पिछले हप्ते तो जैसे ब्लॉगर सम्मेलनों की बहार ही आ गई . एक तो काठमांडू में परिकल्पना समूह की अन्तरराष्ट्रीय ब्लागिंग कांफ्रेंस( 13-14 सितम्बर,2013), भोपाल की मीडिया चौपाल ( 14-15 सितम्बर) और फिर वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में 20-21 सितम्बर का आयोजन . एक को छोड़ मुझे दोनों में जाना था . मैंने काठमांडू में एवं अन्यत्र कुछ धार्मिक अनुष्ठान के लिए अपने नियोक्ता से अर्जित अवकाश के साथ अनुमति माँगी थी मगर दिनांक 12 सितम्बर तक अनुमति न मिल पाने से हमें काठमांडू की यात्रा अनिच्छापूर्वक रद्द करनी पडी . मन थोडा उद्विग्न हो गया था . कारण कि कोई कमिटमेंट होने पर मुझे उसे पूरा करने की अच्छी/बुरी आदत है . मन को तसल्ली दी चलो एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन छूटा तो एक और सम्मलेन इत्तफाकन अंतरराष्ट्रीय स्टेटस से जुड़ा था ... मतलब एक हप्ते में ही दो दो अंतरराष्ट्रीय टैगलाईन लिए ब्लागिंग समारोह . अब दूसरे को न छोड़ा जाय इस पर मन फोकस किया . अपने मन और जैविक -अजैविक प्रेरणाओं को टटोला -एक सात्विक प्रेरणा आखिर सब पर हावी हुई और मैं स्तरानुकूल (entitlement) न होने पर भी तृतीय ऐ सी में यात्रा की हिम्मत कर सका -यह बात दीगर है कि भारत महान की रेल ने मुझे बधाई देते हुए जाने आने की दुतरफा यात्रा को बिना खर्च ऐ सी द्वितीय श्रेणी में अपग्रेड कर दिया -सत्कर्म के आग्रह को ईश्वर भी देखता है :-)
यात्रा लम्बी तो थी मगर यदि ट्रेनों के इंतज़ार की पीड़ा को न जोड़ा जाय तो यात्रा सुखद ही थी . अब ट्रेन से जुड़ी साफ़ सफाई और कोच अटेंडेंट के प्रोफेसनल दायित्व की कुछ कमी रही भी तो मैं यहाँ इसकी चर्चा इसलिए भी नहीं करना चाहता कि संघमित्रा ट्रेन प्रवीण पाण्डेय जी के अधिकार क्षेत्र की ट्रेन है जो अपनी बौद्धिक प्रखरता और एक सम्मानित ब्लॉगर भी होने के कारण मेरे आदरणीय हैं . और मन में यह भी था कि वे खुद वर्धा पहुँच रहे हैं सो उनके संज्ञान में कुछ सुझावात्मक बातें डाल दूँगा . रास्ते में कुछ पेंडिंग अकादमीय कार्यों को निपटाया . यह एक और आकर्षण है जो मुझे लम्बी ट्रेन यात्राओं के लिए उकसाता है. मुझे वर्धा के सेवाग्राम स्टेशन पर उतरना था जहाँ ट्रेन का स्टापेज मात्र एक मिनट का था और 19 सितम्बर की शाम सात बजे ट्रेन का वहां पहुंचना नियत था -ट्रेन एक घंटे लेट थी ..रात हो गयी थी सो मैं ट्रेन के धीमे होने पर व्यग्र हो बार बार दरवाजे पर आ जाता कि कहीं स्टेशन पर उतर ही न पाऊँ. यह अतिरिक्त व्यग्रता /सावधानी उस समय जस्टीफाई हो गयी जब बाद में यह पता चला कि मनीषा पांडे सेवाग्राम न उतरकर आगे के दूसरे स्टेशन बल्लारशाह तक पहुँच गईं और सम्मलेन में काफी विलम्ब से शिरकत कर पाईं .
स्टेशन पर मुझे लेने विश्वविद्यालय के मीडिया मैनेजमेंट के छात्र विमलेश पांडे को जिन्हें संकाय के डीन और मेरे पुराने घनिष्ठ मित्र डॉ अनिल राय 'अंकित ' ने काफी सहेज कर भेजा था, आये थे . उन्होंने वैसी ही सजगता और आदर के साथ मुझे रिसीव किया और सफ़ेद झक अम्बेसडर तक मुझे मेरा सामान खुद उठाये हुए ले गए -मैंने उनसे लाख कहा कि मैं अभी इतना अशक्त नहीं हुआ मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी -ड्राइवर का गजानन नाम उनके मराठी होने का संकेत दे रहा था . स्टेशन से मात्र दस मिनट तक की डाईव थी -गजानन ने कहा कि क्या मैं रास्ते के साई बाबा के मंदिर को देखना चाहूँगा -क्यों नहीं? मैंने कहा! इतना सुनते ही लगा गजानन के मन में मेरी इज्जत बढ़ गईं और मैंने भी उनके उत्साह को कम करना उचित नहीं समझा था -वर्धा का साईं मंदिर साफ़ सुथरा था -साईं कृपा -सबुरी लिखा था -सबुरी का मतलब क्या था यह उत्कंठा मन ही में रह गयी -कोई बतायेगा?
रात साढ़े आठ बजे विश्वविद्यालय कैम्पस में प्रविष्ट हुए -रात होने के बाद भी वह काफी सुन्दर सा और आमंत्रण देता लगा -फादर कामिल बुल्के गेस्ट हाउस से होते हुए कार जब आगे बढ़कर मुडी तो सामने नव निर्मित नागार्जुन सराय दिखा --जिसे एक अनुपम सौन्दर्य बोध , क्लासिकी और आधुनिकता के ठेठ ठाठ से संवारा गया है . विशाल फाईबर के पारदर्शी गेट सामने पहुंचते ही अपने आप खुले -इस सराय के लिए कोई खुल जा का सूत्र नहीं था -सबके लिए स्वागत -हर आगत का स्वागत . रिसेप्शन पर एक गतिशील युवा था -आदर से नाम पूछा -और सामने की सूची पर दृष्टि दौडाने लगा -और मैं भी लगभग उसी तीव्रता से सूची पर निगाह दौडाई -मेरा नाम कम्प्यूटर से प्रिंट दिखा ....अरे अरे यहाँ हाथ से लिखा अनूप शुक्ल का भी नाम दिखा -मेरे साथ? मन में तुरंत कौंधा कि यह तो शरारत हो गयी -मैंने सूची पर फिर सायास नज़र दौडाई -दिखा कि अनूप जी का नाम प्रवीण पांडे जी के साथ कमरा संख्या 206 के सामने प्रिंट है जिसे हाथ से काटकर मेरे साथ किया गया है ! इन दो प्रत्यक्ष अलग मानसिकताओं -एक व्यंग चेतना संपन्न तो दूसरा वैज्ञानिक चेतना संपन्न को को कौन एक साथ रखने की महत्वाकांक्षा पाले हुए था? -धीरे से पता लगाया तो सम्मलेन के कर्ता धर्ता सिद्धार्थ जी का नाम उद्घाटित हुआ? एक तीव्र विचार प्रवाह कौंधा -ये सिद्धार्थ जी आखिर चाहते क्या है? दो ध्रुवों को एक साथ करना -एक म्यान में दो तलवारें? खैर यह पता लगते ही कि महानुभाव शुक्ल जी को अगले दिन आना है -एक रात मुझे परवरदिगार ने बख्श दिया था -शेर कौंधा -मुद्दई लाख चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजूरे खुद होता है :-)
भव्य नागार्जुन सराय
नागार्जुन सराय प्रांगण -साफ़ सुथरा और स्निग्ध
जल्दी ही खाने की बुलाहट आ गयी . ट्रेन के खाने से ऊबा मैं सुस्वादु खाने पर जम गया . खाना खाने के बाद बाहर ठंडी हवाओं के रुमान का अहसास कर ही रहा था कि सिद्धार्थ जी का सलामती जिज्ञासा का फोन आ गया और यह फरमान भी कि चिर परिचित वाईस चांसलर साहब के साथ सुबह साढ़े पांच बजे मुझे परिसर की प्रदक्षिणा यानि मार्निंग वाक पर निकलना था -थोड़ी देर में सिद्धार्थ जी आये भी मगर मैंने अनूप प्रसंग को जानबूझ कर नहीं छेड़ा - मामला गंभीर था और मुझे कोई फुलप्रूफ रणनीति बनानी थी ......मैंने इस बात को हठात दबाते हुए सुबह वी सी साहब के साथ मार्निंग वाक की अपनी अनिच्छा जताई! सोचा तब तक कहीं कोई रणनीति नहीं बन सकी तो? ,दूसरे अल्लसुबह घूमने का आलस्य भी तारी हो रहा था .......चित्र सौजन्य: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
जारी है ......
''सबुरी का मतलब क्या था यह उत्कंठा मन ही में रह गयी -कोई बतायेगा?''
जवाब देंहटाएंकहिए तो मैं ही बता दूँ अपने अल्प ज्ञान के आधार पर...! सबुरी का मतलब संतोष से है, तृप्ति भाव से। ईश्वर ने जो दे दिया उसे उसकी अपार कृपा मानकर संतुष्ट रहिए यही सबुरी है।
तो यह कहिये न कि सब्र का फल मीठा होता है -सब्र से बना है सबुरी !
हटाएंचकाचक शुरुआत।
जवाब देंहटाएंवैज्ञानिक चेतना व्यंग्य चेतना से इतनी आक्रांत? जय हो।
आगे का किस्सा सुनाया जाये।
Wardha katha ki badhiya shuruvat :)
जवाब देंहटाएंअच्छा है .... इस आयोजन के विषय में और जानने का इंतजार रहेगा ...
जवाब देंहटाएंvibhuti narayan ji ke kai kisse sune hain vardha ke, aapke anubhav bhi sunne ki utsukta hai.
जवाब देंहटाएंरोचक ,और अदभुत कथा |इन्तेजार हैं अगली कड़ियों का |
जवाब देंहटाएं“अजेय-असीम{Unlimited Potential}”
कथा चालू आहे..
जवाब देंहटाएंमैं तो फ़िलहाल सबूरी किए बैठा हूँ......ऐसे लेखन में वैज्ञानिक और व्यंग्य-चेतना दोनों जागृत हो उठती हैं !
जवाब देंहटाएंअगले खंड का इंतज़ार कर रहे हैं. . .
जवाब देंहटाएंवैसे जहाँ पर भी कमरों के आगे नामों की कटाई की जाती है, वहाँ कुछ नहीं, बहुत कुछ अच्छा ही होता है।
जवाब देंहटाएंशुरुआत तो तेग और तेवर के साथ है. आगे के विवरण की उत्सुकता है.
जवाब देंहटाएंaapne to saman bandh diya...........chaliye apan bhi jari hain
जवाब देंहटाएंpranam.
अभी आगे की कथा का इंतजार है. आपकी बातों से लगता है अबकि बार मच्छरों ने तो परेशान नही किया होगा?:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न ब्लॉगर की पोस्ट में व्यंग्य चेतना प्रस्फुटित हो रही है।
जवाब देंहटाएंबताते जाईये, अच्छा लग रहा है
प्रणाम
Bada rochak laga ye bayaan...kaash maibhi aa pati!
जवाब देंहटाएंवाह शुरूआत ही बल्ले बल्ले
जवाब देंहटाएंरोचक रिपोर्ट ..आगे जानना है कि विज्ञान का व्यंग के साथ तालमेल कैसा बैठा :).
जवाब देंहटाएंIsi bahane kafi kuchh janne ko mila.
जवाब देंहटाएंआपके साथ भले ही न ठहर पाये हों लेकिन सम्मेलन में व कविताओं में साथ बना ही रहा।
जवाब देंहटाएं(१) वैज्ञानिक + चेतना + संपन्न
जवाब देंहटाएं(२) व्यंग्य + चेतना + संपन्न
शाब्दिक दृष्टि से देखा जाये 66 % समानता के होने बावजूद दोनों संपन्नतायें एक साथ ना रह सकी :)
(:(:(:
हटाएंpranam.
ऐसा अहसास क्यों हो रहा है कि मैं भी इस सेमिनार में शामिल हुआ हूं/था।
जवाब देंहटाएंउम्मीद से ज्यादा ही रोचक प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंरोचक शुरूआत
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