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वर्धा संस्मरणों के लिहाज से बहुत समृद्ध है. महात्मा गांधी और निकट ही विनोबा भावे के पवनार स्थित आश्रमों ने इसे विश्व पर्यटन के मानचित्र पर ला दिया है। आयोजकों ने ब्लागरों के पर्यटन का भी पूरा खयाल रखा और दूसरे दिन प्रातः विश्वविद्यालय की बस से हम सभी वर्धा आश्रम पहुंचे , लगा हम एक ऐसे जगहं आ गए हैं जो धरती की संरचनाओं से बहुत अलग सा है -और यहाँ के वासी गांधी जी भी इस धरा के कहाँ लगते हैं? वर्धा आश्रम का परिवेश और प्राचीनता में भी आधुनिकता का बोध कराने वाले पर्ण कुटीर और गांधी जी की दिनचर्या से जुडी अनेक वस्तुए ,स्वछता सभी कुछ मिलाकर एक दैवीय वातावरण का सृजन कर रहे थे . हम सभी अभिभूत थे . कैमरों के फ्लैश दनादन चमक रहे थे और कितने ही संभावित संयोगों और पोज में ब्लागरों की फोटुयें खींची जा रही थी . जिसमें एक तो यह है जो अंतर्जाल पर खूब सर्कुलेट हो रही है।
मुझे गांधी की वह कुटिया ख़ास तौर पर विभोर कर गयी जिसमें सांप पकड़ने का एक ख़ास डंडानुमा उपकरण और बड़ा सा डब्बा रखा हुआ है और यह लिखा हुआ है कि गांधी जी साँपों तक को नहीं मारते थे और पकड़ कर पहले डब्बे में बंद करते और बाद में जंगल में छुड़वा देते . इसके ठीक विपरीत अब वर्धा विश्वविद्यालय में निकलने वालें साँपों को निकलते ही मार देने के बारे में मैंने सुना तो यहाँ भी लगा कि वर्धा ही नहीं पूरे भारत भूमि पर इस 'तुच्छ' से मामले में भी गांधी कितने अप्रासंगिक से हैं . आह गांधी! मैंने आश्रम से चलते चलते गांधी सस्ता साहित्य स्टाल से उनकी आत्मकथा खरीदी हालांकि अपने छात्र जीवन में मैंने इसे पढ़ा था मगर तब दृष्टि विकसित नहीं थी। इन दिनों उसी का पारायण कर रहा हूँ .
समयाभाव के कारण हम पवनार नहीं जा पाए और पिछले ब्लॉगर सम्मलेन में आये लोग वहां तक गए थे जिनमें कई इस बार भी थे तो उनकी रूचि ही नहीं थी . वर्धा आश्रम के लिए निकलते समय ही रास्ते में वंदना अवस्थी दुबे जी पतिदेव के साथ रास्ते में मिलीं -हम बस में ही बैठे थे बस सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने बाहर उतर कर अटेंड किया .बस के भीतर से कुछ लोगों ने आवाजें दी कि वे भी वर्धा आश्रम के लिए ब्लॉगर समूह को ज्वाईन करें मगर मालूम हुआ कि आश्रम जाने के पहले वे ग्रीन रूम जाना ज्यादा प्रिफर करेगीं . मैंने सिद्धार्थ जी को सहेजा कि विलंबित ब्लागरों के लिए अब एक संयोजक के रूप में उन्हें ज्यादा अतिरिक्त ध्यान श्रम करना होगा . तो उन्होंने उत्साह से कहा कि संयोजक-आयोजक को तो यह सब झेलना ही पड़ता है और अभी तो कई के आने का सिलसिला जारी है . सभी ने सिद्धार्थ जी की प्रबंधकीय क्षमता और धैर्य क्षमता की सराहना की है और मैंने भी उनसे बहुत कुछ सीखा है .
हम ब्लागिंग विमर्श के अगले सत्र को समय से आरम्भ करने हेतु जल्दी ही आश्रम से चलकर वापस विश्वविद्यालय आ गए . और पहला सत्र ब्लागिंग और साहित्य पर आरम्भ हुआ . मैं ब्लॉग को केवल माध्यम तक ही नहीं मानता . और भी कई आयाम हैं जो ब्लागों को एक विशिष्ट पहचाना देते हैं -खास फार्मेट और फार्म ,स्टाईल और पोस्ट की लम्बाई का भी एक अनुशासन, यह अंतर्जाल डायरी एक विधा भी है यह मेरी स्थापना है. सभी ब्लॉग नहीं मगर कुछ ब्लॉग अवश्य 'विधागत ब्लॉग श्रेणी' में आते हैं -मैंने यह भी कहा कि ब्लॉग विधाओं की एक विधा भी एक ख़ास अर्थ में है क्योकि यह कितने ही पारम्परिक विधाओं -कविता, कहानी, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का एक समुच्चय भी है . इस पर बहुत गर्मीगर्मा हुई -हर्षवर्धन ने एकदम से इस प्रस्तावना को खारिज कर दिया तो मानो अनूप जी इसी ताक में बैठे थे -कहा कि अब हर्षवर्धन के इस वक्तव्य के बाद यह बहस ही ख़त्म हो गयी है -मंच से मुझे लगा कि अरे अभी तो यह शुरू ही नहीं हुयी तो ख़त्म कैसे हो गयी -और मैंने सहज ही अनूप जी को टोका -अरे आपने तो फ़तवा ही जारी कर दिया . अनूप जी नयी संभावनाओं को ऐसे ही उत्साहित करते हैं -इसमें नया कुछ नहीं था . लोग मुस्कुराये और बात आगे बढ़ गयी . अब सिद्धार्थ जी ने सभी ब्लॉगर प्रतिभागियों का आह्वान किया है कि सभी कुछ फिर से संयत और सुगठित उन्हें लिख कर भेज सकते हैं और समस्त विमर्श समग्र रूप से अंतर्जाल पर तो संकलित और सन्दर्भणीय हो सकता है .
बातें तो और भी बहुत सी हैं - 'मोहिं वर्धा बिसरत नाहीं' किस्म की, मगर अनूप जी इति वार्ताः कर चुके हैं और महाजनों येन गतः सा पन्थाः के मुताबिक़ मुझे भी अब इस श्रृंखला को विराम देना होगा . आगे छिट पुट और स्फुट बातें अगर ज्यादा मन को मथेंगी तो एक और पोस्ट का जुगाड़ हो जायेगा .हम बहुत लोगों से ठीक से नहीं मिल बैठ गपिया पाए इसका मलाल है -फिर कभी मित्रों! हाँ एक कृतज्ञता ज्ञापन सोशल सायिन्सेज और मीडिया फैकल्टी के डीन और मेरे पुरातन मित्र डॉ अनिल राय अंकित जी को जिन्होंने मेरी अनेक सुख सुविधाओं का अतिरिक्त ध्यान रखा . सम्मलेन को मैं सौ के पूर्णाक में नब्बे अंक दूंगा -कुछ अंक चाय अभाव और छोटी मोटी संवाद हीनता से जुड़े व्यवधान के लिए काट रहा हूँ . बाकी तो टंच व्यवस्था रही हर लिहाज से . और हाँ मेरा कांफ्रेंस बैग किसने हथियाया? और ब्लॉगर प्रतिभागियों की सूची किसी के पास है तो कृपया शेयर करें . अब तो चिटठा समय संकलक का बेसब्री से इंतज़ार है .
बैग मेरे पास नहीं है:-)
जवाब देंहटाएंवर्धा की झांकियां दिखला रहे हैं आप ,बाकी ब्लागरों को लुभा रहे हैं आप। साँपों वाला प्रसंग अनुकरणीय है। सांप किसान का दोस्त है फसल को चौपट करने वाले चूहों का वैसे ही दुश्मन है जैसे दागी सांसद संसद के। अब इतने कान्फ्रेंसिया बैग हो गए एक ठौ कोई ले लिया तो ले लिया उसे ज्यादा ज़रुरत होगी आप से ज्यादा।
जवाब देंहटाएंमानता हूँ के कुछ नहीं ग़ालिब ,
मुफ्त हाथ आये तो बुरा क्या है।
दिले नादाँ बैग में रख्खा क्या है।
दो दिन तक एक अनकहा अनन्त छाया रहा मस्तिष्क में, न जाने कितना प्रवाह कब तक बहा, कहाँ याद रहा। आप सबके संस्मरण उसी आकाश में तारा बन विद्यमान हैं।
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग एक विधा ना हो मगर ब्लॉगिंग में सभी विधाएं सम्मिलित हैं।
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉगर सम्मेलन से किसी को कोई शिकवा /शिकायत नहीं रही , कम से कम रिपोर्ट तो यही बताती है। ब्लॉगर्स और ब्लॉगिंग का यह सकारात्मक पक्ष सुकुनदायक है।
शुभकामनायें !
थूक कर चाटना राजनीति का धर्म है जो नित्यत्व लिए हुए है। इसीलिए ये लोग आसमान पर भी थूकते हैं। आजकल इसे एक कला की संज्ञा दे दी गई है। राजनीतिक कुछ कहने के बाद कह देते हैं हमारे बयान को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है।
जवाब देंहटाएंब्लागियान के माध्यम से वर्धा "विभूति "के बहुविध दर्शन हुए। परिसर की साहित्यिक गरिमा उसके नामों से भी रूपायित हुई यथा नाम तथा गुण और ब्लागिंग के सभी आयाम मुखरित हुए ब्लागिंग का विस्तृत फलक विस्तार्शील सृष्टि की तरह है साहित्य की सभी विधाओं को समेटे हैं ब्लागिंग।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण पढ़ने को मिल रहे हैं एक के बाद एक। बधाई सब चिठ्ठा प्रतिनिधियन कू।
आखिरी अनुच्छेद की प्रारंभिक बात से असहमत हूँ। आप को अनूप जी का अनुसरण करने की बात कैसे सूझी? अपनी यू.एस.पी. से छेड़छाड़ का हक स्वयं आपको भी नहीं है। :P
जवाब देंहटाएंअभी तो आपने दूसरे दिन की शाम को हुई डिनर वाली बहस पर कुछ लिखा ही नहीं। समापन सत्र तक पहुँचे बिना ही रिपोर्ट का समापन करने की घोषणा करना कहाँ तक जायज है? अब कोई राहुल गांधी तो आएगा नहीं यह कहने की आपका यह अध्यादेश ठीक नहीं है, तत्काल वापस ले लीजिए। :)
यह अनुरोध मैं ही कर लेता हूँ।
samarthan hai.........
हटाएंpranam.
अच्छे संस्मरणों से रूबरू करवा रहे हैं !!
जवाब देंहटाएंवर्धा यूनिवर्सिटी का यह अनुदान, चिटठा समय एक वरदान होगा ब्लॉग जगत के लिए , जसका पूरा श्रेय सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को जाता है , हज़ारों का भला होगा !
जवाब देंहटाएंआभार उनके प्रति !
जेब भरी मुन्ना भाई की
जवाब देंहटाएंमाल भर लिया जेबों में !
निश्छल हंसी प्रवीण हंस रहे
मस्त रहे हैं वर्धा में !!
जब चेले ने दिया इशारा
कुहनी मारी गुरुवर में
भोले गुरु समझ न पाए
भरी चालाकी चेले में !
फुरसतिया जी झाँक रहे हैं
तिकड़म दीखे , आँखों में - कट्टा कानपुरी असली वाले
पर मेरे समझ मे आजतक ये नहीं आया कि जब गाँधीजी को बाथटब और वेस्टर्न पॉट इस्तेमाल करना था तो उन्हें कुटिया में रहने की क्या जरूरत थी?
जवाब देंहटाएंरचना जी ,
हटाएंअगर आप गांधी जी के जीवन को सूक्ष्मता से देखें तो पाएगीं के वे मन से तो भारतीय रहे मगर तन से पाश्चात्य होते गए -और यही फारख उनके दैनदिन जिदगी का है !
हमारे यहाँ(नागपुर में) "सर्प मित्र " होते हैं, जो फोन करते ही तत्काल आकर सांप को पकड़कर सुरक्षित जंगल में छोड़ देते हैं. बढ़िया रिपोर्ट। आयोजन सफलता के लिए सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को बहुत-बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंगांधी जी की आत्मकथा ,पढ़कर बहुत आनंद आता हैं |बहुत ही सुंदर वर्णन |
जवाब देंहटाएंऔर भी बहुत सी बातों में से कुछ और सुन्दर बातें आती तो निस्संदेह अच्छा ही लगता..
जवाब देंहटाएंअभी बहुत कुछ अनपढ़ा रह गया है। यह आंखों का दोष नहीं। इसकी दोषी बीमारी हमारी है।
जवाब देंहटाएंगॉंधी जी के प्रयोगों के संबंध में भी पोस्ट का इंतजार है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया :)
जवाब देंहटाएंबाप रे..इधर बहुत लिखा आपने और मैं बहुत कम पढ़ पाया। :(
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