अब सिद्धार्थ शंकर जी का अनुरोध कि जो कुछ बचा खुचा है उसे भी मैं पूरा कर दूं को आखिर कैसे अनदेखा कर सकता हूँ ? इनके बारे में कवि गोष्ठी में मैंने कहा था " तात जनक तनया यह सोई धनुष जज्ञ जेहिं कारण होई " :-) चलिए कुछ और यादगार बातें आपसे साझा कर लेता हूँ . कुलपति महोदय -विभूति नारायण राय जी के स्नेहिल सानिध्य ने मन को गहरे छुआ .उनके बारे में थोड़ी चर्चा पहले भी हो चुकी है। एक व्यक्ति के रूप में वे बहुत सहज हैं और प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करते रहते हैं .भारतीय पुलिस सेवा ने इन्हें एक वह दृष्टि भी दी है जिससे एक नज़र में ही लोगों को पहचान लेते हैं . मैंने इनकी इस क्षमता का साक्षात किया है और चकित हुआ हूँ! इस बार मिलते ही इन्होने मुझसे एक शख्स के बारे में पूछा और मैंने बता दिया कि वे उस शख्स के बारे में बिलकुल सही थे. मैं चूँकि इस मामले में बचपन से ही बड़ा बोदा हूँ -बहुत ही जल्दी लोगों का विश्वास कर लेता हूँ , प्रभावित हो जाता हूँ और धोखे खाता हूँ . काश मुझे भी राय साहब जैसी दृष्टि मिली होती तो जीवन के कितने कटु अनुभवों से बच गया होता .
राय साहब ने अपने आवास पर एक रात्रि भोज पंचायत आख़िरी दिन को आमंत्रित किया उसमें सिद्धार्थ एवं रचना त्रिपाठी जी ,इष्टदेव सांकृत्यायन , मनीषा पाण्डेय और यह खाकसार भी था . यह वर्धा का हमारा आख़िरी सपर ( दिन का आख़िरी खाना) था . भोजन के पूर्व लैंगिक भेद विमर्श के साथ तुलसी की भी अनाहूत चर्चा शुरू हो गयी . मनीषा को इस बात पर आश्चर्य था कि आज भी क्यों हिन्दी के विभागों में अन्य कितने विषयों के बजाय (अब जैसे लैंगिक विभेद ही ) तुलसी पर शोध जारी है . मैं तो तुलसी भक्त हूँ तो हठात अपनी उग्र प्रतिक्रिया को रोका -मनीषा, अब मैं आपको कैसे समझाऊँ राम चरित मानस एक अनुपम विश्व साहित्य है, मगर इसका भान बिना पढ़े नहीं हो सकता -आज के अनेक युवा अपने देशज समृद्ध साहित्य की उपेक्षा कर पश्चिमी साहित्य पर लहालोट होते रहते हैं . गांधी जी ने अपने देशज साहित्य का विपुल अध्ययन किया था और पश्चिमी साहित्य का भी खूब अनुशीलन किया था . मुझे लगता है पश्चिमी जीवन दृष्टि और भारतीय जीवन दर्शन के बीच का एक संतुलन अधिक उपयुक्त है .
फिर वी सी साहब का वह बहुश्रुत छिनाल प्रसंग छिड़ गया -हिम्मती मनीषा ने सपाट और बेबाक पूछ लिया कि कोई नारी अगर सौ पुरुषों के साथ हम बिस्तर होती भी है तो किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? वातावरण तनिक असहज सा हुआ . राय साहब ने पूरे प्रसंग को स्पष्ट किया -यह बात भी आई कि छिनार शब्द का अंग्रेजी में गलत अनुवाद "वैश्या' हो गया और व्यर्थ का हो हल्ला मचा -एक बार फिर सबने छिनार/छिनाल शब्द की सोदाहरण व्याख्याएं की -मैंने कहा यहाँ जेंडर भेद नहीं है क्योंकि पुरुष के लिए भी समानार्थी शब्द छिनार है . बहरहाल गर्मागर्म चर्चाओं के बाद गर्मागर्म और घर के बने सुस्वादु भोजन ने सभी को संतृप्त किया -चिकेन का प्रेपरेशन मनीषा का ख़ास पसंद था . बीती रात चेले संतोष ने इसका रसास्वादन किया था तो गुरु का भी इसे चखने का फर्ज बनता था , शाकाहारी व्यंजन भी बहुत सुस्वादु बने थे . खान पान को लेकर मेरा कोई विशेषाग्रह नहीं मगर सार्वजनिक तौर पर शाकाहार पसंद करता हूँ ! त्रिपाठी दंपत्ति तो गांधियन शाकाहारी/अन्नाहारी हैं। मुझे याद नहीं सांकृत्यायन जी ने क्या खाया था? मगर जब रात साढ़े दस बजे हम सभी को कुलपति महोदय ने विदा किया तो सभी के चेहरे पर एक चिर संतृप्ति का भाव था . विचारों के साथ ही पेट को भी पर्याप्त और रुचिकर भोजन मिल गया था .
अब बस!
सूत्रधार सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
सम्मलेन की दूसरे दिन राय साहब हम लोगों को नजीर हाट ले गए .वर्धा विश्वविद्यालय परिसर के भीतर हर जगहं एक विशिष्ट सा सौन्दर्य बोध और कलात्मकता बिखरी हुई है . हर्षवर्धन की निगाह ने भी इसे कैद किया है . नजीर हाट में कुलपति जी के सौजन्य से लोगों ने -संतोष त्रिवेदी ,अन्ना भाई , सिद्धार्थ जी सभी ने कुछ खाया पीया - मुझे एक मिठाई जिसे वहां गोरस कहा जा रहा था और हम लोगों की तरफ बनारस में नान खटाई कहते हैं पसंद आयी . मनीषा को काली चाय की तलब थी मगर वो मिली नहीं -याद नहीं उन्होंने कुछ खाया भी या नहीं . कुछ मित्रों ने दूध भी छक के पिया मगर मैंने मना कर दिया कि अब दूध पीने की मेरी उम्र न रही . सबके खा पी लेने के बाद कुलपति महोदय ने दुकानदार से कहा कि अभी तो मेरी जेब में पैसे ही नहीं हैं -तुम हिसाब भेज देना कल भिजवा देगें . दुकानदार बहुत कातर भाव में आ गया -"नाथ आज मैं काह न पावा" की भाव भंगिमा बन गयी उसकी -मैंने कहा कि ऐसे दानिशमंद तुम्हारी दुकान पर बार बार आयें और उधार करें तो तुम्हारा सचमुच उद्धार हो जाय . राय साहब ने अपने आवास पर एक रात्रि भोज पंचायत आख़िरी दिन को आमंत्रित किया उसमें सिद्धार्थ एवं रचना त्रिपाठी जी ,इष्टदेव सांकृत्यायन , मनीषा पाण्डेय और यह खाकसार भी था . यह वर्धा का हमारा आख़िरी सपर ( दिन का आख़िरी खाना) था . भोजन के पूर्व लैंगिक भेद विमर्श के साथ तुलसी की भी अनाहूत चर्चा शुरू हो गयी . मनीषा को इस बात पर आश्चर्य था कि आज भी क्यों हिन्दी के विभागों में अन्य कितने विषयों के बजाय (अब जैसे लैंगिक विभेद ही ) तुलसी पर शोध जारी है . मैं तो तुलसी भक्त हूँ तो हठात अपनी उग्र प्रतिक्रिया को रोका -मनीषा, अब मैं आपको कैसे समझाऊँ राम चरित मानस एक अनुपम विश्व साहित्य है, मगर इसका भान बिना पढ़े नहीं हो सकता -आज के अनेक युवा अपने देशज समृद्ध साहित्य की उपेक्षा कर पश्चिमी साहित्य पर लहालोट होते रहते हैं . गांधी जी ने अपने देशज साहित्य का विपुल अध्ययन किया था और पश्चिमी साहित्य का भी खूब अनुशीलन किया था . मुझे लगता है पश्चिमी जीवन दृष्टि और भारतीय जीवन दर्शन के बीच का एक संतुलन अधिक उपयुक्त है .
फिर वी सी साहब का वह बहुश्रुत छिनाल प्रसंग छिड़ गया -हिम्मती मनीषा ने सपाट और बेबाक पूछ लिया कि कोई नारी अगर सौ पुरुषों के साथ हम बिस्तर होती भी है तो किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? वातावरण तनिक असहज सा हुआ . राय साहब ने पूरे प्रसंग को स्पष्ट किया -यह बात भी आई कि छिनार शब्द का अंग्रेजी में गलत अनुवाद "वैश्या' हो गया और व्यर्थ का हो हल्ला मचा -एक बार फिर सबने छिनार/छिनाल शब्द की सोदाहरण व्याख्याएं की -मैंने कहा यहाँ जेंडर भेद नहीं है क्योंकि पुरुष के लिए भी समानार्थी शब्द छिनार है . बहरहाल गर्मागर्म चर्चाओं के बाद गर्मागर्म और घर के बने सुस्वादु भोजन ने सभी को संतृप्त किया -चिकेन का प्रेपरेशन मनीषा का ख़ास पसंद था . बीती रात चेले संतोष ने इसका रसास्वादन किया था तो गुरु का भी इसे चखने का फर्ज बनता था , शाकाहारी व्यंजन भी बहुत सुस्वादु बने थे . खान पान को लेकर मेरा कोई विशेषाग्रह नहीं मगर सार्वजनिक तौर पर शाकाहार पसंद करता हूँ ! त्रिपाठी दंपत्ति तो गांधियन शाकाहारी/अन्नाहारी हैं। मुझे याद नहीं सांकृत्यायन जी ने क्या खाया था? मगर जब रात साढ़े दस बजे हम सभी को कुलपति महोदय ने विदा किया तो सभी के चेहरे पर एक चिर संतृप्ति का भाव था . विचारों के साथ ही पेट को भी पर्याप्त और रुचिकर भोजन मिल गया था .
अब बस!