महापुरुषों ने कभी कभार कुछ ऐसे भी सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं जिन्हें व्यवहार में लाना असंभव नहीं तो बेहद कठिन जरुर है .अब गांधी जी को ही ले लीजिये -कहते थे अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा जड़ दे तो तुम अपना दूसरा गाल आगे कर दो ..मगर अगर वह दूसरे पर भी जड़ दे तो ..इसके बारे में गांधी जी या तो विचार करने से चूक गए या फिर यह सुनिश्चित नहीं कर पाए की गाल के बाद का दूसरा अंग उपांग क्या हो या फिर दस्तावेजों में इस बात का जिक्र छूट गया .... शायद इन्ही सब कन्फ्यूजन के कारण बापू का यह सिद्धांत भी अमली जामा नहीं ले सका... अब ऐसे ही एक सिद्धांत है रहीम साहब का -रहिमन वे नर मर चुके जो कहुं मांगन जायं ,उनसे पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहिं ... अब इस सिद्धांत का व्यवहार में लाना कितना कठिन है यह वही समझ सकता है जिसे मंगतों के सामने जेब ढीली करनी पड़ जाती है और वह भी अपने महापुरुषों की मर्यादा बचाने के धर्मसंकट में ...मैंने खुद भी रहीमदास जी के इस सिद्धांत पर जीवन में अमल करने के चक्कर में बहुद कष्ट सहें हैं, आत्मा को दुःख पहुचाया है ताकि अपने कम से कम एक महापुरुष के वचन का प्रमाण बना रहे ...कबीरदास भी एक ऐसी ही बानी बोल गए हैं -कबिरा आप ठगाईए और न ठगिये कोय और ठगे दुःख होत है आप ठगे सुख होय ....मैंने भी जीवन में बराबर लोगों को खुद ठगा उठने का बदस्तूर मौका दिया है मगर दुःख है की मुझे कभी भी खुद को ठगाए जाने में सुख की अनुभूति नहीं हुई....शायद मुझमें ही कोई बड़ी कमी रह गयी है -मनसा वाचा कर्मणा कोई तो कमी जरुर रह गयी है अन्यथा महापुरुषों के वचन प्रमाणित न हों ऐसा कैसे हो सकता है ....कभी कभी लगता है महापुरुष भी कोई चौबीस घंटे के महापुरुष थोड़े ही रहे होंगे -किसी क्षण की सामान्य विवेकहीन मनुष्यता में कुछ ऐसी बात बोल गए होंगे जो उन्हें बाद में खुद भी याद नहीं रही होगी -अन्यथा वे सुधार जरुर कर लिए होते ...
मैं मंगतों की बात कर रहा था -शायद वे रहीमदास के सबसे बड़े अनुयायी रहे हैं ..वे निश्चय ही रहीमदास को कुलगुरु मानते होंगें जिन्होंने उनकी मदद में एक ऐसा मूल मन्त्र थमा दिया है जिसके चलते उनकी रोजी रोटी चल रही है -मांग लेने पर कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा ,अन्यथा अगला मृतक के समान नहीं हो जाएगा? मुझे लगता है माँगना महज दरिद्रता या पेशे से नहीं जुड़ा है जैसे भिखारी या फिर कर्मकांडों के माहापात्र और धर्म स्थानों के पण्डे या ररे -ये सब अपनी दरिद्रता या पेशे के कारण मांगते हैं ...हमारे जौनपुर में एक जगह है- कुल्हनामऊ-जहाँ के मंगते कुल्हनामऊ के ररा के नाम से विख्यात हैं-आपके पीछे पड़ जायं तो दमड़ी के साथ चमड़ी भी उधेड़ लें -जनता जनार्दन उनसे सहज ही आतंकित रहती है ....मगर इनकी पेशागत मजबूरिया हैं जिनके चलते वे इस निषिद्ध कर्म में लगे हैं.मगर उनका क्या जिनमें मागने की नैसर्गिक प्रवृत्ति है ....जैसे आपका पड़ोसी ...
हमारा यह सौभाग्य रहा है अब तक के जीवन में हमारे ऐसे पड़ोसी मिलते रहे हैं जिन्होंने हमें बराबर रहीमदास के उपरोक्त सिद्धान्त के मर्म को समझाये रखा है और बार बार हमें "जिन मुख निकसत नाहिं " की याद दिलाकर मरण से बचाये रखा है -मतलब वे जानते हैं की मिश्रा जी का परिवार मांगने वाले को मुक्त हस्त देते रहने के फिलासफी में "रघुकुल रीति सदा चलि आई ....प्राण जाय पर वचन न जाई " की सीमा तक उदार है ...सच तो यह है कि हमारे पड़ोसी सहज ही हमारी इस नैसर्गिक क्षमता को भांप लेते हैं ...और हम ठगे से रह जाते हैं ठगा जाते हैं ठगाए जाते रहते हैं ....हमारे ऐसे मंगता पड़ोसियों में कई बार तो हमसे भी ज्यादा वेतनादि पाने वाले भी रहे हैं मगर अपने पूरे परिवार को मंगता धर्म में पूर्णतया दीक्षित और निष्णात किये हुए हैं ..कालबेल बजते ही एक प्रबल संभावना पड़ोसी द्वारा कुछ मांगने की आशंका होती है जो दस बार मे कम से कम तीन बार सच साबित होती है ..हर कालबेल रिंग के साथ हम दिल को मजबूत करने में जुट जाते हैं ....अब तो मैं उनके सामने कुछ पागलों जैसा व्यवहार करने लगा हूँ -इसलिए नहीं कि इच्छित वस्तु उन्हें न देने की मंशा रखता हूँ मगर अब बार बार खुद को मृतक साबित न होने की एक्टिंग से ऊब चुका हूँ -पत्नी जी मेरे मनोभावों को समझने लगी हैं इसलिए वे तुरंत ही आगे आकर स्थिति संभालती हैं और मैं पागलों सा कुछ आयं सायं बोलता वापस हो लेता हूँ ...
पड़ोसी द्वारा मांगी जाने वाली खाद्य वस्तुओं में चाय चीनी आंटा के साथ कभी कभी नमक भी होता है ..हमारेगाँवों में अभी भी एक कहावत है कि नावं गाँव इतना बड़ा घर में नूनै नाय -लेकिन कहा ना कि यह एक प्रवृत्ति है जो लोगों को हमेशा कुछ न कुछ मांगने को उकसाती रहती है ...खाने के सामान के साथ ही अखबार ,गोंद,लिफाफा ,हथौड़ी आदि भी मांग लिए जाते हैं ..अभी कल ही तो पड़ोसी ने पिलास की मांग की ..मैं समझते हुए भी उनसे यह समझने की कोशिश करता रहा कि इसकी संरचना कैसी होती है तब तक पत्नी जी ने लाकर उसे थमा दिया ..पता नहीं वह अभी तक लौटाया भी गया कि नहीं -पोस्ट पूरी होते ही पता लगाता हूँ -एक दिन मैंने दरवाजा खोला तो अखबार की फरमाईश हुई ..हाथ में ही था मैंने तुरंत थमा दिया ...तुरंत फिर कालबेल बज उठी ..अब क्या ?... कुछ अखबार और दे दीजिये ..मतलब ? कल का ? ..नहीं नहीं कोई भी चलेगा ? अब मेरा माथा ठनका ..क्या पुराना अखबार चाहिए? हाँ हाँ रैक पर बिछाना है ...मगर अभी तो मैंने आज का ही अखबार दिया था उसे वापस कीजिये ...मैंने तो उसे बिछाकर उसपर सामान रख दिया है ....बहरहाल स्थति संभालने पत्नी जी आ गयीं थीं ...
अब ऐसा मंगता पड़ोस मिल जाय तो एक ही जीवन में आपको बार बार पुनर्जीवन मिलता रहे ....यह कोई कम सौभाग्य है? इस लेख के शीर्षक पर मत जाईये ..वह तो तुकबंदी बिठाने के लिए है!