बहुत से लोगों की यह आम शिकायत होती है कि उन्हें कोई ठीक से समझ ही नहीं पा रहा ...आखिर अगले को कैसे किन शब्दों में समझाया जाय कि वह मुझे और मेरे दुःख दर्द को समझ जाय ...कई बार तो बात इतनी बिगडती जाती है कि जितना ही समझाने में शब्दों का अम्बार बढ़ता जाता है उस तरफ गलतफहमी भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है ..अजीब सी स्थिति होती है यह! नामी गिरामी लोगों के साथ भी कई बार ऐसी स्थति उत्पन्न हो जाती है -कहते हैं कि एक बार हनुमान जी भी बिचारे एक ऐसी फजीहत में पड़ गए तो उन्हें अपनी छाती ही चीर कर दिखानी पड़ गयी -बहरहाल वहां तो राम लला विराजमान मिले. मगर हम जैसे छुटभैये क्या करें जब ऐसी स्थिति से दो चार होना पड़ जाय -अब इतने हिम्मती भी नहीं कि एक तो खुद अपनी छाती चीर दें और उसके बाद अगर वह जुडी नहीं तब ? यह डर ,संशय ही ऐसे करामाती एक्शन को अंजाम देने से हठात रोक देते हैं -अब हनुमान सरीखे चमत्कारी होने का गुमान तो हम रख नहीं सकते और किसी राम की कृपा भी प्राप्त नहीं? तब कोई विवश बिचारा करे क्या?
मगर क्या हम जो कहते हैं और जो करते हैं उसमें सचमुच संगति रहती है? वैज्ञानिक कहते हैं मनुष्य के व्यवहार का ९० फीसदी प्रगटन -संचार गैर वाचिक होता है -मतलब वहां शब्द नहीं हाव भाव बोलते हैं ..जो मुंह में राम बगल में छुरी की पोल खोलते रहते हैं ..मगर फिर भी कुछ लोग वक्तृता में इतने कुशल होते हैं कि उनके बोले गए हर्फ़ दर हर्फ़ विश्वसनीयता की गारंटी से लगते हैं -अंतर्जाल में तो यह और भी आसान है -यहाँ तो शब्द ही सचमुच ब्रह्म है .....यहाँ तो बोलने वाले इतने मुखर हैं कि कईयों ने बोल बोल कर ही अपनी अच्छी खासी साख बना रखी है -हर दिल अजीज बन बैठे हैं ...युवा वृद्ध ह्रदय सम्राट /साम्राज्ञी बन बैठे /बैठी हैं ..क्योंकि यहाँ शब्द ही चलते हैं या बल्कि कहिये दौड़ते हैं -हाव भाव दीखते ही नहीं -इसलिए अक्सर कोई न कोई लोचा लफड़ा होता ही रहता है ....
मेरा मानना है कि ज्यादातर जनता बड़ी भोली होती है और यह ब्लॉग जगत भी कोई अपवाद नहीं है ....अक्सर यहाँ लफ्फाजियों के जाल में लोग फसते जाते है -और जाल भी ऐसा कि एक बार फंसे तो खुदा न खास्ता बाहर निकल भी गए तो सलामती संभव नहीं ....भोगा यथार्थ यह है कि इस जाल जगत में सम्बन्धों के सहज परवान चढ़ने के पहले अतिशय सावधानी जरुरी है ....यहाँ सम्बन्धों का समीकरण एक अंधी सुरंग की ओर लिए चलता है और जब आँख खुलती है तो चारो ओर अँधेरा ही अँधेरा दीखता है -यहाँ कथनी और करनी का फर्क बड़ा वाईड है ......
मैंने व्यवहार शब्द के लिए यहाँ चरित्र शब्द लिया है जिस पर मेरे कुछ तार्किक मित्रों को आपत्ति हो सकती है क्योकि इससे नैतिकता (की घुट्टी पिलाने ) की बू आती है ....उनकी यह आपत्ति जायज है -मगर चरित्र शब्द शायद किसी व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व का खाका खीचता है और उसके जीवन के पूरे टाईम और स्पेस को भी समाहित किये हुए है -ब्लॉग जगत में चरित्र ढूंढना एक आत्मघाती कदम है -यहाँ नक्कालों का पूरा साम्राज्य (जिनमें मेरी गिनती सबसे ऊपर है ) कायम है ..यहाँ जो अजेंडे दीखते हैं वस्तुतः वे हैं नहीं -और जो यह अनवरत प्रचार करता रहे कि वह तो सबसे बड़ा समाज सुधारक है मेरी ही तरह सबसे बड़ा पाखंडी है .....उसके हिडेन अजेंडे दूसरे हैं .नक्कालों से सावधान! भौतिक और प्रत्यक्ष दुनिया में जिन तमाम लोगों की दाल नहीं गली यहाँ वे यहाँ पकवान परोसने में लगे हैं ....
अभिषेक ओझा जी ने अंतर्जाल के ऐसे खतरों पर एक प्रभावशाली पोस्ट काफी पहले लिखी थी -अगर उनकी निगाह इस पोस्ट पर पड़ जाय तो आग्रह है कि वह लिंक ब्लॉग जन हिताय जरुर दे दें ! बाकी तो राम ही राखें!