बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

एक थे निगम साहब! (सेवा संस्मरण -9)

राज्य सरकार के अधीन मत्स्य प्रशिक्षण केंद्र चिनहट का वजूद समाप्त होने का असहज इंतज़ार हमें था किन्तु लीज डीड फाइनल न होने के कारण आगरा स्थित केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान की रीजनल इकाई द्वारा टेक ओवर नहीं किया जा पा रहा था . इसी उहापोह में दिन बीत रहे थे . मुझे लगता था कि केद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान द्वारा चिनहट केंद्र का अधिग्रहण कर लेने के बाद मेरा पद केंद्र सरकार के किसी बराबर के पद और वेतनमान में समायोजित हो जाएगा .ऐसा लोग आश्वस्त करते . फिर भी अज्ञात का भय बना रहता था .इसी बीच एक अनहोनी घट गई . रीजनल ट्रेनिंग सेंटर आगरा के प्रिंसिपल कोई चौधरी जी काफी स्मार्ट निकले और एक तार उन्होंने प्रदेश सरकार और उसकी प्रतियां हमारे चिनहट स्थित कार्यालय को रवाना किया -ऐसा चालाकी और सावधानी भरे शब्दों के मजमून का तार मैंने कम ही देखा है -आज तक उसके शब्द मुझे याद हैं-"पेंडिंग फाइनैलाईजेशन ऑफ़ द लीज डीड वी आर मूविंग टू टेक ओवर चिनहट ट्रेनिंग सेंटर विदिन अ वीक ." निश्चय ही यह राजनीतिक पहल का परिणाम था और केंद्र सरकार के तत्कालीन कृषि मंत्री से इसके लिए हरी झंडी मिल चुकी थी . उत्तर प्रदेश शासन के मत्स्य अनुभाग में हलचल बढ़ी और आनन फानन में प्रदेश सरकार का एक आदेश जारी हो गया .


विशेष सचिव मत्स्य के स्तर से जारी होने वाले आदेश में मुझे छोड़कर बाकी सभी स्टाफ को अन्यत्र पदों पर स्थानांतरित कर दिया गया था और स्पष्ट आदेश था कि चिनहट प्रशिक्षण संस्थान के प्राचार्य/ सहायक निदेशक प्रशिक्षण पद का प्रभार लोक सेवा आयोग से चयनित व्याख्याता के पास अग्रिम आदेशों तक रहेगा . प्राचार्य और व्याख्याता दोनों पद राजपत्रित (समूह ख ) का था किन्तु प्राचार्य का पद मुझसे उच्च वेतनमान का था . इस आदेश को लेकर मेरे उच्च विभागीय अधिकारियों और उनके सलाहकारों के बीच एक लम्बी मंत्रणा की जानकारी मुझे हुयी . और फलस्वरूप जो आदेश मत्स्य निदेशालय से निर्गत हुआ उसमें प्राचार्य पद का दायित्व मंडलीय अधिकारी को दिए जाने का निर्देश था -मुझे जानकारी हुई कि विभागीय अधिकारियों को मुझे एक उच्च पद का प्रभार दिया जाना गंवारा नहीं था . जबकि शासन का आदेश इस संबंध में स्पष्ट था . मैंने प्रतिवेदन भी दिया मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेगीं . यह मेरे कैरियर का एक बड़ा सेट बैक था -मुझे व्याख्याता के पद पर दो से भी अधिक वर्ष कार्य करने का अनुभव भी हो गया था और मुझे प्राचार्य के पद का प्रभार देने का पूरा औचित्य था . मगर विभागीय लोगों की परपीड़नात्मक मनोवृत्ति के चलते यह सम्भव नहीं हुआ . कमीशन से आने के कारण विभागीय प्रोन्नति पाये लोग मुझसे एक द्वेष सा रखते थे। अब मैं कमीशन से चुन कर आया था तो मेरा इसमें क्या दोष था भला ? उनकी कोफ़्त थी कि उनकी विभागीय प्रोन्नति समय से नहीं हुयी तो इसका प्रतिशोध वे शायद अपने तरीके से ले रहे थे . .


केंद्र सरकार का रीजनल सेंटर मय माल असबाब के चिनहट आ पहुंचा . प्रदेश सरकार का सारा साजो सामान मंडलीय कार्यालय ,मत्स्य निदेशालय जहाँ भी जगहं मिली ले जाया गया और प्रादेशिक सरकार का अब चिनहट में कोई अधिपत्य नहीं रह गया . मुझे भी जनपदीय कार्यालय से संबद्ध कर दिया और अब मुझे सप्ताह में तीन दिन के बजाय हर रोज स्कूटर से लखनऊ के जनपदीय मत्स्य कार्यालय में आना जाना पड़ता . घर पर पत्नी सुबह से गए गए मेरा शाम के छह बजे तक व्यग्र इंतज़ार करतीं . यह सिलसिला यही कोई पांच छह माह चला . इसी बीच मैंने फील्ड के कर्मचारियों के कार्य कलाप और दायित्व को निकट से देखा . एक रोचक व्यक्तित्व की याद भूले नहीं भूलती -वे थे निगम साहब ,सुपरवाइजर। वे पूरे लखनऊ शहर को अपनी एक बाबा आदम के ज़माने की साईकिल से खांचते रहते . और बहुत कम समय के लिए आफिस में दिखते . एक दिन उनकी डायरी स्टाफ के हाथ लग गयी तो उसमें तहसील सदर के किस बाबू को कब कब चाय पिलाई, कब कलेक्ट्रेट के किस अर्दली को कितनी बख्शीश दी आदि आदि का पूरा रोजनामचा लिखा मिला और सारा स्टाफ निगम साहब की डायरी पर परिचर्चा में मशगूल हो गया था . मैंने निगम साहब से इसकी चर्चा की तो उन्होंने कहा कि "साहब आप नए हैं, सब जान जायेगें धीरे धीरे .... और यह सब व्यवस्था है " वे अपनी बात चीत में व्यवस्था शब्द का प्रायः उल्लेख करते . वे किस व्यवस्था की बात करते इसका एक असहज अहसास मुझे होने लग गया था .


मुझे पता लगा कि मेरे विश्वविद्यालय के जान पहचान के एक मेधावी छात्र प्रेम नारायण जी
(जी एन झा छात्रावास) उन्ही दिनों मलीहाबाद के उप जिला मजिस्ट्रेट(एस डी एम ) थे . एक दिन मैं सपत्नीक उनसे मिलने गया .तब वे डालीबाग में रहते थे .बड़े उत्साह से वे मिले .उनकी पत्नी भी बड़ी ही मितभाषी और सहृदय थी। हम अक्सर मिलते रहते .मलीहाबाद के असली दशहरी आम जैसे उनके यहाँ खाये और झोले में  भरकर लाये गए वे फिर कभी खाने को नहीं मिले,साईज और स्वाद दोनों में। इस परिवार की आत्मीयता की यादें आज भी मुझे एवं पत्नी को है .आज प्रेम नारायण जी प्रदेश शासन में उच्च पद पर हैं .वे संस्कृत के भी अच्छे ज्ञाता है और शकुंतला के सौंदर्य की चर्चा उन्होंने कालिदास के एक श्लोक ( अनाघ्रतम पुष्पम ......अनाबिद्धं रत्नम ....) से की थी जिसे मैंने उनके सौजन्य से ही तभी कंठस्थ कर लिया था।उनके यहाँ एक एक्वेरियम था जिसे इस पोस्ट के मेरे हीरो निगम साहब द्वारा ही लगाया गया था।  


अभी तक मेरी नौकरी का भविष्य स्पष्ट नहीं था।।केंद्र सरकार में जाना था या प्रदेश सरकार में ही बने रहना था -यह सब बहुत धुंधला धुंधला सा था . मगर अब प्रदेश में मत्स्य व्याख्याता की तो कोई पोस्ट ही नहीं रह गयी थी .शासन के आदेश में चूंकि मेरी पोस्ट समाप्त करने का निर्णय नहीं था इसलिए विभागीय अधिकारी मेरा वेतन देते जा रहे थे . अगर शासन के उक्त आदेश का सहारा न होता तो मेरे विभाग ने तो कब का नोटिस मुझे पकड़ा दिया होता . काश पकड़ा भी दिया होता! मगर मुझे तो अभी आगामी कई दशकों तक मछली के जाल में ही फंस के रह जाना था :-) जारी ....

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

चिनहट का चना सचमुच लोहे का चना बन गया था :-) (सेवा संस्मरण -8)

मेरी  चिनहट पोस्टिंग के दौरान ही कुछ मजेदार वाकये हुए थे जो जब भी याद आते हैं बरबस ही होठों  पर मुस्कराहट आ जाती है।  उन दिनों ही मत्स्य मुख्यालय /निदेशालय पर एक सीनियर  अधिकारी थे -एस  एन सिंह जो अपनी ओर  के ही, बनारस के थे. उन्हें मैंने या किसी और ने यह जानकारी दे दी थी कि तत्कालीन कांग्रेस पार्टी जो उन दिनों उत्तर प्रदेश में सत्ता में थी के  प्रदेश महासचिवों में इंदिरा जी के बड़े विश्वासपात्र और स्वतंत्रता सेनानी देवराज मिश्र जी थे जो पत्नी की ओर से हमारे सगे मामा थे  -सिंह साहब ने मुझे चिनहट से बुलाया -बहुत स्नेह से हालचाल पूछा और खुद को एक मेरे बड़े हितैषी के रूप में प्रस्तुत किया।  इस अहैतुक स्नेह सम्मान की वजह मेरे मामा जी ही थे यह मुझे जल्दी ही समझ में आ गया।  और एक  अवसर भी आ गया जब  उन्होंने मुझसे अपने स्नेह -दुलार का प्रतिदान मांग लिया। 

 उनका अचानक  ट्रांसफर हुआ तो उन्होंने मुझसे मामा जी से हस्तक्षेप के लिए प्रबल आग्रह किया।  मेरे मामा जी (अब दिवंगत ) बहुत धीर गंभीर और एक सहज ही सम्माननीय व्यक्ति थे। मैंने खुद कभी अपनी नौकरी की विसंगतियां उन्हें नहीं बतायी थी जबकि वे अपने लालबाग के निवास से मुझसे और अपनी भांजी (पत्नी) से मिलने सपरिवार आते थे और हम लोग भी छुट्टियों में उनसे मिलने जाते थे।  मुझे उनसे ट्रांसफर जैसे विषय  और वह भी किसी और के, पर बात करने की हिम्मत ही नहीं पड़  रही थी।  सिंह साहब ने जब बहुत आग्रह किया तो मैं  विवश हुआ मगर मामा जी के घर जाने के बजाय उनसे कहा कि चलिए उनसे कांग्रेस पार्टी(पी सी सी आई)  के मुख्यालय पर ही मिल लिया जाय।  वे खुद अपने सरकारी वाहन पर मुझे बिठा कर ले गए मगर खुद  दूर रहे और मुझे मुहिम पर लगा दिया।  

मैं घबराते हुए मामा जी के चैंबर में घुसा मगर वे वहां नहीं थे।  कोई और बैठा था।  मैंने उनसे मामा जी के बारे में दरियाफ्त किया मगर यह जानकारी नहीं मिल सकी कि वे कहाँ हैं? हाँ उन सज्जन ने मुझसे मेरा परिचय पूछा और काम पूछा।  मैंने जैसे ही अपना परिचय उन्हें दिया मेरी  कद्र सहसा ही बढ़ गई ।  उन्होंने कहा कि छोटा सा काम है वे खुद ही विभागीय मंत्री से सिफारिश कर देगें। मामा जी से कहने की क्या जरुरत है। मैं थोड़ा अविश्वास और संकोच से विदा हुआ और रिपोर्ट सिंह साहब को दे दी -उन्हें तो चैन ही नहीं था।  मैं मामा जी से मिल लूं उनका यह आग्रह बराबर बना ही हुआ था। बहरहाल उन्हें यह आश्वस्त कर कि मैं उनसे घर पर मिल लूँगा मैंने उनसे छुट्टी पायी मगर मामा जी के घर गया ही नहीं -चिनहट  लौट आया।  मगर आश्चर्यों का आश्चर्य उनका ट्रांसफर रुक गया था।  

बात आयी गयी हो गयी थी।  सिंह साहब की नज़रों में मैंने अपना और भी बढ़ा हुआ सम्मान देखा था।  एक हप्ते  बाद मैं मामा जी के पास गया।  वे बड़े संयत और मितभाषी थे -मुझे प्यार से बुलाया और जताया कि मैंने उनके मित्र को ट्रांसफर का जो काम सौंपा था वह ठीक नहीं था क्योंकि भले ही विभागीय मंत्र्री के हस्तक्षेप से वह ट्रांसफर  रुका था मगर मंत्री  द्वारा उसका पूरा  अहसान मामा जी पर डाल  दिया गया था।  जबकि मामा जी को तो पूरा प्रकरण ही बाद में पता चला -साफ़ था कि इस ट्रांसफर में मामा जी की अनभिज्ञता में ही उनके रसूख का इस्तेमाल कर लिया गया था।  मुझे बड़ी शर्मिन्दगी सी महसूस हुयी थी और आगे से  ऐसे पचड़े में न पड़ने का संकल्प लिया।  काश मैंने उन दिनों मामा जी के रसूख का इस्तेमाल खुद अपनी सेवा की बेहतरी के लिए किया होता -मगर क्या करूं अपने स्वभाव से मजबूर रहा हूँ! कष्ट सह लो मगर जहाँ तक संभव हो किसी की मदद न लेनी पड़े।  और मेरा यह स्वभाव यह आज भी बना हुआ है - मैं बेहयाई पर उतर ही नहीं पाता :-) 

एक और मजेदार पर घटना घटी। उन्ही दिनों सचिवालय में मत्स्य अनुभाग में सेक्शन आफिसर कोई डी के सिंह थे.. मुझे एस एन  सिंह साहब बिना मतलब सचिवालय भी खींचे  ले जाते और मैंने देखा कि वे तथा अन्य विभागीय अधिकारी तो सेक्शन आफिसर को देवता तुल्य मानते थे।  मेरा ताजा विश्वविद्यालीय खून यहाँ विद्रोही हो उठता।  इस सेक्शन आफिसर में ऐसी कौन सी खूबी थी जो मेरे कुछ  विभागीय अधिकारी उसे देवता सा सम्मान देते थे -हुंह! और मैंने यह देखा था कि सेक्शन आफिसर महोदय बातूनी और गपबाज थे तथा किसी लखनऊ के नवाब से कम रोब  नहीं गांठते थे। मेरे सामने भी जब उन्होंने रोब गांठना शुरू किया तो मेरे चेहरे पर आते अप्रसन्नता के बढ़ते भाव को सिंह साहब ने ताड़ लिया और तुरंत बीच बचाव की मुद्रा अपनाई -"सिंह साहब ये अभी अभी विभाग में आये हैं, इन्हें कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है " किस पद पर हैं ? "अरे वही चिनहट में व्याख्याता के पद पर.."   … "हाँ हाँ पता है मुझे, मगर हम तो इनकी पोस्ट ही खत्म कर रहे हैं " उसने मूझ पर रॉब गांठा। मैं घबराया तो मगर मैंने कहा कि मुझे तो केंद्र में लेने का प्रावधान लीज डीड में है। …. " लीज डीड फाईनल होगी तब न '' एक कुटिल और विकृत हंसी के साथ उन्होंने  जवाब दिया  और तुरंत विषय बदलते हुए सिंह साहब की और मुखातिब होकर कहा कि सिंह साहब चिनहट में बहुत अच्छा चना मिलता है।  मुझे दस किलो चना चाहिए।  मैं निरुत्तर रहा।
सेक्शन आफीसर के कक्ष से बाहर आते ही सिंह साहब ने मेरा मन टटोलना चाहा -अरे यार देख लो चिनहट में चना मिलता हो तो मेरे यहाँ पहुंचा दो मैं उसे  भिजवा दूंगा। परन्तु  मेरे चेहरे के खिचाव को देखकर उन्होंने तुरंत कहा चलो मैं पैसे  दे दूंगा " मैं उबल ही तो पड़ा- "नहीं सर, यह सब अपेक्षा मुझसे मत करिए।"   और इतना क्षुब्ध हुआ कि उस दिन चिनहट न जाकर मामा जी के घर पहुंचा और चने की बात उन्हें बता दी।  वे चुप रहे केवल एक बार पूछा क्या नाम है सेक्शन आफीसर का -मैंने बता दिया।  उस दिन मैं चिनहट देर से  लौटा -देर से लौटने का कारण पत्नी को बताया।  इस घटना के तीसरे रोज हम फिर मामा जी के यहाँ गए।  उन्होने ताजी जानकारी दी कि विभागीय मंत्री ने सचिवालय प्रशासन के सचिव को उस सेक्शन आफीसर को हटाने का निर्देश दे दिया है।  मेरे लिए यह मजेदार खबर थी। चिनहट के चने सेक्शन आफिसर के लिए लोहे के चने बन चुके थे। :-)  
अब इस खबर को साझा करने को मैं व्यग्र था।  सुबह सीधे निदेशालय पहुंचा, सिंह साहब के कक्ष में. आव न ताव मैंने उन्हें  यह खबर सुना ही तो दी।  पैरो तलें जमीन खिसकना मुहावरा तो सुना था मगर उसे साक्षात पहली बार व्यवहार में आते देखा। सिंह साहब उछल कर खड़े हो गए।  मेज की घंटी बजायी। गाडी लगवाई और मुझे लगभग खींचते हुए सचिवालय ले जा पहुंचे -मैं बार बार कहता रहा कि मुझे  क्यों ले जा रहे हैं मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी।  ले जाकर सेक्शन आफीसर के सामने मुझे खड़ा कर दिया।  और कहा ये मिश्रा जी कह रहे हैं, तुम्हारा ट्रांसफर होने वाला है।  यह सुनकर उनके चेहरे की रंगत उड़ गयी मगर तुरंत संभल कर लगे  अनाप शनाप बोलने ,ट्रांसफर कराने वाले की ऐसी तैसी कर देगें,कब्र में गाड़ देंगे। ..   आदि आदि। उन्हें तो विश्वास ही नहीं था उस खबर पर।  और तभी ट्रांसफर आर्डर भी  हम लोगों के सामने ही आ पहुंचा -अब जनाब  भीगी बिल्ली  बन चुके थे -वहीं लगे सिंह साहब के सामने गिडगिडाने। कुछ कीजिये, कुछ कीजिये।  तभी किसी ने खबर दी कि सिंह साहब का भी  ट्रांसफर फिर से हो गया था।  अब वे दोनों एक ही नाव में सवार हो गए थे और डूबती नैया को बचाने की जुगत में लग गए और मैं मौका देखकर वहां से खिसक लिया। इस बार सिंह साहब और सेक्शन आफिसर का ट्रांसफर नहीं रुका था। .चिनहट का चना सचमुच लोहे का चना बन गया था :-) … जारी! 

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

क्या सचमुच भाग्य से अधिक और समय से पहले कुछ नहीं मिलता?( सेवा संस्मरण-7)

चिनहट में नौकरी के दिन मेरे जीवन के सबसे सृजनात्मक दिन थे . अपनी पहली विज्ञान कथा  गुरु दक्षिणा मैंने यहीं  लिखी जिसमें एक रोबोट में मानवीय संवेदना का प्रस्फुटन सहसा हो जाता है . उन दिनों मेरे चिनहट आवास पर सृजनकर्मियों का आना जाना लगा रहता था . कुछ मीन भोजी लोग भी आते . घर पर तो मीन -व्यंजन बन नहीं पाते थे तो उनकी व्यवस्था अलग से की जाती . तभी मैंने यह जान लिया था कि किसी मत्स्य प्रेमी को मत्स्य भोज पर आमंत्रित कर उसका दिल जीता जा सकता है . हो सकता है "आमाशय से दिल तक पहुँचने'' की कहावत मत्स्याहार -व्यंजनों के चलते ही वजूद में आयी हो :-) . और कोई बंगाली मोशाय हों तो फिर पूछिए ही मत -उनका तो मत्स्य प्रेम जग विख्यात है .

मेरे क्लासफेलो और कभी रूम मेट रहे तब किंग्स जार्ज में एम डी कर रहे डॉ राम अशीष वर्मा अक्सर अपने डाक्टर मित्रों के साथ मीन भोज पर आते और तृप्त होकर जाते . दोस्त की यह तृप्ति मुझे संतृप्त करती . देवेन्द्र मेवाड़ी जैसे जाने माने विज्ञान लेखक ने मेरे चिनहट आवास को आकर धन्य किया . उन्ही दिनों ज्ञानी जैल सिंह जी राष्ट्रपति थे और वे लखनऊ में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने आये . अमृत प्रभात ने मुझे इस कार्यक्रम को कवरेज के लिए मानदेय का एक आकर्षक 'पैकेज' भी आफर किया था . मैंने अपने कई विश्वविद्यालय मित्रों को इस अवसर पर बुलाया और भव्य उद्घाटन के अलावा अन्य सेशन में उनका प्रतिभाग सुनिश्चित कराया . क्या दिन थे वे? .नौकरी पर तलवार भले लटक रही थी मगर दिन बहुत सुनहले थे और ख्वाहिशों को पंख लग गए थे . नैतिक उत्साह का पारावार नहीं था . 
उन्ही दिनों ही मुझे अपनी पी एच डी सबमिट करने हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाना पड़ा -दो माह का अवकाश लिया और विश्वविद्यालय जीवन में फिर लौटा . एक दिन मुझे इन्डियन कौंसिल आम मेडिकल सायिन्सेज (आई सी ऍम आर ) के प्रकाशन विभाग से सहायक सम्पादक/वैज्ञानिक अधिकारी पद का इंटरव्यू पत्र मिला तब याद आया कि इस पद हेतु भी मैंने आवेदन किया था . मेरे कई लोकप्रिय विज्ञान लेख तब तक प्रकाशित हो चुके थे . इसी पद के लिए मेरे एक सीनियर डॉ विजय कुमार श्रीवास्तव जी को भी साक्षात्कार का बुलावा आया था . इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राणि शास्त्र विभाग में 1 9 78 से 1 9 8 2 के कालखंड में विज्ञान के लोकप्रियकरण की एक अलख मैंने जगायी थी और मात्र संयोग नहीं है कि आज दिल्ली में विज्ञानं लेखन की कई नामचीन हस्तियाँ इसी कालखंड में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राणी शास्त्र विभाग में अध्ययनरत थीं .

डॉ विजय कुमार श्रीवास्तव जी यह आश्वस्त होना चाह रहे थे कि मैं इस इंटरव्यू में जाऊँगा या नहीं और इसके उपरान्त ही वे खुद अपने प्रतिभाग के बारे में निर्णय ले पाते .उन्होंने अपने बैच मेट डॉ. जगदीप सक्सेना जो मेरे गुरु भाई थे और एक साल के सीनियर थे को यह दायित्व दिया कि वे मुझसे यह पुख्ता जानकारी लेकर उन्हें दें -मैं चूँकि साक्षात्कार में उनके बैचमेट और मित्र का एक पोटेंशिअल कम्पटीटर था तो  इस मामले में डॉ विजय कुमार श्रीवास्तव जी पूरी तरह मुतमईन हो जाना चाहते थे .  डॉ जगदीप सक्सेना जी  खुद मुझसे प्रेरित हो उन दिनो विज्ञान लेखन में छिट पुट हाथ आजमा रहे थे।  उन्होंने  मेरा मन टटोला कि क्या मैं उक्त इंटरव्यू में जाऊंगा . मैंने पता नहीं किस खयामख्याली में आकर उस इंटरव्यू में न जाने का फरमान सुना कर उनके मित्र को अभयदान दे दिया-डॉ विजय जी निर्द्वन्द्व होकर साक्षात्कार के लिए गए और चुने भी  गये. आज वे पब्लिकेशन डिवीजन के सर्वे सर्वा हैं -डाईरेक्टर जनरल, पब्लिकेशन डिवीजन,आयी सी एम आर . कभी कभी सोचता हूँ आखिर क्यों मैंने उस इंटरव्यू में न जाने का मूर्खतापूर्ण निर्णय लिया था?
दो स्पष्ट कारण थे -कई मित्रों ने बरगलाया था कि पब्लिक सर्विस कमीशन से राजपत्रित पद पर चयन के फलस्वरूप मेरी प्रोन्नति की काफी संभावनाएं थीं . दूसरा कारण मेरा खुद का ईजाद किया हुआ एक दिमागी फितूर था . वह यह कि मुझे ऐसा आभास होता था कि एक मनुष्य को जीवन के दौरान कई समझौते करने पड़ सकते हैं . तो मैं अपने शौक-लोकप्रिय विज्ञान  लेखन के साथ समझौते न करने का दृढ निश्चय किया और इस निर्णय पर जा पहुंचा कि अगर मैं विज्ञान लेखन को अपनी जीविका का साधन बनता हूँ तो बहुत संभव है मुझे कई समझौते ऐसे करने पड़े जो मेरे जमीर (? ) को गंवारा न हों . हाँ जीविकोपार्जन के लिए कोई अन्य नौकरी हुयी तो समझौते किये भी जा सकेगें . सो मैंने मोहकमाये मछलियान को जीविकोपार्जन के लिए चुना और लोकप्रिय विज्ञान लेखन के शौक को बोले तो अपना जीवन आधार। मगर यह मेरी एक नासमझी  ही थी-हाबी में भी समझौते करने पड़ते हैं और जीविकोपार्जन के लिए नौकरी में  भी . तब विज्ञान लेखन का ही कैरियर क्या बुरा था?
मैं यह मानता हूँ कि मुझमें सही वक्त पर सही निर्णय लेने की क्षमता कभी नहीं रही . और इस अक्षमता का परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है . मैं भाग्य और भवितव्यता में कतई विश्वास नहीं करता मगर हाँ सही मौके पर सही निर्णय न लेने से उत्पन्न दुर्संयोगों की संभावना से इनकार कैसे किया जा सकता है? .और लोगों के जीवन में ऐसे ही दुर्संयोगों के चलते ही "भाग्य से अधिक और समय से पहले  कुछ नहीं मिलता" जैसी चतुरता भरी उक्ति का बोलबाला बना हुआ है . देखिये भाग्य और भवितव्यता से मेरी आँख मिचौली कब तक चलती है! :-) जारी ....

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

' क्या सर, पैसा ही सब कुछ होता है जीवन में? " - सेवाकाल के तीन दशक (संस्मरण -6)

मेरे मीडिया मित्र ने अशोक मार्ग के अमर उजाला दफ्तर के सामने रुकने का इशारा किया और स्कूटर से उतरते ही मुझे गेट पर रोकते हुए खुद तीर की तरह अंदर घुस गए . माजरा मेरे समझ में ही नहीं आ रहा था . बहरहाल कुछ पलों के ही बाद वे एक विजेता की मुद्रा में बाहर निकले और हाथ में लिए कागज़ के टुकड़ों को श्रेडर मशीन से भी अधिक बारीक फाड़ते रहे -बुदबुदाए, लीजिये आपकी रिपोर्ट का काम तमाम ! मैंने प्रश्नवाचक की निगाह से देखा। मुझे समझाते हुए बोले कि ये वही कागज़ थे जिन्हें मैंने उन्हें सौंपा था . "..रिकार्ड रूम से जाकर निकाल लाया हूँ और इसके महीन टुकडे मेरी हाथ में हैं और कूड़े में चले जायेगें . अब आप बेफिक्र होकर जाईये और अपने निदेशक से कहिये कि जो खबर छपी उससे आपका कुछ लेना देना नहीं है . मैं इसलिए घबरा रहा था कि आपकी हैण्डराइटिंग में पूरी रिपोर्ट अखबार के रिकार्ड रूम में थी और अब मामला तूल पकड़ता जा रहा है तो आपका नुकसान हो सकता था .अब कोई चिंता की बात नहीं बेफिक्र होकर जाईये . " मैं अब जाकर उनकी बात के मर्म को समझ रहा था . बहरहाल मैंने उने शुक्रिया कहा और निदेशक मत्स्य से मिलने के पहले मैं उनसे नीचे के अधिकारी उप निदेशक मत्स्य आर एन वहल के पास पहुंचा . आर एन वहल साहब ने देखते ही पूछा कि अखबार में छपी रिपोर्ट का मसला क्या है और क्या तुमने वह खबर छपवाई है ? मैंने उनसे ऊपर की दास्तान सच सच बता दी और अनुरोध किया कि सर यह तो मैंने आपसे अनौपचारिक रूप से सच सच बता दिया मगर आप लिखित मांगेंगे तो मेरा जवाब यही रहेगा कि कथित खबर से मेरा कोई सरोकार नहीं है . वे किंचित दुविधा में दिखे मगर फिर मुझे अभयदान दे दिया और कहा कि अब किसी से भी यही कहना कि तुमसे उस खबर का कोई सम्बन्ध नहीं है .उन्होंने ऐसा ही तत्कालीन निदेशक से भी सम्भवतः बता दिया था क्योंकि फिर मुझसे कोई पूछताछ नहीं हुयी . ..
हाँ उस खबर से लीज डीड को फाईनल कराने की गतिविधियाँ तेज हो गयीं . मगर केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान मुम्बई के पदाधिकारी कुछ मीन मेख निकालते जाते और लीज डीड को अंतिम रूप देना टलता रहा . उन्ही दिनों जैसा कि मुझे याद है बलराम जाखड जी कृषि के केन्द्रीय मंत्री थे और उन्हें केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान मुम्बई वालों ने पकड़ा और जो कुछ भी कहा हो उनके द्वारा उत्तर प्रदेश में मत्स्य विकास की एक भव्य गोष्ठी रखवाई गयी और उस समय के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी जी से उदघाटन करवाया गया -अपने लिखित भाषण में मुख्यमंत्री जी ने चिनहट मत्स्य प्रक्षेत्र को केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान मुम्बई के रीजनल सेंटर को देने की उद्घोषणा कर दी . तब तो नहीं, नौकरी के कई वर्षों बाद मुझे मुख्यमंत्री जी द्वारा की गयी घोषणाओं के महत्व का पता चला .उनका उच्च स्तर पर बाकायदा अनुश्रवण किया जाता है और अनुपालन सर्वोच्च प्राथमिकता पर सुनिश्चित किया जाता है .
लोग मुझे बधाईयाँ दे रहे थे कि चलिए मेरा पिंड राज्य सरकार से छूटा और मैं अब केन्द्रीय सरकार का कर्मी बन जाऊँगा . मुख्यालय के मेरे अधिकारी के डी पाण्डेय जी जिनका जिक्र पहले आ गया है ने भी कहा चलो तुम्हारा वेतन भी अब बढ़ जायेगा। मुझे अच्छी तरह याद है मैंने इस बात पर अपनी अप्रसन्नता को छुपाते हुए उनसे एक मासूम सा सवाल कर डाला था, ' क्या सर पैसा ही सब कुछ होता है जीवन में " मुझे याद है उनके चेहरे पर एक खिसियाहट उभर आयी थी और तिक्त स्वरों में उनका जवाब था 'हां पैसा ही होता है, यह तुम आज नहीं तो कभी समझ जाओगे " .सच कहिये तो मैं आज तक श्री पाण्डेय जी की बात के मर्म को समझने में लगा हुआ हूँ और कोई फैसला नहीं कर पाया हूँ ,. कभी लगता है हाँ पैसा ही सब कुछ है मगर तभी कुछ ऐसा घट जाता है कि पैसा एकदम से महत्वहीन लगने लगता है . हाँ, अब तक के जीवन में इस द्वंद्व ने मुझमें पैसे के प्रति एक विक्षोभ सा उत्पन्न कर रखा है .और यह स्थाई भाव मेरे जीवन को कई तरह से प्रभावित करता रहा है . मुझे अतिशय मुद्रा प्रेमी मनुष्य होमो सेपियेंस से कोई हेय प्रजाति के से लगते हैं . संभव है यह लक्ष्मी कृपा से चिर वंचित होने का मेरा छुपा नैराश्य भी हो सकता है . कह नहीं सकता!
मैं सच कहता हूँ मुझे केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान में जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी और इसका एक बड़ा कारण था मेरी होम सिकनेस . अपने पैतृक प्रदेश में नौकरी और मूल वास स्थान तक छठे छमासे होते रहना मुझे बेहतर लगता था न कि केन्द्रीय सेवा में जाकर भारत के किसी कोने में दुबक जाना . एक केन्द्रीय सेवा के इंटरव्यू काल में मैं एक अन्य कारण से भी नहीं गया था . इसकी चर्चा अगली बार ......

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या.....(तीन दशकीय सेवा संस्मरण- 5)

मुबई से लौटा तो एक अच्छी खबर मेरा इंतज़ार कर रही थी .प्रदेश शासन ने एक अनंतिम लीज डीड (अनुबंध ) तैयार कर लिया था जिस पर उभय पक्षों यानि राज्य और केंद्र सरकारों के सम्बन्धित नुमाइन्दों के दस्तखत के बाद ही चिनहट के राज्य मत्स्य प्रशिक्षण संस्थान का हस्तांतरण होना था . मुझे केंद्र सरकार के प्रशिक्षण केंद्र में आमेलित करने की भी शर्त रख दी गई थी . बड़ी राहत हुई -नौकरी पर लटकती तलवार हटती दिखी . मैंने लीज डीड जो आज तक अंतिम नहीं हो पाई है को गहराई से देखा जिसमें चिनहट प्रशिक्षण संस्थान के कई हेक्टेयर क्षेत्र जिसमें एक खूबसूरत झील (कठौता ताल)भी शामिल थी को भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद(आई सी ऐ आर ) के अधीन केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान (सी आई ऍफ़ ई ) के क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान(आर टी आई) आगरा को कुछ हलके फुल्के प्रतिबंधों/ शर्तों के अधीन देने का प्रावधान था . इसके पीछे का इतिहास यह था कि सेवा निवृत्त होने वाले एक मत्स्य निदेशक ने अपनी प्रदेश सेवा के उपरान्त भी नौकरी करने की लालसा से एक भले पूरे प्रशिक्षण संस्थान के वजूद को मिटा कर इसे केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान को देकर वहां प्रोफ़ेसर का पद हथियाना चाहा था और ऐसा प्रस्ताव कर डाला था . उनके प्रस्ताव को मूर्त रूप लेने में विलम्ब होने से उनकी मनोकामना तो पूरी नहीं हुयी मगर चिनहट प्रशिक्षण संस्थान की स्थिति तो डावांडोल हो ही गई . मुझे भीतर भीतर तो यह सब बहुत बुरा लग रहा था मगर करता भी तो क्या? कौन सुनता अरण्य रोदन?
आखिर एक दिन मेरी क्रिएटिव लेखकीय क्षमता ने जोर मारा और मैंने अपना प्रतिवाद कुछ पन्नों पर उकेर लिया . एक साँस में ही मानो मैंने अपने आक्रोश को व्यक्त कर डाला हो . मन हल्का हुआ . और वह कच्चा चिटठा मैंने अपने स्टडी मेज पर रख दिया -लिख तो डाला था मगर यह अभी रफ आलेख्य के रूप में था और समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या करूँ ? सो वह मेरी मेज के एक हिस्से में पड़ा रह गया . उन्ही दिनों मेरे एक मीडिया मित्र ( उफ़ नाम याद नहीं रहा ) चिनहट की चाय के बहाने मुझसे मिलने आये . मीडिया के मित्रों से तब मेरी बड़ी घनिष्ठता हुआ करती थी . सरकारी नौकरी की आचार संहिता के चलते अब उनसे एक अनचाही दूरी हो गयी है .मगर फिर भी अभी कुछ मित्र मुझे मौके बेमौके पत्रकार ही कह देते हैं . एक दिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विख्यात प्रोफ़ेसर डॉ दीनानाथ शुक्ल ने ही कई लोगों के सामने मुझे पत्रकार कह ही दिया .बड़ी असहज स्थिति हो गयी थी .बहरहाल चिनहट पर लौटते हैं . मैंने चाय के दौरान अपने मित्र को स्टडी मेज पर उपेक्षित पड़े चिनहट वृत्तान्त को उन्हें सौंप दिया और कहा कि इसे इत्मीनान से पढ़ लीजियेगा और बताईयेगा . मेरा यह सोचना था कि वे महानुभाव उसे पढ़कर मुझसे कुछ विचार विमर्श करेगें और तब आगे की कोई कार्ययोजना बनेगी . मगर होना तो कुछ बहुत ही अप्रत्याशित था ...
सुबह उठते ही लखनऊ के एक तत्कालीन प्रमुख समाचार पत्र अमर उजाला के मुख्य पृष्ठ पर ही "मत्स्य विभाग में बह रही है उल्टी गंगा " शीर्षक समाचार देख मैं चौक पड़ा . अरे यह तो सब मेरे ही लिखे शब्द दर शब्द थे . मुझे काटो तो खून नहीं . मीडिया मित्र ने विश्वास का धोखा दे दिया था . तब न तो घर पर फोन था और न मोबाईल . मुझे उनके इस हरकत पर क्रोध था और डर भी लग रहा था कि अब क्या होगा . तब खबरे जंगल में आग की तरह ही हुआ करती थीं . लपट मुझ तक बस पहुँचने ही वाली थी . और आफिस पहुंचते पहुंचते प्राचार्य का सन्देश मिल ही गया कि मुझे निदेशक मत्स्य ने बुलाया है . मगर उनसे मिल ने के पहले मैंने पत्रकार मित्र से मिलकर उन्हें उलाहना देने का निर्णय लिया . स्कूटर उठायी और उनके इंदिरा आवास स्थित घर पूछते पाछते पहुंचा . मुझे देखते ही उनके चेहरे पर कुछ आवाभगत तो कुछ प्रतिकार के मिले जुले विचित्र से भाव उभरे -दुआ सलाम के बाद मैंने अपनी अप्रसन्नता उनसे व्यक्त की और कहा कि मेरी रिपोर्ट को खबर के रूप में छापने के पहले महराज कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता . उनका जवाब था -''मिश्रा जी वह एक इतनी मुकम्मल रिपोर्ट थी ,कामा फुलस्टाप दुरुस्त कि बस मैंने केवल शीर्षक बदला और अपने मुख्य संपादक को दे दिया . और उन्होंने भी तुरंत उसे छपने की अनुमति दे दी . अब घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ? मैंने तो अखबार देखा नहीं ..तो आज छप गयी वह खबर .......'? " हाँ महराज और वह भी मुख्यपृष्ठ पर ....और मैं निदेशक महोदय द्वारा तलब कर लिया गया हूँ . मेरा वाक्य पूरा होते ही वे स्प्रिंग की तरह उछले और तुरंत घर में घुस गए . मैं कुछ समझ पाता तब तक वे पैंट शर्ट पहने निकले और बोले तुरंत अमर उजाला दफ्तर चलिए . आखिर क्यों ? बस चलते रहिये उनका कमांड था .....जारी .....

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

नौकरी के तीन दशक -संस्मरण श्रृंखला

विश्वविद्यालय से तुरंत निकलने वाले को पढ़ने पढ़ाने का काम मिल जाय तो क्या कहने . वैसे भी मेरी अकादमीय रूचि भी थी तो जब प्रशिक्षण संस्थान के छात्रों को मत्स्य विज्ञान पढ़ाने का मौका मिला तो मन रम गया . उन्हें पढ़ाने के पहले मैं भी विषयों का गहन अध्ययन करता और फिर यथा संभव विषय को रोचक और सरल बनाने का प्रयत्न करता . फिर भी मैं देखता था कि कुछ प्रशिक्षार्थी पढने में तनिक भी रूचि नहीं लेते थे और वे ऐसे लोग थे जिन्हें विभागीय प्रशिक्षण के लिए तब भेजा गया था जब वे रिटायर्मेंट के करीब पहुँच चुके थे . मुझे नहीं लगता कि ऐसे उम्र वाले विभागीय लोगों को प्रशिक्षण देने का कोई लाभ भी है . 
बहरहाल सप्ताह में तीन व्याख्यान का मेरा कार्य समुचित तरीके से चल रहा था . एक दिन प्राचार्य ऐ .के . राय ने बुलाया और जो कुछ भी कहा उससे मैं स्तब्ध रह गया . उन्होंने कहा कि संस्थान को केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान मुम्बई जो आयी सी ऐ आर का उपक्रम है के द्वारा अधिगृहीत किया जाने वाला है . मैंने छूटते ही पूछा फिर यहाँ के स्टाफ का क्या होगा? उन्होंने कहा कि हम लोगों की तैनाती तो फील्ड में कर दी जायेगी मगर आपकी तो कोई पोस्ट ही मैदान में नहीं है आपकी सेवाएँ समाप्त भी हो सकती हैं . मेरा दिल धक से रह गया .
मैं यह समझ नहीं पा रहा था कि कमीशन से नियुक्ति पाए व्यक्ति को इतनी आसानी से सेवा मुक्त कैसे किया जा सकता है .
 लोगों ने कहा कि अपना नियुक्ति पत्र देखिये। हाँ, मेरे नियुक्ति पत्र में यह था कि उभयपक्ष (मैं या सरकार) तीन महीने की नोटिस देकर नौकरी से अलग हो सकते हैं . बैठे बिठाये एक मुसीबत आ खडी हुई थी . मैंने इस बिंदु पर विद्वानों और वकीलों की राय लेना शुरू कर दिया और अपने विभाग के तत्कालीन सचिव को संभावित स्थिति में मुझे भी केंद्र सरकार में आमेलित कर लेने की प्रार्थना आवेदित की और अपने तत्कालीन निदेशक ऐ के सिंह से मिला . उन्हें मेरी नौकरी छिनने की समस्या का अहसास था . उन्होंने कहा कि केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान मुम्बई के निदेशक से वे बात करेगें .
एक नौकरी  मिली भी तो दुनिया भर की फजीहत शुरू हो गयी थी . और  नौकरी भी ऐसे ही मिल गयी थी .  कोई संघर्ष तो किया नहीं था मैंने. मगर नौकरी जाने की सोच मन दुखी हो जाता . पढ़ने पढ़ाने की मेरे मन की नौकरी थी .और वैसे भी मेरी हाबी थी आम आदमी के लिए /लायक विज्ञान विषयक लेख लिखना . तो इस नौकरी से जो कुछ भी मिलता  वह मंजूर था . मुझे अपनी हाबी बनाए / बचाए रखने का भी यहाँ मौका था . लोकप्रिय विज्ञान लेखन में उस समय मेरा नाम लोग जानने लग गए थे . सोचा तो यह था कि एक अदद नौकरी  होगी और मेरी हाबी भी चलती रहेगी। मगर अब ये सारे हवाई किले ध्वस्त होने जा रहे थे . 
ऐसे ही उहापोह के  दिन कट रहे थे तभी एक दिन मुझे निदेशक मत्स्य का सन्देश मिला कि तुरंत मिलो । लगा कि फैसले की घड़ी आ गयी। दुश्चिन्ताग्रस्त मैं भागा भागा निदेशालय पहुंचा। निदेशक के कक्ष में पहुंचते ही उन्होंने मुझे कहा कि अमुक तारीख को मुम्बई के केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान में मेरे समतुल्य एक पद का इंटरव्यू है और उनकी बात संस्थान के निदेशक श्री एस एन द्विवेदी से हो गयी है और वे तुम्हे साक्षात्कार में शामिल कर लेगें . मैंने कहा कि उक्त पद के लिए मैंने तो अप्लाई ही नहीं किया है , उन्होंने घुड़कते हुए कहा कि कह तो दिया कि उनसे मेरी बात हो गयी है .
कोई आशा की किरण तो दिखी .मैंने मुबई(तब बम्बई) जाने का फैसला किया . किसी महानगर में जाने का यह मेरा पहला अवसर था . और वह भी मुम्बई . मैं रोमांचित भी था और आशंकित भी कि पता नहीं क्या होगा . उस समय मेरे डिप्टी डाइरेक्टर थे श्री आर एन वहल . उन्होंने मुझे मुम्बई जाने की पूरी ट्रेनिंग दी -दादर माने जानते हो? दादर माने सीढी . तुम दादर में ही उतर कर सीढी से बिल्कुल विपरीत दिशा में लौटना और तब तुम्हे अंधेरी के लिए लोकल ट्रेन मिलेगी -लोकल ट्रेनें दनादन छूटती हैं इसलिए कोई छूट जाय तो परेशान मत होना दूसरी आ जायेगी मगर वहां ट्रेने एक मिनट भी नहीं रुकतीं इसलिए फुर्ती मगर सावधानी से चढ़ना . अंधेरी उतर कर ऑटो कर सेवेन बंगलो पहुंचना जो वर्सोवा में है और वहीं केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान पूछ लेना . एक अभिवावक की तरह उन्होंने मुझे यह पाठ अच्छी तरह पढ़ा दिया . ट्रेन में ही मेरे डिब्बे में एक और आवेदक उसी पद के लिए मिल गए .एक से भले भले दो! यहाँ मैं मुम्बई की अपनी पहली यात्रा की दास्तान को मुलतवी कर आगे बढ़ता हूँ .
संस्थान में पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं हुयी . मैं उसी दिन पहुंचा जब इंटरव्यू था . मैंने निदेशक को अर्जी दी . थोड़ी देर में उन्होंने बुलाया . आने का हेतु पूछा . मैंने तन कर जवाब दिया , आपकी निदेशक मत्स्य उत्तर प्रदेश से बात हुयी थी उसी सिलसिले में आया हुआ हूँ . उन्होंने चेहरे को भावशून्य रख फिर पूछा कि मकसद क्या है . मैंने चिनहट के प्रादेशिक संस्थान के टेक ओवर की स्थिति में खुद को आमेलित करने की बात का हवाला दिया और कहा कि आपने आज होने वाले इंटरव्यू में मुझे निदेशक मत्स्य उत्तर प्रदेश से कहकर बुलवाया है . इतना सुनते ही वे आग बबूला हो उठे-कहा कि क्या मैंने  इस पद के लिए अप्लाई किया है? . मैंने कहा नहीं, मगर निदेशक से आपकी बात .....वे फिर झुझलाये - बिना आवेदन के आपका साक्षात्कार कैसे हो सकता है . मैंने स्पष्ट जवाब दिया यह आप जानें और मेरे निदेशक।। मुझे क्रोध आ रहा था (मेरी कमजोरी) -कि इतनी दूर बुलवा लिया और अब यह कन्फ्यूजन . मेरे निदेशक और इनमें कोई न कोई फाऊल प्ले तो कर रहा था . उन्होंने कहा वेटिंग लाउंज में जाकर बैठिये .
आश्चर्य, इंटरव्यू के लिए मेरा नाम पुकारा गया . इंटरव्यू में सरल सरल सवाल पूछे गए . मसलन मुम्बई में कौन सागर है अदि आदि . मुझे याद है मैं अपने तमाम रिश्तेदारों के आग्रह के बाद भी वहां रुका नहीं था . हाँ चौपाटी, जुहू घूमा . तारापोरवाला  का विशाल ऐक्वेरियम देखा और रात की गाडी से घर वापस हो चला . मेरे साथ इंटरव्यू देने वाले सहयात्री भी बिना रिजर्वेशन मेरे भरोसे साथ हो लिए थे . और रास्ते भर दायाँ बाजू बायाँ बाजू बोलते आ रहे थे -हद है केवल एक दिन में ही वे बंबईया बोली बोलने लगे थे . हममें से ज्यादातर लोगों के सांस्कृतिक संस्कार ऐसे ही हैं -अपनी भाषा बोली भी चमक दमक के आगे फीकी पड़ जाती है . मैंने उन्हें बम्बईया बोलने से टोका भी मगर उनका दायाँ बाजू बायाँ बाजू बदस्तूर जारी रहा जैसे यह उनकी जुबान पर चढ़ गया हो ...
जारी .....

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

और ज़िंदगी चल पडी .....(नौकरी के तीस वर्ष-श्रृंखला )

चिनहट में 'सादा जीवन उच्च विचार' का सिद्धांत परिस्थितियोंवश ही सही व्यवहार में आ गया था। पत्नी भी खुश थीं . रोटी कपडा और रहने को एक मकान - इस दुनियां में भला और क्या चाहिए? ज़िंदगी चल पड़ी थी . मेरे एक रिश्तेदार जो इंजीनियर थे और ज़ाहिर है समाज में उनका मान सम्मान मुझसे कहीं ज्यादा रहा है -यह सुनकर कि मुझे रहने को सरकारी मकान मिल गया है और हम चैन की वंशी बजा रहे हैं तो अगली लखनऊ मीटिंग के बाद असलियत जानने ही आ पहुंचे -उन्हें किंचित  भरोसा न था . हमने उनकी प्रथम अतिथि के रूप में देवोपम आवाभगत की -अब वे जब भी लखनऊ आते तो सीधे चिनहट आ जाते और यह अवसर महीने में एक बार तो आता ही कभी कभी दो बार भी. वे पता नहीं एक लम्बी सांस लेकर क्यों कहते अब तो आपका सब काम ही फिट हो गया . . अब यहीं आप जमीन ले लेगें और मकान बन जाएगा और यही आराम से रहते एक दिन आप इस संस्थान के प्राचार्य भी बन जायेगें - मैं इस दुनियादारी की बात समझ न पाता और जमीन जायदाद के पचड़े में तो मैं पड़ा ही नहीं कभी .
हर सप्ताह केवल तीन लेक्चर लेने होते थे . दूसरे व्याख्याता आर सी श्रीवास्तव जी थे जो रिटायरमेंट के कगार पर थे और अनुभवों का बड़ा जखीरा उनके पास था . मैं बुजुर्ग होने के नाते और उनके व्यावहारिक ज्ञान के कारण उनकी बड़ी कद्र करता था .संस्थान के प्राचार्य ऐ के राय साहब बंगाली भद्र पुरुष थे और ईमानदार थे. मुझे सरकारी नौकरी की तमाम बातों को बताते . अब चूँकि चिकित्सा के पुश्तैनी धंधे वाले परिवार से पहले सदस्य के रूप में मैं सरकारी नौकरी में आया था तो मुझे इन सीखों की बड़ी आवश्यकता सी लगती थी . जबकि खुद के अनुभव ने सिखाया कि कोई नौकरी हो सरकार की या किसी की भी -नौकरी चाकरी ही है -आप स्वतंत्र नहीं है और फन्ने खां नहीं बनना चाहिए . सबते सेवक धरम कठोरा! सेवक तो सेवक ! उसे मालिक बंनने के उपक्रम नहीं करने चाहिए . और अगर सेवकाई रास नहीं आ रही है तो सरकारी सुख सुविधाओं का त्याग कर सार्वजनिक जीवन में आकर अपनी किस्मत आजमानी चाहिए . यह मैं आज कह रहा हूँ -जबकि मैंने भी सेवा के दौरान कई बार इस विवेक को खोया और हर बार यही सीख पाया हूँ .
मुझमें भौतिकता के प्रति कोई लगाव नहीं रहा है -ऐसा बचपन से नहीं है बल्कि किशोरावस्था से ही मुझे चमक दमक, गाडी घोडा, वैभव भरी जिन्दगी से अरुचि रही है -मैंने कभी किसी से अपनी सुख सुविधा के लिए कुछ नहीं माँगा है -आज तक उधार तो किसी से लिया ही नहीं भले ही मुसीबतें झेल ली हैं . यह अकारण नहीं है बल्कि एक समृद्ध परिवार में परवरिश ने मुझमें किसी भी चीज की 'हाही' उत्पन्न नहीं होने दी थी ...चेतक स्कूटर था हमारे पास और उस पर नवविवाहिता पत्नी को बिठा चिनहट से पंद्रह किलोमीटर दूर लखनऊ शहर -हजरतगंज ,अमीनाबाद हर हप्ते के दो तीन दिन तो जरुर ही घूमता था -अनगनित फिल्म देखता रहा . कभी कभी तो रात नौ दस बजे लौट पाता -मुझे आश्चर्य है कि तब इतना अपराध भी नहीं था . रात होते ही लखनऊ से बाराबंकी रोड तब वीरान सी होने लगती थी . लखनऊ -चिनहट के मध्य में हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड का कारखाना (एच ऐ एल ) पड़ता था -यहाँ तक तो कुछ प्रकाश भी रहता मगर आगे बढ़ते ही घुप अँधेरा और हमारी हिमाकत देखिये कि ऐसे हालत में पत्नी को बिठाये हम चिनहट और वहां से तीन किलोमीटर और दूर मत्स्य प्रशिक्षण संस्थान की निपट वीरान सड़क और घर पहुँचने के ठीक पहले के कब्रिस्तान से गुजरते थे -सच है मूर्खता में अतिशय वीरता भी छुपी होती है ! :-)
एक रात अप्रत्याशित घटना हो ही गयी . अभी हम आधे रास्ते यानि गंतव्य से आठ नौ किलोमीटर दूर ही रहे होंगे कि ऐकसीलेरेटर का तार टूट गया . घुप अँधेरा! स्कूटर खडी हो गयी -अब क्या करें ?बुद्धि ने जवाब दे दिया -दूर दूर तक अँधियारा . अब डर लगने लगा -अकेला होता तो कोई बात नहीं, नयी उम्र थी स्कूटर खींच लाता मगर साथ में पत्नी थीं और सहज बुद्धि ने कहा कि उन्हें साथ लेकर इतनी दूर की चहलकदमी तो समस्याओं का आमंत्रण ही थी . बुद्धि तेजी से रास्ता तलाश रही थी और वह रास्ता सूझा भी -स्कूटर की लाईट ठीक थी . उससे रोशनी मिली तो देखा तार ऊपर से टूटा था और उसका आख़िरी छोर उसकी कवरिंग के नीचे दिख रहा था . अब उपाय सूझा . मैंने पत्नी को समझाया कि एकिसेलेरेटर के इस तार को अच्छी तरह पकड़ के वे बस थोडा तनाव उस पर बनाएं रखें .तार  खीच कर उन्हें थमा स्कूटर स्टार्ट कर क्लच के सहारे नियंत्रण बनाकर हम आगे बढे . अब कुछ मत पूछिए कि वह आठ नौ किमी की दूरी कैसे पूरी हुयी मगर यह युक्ति कारगर रही और यह दूरी करीब एक घंटे में पूरी कर रुकते रुकाते हम रात यही कोई साढ़े दस बजे आवास पर पहुँचे . कुछ ऐसी ही कथा देवासुर  संग्राम   में  लड़ते हुए चक्रवर्ती सम्राट राजा दशरथ की नहीं  थी?.. जब रथ के पहिये की धुरी टूटी और कैकेयी ने अपना  हाथ धुरी की जगहं दे दिया ....वह मिथक था मगर यह सच :-) .... यह घटना मुझे और पत्नी को आज तक याद है और वह खौफ भी जिससे हमें गुजरना पड़ा था . हमने अब आगे जल्दी ही गंजिंग (हजरतगंज विहार आज भी गंजिंग कहलाती है वैसे यह टर्म मेडिकल स्टूडेंट में ज्यादा पापुलर है ) पूरा कर लौटने का कार्यक्रम बना लिया था . और अपना लेक्चर लेने के बाद अपराह्न ही हजरतगंज पहुँच यदि फिल्म भी देखनी हो तो साहू, मेफेयर से शो छह बजे ख़त्म होते ही चल पड़ते थे . चौधरी या मोतीमहल से खाने वाने को कुछ पैक करा लेते थे .. एक शानदार ज़िंदगी थी वो, अच्छे बॉस और अच्छे लोग . मगर हालात बदलने वाले थे ...

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

नौकरी के वर्ष तीस! (श्रृंखला-2)

पहला भाग
नौकरी मिल गई थी -स्थानापन्न थी मगर कमीशन से थी . व्याख्याता का राजपत्रित पद, मगर यह समझ में ही न आये कि स्थानापन्न का मतलब क्या होता है . कई महीनों बाद जाकर सटीक अर्थबोध हुआ कि कोई  मेरे पद पर था मगर कहीं अन्यत्र चला गया है ,मगर उसका 'धारणाधिकार' इस पद पर बना हुआ है . मतलब उसके आते ही मेरा पत्ता गोल। यह सुनकर मेरा दिल बैठने लगता और मैं सोचता कि फिर लोक सेवा आयोग से चुन कर आने का मतलब ही क्या रह गया। अब नए नए शासकीय शब्द मेरे शब्द कोष में जुड़ने लग गए थे -संतोष यह था कि पद स्थायी था। जानकारी यह भी मिली कि जिस सज्जन के पास इस पद का मूल धारणाधिकार था वे फील्ड में थे और जल्दी रिटायर हो जाने वाले थे .कोई 'सरस' पद छोड़कर आखिर यहाँ क्यों आएगा भला -लोग मुझे आश्वस्त करते! मुझे यह भी बाद में पता लगा कि इन्ही सज्जन ने मेरी पोस्टिंग भी इस पद पर जोड़ तोड़ से रुकवाई हुयी थी और  एक साथ फील्ड का और प्रशिक्षण संस्थान दोनों पद को फंसाए हुए थे . यह तो ताराचंद छात्रावास के मेरे सहवासी बी पी सिंह (अब स्वर्गवासी ) जिन्हें अंग्रेजी में कमांड हासिल था द्वारा ड्राफ्ट किया हुआ विशेष सचिव महोदय .के नाम एक पत्र था जिसने संभवतः कमाल किया -जिसमें मेरे कमीशन से चयन के बाद भी छह माह तक नियुक्ति लटकाए जाने की बात तो थी ही ,एक वाक्य यह भी था 
" मैडम कैसे कोई आपके अंडर का अधिकारी आपकी सुपरमैसी को दरकिनार कर हीला हवाली करता जा रहा है' पता नहीं उस पत्र के प्रभाव में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी का विभागीय निदेशक मत्स्य पर एक  धौन्स थी या कुछ और बात एक दिन एक हरकारा मुझे ढूँढता मेरे होस्टल में पहुंचा और तुरंत निदेशक मत्स्य से मिलने के लिए फरमान सुनाया . दोस्तों ने मुझे उत्साहपूर्वक प्रयाग स्टेशन से लखनऊ रवाना किया और मत्स्य निदेशालय पहुँचने पर तत्कालीन निदेशक श्री ऐ के सिंह ने मुझ पर रौब जमाते हुए आखिर नियुक्ति पत्र थमा दिया और फिर अपराह्न में मैंने चिनहट जाकर आपनी योगदान सूचना उसी दिन, तेरह सितम्बर 1983 को दे भी दिया .
जब मैंने ताराचंद छोड़ा तो मेरे कमरे 6 /50 में विज्ञान के वैश्विक साहित्य की चुनिन्दा और महंगी किताबे थीं जिन्हें अपने एक ऐसे मित्र के भरोसे छोड़ आया जो अपने जिले जवार के थे और अपेक्षाकृत ज्यादा भरोसेमंद थे . इन पुस्तकों को मैंने उस समय पत्र पत्रिकाओं में छप रहे अपने लोकप्रिय विज्ञान साहित्य के पारिश्रमिक से खरीदा था . एक अच्छा ख़ासा संग्रह था . मगर जब मैं अपना कमरा खाली करने पहुंचा तो पाया कि इक्का दुक्का फालतू समझ कर छोड़ी गयी किताबों के अलावां सारी किताबें गायब हो चुकी थीं . मित्र सफ़ेद झूंठ बोलने में लग गए- एक गढ़ी कहानी सुनाई . मैं हतप्रभ! यह दुनियां कैसे मक्कारों से भरी पडी है यह मेरा जीवन का सबसे कटु अनुभव था -मेरा सबसे प्रिय खजाना लुट चुका था -साईनटीफिक अमेरिकन की कई जिल्दें ,डेज्मांड मोरिस की पुस्तकें ,हिन्दू धर्म दर्शन पर पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तकें -अब तो उन्हें याद करके भी मन भारी हो जाता है . बहरहाल जी कड़ा कर इस सदमें को बर्दाश्त किया . अभी तो कितने  सदमें बर्दाश्त करने बाकी थे -तब यह कहाँ पता था .
उन दिनों मेरे संयुक्त निदेशक के डी पाण्डेय साहब थे जो बस्ती के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे .  .ईश्वर उन्हें दीर्घायु करे, अब भी वे हैं . उनसे पहली ही मुलाक़ात अनवेलकम सी रही -उन्होंने कहा कि मैं कहीं और क्यों ट्राई नहीं करता . जाहिर है वे मेरी नियुक्ति से खुश नहीं थे . मुझे यह अच्छा नहीं लगा था क्योंकि तब शासकीय सेवाओं की 'हाईआर्कि' और उसमें भी मछली विभाग की हैसियत से मैं वाकिफ नहीं था। उनकी अनवेलकम टिप्पणी दरअसल एक हितैषी के रूप में की गयी थी मगर मैं उसे उस संदर्भ में ले नहीं सका -लेता भी कैसे, मुझे दुनियादारी का कतई ज्ञान न था . मगर यह तो एक जलालत भरी नौकरी की शुरुआत भर थी . अब एक ख्यात विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा और "किताबी" ज्ञान लेकर मैं अपने को पता नहीं कौन सा फन्ने खां समझ रहा था -व्यावहारिक सच्चाई कुछ और ही थी . मेरे कई रिश्तेदार भी मैं किस नौकरी और पद पर हूँ बताने पर हैरत से मुझे देखते और कहते यह भी कोई विभाग हुआ भला . और शुद्ध परम्परावादी ब्राह्मण के घर में पैदा होकर मछली विभाग में नौकरी ..छिः छिः .....मगर मुझे विषय और काम में सदैव पूरी रूचि रही है और इस विषय से नहीं मगर सिस्टम की बुराईयों ने मेरे हौसले को कई बार पस्त किया मगर कुछ ऐसे लोक सेवक भी मिले जिनके चलते मेरा हौसला फिर फिर कायम हुआ जिनकी चर्चा आगे आयेगी .
जारी ....

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