रविवार, 13 सितंबर 2009

बोलो बेटा ...बोलो ...क्वचिद ....अन्यतो ..अपि ......क्वचिदन्यतोअपि !.....

इन दिनों टी वी पर एक बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान का बहुत मजेदार विज्ञापन दिखाया जा रहा है जिसमें पूरे लाड प्यार और दुलार से एक  दम्पति अपने सद्यजात बेटे को चेकोस्लोवाकिया का उच्चारण सिखा रहे हैं और बच्चा बार बार  हुर्रर्र हुररर कहते हुए आखिर चेकोस्लोवाकिया कह पाना सीख ही लेता है !  बेटे के भविष्य को लेकर एक समर्पित दम्पति सफल होते हैं जो विज्ञापन में उनके चेहरे पर आये  गहन संतुष्टि भाव से साफ़ प्रगट होता  है ! वह  संतुष्टि भाव  उनके चेहरे पर एक अबोध को भाषा संस्कार सिखाने के कठिन श्रम को भी छुपा लेता है ! मगर हाय रे अपना चिट्ठाजगत .....जहां  क्वचिद अन्यतो अपि के उच्चारण को एक मुद्दा बना दिया गया है !

इस ब्लॉग के आरम्भ में ही इसके नामकरण को पूरे संदर्भ और प्रसंग के साथ निरूपित कर दिया गया था ! और यह जनभाषा में काव्य रचना के पुरजोर समर्थक ,प्रातः स्मरणीय तुलसीदास जी की कृति से ही साभार लिया गया है ! अब तो डॉ. अमर कुमार ने एक अन्यत्र संदर्भ देकर इसकी अर्थवत्ता को उजागर किया है ! यथा-
क्वचित + अन्य + यद्यपि का सँधि विग्रह है, क्वचिदन्य्तोअपि
क्वचित प्रकाशं क्वचित्प्रकाशं,
नभ: प्रकीर्णाम बुधरम विभाति
क्वचित क्वचित पर्वत सनिरुद्धम ,
रुपं यथा शान्त महार्णवस्य
डाक्टर साहब पढ़ रहे हों तो कृपा कर इसका पूरा अर्थ भी दे दें -हम गरीबों का भला होगा !


यह सही है कि अन्य बहुत सी बातो के साथ ही भाषा का संस्कार भी  बचपन में ही मिल जाना चाहिए ! हमें याद है संस्कृत के कई शब्दों के उच्चारण हमने सश्रम ही सीखा -भाषा  कोई भी हो ,हमें उसके नए शब्दों को सीखने के प्रति क्यों लालायित नहीं होना चाहिए ! क्या अग्रेजी में कठिन शब्द नहीं हैं ? उनका उच्चारण सीखने में तो हम सब पापड बेलने को तैयार रहते हैं मगर बात जब हिन्दी और संस्कृतनिष्ठ शंब्दों  की आती है तो हम मुंह फुलाने लगते हैं ! ऐसा दुहरा मानदंड क्या केवल इसलिए ही है कि  अंगरेजी जुगाड़ फिट करने की भाषा है और यह नग्न सच भी है इसी विदेशन ने हमें अपनी भाषा बोलियों  से निरंतर दूर किया है ! ज्ञान के प्रेमियों के लिए नित नए शब्दों को सीखना एक शगल है /होना चाहिए ! सुवरण को खोजत फिरत कवि व्यभिचारी चोर .....
जहाँ तक बस चले अनगिनत  भाषाओं के शब्दों से अपने ज्ञान को समृद्ध करें इसको लेकर अनिच्छा हमारी मंशा और क्षमता पर ही प्रश्नचिहन खडे करती है ! और हां ,जहाँ रहे वहां की बोली भाषा को ही तरजीह दें ! मगर ज्ञान की अभिवृद्धि पर अंकुश भला  कौन विवेकशील चाहेगा ?
तो भैया  बाबू जरा प्रेम से बोलिए तो क्वचिद अन्यतो अपि ......

क्वचिदन्यतोऽपि....! 







32 टिप्‍पणियां:

  1. क्वचिद अन्यतोSपि। क्या सही बोला है?
    जै हिन्दी। जै भारत ।बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. बिल्कुल सही सोच है आपकी...।
    यह दुनिया इत्त्ती बड़ी है कि यहाँ सब बातों की गुन्जाइश है।
    विविधता ही इस सम्सार को रहने लायक जगह बनाती है।
    ...
    ...
    ...
    लीजिए हम अत्यन्त प्रेम से बोलते हैं: क्वचिदन्यतोऽपि

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  3. मैं आपकी शुद्ध, परिष्कृत हिन्दी को बहुत पसंद करता हूं. आप जब भी अपनी रौ में बहकर अपने अंदाज में किसी विषय पर बात करते हैं तो अच्छा लगता है. पर बात केवल इस एक शब्द की थी. इसका उच्चारण कठिन है, यह स्वीकारने मॆं कठिनाई क्या है?

    नये शब्द सीखने से कभी इंकार नहीं है, पर उनकी कोई उपयोगिता भी साथ नजर आये तो सीखने का मजा बढ़ जाता है. क्या कोई नया शब्द केवल इसी कारण सीखना चाहिये कि वह अपनी भाषा के शब्द्कोष में उपस्थित है?

    यदि ज्यादा से ज्यादा लोगों को साथ जोड़ना हो तो बात साधारण तरीके से कही जानी चाहिये. बीमा कम्पनी के विज्ञापन का हवाला दिया है आपने जो अत्यन्त सटीक प्रतीत होता है. पर और विस्तार में जाएँ तो देखिये कि फ़िलिप्स जैसी बड़ी कम्पनी का ब्रह्म-सूत्र क्या है? "सिम्प्लिसिटी". उनके तो अनेक विज्ञापन सिम्प्लिसिटी की महिमा का ही बखान करते हैं.

    और देखें तो वीसा जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपना लोगो क्या चुना है - "गो". इतना साधारण. वीसा के ग्राहक वर्ग में किस श्रेणी के लोग होंगे आप अंदाजा लगा सकते हैं. तो श्रेष्ठी वर्ग और जन-साधारण के बीच कठिन और सरल भाषा की दीवार मानने या खड़ी करने के बजाए यह समझना मैं ज्यादा आसान समझता हूं कि आसान भाषा में भी गहरी और लोगों के दिल को छूने वाली बात कही जा सकती है.

    ज्यादा बोल गया हूं. क्षमा करेंगे इस आशा के साथ.

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  4. @ क्या अग्रेजी में कठिन शब्द नहीं हैं ? उनका उच्चारण सीखने में तो हम सब पापड बेलने को तैयार रहते हैं मगर बात जब हिन्दी और संस्कृतनिष्ठ शंब्दों की आती है तो हम मुंह फुलाने लगते हैं ! ऐसा दुहरा मानदंड क्या केवल इसलिए ही है कि अंगरेजी जुगाड़ फिट करने की भाषा है


    अरविंद जी, आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि एक शब्द आता है 'पेटीपैक', जिसे मैंने टेलीफोन एक्सचेंज के लाईनमैंन से सीखा है -

    मेरा फोन चालू तो था पर डिस्टरबेंस देता रहता था, सो बदलवाने के सिलसिले में गया था। लाइनमैन ने कहा, आप एक काम करो, पुराने फोन को छोडो, एक मस्त 'पेटीपैक' फोन देता हूँ। उसे अपनाओ। वायरलेस।

    उस समय मुझे पता चला कि 'पेटीपैक' भी एक शब्द है जिसका मतलब है कि 'फैक्टरी से आया और अब तक न खुला हुआ माल'

    अब कहां वह लाईनमैन कहता फिरता, ये प्रोडक्ट लो, नया मार्केट में आया है, अभी तक खुला नहीं है वगैरह वगैरह...

    बहरहाल, फोन तो न बदलवाया पर एक नया शब्द जरूर सीख गया।
    नये शब्दों को सीखने से कोई गुरेज नहीं है, पर यदि वह सरल-सहज ढंग के हों तो और अच्छा।

    आप के इस ब्लॉग के नाम को बोलने में जबान को पूरी कसरत करनी पडती है। माना कि कसरत स्वास्थय के लिये अच्छी चीज है पर जहां योग से काम चले वहां ऐरोबिक तो नहीं ठेलना चाहिये :)

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  5. मेरे विचार से जब तक आपकी नैतिकता पर उंगली न उठाये, आलोचना को उसी भाव लेना चाहिये - जो उसका स्थान है - ठेंगे पर! अन्यथा आप को आपकी खोल में ठेलने को आतुर होंगे मित्रगण!

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  6. मैंने अनूप शुक्ल जी का वह ब्लाग भी देखा है जिसमें इस शब्द का पासिंग रेफ़ेरेंस दिया गया है पर आपने शायद उस पर कुछ अधिक ही ध्यान दिया है! क्या इस मामले पर इतना तूल देना ठीक है। वैसे, किसी भी क्लिष्ट शब्द का चलन आम नहीं होता और उसका पर्यायवाची शब्द खोज लिया जाता है- भले ही वो किसी अन्य भाषा का हो। तभी तो किसी भी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द पाये जाते हैं।

    आपको पूरा अधिकार है कि संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग करें। यही छूट अन्य लोगों को भी दी जानिये कि वह कैसे शब्दों में अपनी अभिव्यक्ति करते हैं।

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  7. जो जडो से कट जाये वो पेड कभी फ़लता फ़ुलता नही, हमारा भी यही हाल है हम धीरे धीरे अपनी ही जडो से कटते जा रहे है.... वेसे जिस चेकोस्लोवाकिया की बात अप ने लिखी है, अब वो देश दुनिया मै नही मिलता, लेकिन विज्ञापन देने वाले का दिमाग होता तो जरुर सोचता, क्योकि अब चेको ओर स्लोवाकाई(स्लोवाकिया ) दो अलग अलग देश है. चलिये हम बोलते है आप के संग क्वचिद अन्यतो अपि

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  8. क्वचिद ....अन्यतो ..अपि

    सही है न| राही मासूम रजा के उपन्यास `टोपी शुक्ला' में संस्कृत की तारीफ में एक खवातीन कहती हैं.... "ऐसी जबान का क्या फायदा जिसे बोलने में जुबान मुई छिनाल औरत की तरह सौ-सौ बल खाए..."

    लेकिन हमें तो यह जबान पसंद है|

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  9. अभी तो घोस्ट बस्टर जी के विचारों से इंस्पायर होके जा रहे है.. बाकी नयी भाषा सिखने में हमें कोई एतराज नहीं.. अब देखिये न हमने सीखी भी है.. लोचा, राडा,लफडा,

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  10. क्वचिद अन्यतोSपि....बहुत बहुत धन्यवाद.

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  11. मुझे ब्लॉग के इस नाम ने ही आपका ब्लॉग पढने हेतु प्रेरित किया. मेरी ही तरह अन्य को भी किया होगा.

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  12. घोस्ट बस्टर जी से सहमत हूँ , और होना भी चाहिए !
    सीखने का क्या है... जर्मन भी सीख लें ...चायनीज भी सीख लें ..लेकिन उसकी उपयोगिता भी तो होनी चाहिए न !

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  13. अरविन्द जी...यह shbd है तो kathin ..इस में कोई दो raay नहीं..हाँ ,यह बात सही की किसी भी नयी भाषा को seekhne में समय लगता है ,यह तो अपनी भाषा का shbd है..
    russian नाम तो bole भी नहीं जाते..वे तो और भी kathin होते हैं..
    लेकिन कुछ अलग सा शीर्षक या नाम होता है तो वह भी आकर्षक होता है..जैसे यह...क्वचिदन्यतोऽपि!
    बाकि मेरे ख्याल से अगर कभी कुछ भी नया सीखने को मिलता है तो जरुर सीखना चाहिये..सिर्फ उपयोगिता सोच कर सीखने का मौका नहीं गंवाना चाहिये.जैसे शौकिया भी कई भाषाएँ सीखना अपने आप में एक योग्यता हो जाती है..और न मालूम कब कहाँ सीखा हुआ काम आ जाये..

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  14. क्वचिद...अन्यत...ओपि

    लीजिए हमें भी आ गया कहना। किंतु ऊपर cmpershad टिप्पणी से मैं भी सहमत हूँ।

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  15. क्वचिद अन्यतोSपि..हिंदी दिवस के अवसर पर आपकी यह प्रस्तुति बहुत सामयिक है..पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ आपसी संवाद के लिए विदेशी भाषा का सहारा लिया जाता है..भावी पीढी को अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा दिलाने का एक प्रमुख कारण यह भी है..कैसे कहे..हिंदी का भविष्य उज्जवल है ...बस शुभकामनायें ही दे सकते हैं ..!!

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  16. देर से देख रहा हूँ, पर हिन्दी दिवस के दिन देख रहा हूँ - संतोष है ।
    इसका कुछ निहितार्थ भी जाने अनजाने खुल रहा है । विचित्र है मनुष्य का यह मन ! यह हिन्दी के शब्द नहीं सीखना चाहता - कठिन हैं इसलिये या शायद पिछड़ेपन के प्रतीक हैं इसलिये - तो भीतर एक विचार तंत्र बनता है जिसका लक्ष्य एक चली आ रही सत्ता (अंग्रेजी) को अक्षुण्ण रखना है ।

    हम प्रयास नहीं करते ! हमें हिन्दी कठिन लगती है । हम उनके विकल्प दूसरी भाषाओं (अंग्रेजी) में ढूँढ़्ना चाहते हैं । पर जब हमें अंग्रेजी कठिन लगती है, हम उसके लिये शब्दकोष ले आते हैं । उन कठिन अंग्रेजी शब्दों के विकल्प हिन्दी में नहीं ढूँढ़ते ।

    हिन्दी का प्रवेश लोक की संश्लिष्ट चेतना का प्रवेश है - चाहे सत्ता में, चाहे पाठ्यक्रम में, चाहे व्यवहार में, चाहे हमारी अंतश्चेतना में । हिन्दी के आने से सत्ता में नये वर्ग, नये विचार प्रवेश करेंगे । हिन्दी के एक कठिन शब्द के प्रति (खासतौर पर जो इतनी आत्मीयता से ब्लॉग-जगत में उपस्थित है)इतनी उदासीन मनोवृत्ति । ऐसे अनगिन शब्द हमें सीखने होंगे अध्यवसाय से, क्योंकि इसी अध्यवसाय से विकास की नयी दिशायें खुलेंगीं । देश में स्वावलंबन का उदय होगा । फिर जागेगी देश के प्रति स्वाभिमान की मनोवृत्ति और स्वभूति का अनुभव कर सकेंगे हम ।

    हम ’स्व’ के प्रति इतनी लगन वाले क्यों नहीं ? ’स्व’ के प्रति लगाव, अपनापन से ही तो प्रकट होता है ममत्व ! हिंदी अपनेपन का प्रतीक है और नींव है । हिन्दी सबकी भाषा क्यों नहीं ? हिन्दी के ऐसे शब्द सबके शब्द क्यों नहीं ? अंग्रेजी से अनभिज्ञ समाज के मतों की स्वीकृति के लिये ही रह गयी है यह भाषा ? हिन्दी सहनीय है, परन्तु विकास की प्रवृत्ति का परिचय नहीं ।

    हम विस्मृत कर रहे हैं उपनिषदीय वचन - "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य" । आत्मा कैसे पायी जा सकेगी यदि बल ही खो गया । बलहीन आत्मा की उपलब्धि नहीं किया करते । हिन्दी की उपेक्षा में क्या भारत की आत्मा ही नहीं खो गयी ? सृजनशीलता की कर्मण्यता ही नहीं खो गयी ?

    हिन्दी को उपेक्षित कर हमने अपने आत्मविश्वास को उपेक्षित कर दिया है । हमारी अन्तर्निहित प्रज्ञा, हमारी प्रतिभा, हमारा सम्मान वंचित हो रहा है। हमें हिन्दी के इस आत्मविश्वास को संरक्षित करना होगा ।

    "जनभाषा है हिन्दी, जनभाषा बने हिन्दी" - अनगिनत बार कहे जाने वाले इन वाक्यों में एक अनोखा वैपरीत्य नजर आता है मुझे - एक आइरोनी (Irony)- बिलकुल हिन्दी दिवस के रूप में उपस्थित एक जीवंत आइरोनी की तरह । सब कुछ खानापूर्ति के लिये । केवल कह दिये जाने के लिये । पूरे देश में निभायी जाती है औपचारिकता, लिये जाते हैं मजबूती के संकल्प- परन्तु ढाक के वही तीन पात ! क्यों ? भारतीय जिस प्रकार वस्तु के प्रति स्वदेशी भाव से परोन्मुख हैं, भाषा के प्रति भी हैं ।

    वह तो भला हो हिन्दी की गतिशील भाषिक संस्कृति का, उसमें अन्तर्निहित उदारवादी विकासशीलता के तत्व का - कि इसमें भाषाई बद्धमूलता और जड़ता का दोष नहीं आने पाया और सभ्यताओं के संघर्ष, अस्मिताओं की टकराहट, विखंडनवाद, मूल्यों और मान्यताओं के विघटन, वैश्विक बाजारवाद व भाषाओं की विलुप्ति की चिंता के इस संक्रमण काल में भी हिन्दी ने अपने अस्तित्व के प्रश्नचिन्हों को दरकिनार किया । भाषा फलती, फूलती रही । कारण इसकी ग्राहिका शक्ति । विभिन्न भाषाओं के शब्दों को अपनी ध्वनि-प्रकृति में ढाल लेने की सामर्थ्य । हिन्दी के फलक का विस्तार हमें सुनिश्चित करना है । हम क्वचिदन्यतोऽपि कहते ठहरें नहीं, विरम न जाँय । यह क्वचिदन्यतोऽपि का भाव न होता तो बाबा तुलसी की रामायण न होती ।

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  17. दूर से देखने पर बहुत कार्य बहुत कठिन दिखाई देते हैं .. पर कोशिश करने पर कुछ भी असंभव नहीं होता .. नर्सरी के बच्‍चों को पशुओं के नाम सीखने के क्रम में 'हिप्‍पोपोटेमस' का उच्‍चारण भले ही थोडा कठिन लगता हो .. पर प्रयास में असफलता हाथ नहीं आती है .. मेरे ब्‍लाग में कंप्‍यूटर की हिन्‍दी शब्‍दावली देखने वाले लोगों ने इस हिन्‍दी को बहुत कठिन माना .. पर 'करत करत अभ्‍यास ते , जडमति होत सुजान' .. वास्‍तव में अभ्‍यास की कमी ही हिन्‍दी और संस्‍कृत को कमजोर बनाने में जबाबदेह है ..आपने 'क्वचिदन्‍यतोअपि' शब्‍द को इस ढंग से प्रस्‍तुत किया है कि .. शायद अब इसे याद रखने में किसी को कठिनाई नहीं होगी .. इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई !!

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  18. क्वचिदन्यतोऽपि! भाई मुझे तो यह बडा ही सुंदर शब्द लगता है, और बोलने मे भी कोई परेशानी नही है. पर मर्जी अपनी अपनी.

    रामराम.

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  19. ये अनूप जी भी न!!!!


    क्वचिदन्यतोऽपि....!

    इत्ता सा तो बोलना है/

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  20. बहुत बढ़िया लिखा है आपने! बिल्कुल सच्चाई का बयान किया है बड़े ही सुंदर रूप से! अच्छी प्रस्तुती!

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  21. क्वचिदन्यतोऽपि....! pehle to main bhi nahi bol paaya........ main yahi dekhne aaya tha ki iska matlab kya hai......... aur socha tha ki aapse poochoonga......... par aapne khud hi bata diya hai......... to iska dhanyawaad.......... lekin ab isko pronounce kar liya hai ........क्वचिदन्यतोऽपि....! ..........


    bahut hi achcha lekh......

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  22. क्वचिद...अन्यत...ओपि
    मैंने भी सही से बोलने की कोशिश जारी रखी है शुक्रिया

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  23. क्वचिद...अन्यत...ओपि..........

    अगर मतलब भी पता चल जाए तो maza है ......... vaise इस नाम को padhna मुश्किल तो है ........

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  24. डा. साहब नमस्कार मै तो सोचा था कि घर पर आउगा तो आपसे पुछुगा पर चलो अभी से बोलना सीख गया !
    जब घर गया था तो आपके श्री मान लडके से मुलाक़ात हुई थी तो मै बताया कि मै आपके पापा का ब्लॉग पढ़ता हु उन्होंने पूछा कौन सा मै नाम नहीं बोल पाया तो उन्होंने मुस्कराते हुए मुझे बताया क्वचिदन्यतोऽपि !!!!

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  25. हमने तो एक पोस्ट लिखी थी संस्कृत में शीर्षक था तो एक ईमेल आ गयी की फ़ोकसबाजी क्यों करते हो कुछ और भी तो शीर्षक हो सकता था. अब बताइये !

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  26. हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
    उज्जवल भविष्य के लिए
    प्रयास जारी रहें
    इसी तरह सुन्दर
    " क्वचिदन्यतोऽपि "
    लिखते रहें ..............

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  27. वैसे माडरेशन वाले ब्लाग पर टिप्पणी करने से बचता हूँ,
    अपने विचार किसी की दया पर छोड़ना गवारा जो नहीं, यह मेरा व्यक्तिदोष है ।
    और ग़रीबो के भले के लिये पूरा अर्थ भी सँदर्भ सहित यहाँ दे सकता हूँ,
    पर, इस प्रकरण से अब एक वितृष्णात्मक अनिच्छा उत्पन्न होती जा रही है ।
    क्षमा करें, मैं तो इतना विद्वान भी नहीं कि, ठेंगे पर रखा जाऊँ.. क्योंकि यह सँदर्भ अनैतिकता से परे है ।
    प्रसँगवश अनूप शुक्ल की इस पोस्ट की अगली कड़ी पर मैंनें
    भाषाई अहमन्यता पर एक प्राचीन सँदर्भ भी दिया था, वह भले ही ग़रीबों के हितार्थ प्रस्तुत कर दे रहा हूँ ।
    डाक्टर अमर कुमार ’ असली ’ Sep 13th, 2009 at 1:33 am
    इन सब के साथ एक बात और भी खास ध्यान होने योग्य है । सँस्कृत का सारा साहित्य हिन्दू समाज को पुनर्जीवित न कर सका, इसलिये सामयिक भाषा में नवीन साहित्य की सृष्टि की गयी । उस सामयिक भाव के साहित्य ने जो प्रभाव दिखाया वही हम आज तक अनुभव करते हैं । एक अच्छे समझदार व्यक्ति के लिये क्लिष्ट सँस्कृत के मन्त्र तथा पुरानी अरबी की आयतें इतनी प्रभावकारी नहीं हो सकती जितनी कि उसकी साधारण भाषा की साधारण बातें ।
    ” श्री भीमसेन विद्यालँकार - हिन्दी सन्देश 28 फरवरी 1933 पृष्ठ 27 से ”
    हाथ कँगन को आरसी क्या … जनमानस पर जितना प्रभाव रामचरित मानस, कबीर की साखी, रहीम के दोहे, रसखान की रचनायें, घाघ की सूक्तियों का पड़ा, वह आज भी प्रत्यक्ष है । ” कामिनि कंत सों, जामिनि चंद सों, दामिनि पावस-मेघ घटा सों, कीरति दान सों, सूरति ज्ञान सों, प्रीति बड़ी सनमान महा सों ..” जैसी रचनायें पाठ्यपुस्तकों में ही भली लगती हैं । प्रसँगवश यह भी जिक्र कर दूँ कि महाकवि भूषण इस भाषा सौन्दर्य को सँभाल न पाये, और इसी रचना को आगे उन्होंने तत्कालीन भदेश ” ऐल-फैल खैल भैल खलक पै गैल-गैल, गजन कि ठेल पेल सैल उसलत हैं.. ” जैसी पँक्तियों से सँभाला ।
    टिप्पणी गरिष्ठ होती जा रही है, इस पर यदि एक पोस्ट लिख ही डालूँ, तो पढ़ेगा कौन ? कुल मिलाकर यह कि कोई अँग्रेज़ी बघार कर हड़काता है, कोई सँस्कृत का हवाला देकर उकसाता है, पर पब्लिकिया तो मुम्बईया टपोरी पर मरी जाती है । हैदराबादी हिन्दी अब तक क्यों ज़िन्दा है ? उसमें शब्दों को समाहित करने की एक साल्वेन्ट जैसी क्षमता है… पर हम हिन्दीयाइट्स वहीं फँसे पड़े हैं । खेद है कि इसी व्यामोह के चलते हिन्दी राष्ट्रभाषा बन कर भी सर्वमान्य सम्पर्क भाषा आज तक न बन पायी ।
    इसी बिन्दु पर तो " बाबा तुलसी की रामायण " के होने या न होने की प्रासँगिकता भी सम्मुख आती है ।
    रिपीट डाक्टर अमर कुमार ’ असली ’ Sep 13th, 2009 at 1:37 am
    लीजिये साहब, लिखने की रौ में भड़ से एक शब्द हिन्दीयाइट बन ही गया, यदि आदरणीय ज्ञानदत्त जी ने इसे अब तक न बनाया तो क्या.. बन तो गया ही है
    अलबत्ता यहाँ से अनधिकार एक सूत्र अपने साथ लेता जा रहा हूँ,
    " मुझे विज्ञान के इतर भी अक्सर कुछ कहने की इच्छा होती है
    उससे इतर स्रोतों से -इधर उधर से भी जो यहाँ कह सकूं -क्वचिदन्यतोअपि ......."
    सुभाषितम - डा. अरविन्द मिश्र

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  28. गनीमत है यह शब्द जैसा दिखता है वैसा उच्चारित तो किया जाता है वरना आप psychology को क्या उच्चारित करेंगे ..पसायचोलोगी ? और to को टू do को डू और go को ..खैर छोड़िये कहाँ के विवाद मे पड़ गये ?

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  29. देखिए जी, अंगरेजी का शब्द चाहे कैसनो कठिन क्यों न हो, ऊ हमको कठिन नहीं लगता है. चहे हम बोलने मे मरे क्यों न जाएं, पर उसको बोलना भी हम सिखिए लेते हैं. रही बात हिन्दी की त एतनी पिछड़ी भाषा जिससे कुछ मिलना ही नहीं है, उसके इतना मुसीबत काहे झेलें. और संस्किरित? धत्तेरे, क्या बाबा आदम के ज़माने की बात करते हैं!

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