूलना चाहिए कि दीक्षा देने के लिए पात्रता को वे अवश्य देखें -अन्यथा उनका शिष्य उनका ही कान काट खायेगा या नाम डुबो के छोड़ेगा .... अब यह भोगा यथार्थ मुझ जैसे गरीब गुरु से बेहतर कौन अनुभव कर सकता है :-(