शुक्रवार, 29 जून 2012

आज जाकर देख पाया राऊडी राठौर


यह तय ही नहीं हो पा रहा था कि फिल्म कैसी है -कुछ लोग ठीक ठाक बता रहे थे तो कुछ बिलकुल कूड़ा .तभी यह भी मालूम हुआ कि फिल्म तो करोडो का कारोबार कर चुकी है .आखिर मैंने भी फिल्म को देखने का जुगाड़ कर लिया .अभी अभी लौटा हूँ .समीक्षा लायक तो कुछ है नहीं .मगर हमेशा यह विचार रहता है दूसरों का कीमती समय और पैसा बचे  तो कुछ पुण्य मेरी झोली में आ जाय . तो मत जायिये इसे देखने जबकि और बेहतर विकल्प मौजूद हैं .
 इस फिल्म में आकर्षण का एक कारण सोनाक्षी सिन्हा हैं और यह सच है -वे और एकमात्र वे ही इस फिल्म को देखने का वैलिड और सॉलिड रीजन हैं ...वे सम्पूर्ण और सर्वांग दर्शनीय हैं (संजय मो सम कौन यह वाक्य लिखते सहसा आपकी याद आयी :-) उनकी अदाएं भी सीधे दिल पर आती हैं और कम से कम हम पूर्वांचलियों के सौन्दर्य बोध के हिसाब से  बिल्कुल टंच हैं .इस फिल्म में भी उनके लटके झटके ..बलखाती कमर और मटकाते कूल्हे हैं . मगर दबंग के मुकाबले कमजोर दिखी हैं -शायद अक्षय कुमार के साथ केमिस्ट्री न बैठा पाने का मामला हो ....या फिर सौन्दर्य के उपभोक्ताओं पर भी ला आफ डिमिनिशिंग रिटर्न का प्रभाव होता हो ..
फिर भी अगर सोनाक्षी के लिए जाना चाहते हैं जाईये ....और उन पर आपका फिक्सेशन नहीं है तो दूसरी तीसरी फिल्म देखिये .अक्षयकुमार का डबल रोल है -जबरदस्त स्टंट  है ,मार धाड़ है और कल्पना को भी धता बताते दृश्य हैं .पटना के माफिया से भिडंत है मगर फिल्म रियल्टी के बजाय रील में ही कैद होकर रह गयी .....पटना के डान माफिया पर एक से एक यथार्थ फ़िल्में  आ चुकी हैं .हाँ एकाध दृश्य जरुर भव्य और कलापूर्ण बन उठे हैं जैसे दशमी के अवसर पर दशानन के पुतले के पीछे से अकस्मात माफिया डान का प्रगट हो जाना .
 हेराफेरी के बाद लगातार अक्षय अपनी हास्य भूमिकाओं में वह नकली मगर सहज मासूमियत नहीं ला पा रहे हैं जो दर्शकों को बरबस हंसा देती है . यहाँ इसलिए वे एक हलके फुल्के हंसोड़ की भूमिका में हैं तो दूसरे कड़क पुलिस आफिसर -राऊडी राठौर के रूप में - राऊडी का डिक्शनरी अर्थ उपद्रवी ,हुल्लड़बाज ,दंगाई या गुंडा है और फिल्म में इस अर्थ के साथ ही इंस्पेक्टर राठौर को हिम्मती मौत से पंगा लेने वाला दिखाया गया है.कड़क राऊडी भूमिका में अक्षय बेहतर दिखे हैं .

मैं दो स्टार दे रहा हूँ और यह किसलिए संजय मो सम भाई तो कम से कम समझ ही जायेगें! 

बुधवार, 27 जून 2012

एक आर्त अपील -लिव एंड लेट लिव!


भ्रष्टाचार पर मैंने कभी नहीं लिखा .बेमन टिप्पणियाँ जरुर की हैं इस विषय पर ब्लॉग पोस्टों पर . जल में रहकर मगर से बैर या आ बैल मुझे मार सरीखी बात ही नहीं है यह एक सरकारी मुलाजिम के लिए बल्कि उससे भी बढ़कर कि उसे  इस लाईलाज महारोग का कोई हल नहीं दीखता ..यह मनुष्य के आचरण,उसके संस्कार अर्थात लालन पालन, घर परिवार और दृष्टि-विवेक से जुड़ा मसला है. केवल सरकारी मुलाजिम ही नहीं भारत में भ्रष्टाचार घर घर तक पहुँच कर हमारे समाज और राष्ट्र के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है. कभी कभी तो  लगता है यह जैसे कोई आनुवंशिक बीमारी सा है जो पीढी दर पीढी चलता जा रहा है मगर इसके दीगर भी उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं .दो सगे भाईयों में एक बड़ा ईमानदार और दूसरा महाभ्रष्ट .एक ही मां बाप परिवार, संस्कार मगर फिर भी बड़ा  अंतर . यहाँ कुदरत के विभिन्नता का सिद्धांत समझ आता है :)  .कई ज्ञानी इस महारोग का औचित्य तक सिद्ध करते दिखाई देते हैं .दाल में नमक भर तो चलता है भाई? पता नहीं नैतिकता की किस तराजू से भ्रष्टाचार का माशा तोला ऐसे लोग तौलते हैं .फिर एक जुमला  यह भी अक्सर सुनाने को मिल जाता है कि अरे मन से और मूलतः तो भ्रष्ट  सभी हैं -जिसे मौके नहीं मिलते वे खुद को हरिश्चन्द्र दिखाने पर तुल जाते हैं -जाहिर है यह एक भ्रष्टाचारी का उद्धत वक्तव्य है . 

ईमानदारी के प्रवक्ता कहते हैं और अब यह एक बहु -उद्धृत वक्तव्य बन उठा है कि ईमानदारी होनी ही नहीं प्रदर्शित भी होनी चाहिए .गोया आज के दिखावे के युग में या महाभ्रष्ट युग में यह भी एक प्रदर्शन की वस्तु हो गयी है :) फिर तो यह प्रदर्शन कब ढोंग बन जाय कौन कह सकता है?. ईमानदारी भी एक जीवन मूल्य है .आज भी राजकीय सेवा में ऐसे अधिकारी मिल जाते हैं जो इस मूल्य के साथ किसी तरह जी ले रहे हैं बाकी तो कितने हिमालय की कंदराओं में या असमय ही अपने कुल पूर्वज (हरिश्चन्द्र ) से मिलने उनके नाम -प्रसिद्ध गंगा घाट की शरण लेते भये हैं . कुछ इस महामारी से अडजस्ट करने की अपनी मुहिम में यह दलील देते फिरते हैं कि जब जाड़ा अधिक पड़ने लगे तो जिद करने के बजाय रजाई न सही कम्बल तो ओढ़ ही लेना चाहिए ..नहीं तो कोई ऐसा धर्म नहीं है जो आत्मविनाश की हिदायत देता हो . मैं इन्ही विचारों की उहापोह में अपने सरकारी मुलाजिम होने के लगभग तीस वर्ष तो बिता चुका ....सेवा निवृत्ति की ओर बढ़ रहा मगर मुझे कोई निवृत्ति मार्ग नहीं सूझ रहा ...
और जब तक कोई हल न हो, समस्यायों को उठाना एक गैर उत्तरदायित्वपूर्ण काम है .इसलिए इस विषय पर कभी नहीं लिखा और फिर व्यवस्था के एक चाकर को इन विषयों पर लिखने की अनुमति नहीं है -कई भृकुटियाँ तन उठती हैं . मगर वो क्या है न जब जब दंश गहरे होते हैं एक कलम सेवी को कलम (अब की बोर्ड! ) का सहारा लेना ही पड़ जाता है . खुद के लिए नहीं भी तो उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता के नाते . लिहाजा मैंने सोचा आज से अपने सुधी पाठकों और मित्रजनों को और उनके जरिये समाज के और लोगों को जहां तक पहुँच हो सके इस मामले पर संवेदित कर सकूं . यह कोई अछूत विषय क्यों होना चाहिए? आज जब पूरे भारत में, खासकर युवाओं में ईमानदारी और पारदर्शिता तथा जवाबदेही के प्रति एक जुनूनी रुझान उठती दिखाई दे रही है तो शायद एक संभावना भी झलक रही है कि इस कोढ़ के विरुद्ध भी एक बड़ा जनमत उठ खड़ा होगा  और हम और अगली पीढियां इसके प्रभाव से मुक्त हो सकेंगी ..आशा ही तो जीवन है . 
भ्रष्टाचार एक छतरी शब्द है जिसके अधीन तरह तरह के भ्रष्टाचार हो सकते हैं - नैतिक, चारित्रिक, आर्थिक...इनमें तो अनेक बिलकुल निजी वैयक्तिक स्तर के हैं और समाज या राष्ट्र को इतना नुकसान नहीं पहुंचाते जितना आर्थिक किस्म का भ्रष्टाचार। आर्थिक भ्रष्टाचार में लगे लोग दीमकों की तरह हैं जो गरीब टैक्स पेयर के धन को तो हजम करते ही हैं, किसी भी राष्ट्र के आधार स्तंभों को खोखला करने की माद्दा रखते हैं। इनके समूल विनाश का कोई भी कृमनाशी नहीं बना है - ये कहीं भी किसी भी जगह पाए जा सकते हैं - मगर इनका जमाव टॉप पर अधिक है और इनकी इल्लियां तल पर भी मौजूद हैं। आर्थिक भ्रष्टाचार का मॉडल टॉप टू बॉटम का है। इस वैतरणी का उद्गम भी ऊपर से ही है। अगर ऊपर का भ्रष्टाचार मिट जाए तो मैदान की वैतरणी भी साफ़ पवित्र हो जाए। मिथकों में तो वैतरणी कभी भी साफ़ न होने वाली नदी बतायी गयी है। यहां तक कि इसके जल के स्पर्श मात्र से मनुष्य को अपवित्र होने की चेतावनी है। यह ऊपर अधर में लटके त्रिशंकु के लार से प्रवाहित हुई है। भ्रष्टाचार की लार भी ऐसे ही ऊपर से टपकती है। यह मॉडल टॉप टू बॉटम का है।
सरकार की नौकरियों के बारे में यही कहना ज्यादा उपयुक्त है कि यह काजल की कोठरी है। इस घटाटोप में ईमानदारी दिया बाती लेकर ढूंढने से नहीं मिलेगी। अब खुद भी एक ऐसे ही सिस्टम में काम करते हुए बहुत सी बाते मुझे व्यंजना और लक्षणा में कहनी पड़ रही हैं। सरकारी कर्मचारी की आचार संहिता आड़े हाथ आती है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस समस्या का मूलोच्छेदन कैसे हो...सबसे पहले वैतरणी के उद्गम को साफ करना होगा। भारी कीचड़ और कचरा वहीं से बहकर नीचे आ रहा है।
गीता में कहा गया है - यद्यदाचरति श्रेष्ठः तद्देवो इतरो जनः स यतप्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते मतलब जैसा आचरण 'श्रेष्ठ ' लोग करते हैं वैसा लोग अनुसरण करते हैं। अगर ऊपर के लोगों का आचरण पारदर्शी निष्कलंक हो जाए तो नीचे तो अपने आप चीजें सुधर जाएं। ज्यादातर मुलाजिम ऊंचे ओहदों पर कार्यरत बॉस का ही तो अनुसरण करते हैं।
आज यद्यपि भ्रष्टाचार एक वैश्विक मुद्दा बन चुका है मगर भारत में स्थिति बदतर है। यहां विसल ब्लोअर की बातें तो होती हैं मगर एक विसल ब्लोअर का मतलब है खुद अपने पांव में कुल्हाड़ी मारना...भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर खुद शहीद हो जाना। यानी मेसेज साफ है - खबरदार! सीटी मत बजाना। और अब तो यह अपना पूरा समाज ही भ्रष्ट हो चुका है। अपने समाज परिवार में से ही कोई न कोई इसी व्यवस्था के पोषण और औचित्य को सिद्ध करने में लगा है। बिना कुछ दिए लिए काम नहीं होता, जैसे जुमले अक्सर सुनने को मिलते रहते हैं। जाने माने कवि कैलाश गौतम ने अपनी एक कविता में यही बात बड़ी ख़ूबसूरती से सामने रखी थी -
काम नहीं होता है केवल अर्जी देने से
कुर्सी कुर्सी पान फूल पहुचाने पड़ते हैं
कैसे कैसे तलवे अब सहलाने पड़ते हैं...
आज भ्रष्टाचार का चिंतन भी हरि अनन्त हरि कथा अनंता सरीखा हो गया है। क्या मैं आर्त अपील करूं शिखरासीन भातृत्व से कि लिव एंड लेट लिव...!

रविवार, 24 जून 2012

कथा जारी है ....(मानस प्रसंग -3)


कथा जारी है ....राजा दशरथ का देहान्त हो चुका है, भरत आ चुके हैं। सारी दुर्दशा और दुर्व्यवस्था की जड़ अपनी मां को फटकार चुके हैं। बिना राम के वह राजगद्दी लेकर क्या करेंगे? कौशल्या के सामने बहुत ही कातर होकर वह कहते हैं, 'मां, ये जो कुछ हुआ उसमें मेरी तनिक भी सम्मति नहीं है'। मुनि वशिष्ठ भरत को बहुत समझाते हैं कि पिता की आज्ञा, राजकाज तथा प्रजा की देखभाल के लिए आपको राजगद्दी संभाल लेनी चाहिए। मगर सोचवश भरत को यह बात अनुचित लगती है। उन्हें तो दुहरा आघात लगा है। राम का विछोह और पिता की मृत्यु...बड़े आहत हैं वह। अब वशिष्ठ उन्हें समझाते हैं जो बड़ा ही विचारोत्तेजक प्रसंग हैं। इस प्रसंग में अध्यात्म का जहां गूढ़ भाव है वही लोकाचार, जीवन दर्शन के अनमोल सूत्र भी हैं। कुछ आपके साथ साझा करना चाहता हूं। यद्यपि रामकथा पर कुछ भी टीका टिप्पणी मेरे बूते की बात नहीं है और न ही इस विषय की मेरी लेशमात्र की विशेषज्ञता ही है। मगर पूरे प्रसंग को पढ़ने पर जो भाव मन में उमड़ते हैं उन्हीं को आपसे बांटना चाहता हूं।

वशिष्ठ भरत को सोच निमग्न देखते हैं। खुद भी प्रत्यक्षतः और दुखी हो जाते हैं। मगर ज्ञानी हैं। एक ज्ञानी की तटस्थता भी उनमें है। एक बड़े पते की सीख देते हैं -

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।

हे भरत, भावी (भवितव्यता) प्रबल है। मनुष्य तो मात्र एक निमित्त भर है। उसके हाथ में कुछ नहीं है। परिस्थितियों पर उसका वश नहीं है - हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु, यश-अपयश, यह विधाता के हाथ में ही है। जब इन पर तुम्हारा कोई वश नहीं ही नहीं तो फिर सोच क्यों? लगता है संतकवि की यह सूझ  गीता के 11वें अध्याय के इस सूत्रवाक्य से प्रेरित है - कृष्ण कहते हैं, अर्जुन तुम भले ही धनुर्विद्या में निष्णात हो मगर हो तो तुम निमित्त मात्र ही ...तुम्हारे वश में कुछ भी नहीं है, कर्ताधर्ता तो कोई और है...हां धनुष उठा लेने पर तुम्हें कार्य का श्रेय अवश्य मिल जाएगा।

यह जीवन दर्शन का वह सूत्र है जो आज के तमाम उद्विग्न व्यथित लोगों को राह सुझा सकता है। हम नाहक ही चिंतामग्न हो जाते हैं, दुश्चिंताओं से घिर जाते हैं। जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं तो फिर किस बात की चिंता? करने वाला तो कोई और है, एक अदृश्य शक्ति। प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य को तटस्थ भाव, विरक्ति भाव से ही रहना चाहिए। यह हमारे आर्ष ग्रथों का एक प्रमुख विचार है। बहरहाल विषयांतर न हो जाए, इसलिए फिर लौटते हैं भरत की दशा पर...उन्हें वशिष्ठ फिर समझाते हैं।

वशिष्ठ कहते हैं - भरत, राजा दशरथ तो वैसे भी सोच करने के योग्य नहीं हैं - सोच जोगु दशरथ नृप नाहीं...तो फिर सोच के योग्य कौन है? वह तमाम उदाहरण देते हैं कि किसकी स्थिति सोचनीय है। पूरा प्रसंग संतकवि की विचारशीलता का अद्भुत उदाहरण है -

सोचिय विप्र जो वेद विहीना तज निज धरम विषय लयलीना
सोचिय नृपति जो नीति न जाना जेहिं न प्रजा प्रिय प्रान समाना
सोचिय बयसु कृपन धनवानू जो न अतिथि सिव भगति सुजानू
सोचिय सूद्र विप्र अवमानी मुखर मानप्रिय ज्ञान गुमानी

वह ब्राह्मण सोचनीय है जो ज्ञानी नहीँ है। मात्र ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने से ही ब्राह्मण की पात्रता नहीँ हो जाती। संतकवि बालकाण्ड के शुरू में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि 'बंदऊ प्रथम महीसुर चरना मोहजनित संशय सब हरना" कौन सा ब्राह्मण वन्दनीय है? जो मोह से उत्पन्न होने वाले सभी संशयों को दूर करने की क्षमता रखता हो। वह ब्राह्मण जो ज्ञानी नहीँ है और अपने इस ज्ञान धर्म को छोड़कर विषयों में आसक्त हो रहता है, वह सोचनीय है। वह राजा सोचनीय है जो नीति नहीँ जानता और जिसे प्रजा प्राणों सी प्यारी नहीँ है। और वह धनवान सोचनीय है जो कंजूस है जो अतिथि सत्कार और शिव भक्ति में रमा नहीँ है। वह संस्कारहीन मूढ़ व्यक्ति सोचनीय है जो ज्ञानियों का अपमान करता है और वाचाल है। मान-बड़ाई चाहता है और अपने ज्ञान का घमंड रखता है। यहां भी शूद्र के अर्थबोध के बारे में "जन्मना जायते शूद्रः संस्कारेत द्विज उच्यते" को ध्यान में रखना होगा।

आगे भी वशिष्ठ बताते हैं कि कैसे वह गृहस्थ सोच के योग्य है जो मोह में पड़कर कर्ममार्ग का त्याग कर देता है और किस तरह वह संन्यासी सोचनीय है जो दुनिया के प्रपंच में पड़कर ज्ञान-वैराग्य से हीन हो गया है। सोच तो उसका करना चाहिये जो चुगलखोर है, बिना कारण क्रोध करने वाला है, माता-पिता गुरु और भाई बंधुओं के साथ विरोध रखने वाला है। और वह सोचनीय है जो अपने ही उदर पोषण करने में लगा रहता है, निर्दयी है, दूसरों का अनिष्ट करता है। वशिष्ठ भरत को सांत्वना देते हुए कहते हैं कि हे भरत, राजा दशरथ तो किसी भांति सोचनीय नहीँ हैं अर्थात् वह उक्त श्रेणी के लोगों में नहीँ आते।

सोचनीय नहिं कोशल राऊ भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ...ऐसा राजा न अब तक हुआ और न कभी होगा ही...उनके गुणों को तो चौदह लोकों में सभी जानते हैं।

मानस का यह प्रसंग जहां अध्यात्म के गूढ़ दर्शन को आम आदमी के सामने प्रत्यक्ष करता है वहीं लोक जीवन के कतिपय श्रेष्ठ आचरण को भी एक रूपक के जरिये प्रस्तुत करता है।

अब आगे किसी और प्रसंग के साथ भेट होगी...जय श्रीराम!

शुक्रवार, 22 जून 2012

अब राम को कौन बताए कि वे कहां रहें? (मानस प्रसंग -2)


मानस पारायण चल रहा है...राम वन गमन का प्रसंग पूरा होने का नाम ही नहीं ले रहा। दुःख का समय कहां जल्दी बीतता है! सुख तो मानो पंख लगाकर उड़ चलता है और दुःख अंगद का पांव बन टाले नहीं टलता। यह पूरी गर्मी मानस के वन गमन को समर्पित हो गयी है। राम महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आ पहुंचे हैं। लम्बा वनवास काटना है तो एक निरापद जगह की तलाश में हैं। वन गमन के पिता के आदेश की पूरी कथा बताकर वे वाल्मीकि से सहसा ही पूछ बैठते हैं - मुनिवर वह जगह बताइये जहां मैं सीता और लक्ष्मण के साथ कुछ समय व्यतीत कर सकूं। वाल्मीकि सुन कर मुस्करा पड़ते हैं। सकल ब्रह्माण्ड का स्वामी, सर्वव्यापी का यह मासूम प्रश्न वाल्मीकि को मानो निःशब्द कर देता है - अब वे क्या उत्तर दें?  कौन सी जगह उन्हें बता दी जाये जहां वे न रहते हों - बहुत दुविधाजनक जनक सवाल है। राम तो कण कण में व्याप्त हैं - कोई जगह उनसे अछूती रह गयी हो तो न बताई जाये। वाल्मीकि साधु साधु कह पड़ते हैं - सहज सरल सुनि रघुबर बानी साधु साधु बोले मुनि ग्यानी...

आखिर वाल्मीकि कह ही पड़ते हैं कि हे राम मुझे यह कहने में भी संकोच हो रहा है मगर जहां आप न हों वह स्थान तो बता दीजिये ताकि मैं चलकर वही स्थान आपको दिखा दूं? यह पूरा प्रसंग, यह संवाद ही बहुत रोचक बन गया है। राम वन गमन की भीषण ग्रीष्म सरीखी यात्रा में मानो यह एक छायादार पड़ाव हो... राम का आग्रह था तो वाल्मीकि को जवाब देना ही था। उनका जवाब इतना विवेकपूर्ण और प्रत्युत्पन्न मति का सुन्दर उदाहरण है कि सोचा आपसे साझा कर लूं। राम वाल्मीकि संवाद के कुछ अंश यूं हैं -

एक पल को तो राम ऋषिवर की यह बात सुन सकुचा गए - कहीं मेरी लीला का भेद न सभी आश्रमवासियों पर खुल जाये। मगर फिर ऋषिवर ने बात संभाल ली। वह विस्तार से बताने लगे कि राम कहां रहो...वे कई ठांव बताते हैं। राम तुम उन श्रवण रंध्रों में जाकर रहो जिन्हें रामकथा बहुत प्रिय है। आप भक्तों के ह्रदय में बस सकते हैं। आप गुरु देवता और ब्राह्मणों का सम्मान करने वालों के मन में जाकर रहिये...और भी जगह हैं जहां आप रह सकते हैं -

काम कोह मद मान न मोहा लोभ न छोभ न राग न द्रोहा
जिनके कपट दंभ नहीं माया तिन्ह के ह्रदय बसहु रघुराया

अर्थात जो काम क्रोध मद अभिमान मोह लोभ क्षोभ राग-द्वेष कपट दंभ और माया से रहित हैं, क्यों न आप उनके ह्रदय में निवास करें? जो दिन रात आपके सदैव शरणागत हैं आप उन के मन में जाकर रहिये...

जे हरषहिं पर सम्पति देखी दुखित होहिं पर बिपति विशेषी
जिनहिं राम तुम प्रानपियारे तिनके मन शुभ सदन तुम्हारे

हे राम आप जिन्हें प्राणों से प्रिय हैं और जो दूसरो की संपत्ति देखकर हर्षित होते हों और दूसरे के दुःख को देखकर दुखी, आपके लिए उनके मन शुभ निवास स्थान हैं।

जाति पांति धनु धरम बड़ाई प्रिय परिवार सदन सुखदाई
सब तजि रहहुँ तुम्हहि उर लाई तेहिं के ह्रदय रहहु रघुराई

जो जाति पांति धन धरम बड़ाई और प्यारे परिवार और सुख देने वाले घर को त्याग  आपमें ही मन लगाए बैठा हो, आप क्यों न उनके ह्रदय में रहें...

अब लीला पुरुष असमंजस में हैं। उन्हें तो अपने लीला के लिए एक जगह चाहिए। मुनि हैं कि उन्हें सर्वव्यापी बनाए रखने पर ही अड़े हुए हैं। आखिर ऋषिवर राम की दुविधा का एक हल निकाल ही लेते हैं -

चित्रकूट गिरि करहुं निवासू तहं तुम्हार सब भांति सुपासू

हर तरह की सुविधा लिए चित्रकूट पर्वत आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप वहां जाकर अपनी लीला का विस्तार कीजिये प्रभु! और श्रीराम के पग चित्रकूट की ओर बढ़ चलते हैं...जय श्रीराम!

बुधवार, 20 जून 2012

पगड़ी वाले के सलाम का सबब


पगड़ी वाले मतलब अपने वही ब्लॉगर शिरोमणि पाबला साहब .परोपकारी और सेवाभावी हर दिल अजीज  सरदार जिनकी मदद की दरकार हममें से बहुतों को रही है और गाहे बगाहे उनसे मदद लेकर हम धन्य होते रहे हैं .वे एक ख़ास अर्थ में सलाम भी करते हैं .जब किसी ब्लॉगर भाई बंधु बांधवी की कोई पोस्ट मुद्रण माध्यमों में छपती है तो उनका फ़ौरन सलाम उस ब्लॉगर तक आ पहुंचता है .मुझे उनके ऐसे कई सलामों का सौभाग्य प्राप्त है . फिर उनका सलाम आ पहुंचा .मगर सलाम के साथ एक गुजारिश थी कि मेरे इस ब्लॉग शीर्षक का मतलब क्या है? 

यह वह अहसज करता सवाल है जिससे मुझे अक्सर दो चार होना पड़ता है .मैंने इस पर पहले भी दो पोस्टें झोंक रखी हैं-यह और यह .  मगर फिर भी प्रायः यह सवाल मेरे मित्र सुधीजन पाठक करते ही रहते हैं .और मैं हैरान होता रहता हूँ कि इत्ती सी बात आखिर इतनी बार क्यों पूछी जाती है? . इस बार भी मुझे हैरानी हुयी कि अरे पाबला साहब भी इतनी मासूमियत के साथ और इतनी देर से यह सवाल कर रहे हैं! बड़ी देर कर दी मेहरबां आते आते :)..... हैरत के साथ मैंने पाबला साहब को फोन पर ही बताना शुरू किया ....क्वचित माने कुछ ,अन्यतो माने अन्य या अन्यत्र और अपि माने भी ....मतलब क्वचिदन्यतोपि ....कुछ अन्यत्र से भी ...मगर यह अन्यत्र से होने की बात उठी ही क्यों ....? 

मैं अंतर्जाल पर सक्रिय यही कोई 2007 से ही हुआ और अपनी हाबी के मुताबिक़ ऐसे प्लेटफार्म ढूँढने लगा जहां से विज्ञान से जुडी बातों का आम लोगों, मतलब वे जिनसे विज्ञान का साबका अमूनन नहीं रहता तक पहुंचा सकूं .उन दिनों समूहों का जमाना था ..याहू पर कई समूह चौड़े से चल रहे थे मैंने भी अपना एक समूह विज्ञान कथाओं को लेकर बनाया  जो आज भी धड़ल्ले से चल रहा है .मगर जो आनंद ,जो संतुष्टि अपनी मातृभाषा में काम  करने की होती हैं वह अनिर्वचनीय है . और तभी ब्लागर पर मैंने साईब्लाग बनाया जो विज्ञान संचार  का  नियमित हिन्दी का ब्लॉग बना ..एक द्विभाषी ब्लाग साईंस फिक्शन इन इण्डिया भी बनाया ....ये दोनों ब्लॉग प्रचलित हिन्दी ब्लागों में अपनी कुछ जगहं बनाने में कामयाब हुए . 

मुझे फिर भी लगता रहा कि ऐसा बहुत कुछ है जो इन दोनों ब्लागों के फलक से छूट रहा है .विज्ञान की अपनी सीमाए हैं, अपना अनुशासन है और उसे तोडा नहीं जा सकता ..हाँ साहित्य तो सीमाहीन है ....और मुझे विज्ञान के इतर भी बहुत कुछ कहने की तलब महसूस होती और तभी मेरे मन में नाम सूझा -क्वचिदन्यतोपि! 
रामचरित मानस जो मेरे सर्वप्रिय पठन साहित्य में से हैं में संतकवि तुलसी प्रस्तावना में ही लिखते हैं -

नाना पुराण निगमागम सम्मतम यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि, स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंधमति मंजुल मातनोति...अर्थात मानस की रचना के लिए नाना पुराण, निगम यानि वेद और आगम मतलब तंत्र साहित्य और आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण तथा कुछ अन्यत्र से भी (क्वचिदन्यतोपि) संदर्भ सामग्री  इस्तेमाल हुई है .बस यहीं से उस संतकवि का  मन ही मन आभार   के  साथ  मैंने यह शब्द ले लिया -इस नए भावबोध के साथ कि विज्ञान से इतर विषयों की चर्चा यहाँ करूँगा .अब हुआ यह कि पब्लिक यहाँ ज्यादा आने लगी तो  मैंने अब विज्ञान की हलकी चाशनी यहाँ भी देनी शुरू कर दी है ..आदमी अपनी फितरत से कब बाज आता है . :)


इतनी बातें पाबला साहब से मैंने फोन पर ही बतिया डाली ..वे भी अजब फंसे कहाँ सलाम के लिए फोन मिलाया था मगर पूरी मुसीबत ही पगड़ी पर आ गिरी ..सारी सर ..और मित्रगण आपसे भी मुआफ़ी इस पुराने पिटे विषय पर आपका समय एक बार फिर जाया करने के लिए ....


शुक्रवार, 15 जून 2012

ग़ज़ल गायकी के लीजेंड का यूँ चले जाना...


यह तब की बात है जब मैं एक स्नातक छात्र था .यानी १९७६ के आस पास .मेरे चाचा जी उन्ही दिनों फेलोशिप पर जर्मनी जा रहे थे तो एक पैनासोनिक का टेप रिकार्डर घर पर दे गए जिसे उन्होंने दिल्ली में खरीदा था .उन दिनों टेपरिकार्डर गाँव के लिए एक अजूबा था .अब टेपरिकार्डर जैसा आवाज का एक अजूबा और नया 'बाईस्कोप' मिल जाय तो फिर क्या कहना ..गवईं लोगों की आवाजें टेप की जातीं और फिर उनको सुना देने पर वे भौचक रह जाते ..रेडिओ एक कोने में उपेक्षित हो गया और टेप रिकार्डर की करामातें चल पडीं ..उन्ही दिनों पिता जी मेहदी हसन की चंद चुनिन्दा ग़ज़लों का पालीडोर कंपनी का ओरिजिनल कैसेट घर ले आये थे ..और दिन रात वह बजता था .....मैं उससे बेफिक्र था .मुझे मेहदी हसन के बारे में कुछ पता नहीं था ..
पिता जी ने सबसे पहले इस अजीम शख्सियत और पाकिस्तानी फनकार से मेरा परिचय कराया था ..पकिस्तान में कुछ अच्छा भी हो सकता है उसकी यह पहली मिसाल थी ...पिता जी ने कहा कि देखो मेहदी हसन कितने अलग अंदाज़ में दिले नादां तुझे हुआ क्या है गाते हैं. मैंने मिर्ज़ा ग़ालिब की यह ग़ज़ल दूसरे फनकारों को गाते हुए सुनी थी .मेहदी हसन की आवाज़ में यह बिलकुल अलग क्लासिकी तरीके से गाई हुयी लगी .....और सच बताऊँ पहली बार तो ख़राब सा लगा मेहदी साहब से यह ग़ज़ल सुनना ..मगर ज्यों ज्यों सुनता गया ..उसकी तासीर गहन होती गई और आज तो यह ग़ज़ल किसी और की गाई अच्छी ही नहीं लगती ..
आगे तो मेहदी साहब जैसे जीवन का एक हिस्सा ही बनते गए .. जैसे एक मजेदार  याद है जब मैं मुम्बई में दो सालाना विभागीय ट्रेनिंग पर था तो वहां पहली बार सांख्यिकी पर एक पूरे पेपर की तैयारी करनी थी ..मुझे सांख्यिकी के सिद्धांत मेहदी हसन साहब की ग़ज़लों की तासीर लिए लगते थे ...और मैंने उनकी ऐसी ब्लेंडिंग तैयार की कि उधर सांख्यिकी के  कोई चैप्टर पर पढाई चलती तो उस्ताद की कोई न कोई ग़ज़ल पार्श्व में बजती रहती थी और साथी मुझे इनका दीवाना सिरफिरा क्या क्या न कहते थे -आखिर में जब नतीजा आया तो सैद्धांतिक सांख्यिकी में मुझे सर्वोच्च स्थान मिला था ..आप भी यह फार्मूला अपना सकते हैं :)

मेहदी हसन सरीखे फनकार को सुनने समझने पसंद करने का एक प्रोटोकोल है .उनकी आवाज़ और अंदाज़ तथा हुनर की बारीकियों को पसंद करने के लिए उनकी गायकी में तनिक समय जाया करना होगा ..उसे शुरू शुरू में पेशेंस के साथ / सकून से सुनना होगा -यह एक सीखने का सबब है .एक क्लास है जहां आपको मन लगाना है .आप पायेगें धीरे धीरे आप इनकी गायकी में रूचि लेने लगे हैं और फिर यह तासीर बढ़ती ही जायेगी ...मेहदी हसन को पसंद करने के लिए पहले आपके मस्तिष्क के कुछ तंतुओं को संवेदित होना होगा अगर वह इलाका पूरी तरह निष्क्रिय ही न हो गया हो .. :) और इसमें शुरुआती समय लग सकता है .मगर फिर आपको इसकी तलब लगनी शुरू हो जायेगी ...दुनिया में कितने ही नशे हैं उसमें एक प्यारा सा नशा है ग़ज़लों का और उसमें भी अगर आप मेहदी हसन को पसंद करते हैं तो आप एक अलग क्लास के व्यक्ति हैं . उनसा दूजा कोई नहीं है . दुनिया का बड़ा सा बड़ा ग़ज़ल गायक मेहदी हसन को शीश झुकाता रहा है .वे ग़ज़ल गायिकी के लीजेंड बन गए .

एक और बात है जो मेहदी हसन की गायकी के करीब हमें ला सकती है .यह है दिल का साफ़ होना ,बिना छक्का पंजा के और चालाक दुनियादारी से दूर होना ..वे भी ऐसे ही थे निष्कपट ,सहज सरल और विनम्र ...हर वक्त दुनियादारी में डूबे व्यक्ति के लिए कहाँ शेरो सुखन और वह भी मेहदी हसन की गायकी? इसके लिए निष्कपटता तो मानों एक अनिवार्य शर्त है ..मैंने खुद पाया है जिन्हें मेहदी हसन पसंद हैं वे बहुत सीधे सरल लोग हैं और एक ख़ास तरह की संवेदनशीलता लिए हुए हैं . यह एक अलग सा विशिष्ट ग्रुप ही है जिसे आप मेहदी हसन फैन ग्रुप कह सकते हैं .

वह पहला कैसेट जिसने मुझे इस अजीम हस्ती से मिलाया था 
मुझे ३६ साल पहले घर में आये उस कैसेट जो आज भी मेरे संग्रह का एक नायब आईटम है की एक एक ग़ज़ल के हर्फ़ दर हर्फ़ याद हैं ..उनके साथ जिए जीवन के कितने ख़ास पल छिन भी जैसे तरोताजा से हैं . चाहे खुशी के पल हों या गम के ये गज़लें मुझे एक सा आनंदित करती रहीं हैं .....दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुःख सहते हैं ...अर्जे नियाज़ इश्क के काबिल नहीं रहा .....मग्घन बात पहेली जैसी .....दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है ......क्यूं दामने हस्ती तक बढ़ने दिया हाथों को ....और भूली बिसरी चंद उमीदें चंद फ़साने याद आये .....यह आख़िरी वाली तो जब भी सुनता हूँ पूरा अतीत ही मानों सामने आ साकार हो उठता है ...इसके बाद की तो उनकी कितनी और गज़लें आयीं और दिल दिमाग पर कब्ज़ा करती चली गयीं .....
रंजिश ही सही .... मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो......बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी ......गुलों में रंग भरे ....इन सभी की एक सूची नजरिया वाले ब्लॉगर ने भी दी है -वे भी मेहदी साहब के दीवाने रहे हैं .....तीन दशकों के एक लम्बे साथ के बाद मेहदी हसन साहब का जाना दुखी कर गया है मगर तसल्ली यही है कि उनकी गज़लें उनकी दिलकश आवाज़ आज भी हमारी एक बेशकीमती धरोहर है .....ऐसी शख्सियतें कहाँ फ़ना होती है वह तो हमारे अहसासों हमारी चेतना में मानो पैबस्त रहती है जैसे बस गर्दन झुकाई और देख ली सूरत यार की .....अमर हैं मेहदी हसन साहब!

बुधवार, 13 जून 2012

ग़ज़ल के बादशाह को आख़िरी सलाम


मेहदी हसन साहब का इंतकाल हो गया है .और इसी के  साथ ग़ज़ल गायकी के एक युग का अंत भी .यह समाचार मेरे लिए जैसे स्तब्ध  करने वाला रहा . वे मेरे सबसे पसंदीदा ग़ज़ल गायक रहे हैं ...उनको आख़िरी सलाम कहते हुए मन दुखी है .मैं उनके स्वास्थ्य को लेकर पहले से ही चिंतित था . और आज यह दुखभरा समाचार आ गया .
क्वचिदन्यतोपि पर स्मृति -शेष 


 एक श्रद्धांजलि: स्वप्नदर्शी   
संतोष त्रिवेदी की श्रद्धांजलि 
कबाड़ खाना पर शोक -श्रद्धांजलि 
नज़रिया पर शोकांजलि 
रविवार पर पुण्य स्मरण 
अवधी के अरघान पर यह आयोजन 
चाँद  पुखराज का पुण्य स्मरण 
एक ज़िद्दी धुन की शोक श्रद्धांजलि 
उनकी इस ग़ज़ल के साथ ग़ज़ल के इस बादशाह को अंतिम विदाई .....

मंगलवार, 12 जून 2012

हिन्दी ब्लागिंग का मूल्यांकन पर्व


हिन्दी ब्लागिंग के मूल्यांकन पर्व पर कुछ छुट्टा विचार आते रहे तो उन्हें रुक रुक कर लिख डाला और यह पोस्ट बन गयी .चूंकि विचार ही छुट्टा आते गए हैं इसलिए उनमें तारतम्यता की तलाश मत करियेगा ....

दूसरों का लपक कर मूल्यांकन करने में एक चालाक रणनीति तो रहती ही है कि खुद अपने कर्मों का मूल्यांकन बच जाता है ..आज के इस माहौल में कब न जाने कौन मुआ आकर मूल्यांकन कर ही डाले -वह ऐसा करे इसके पहले ही काहें न अपना बचा के सबका खुद ही कर डाला जाय ... फिर लोगबाग भय भी खाने लगते हैं अरे यार यह तो मरखना मूल्यांकक(शब्द गलत हो तो क्षमा मेरा आशय मूल्यांकन करने वाले से है ) है इससे पंगा न लो कहीं यह मूल्यांकन न कर दे ..बैठे बिठाये साला एक लफड़ा कि अपुन तो तीसरे नंबर पर आये ....अब दो ऊपर के लोगों की करनी धरनी में नामालूम कौन से सुरखाब के पर लगे हैं -मगर मूल्यांकन हो गया तो हो गया -ठप्पा लग गया तो लग गया ....अरे रे रे यह देखो फलनवा तो उससे कम अच्छा लिखता है ...फुरसतिया तो तीसरे चौथे पर लोढ़ गए ..क्या सचमुच बंदा इत्ता ही बुरा लिखता है दोयम तीयम नंबर का कि फलाने से भी नीचे आ गया ...? 

दूसरों को उनकी औकात बताने के नकचढ़पन की यह शायद वही प्रवृत्ति है जो हिन्दी आलोचना में काफी पहले ही मुखरित हो गयी थी ...अगर खुद के कृत्य -कृतित्व से लोगों में अपनी स्थायी छाप न बन पाने की आशंका हो आयी हो तो दीगर लोगों का मूल्यांकन शुरू कर दो ...लोग भय खाने लग जायेगें ..रुतबा भी बढ़ा सो अलग ..एक गोलबंदी भी पक्की ..रेगुलर ठकुर सुहाती का भी पक्का इंतजाम ....नौबत बजती रहे हर रोज ....मुझे लगता है खुद के रचनाकर्म की लोकप्रियता कम होने की आशंका /असुरक्षा लोगों को ऐसे टोटके करने को उकसाती है ...चलो एक आयोजन कर ही डालो ..यह एक ध्यानाकर्षण का जुगाड़ है ....इसी बहाने ही कुछ दिन ही सही लाईम लाईट में आने का मौका मिल जाता है ....हो सकता है तब तक खुद का लेखन सुधर जाय नहीं तो फिर ऐसे टोटके होते ही रहें साल दर साल .....

मुझे खुद के मूल्यांकन /आत्म मूल्यांकन के बजाय दूसरों का मूल्यांकन ही बड़ा नकचढ़ा और अशिष्ट सा काम लगता है -बिलकुल अहमकाना ..और यह सब पूरे दिखावटी तामझाम के साथ किया जाता है -मगर खुद की पसंद को ही दूसरों की पसंद बताते हुए मजमा लगाने की हर फितरत की जाती है -यह गोबर पट्टी है बाबू .... . फला बहुत अच्छा लिखते हैं ..अच्छी बात है मगर फला फला से घटिया लिखते हैं यह ब्लागीय - अशिष्टता है ...फला नंबर एक हैं और फला नंबर पांच ...पता नहीं ब्लागिंग में ऐसे मूल्यांकन कितने समीचीन और औचित्यपूर्ण हैं और इनका निहितार्थ और फलितार्थ क्या है /होगा? 

लीजिए हम भी आलोचना का दरवाजा खोल कर बैठ गए ....कारण वही है ..मुझे भी इन दिनों अपने ब्लॉगों की घटती लोकप्रियता की आशंका हो आयी है ..कुछ निकार टोटका तो करना ही होगा ...खुद का बचा कर दूसरों का मूल्यांकन वाला टोटका तो बासी हो गया ....वैसे यह सूझ बड़ी जबरदस्त रही ..मैं भी शायद यह चतुर कर्म करता ही मगर हाय पिछड़ गया ....इसलिए यह पोस्ट लिख कुछ तो गम गलत कर रहा हूँ और कुछ टोटका भी .....एक बात मन में और कई बार आयी है कि हम ब्लागजगत को ठकुर सुहाती का अड्डा बना डाले हैं और बराबर मुंह देखी करते हैं और बेलाग बेलौस कहने में हिचकते हैं ...मेरी यह पोस्ट ऐसी प्रवृत्ति के भी विरोध में है -दोस्ती / मित्रता प्यार/ मोहब्बत अपनी जगह है मगर हिसाब किताब और बेमुरौवत खरी खरी अपनी जगहं ...यह करते हुए एक फायदा यह होगा कि दानेदार साथ रह जायेगें थोथे उड़ जायगें जिन्हें उड़ ही जाना चाहिए जितना भी जल्दी हो सके ..जाया करने का वक्त अब ज्यादा नहीं बचा .......

अरे हाँ तीसरे चौथे नंबर पर आये और पूरे परिदृश्य से गायब रहे बिचारे ब्लागरों से मेरी पूरी हमदर्दी है -हम जल्दी ही एक नगद पुरस्कार आयोजन करने ही वाले हैं, सच में भाई! ...तब तक मेरे यहाँ टीपते रहें .....टीपू सुलतान/ सुलताना  को एक आकर्षक पुरस्कार की गारंटी ....सम्मान लेकर ओढ़ेगें या बिछायेगें ? नगद रोकड़ मिलेगा तो उसका अपनी तई कल्पनाशील उपयोग करेगें ...गर्मी में अपनी पसंद की आईसक्रीम खायेगें ..क्यों?

गुरुवार, 7 जून 2012

ग्रीषम दुसह राम वन गमनू ....(मानस प्रसंग-१)


प्रत्येक  वर्ष मेरा एक बार मानस पारायण हो ही जाता है। अमूमन यह जाड़े में होता है और आराम से पढ़ते हुए मुझे तकरीबन 4 महीने बीतते हैं- कारण थोड़ा-थोड़ा और सस्वर पढता हूं। सस्वर इसलिए कि बिना श्रोता भले ही घर का वह कोई अकेला सदस्य ही क्यों न हो मुझे मानस पाठ नहीं सुहाता। पिता जी बचपन से ही कहते थे और बहुत सच कहते थे कि रामचरित मानस की चौपाईयां कई रागों में गाई जा सकती हैं और मैंने इसे अपने कालांतर जीवन में देखा, सुना और परखा। मैं भी उपहास की परवाह किये बिना चौपाईयों को गाने के प्रयोग करता रहता हूं और आनन्दित होता हूं। इस मामले में दूसरों की रुचि-अरुचि की मुझे परवाह नहीं रहती। ...और कहते हैं न घी का लडडू टेढ़-मेढ़ भी चलता है तो मानस की चौपाईयां भी ऐसी ही हैं। चाहे उन्हें आल्हा सरीखा गाईये या सोहर लचारी के तर्ज पर, आनंद घनानंद में कोई कमी नहीं। मगर इस बार व्यतिक्रम कुछ ऐसा हुआ कि जाड़े के बजाय इस बार मानस पाठ का सिलसिला रामनवमीं से शुरू हुआ और अब जाकर राम वन गमन तक आ पाए हैं।


कितनी ही बार मानस पढ़ा-सुना है और जीवन के इस पड़ाव पर कितनी ही मोहभंगता, तटस्थता, निःसंगता क्यों न हुई हो, किन्तु राम वन गमन का हेतु और प्रसंग हर बार रुला जाता है। सस्वर पढ़ते हुए गला रुध जाता है, आंखें भर आती हैं और श्रोताओं को भुलावा देने के तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें मेरी मनःस्थिति का भान हो ही जाता है। मगर उनकी भी तो स्थिति कमोबेश वही रहती है- कौन किस पर हंसे? :) 



इस बार राम वन गमन का प्रसंग भीषण गर्मी में आ पड़ा है और दुसह दुःख की अब दुहरी मार आ पड़ी है। और दुर्संयोग ही कहिये मानस का राम गमन प्रकरण भी मृगशिरा नक्षत्र के भीषण आतप के समय ही आया है। शायद इसलिए मानस पाठ/आत्मानुशीलन मेरे पुरनियों द्वारा जाड़े में ही किया जाता था, ताकि संभवतः राम वन गमन का पाठ गर्मी में न पड़ जाये और दोनों के दुखद संयोग की दुहरी पीड़ा पाठक/श्रोता को न झेलनी पड़े। क्या इसलिए ही तमाम अनुष्ठानों और धार्मिक कार्य-आयोजनों के कतिपय विधि-विधान बनाए गए हैं। रामायण और राम चरित मानस के भी नवाह्न पारायण/मास पारायण की व्यवस्था इसलिए ही तो नहीं है? जिससे संकल्प/कार्य निर्विघ्न पूरे हो जायें। अब बिना इस ध्यान के इस बार हम भीषण गर्मी में उतना ही वेदनापूर्ण राम वन गमन का प्रसंग झेल रहे हैं।



पता नहीं अब के वास्तुविद या भवन शिल्पी घरों/भवनों में कोप कक्ष का प्रावधान करते हैं या नहीं (मैंने तो कहीं देखा नहीं) राजा दशरथ की अयोध्या में तो एक पूरा कोप भवन ही था और कैकेयी के पहले और बाद में भी शायद ही उसका कोई उपयोग/दुरूपयोग हुआ हो। कोपभवन की अवधारणा बहुत विलासिता भरी लगती हैं और यह मानिनी नायिका के श्रृंगार पक्ष से ही जुड़ा एक तामझाम लगता है। अब यह भी कोई कम नखरा है कि रूठने की बात सीधे तौर पर न कहकर कोपभवन में चले जाना और खुद के मान मनौवल की भूमिका तैयार कर देना। यह श्रृंगारिकता का ही एक पहलू लगता है। मगर सीधे-साधे सज्जन सहृदय राजा दशरथ यहीं तो गच्चा खा गए बिचारे और उनके इस गफलत से उनकी जान पर बन आयी। मुझे अक्सर लगता है राजा दशरथ एक सीधे-सादे पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें हम और आप भी अपना अक्स देख सकते हैं। मगर कैकेयी उतनी ही दुष्ट, धूर्त/चालाक नारी का प्रतिनिधित्व करती है। राजा दशरथ की मासूमियत तो देखिये कि जब वे बहुत अनुनय के साथ कैकेयी से उसकी नाराजगी का सबब पूछते हैं और उसे हाथ से स्नेहिल स्पर्श करते हैं तो वह उनके हाथ को झटक देती है मगर उसकी यह झटकन राजा को काम-कौतुक लगता है- तुलसी कहते हैं:



जद्यपि नीति निपुण नरनाहू नारि चरित जलनिधि अवगाहू (यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं मगर कैकेयी सरीखी नारी का चरित्र अथाह समुद्र है) खुद का अनुभव भी यही बताता है कि यह एक कालजयी सत्य है मात्र एक काव्य सत्य नहीं :) 



कोपभवन में ही राम के वन गमन की प्रस्तावना लिखी जा रही है। राजा बेबस निरीह श्रीहीन होते जा रहे हैं। कैकेयी के सामने अधमरे हो उठते हैं, कितना बिचारगी भाव से कहते हैं- भरत के राज्याभिषेक में उन्हें कोई ऐतराज नहीं मगर राम को वन मत जाने को कहो। कैकेयी को पूरा आभास है कि राम के वियोग में दशरथ प्राण त्याग देगें मगर वैधव्य की कीमत पर भी वह अपनी जिद नहीं छोड़ती। राम आते हैं उनका मन वन गमन की बात सुनते ही बल्लियों उछल पड़ता है। राजा मरणासन्न हो चुके हैं। उनकी ओर से राम सहज सहर्ष वन जाने की हामी भर लेते हैं। ये वही राम हैं जिन्हें राज्याभिषेक की खबर सुन कर यह संताप हो रहा था कि आखिर बड़े भाई के ही राज्याभिषेक का नियम क्यों है? राम क्यों न जन जीवन में समादृत और पूज्यनीय हों?



राजा दशरथ कैकेयी को सबसे अधिक मानते थे। कौशल्या को तो उन्होंने उपेक्षित ही रखा इसके बावजूद कि वे राम की मां बनी। उन्हें जिस तरह उनकी सबसे प्रिय रानी कैकेयी ने ही दंश दिया, उनकी जानलेवा बनी इसकी मिसाल विश्व साहित्य में भले ही अन्यत्र कम हो मगर शायद लोक जीवन में कैकेयी चरित्र के ऐसे मामले कम नहीं हैं जहां दशरथ सरीखे सहज सरल इंसानों को कैकेयी सरीखी प्रवृत्तियों का शिकार आये दिन न बनना होता हो और इसलिए ही यह बहु उद्धृत कहावत भी आम हो गयी- त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानति कुतो मनुष्यः। और यह निश्चय ही कैकेयी की प्रवृत्ति पर ही लक्षित कहावत है- नहीं तो एक नारी सीता भी हैं जिन्होंने सभी ऐश्वर्य वैभव को तिलांजलि देकर पति के साथ वनगमन का मार्ग चुना, उर्मिला हैं जिन्होंने बिना प्रतिकार अकारण ही पति का लम्बा वियोग सहा।



आज के प्रसंग में सीता को राम वन न जाने की सलाह दे रहे हैं और इसके पक्ष में कई तर्क दे रहे हैं मगर सीता कहां मानने वाली हैं। सीता कोई कैकेयी थोड़े ही हैं। चरित्र का कितना बड़ा अंतर है यह। एक नारी अपने जीवन संगी की मौत का कारण बन जाती है तो दूसरी उसके लिए खुद का जीवन त्याग करने को तत्पर है। बाकी कोई प्रसंग फिर कभी। जय श्रीराम!

सोमवार, 4 जून 2012

जो साहित्य संगीत से विहीन हैं वे पशुओं से भी बदतर हैं


मनुष्य में संगीत प्रेम एक सहज बोध है . बांसुरी सरीखे वाद्य यंत्र 30 हजार वर्ष से भी पुराने पुरातत्व उत्खननों में मिले हैं . यहाँ तक कि तब की चिड़ियों की पाईपनुमा हड्डियों से बांसुरी बनाने के प्रमाण मिले हैं .कृष्ण को बांसुरी बहुत प्रिय थी . फ्रांस के आस पास किये गए उत्खननों में 225 किस्म के बासुरीनुमा वाद्य यंत्र मिले हैं . इनमें सुरों के आरोह अवरोह को साधने के लिए बाकायदा छेद हैं जिनपर उँगलियों को रख कर स्वरों में प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है .जाहिर है आदि से भी आदि मानव का संगीत प्रेम काफी विकसित हो चला था . कई अन्य तरीके की संरचनाएं भी मिली हैं जैसे महीन पत्थर के बलेड्स जिन्हें जोड़कर सांगीतिक ध्वनियाँ निकाली जा सकती थीं . और यह सयोंग भी देखा गया कि तत्कालीन और आज भी मौजूद उन गुफाओं में जिनमें आदिमानव भित्ति चित्रकारी करता था,इन वाद्य यंत्रों को बजाने पर अद्भुत अनुगूंज उत्पन्न होती है. 


मानव विकास में आखिर संगीत का क्या रोल रहा है? यह प्रश्न आधुनिक विकास- जैविकीविदों के लिए एक टेढ़ी खीर है . संगीत के साथ ही नृत्य का संयोजन अनिवार्य रूप से देखा गया है . ऑस्ट्रेलिया के मूलभूत आदिवासी जो वहां तकरीबन 45 हजार वर्षों से भी पहले से रहते आये हैं,कालान्तर के मानव प्रवासों के पहले से ही संगीत और नृत्य का आनंद लेते आये हैं और यह देखा गया है की उनके इस हुनर से आज के कथित 'सभ्य' मनुष्य के संगीत और नृत्य की बारीकियों का कई आश्चर्यजनक साम्य है.यह जाहिर है कि कल और आज की 'सभ्यताओं ' में संगीत -नृत्य के आयोजनों के इस समान वृत्ति से समूह -एकता का भाव संचारित होता है . समूह एकता(ग्रुप स्पिरिट) ही वह एक प्रमुख कारण लगता है जिसने मनुष्य को संगीत और नृत्य की अभिरुचि को बरकरार रखा है . तब भी यह आश्चर्यजनक लगता है कि नृविज्ञानियों ने मनुष्य की कतिपय दूसरी आदि -वृत्तियों के मुकाबले नृत्य और संगीत के अध्ययनों को कम वरीयता दी है . जबकि भाषा विज्ञान और लोक वानस्पतिकी (आदिवासी समूहों द्वारा चिकित्सा के लिए उपयोग में लाये जाने वाले पेड़ पौधों-खरबिरैयिया का अध्ययन ) पर नृ-विज्ञानियों का ज्यादा जोर रहा है .



संगीत सृजन और प्रस्तुतीकरण मनुष्य की एक नैसर्गिक रुझान है . एक तंत्रिका विज्ञानी अनिरुद्ध डी. पटेल ने ब्राजीलियन आमेजन के एक छोटे से आदिवासी समूह की सांगीतिक अभिरुचियों का अध्ययन किया है . उनका कहना है कि उनके पास गीतों का एक विशाल भण्डार है जबकि उसमें एक भी सृजन मिथक का गीत शामिल नहीं है और न ही उन्हें संख्याओं का कोई ज्यादा ज्ञान है .मगर संगीत की उनकी अभिरुचि समृद्ध है . इससे इंगित होता है कि संगीत मनुष्य के प्राचीनतम व्यसनों में से एक है . डॉ पटेल के शोध ने यह साबित किया है कि संगीत सृजन और श्रवण दोनों ही मनुष्य के दिमाग के कतिपय हिस्सों में संरचना की तब्दीली ला देता है . दिमाग का जो हिस्सा संगीत -सहिष्णु होता है वह मस्तिष्क के दोनों दायें बाएं हिस्सों को ख़ास तंत्रिका कोशाओं से जोड़ता है .

 मनुष्य की भावनाओं पर संगीत का गहरा प्रभाव प्रमाणित है . कुछ राग रागिनियों से कतिपय मानसिक बीमारियों के उपचार के उत्साहवर्धक परिणाम आ रहे हैं . पाया गया है कि कम से कम 6 मस्तिष्क -गतिविधियों पर संगीत का सीधा असर है . क्या संगीत का विकास मनुष्य की भाषा का ही एक उभय उत्पाद है ? यद्यपि इस प्रश्न के जवाब में विशेषज्ञों के मत अलग हैं मगर कुछ अध्ययन यह बताते हैं कि बच्चे पाठ को संगीतमय लहजे में जल्दी सीखते हैं . मगर फिर भाषा का अधिगम (सीख ) तीव्र हो उठता है और संगीत पीछे रह जाता है .भाषा के व्यवहार -उपयोग में बच्चे जल्दी पटु होने लगते हैं . मगर संगीत की समझ और सीख ज्यादा ध्यान ,रियाज और सीखने की मांग करती है . भाषा को सीखने का एक 'क्रिटिकल समय काल' देखा गया है जबकि संगीत सीखने का कोई ऐसा निश्चित काल नहीं है . यह भी सही है 2 से 4 प्रतिशत लोग संगीत को न समझने की जन्मजात कमी लिए होते हैं .मगर यह अध्ययन अमेरिका का है -भारत में ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है मगर मेरा दीर्घ अनुभव रहा है कि यहाँ सिनेमा और लोक संगीत (इधर के लेडी संगीत को समाहित करते हुए !) तो तब भी ज्यादा लोग समझते- सराहते हैं मगर क्लासिकल संगीत के जानने समझने वाले 10 फीसदी भी नहीं होंगे ...जबकि संगीत का यह स्वरुप अधिक उदात्त और हमारी महीन भावनाओं को भी संस्पर्श करने में समर्थ है .मगर लोगों की इसमें बचपन से ही रूचि विकसित नहीं की जाती जिसके चलते उनके मस्तिष्क के संगीत -सहिष्णु हिस्से निष्क्रिय पड़ जाते हैं.


संगीत प्रेमी तो गैर संगीत अभिरुचि के लोगों को इतना हेय भाव से देखते हैं कि मत पूछिए -कहा भी गया है- साहित्य संगीत कला विहीनः नरः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः

शुक्रवार, 1 जून 2012

पुस्तकें मिलीं


विगत सप्ताह दो महत्वपूर्ण पुस्तकों की मानार्थ प्रतियां प्रकाशकों की ओर से मिली.  पहली पुस्तक अनिल पुसदकर जी की क्यों जाऊं बस्तर मरने  तथा दूसरी सतीश सक्सेना जी की मेरे गीत  है .ये दोनों ही पुस्तकें जानी मानी शख्सियतों और ब्लागरों की लिखी हैं . अभी निकाय निर्वाचनों में अतिशय व्यस्तता के कारण इन्हें पढ़ तो नहीं पाया हूँ .मगर पुस्तक के आने पर उसके रैपर को खोलकर मुख्य पृष्ठ निहारने ओर एक सरसरी निगाह से पन्नों को पलटने का लोभ भला कहाँ संवरण हो पाता है . सो यह कृत्य तो सहज ही संपन्न हो गया .

अनिल पुसदकर जी की पुस्तक क्यों जाऊं बस्तर मरने दरअसल उनकी एक आत्मप्रवंचना  है जिसमें वे एक पत्रकार की हैसियत से दैनिक भास्कर में लगातार पुलिस के विरोध में लिखने के बाद/बावजूद  नक्सल हिंसा में शहीद पुलिस और परिवार के संवेदना के पहलुओं से रूबरू होते हैं . और नक्सली हिंसा के शहीद पुलिस एवं उनके परिवारों से जुड़े कई मौजू सवालों को पुस्तक में संवाद की शैली में उठाते हैं .यह संवाद उनके कई वर्षों के बाद अचानक मिले एक मित्र से होता है . पुस्तक का कलेवर नयनाभिराम है और वैभव प्रकाशन ,अमीनपारा चौक ,रायपुर ,छतीसगढ़ ने इसे बड़ी ही सुरुचिपूर्णता से छापा है . पुस्तक के सभी पृष्ठ बहुरंगी और प्लास्टिक कोटेड हैं .ज़ाहिर है पुस्तक का शेल्फ जीवन ज्यादा है.कृति के बारे में कभी फुर्सत से लिख सकूंगा .

दूसरी पुस्तक सतीश सक्सेना जी की  मेरे गीत की भी चर्चा इन दिनों चल रही है . ज्योतिपर्व प्रकाशन, इंदिरापुरम गाजियाबाद ने  इस पुस्तक -कवि के प्रथम गीत संग्रह को भी बड़े सलीके से छापा है . पुष्प छाया सज्जित आवरण  आकर्षित करता है. .यह एक भरा पूरा गीत संग्रह है १२२ पृष्ठों का ...और भूमिका तथा गीतों के संकलन को  एक नज़र में देखने से यह कृति कृतिकार के बारे में भी बहुत कुछ बताती हुयी लगती है -कोई गीतकार या कवि कैसे बन जाता है यह पुस्तक इसे बखूबी बयान करती लगती है . संकलित कुछ गीत पहले से ही पढ़े हुए हैं और विहगावलोकन के समय उनकी स्मृति भी कौंधती रही ...मैं सतीश जी के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व का पहले से भी फैन रहा हूँ -इसलिए यह पुस्तक मेरे लिए बहुत प्रिय है और मेरे बुक शेल्फ की लम्बी अवधि तक शोभा बढ़ाने वाली है . 



दोनों कृतिकारों को बहुत बहुत बधाई  के साथ यह सुझाव भी की पुस्तक को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए आनलाईन फ्लिपकार्ट सरीखी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए अपने प्रकाशक से कहें ...मेरी गुजारिश है कि ये पुस्तकें आप भी पढ़ें और लेखकीय श्रम को सार्थक करें . 

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