शनिवार, 28 सितंबर 2013

वर्धा सम्मलेन:कुछ बचा खुचा ,द लास्ट सपर और क्वचिदन्यतोपि! (समापन किश्त )

 किश्तें -पहली ,दूसरी ,तीसरी ,चौथी , पांचवीं और अब आगे पढ़िए आख़िरी किश्त..........
अब सिद्धार्थ शंकर जी का अनुरोध कि जो कुछ बचा खुचा  है उसे भी मैं पूरा कर दूं को आखिर कैसे अनदेखा कर सकता हूँ ? इनके बारे में कवि गोष्ठी में मैंने कहा था " तात जनक तनया यह सोई धनुष जज्ञ जेहिं कारण होई " :-) चलिए कुछ और यादगार बातें आपसे साझा कर लेता हूँ . कुलपति महोदय -विभूति नारायण राय जी के स्नेहिल सानिध्य ने मन को गहरे छुआ .उनके बारे में थोड़ी चर्चा पहले भी हो चुकी है। एक व्यक्ति के रूप में वे बहुत सहज हैं और प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करते रहते हैं .भारतीय पुलिस सेवा ने इन्हें एक वह दृष्टि भी दी है जिससे एक नज़र में ही लोगों को पहचान लेते हैं . मैंने इनकी इस क्षमता का साक्षात किया है और चकित हुआ हूँ! इस बार मिलते ही इन्होने मुझसे एक शख्स के बारे में पूछा और मैंने बता दिया कि वे उस शख्स के बारे में बिलकुल सही थे. मैं चूँकि इस मामले में बचपन से ही बड़ा बोदा हूँ -बहुत ही जल्दी लोगों का विश्वास कर लेता हूँ , प्रभावित हो जाता हूँ और धोखे खाता हूँ . काश मुझे भी राय साहब जैसी दृष्टि मिली होती तो जीवन के कितने कटु अनुभवों से बच गया होता .
 सूत्रधार  सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
सम्मलेन की दूसरे दिन राय साहब हम लोगों को नजीर हाट ले गए .वर्धा विश्वविद्यालय परिसर के भीतर हर जगहं एक विशिष्ट सा सौन्दर्य बोध और कलात्मकता बिखरी हुई है . हर्षवर्धन की निगाह ने भी इसे कैद किया है . नजीर हाट में कुलपति जी के सौजन्य से लोगों ने -संतोष त्रिवेदी ,अन्ना भाई , सिद्धार्थ जी सभी ने कुछ खाया पीया - मुझे एक मिठाई जिसे वहां गोरस कहा जा रहा था और हम लोगों की तरफ बनारस में नान खटाई कहते हैं पसंद आयी . मनीषा को काली चाय की तलब थी मगर वो मिली नहीं -याद नहीं उन्होंने कुछ खाया भी या नहीं . कुछ मित्रों ने दूध भी छक के पिया मगर मैंने मना कर दिया कि अब दूध पीने की मेरी उम्र न रही . सबके खा पी लेने के बाद कुलपति महोदय ने दुकानदार से कहा कि अभी तो मेरी जेब में पैसे ही नहीं हैं -तुम हिसाब भेज देना कल भिजवा देगें . दुकानदार बहुत कातर भाव में आ गया -"नाथ आज मैं काह न पावा" की भाव भंगिमा बन गयी उसकी -मैंने कहा कि ऐसे दानिशमंद तुम्हारी दुकान पर बार बार आयें और उधार करें तो तुम्हारा सचमुच उद्धार हो जाय .
राय साहब ने अपने आवास पर एक रात्रि भोज पंचायत आख़िरी दिन को आमंत्रित किया उसमें सिद्धार्थ एवं रचना त्रिपाठी जी ,इष्टदेव सांकृत्यायन , मनीषा पाण्डेय और यह खाकसार भी था . यह वर्धा का हमारा आख़िरी सपर ( दिन का आख़िरी खाना) था . भोजन के पूर्व लैंगिक भेद विमर्श के साथ तुलसी की भी अनाहूत चर्चा शुरू हो गयी . मनीषा को इस बात पर आश्चर्य था कि आज भी क्यों हिन्दी के विभागों में अन्य कितने विषयों के बजाय (अब जैसे लैंगिक विभेद ही ) तुलसी पर शोध जारी है . मैं तो तुलसी भक्त हूँ तो हठात अपनी उग्र प्रतिक्रिया को रोका -मनीषा, अब मैं आपको कैसे समझाऊँ राम चरित मानस एक अनुपम विश्व साहित्य है, मगर इसका भान बिना पढ़े नहीं हो सकता -आज के अनेक युवा अपने देशज समृद्ध साहित्य की उपेक्षा कर पश्चिमी साहित्य पर लहालोट होते रहते हैं . गांधी जी ने अपने देशज साहित्य का विपुल अध्ययन किया था और पश्चिमी साहित्य का भी खूब अनुशीलन किया था . मुझे लगता है पश्चिमी जीवन दृष्टि और भारतीय जीवन दर्शन के बीच का एक संतुलन अधिक उपयुक्त है .
फिर वी सी साहब का वह बहुश्रुत छिनाल प्रसंग छिड़ गया -हिम्मती मनीषा ने सपाट और बेबाक पूछ लिया कि कोई नारी अगर सौ पुरुषों के साथ हम बिस्तर होती भी है तो किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? वातावरण तनिक असहज सा हुआ . राय साहब ने पूरे प्रसंग को स्पष्ट किया -यह बात भी आई कि छिनार शब्द का अंग्रेजी में गलत अनुवाद "वैश्या' हो गया और व्यर्थ का हो हल्ला मचा -एक बार फिर सबने छिनार/छिनाल शब्द की सोदाहरण व्याख्याएं की -मैंने कहा यहाँ जेंडर भेद नहीं है क्योंकि पुरुष के लिए भी समानार्थी शब्द छिनार है . बहरहाल गर्मागर्म चर्चाओं के बाद गर्मागर्म और घर के बने सुस्वादु भोजन ने सभी को संतृप्त किया -चिकेन का प्रेपरेशन मनीषा का ख़ास पसंद था . बीती रात चेले संतोष ने इसका रसास्वादन किया था तो गुरु का भी इसे चखने का फर्ज बनता था , शाकाहारी व्यंजन भी बहुत सुस्वादु बने थे . खान पान को लेकर मेरा कोई विशेषाग्रह नहीं मगर सार्वजनिक तौर पर शाकाहार पसंद करता हूँ ! त्रिपाठी दंपत्ति तो गांधियन शाकाहारी/अन्नाहारी हैं। मुझे याद नहीं सांकृत्यायन जी ने क्या खाया था? मगर जब रात साढ़े दस बजे हम सभी को कुलपति महोदय ने विदा किया तो सभी के चेहरे पर एक चिर संतृप्ति का भाव था . विचारों के साथ ही पेट को भी पर्याप्त और रुचिकर भोजन मिल गया था .
अब बस!

मोहिं वर्धा बिसरत नाहीं!

इसके पहले की पोस्ट
वर्धा संस्मरणों के लिहाज से बहुत समृद्ध है. महात्मा गांधी और निकट ही विनोबा भावे के पवनार स्थित आश्रमों ने इसे विश्व पर्यटन के मानचित्र पर ला दिया है। आयोजकों ने ब्लागरों के पर्यटन का भी पूरा खयाल रखा और दूसरे दिन प्रातः विश्वविद्यालय की बस से हम सभी वर्धा आश्रम पहुंचे , लगा हम एक ऐसे जगहं आ गए हैं जो धरती की संरचनाओं से बहुत अलग सा है -और यहाँ के वासी गांधी जी भी इस धरा के कहाँ लगते हैं? वर्धा आश्रम का परिवेश और प्राचीनता में भी आधुनिकता का बोध कराने वाले पर्ण कुटीर और गांधी जी की दिनचर्या से जुडी अनेक वस्तुए ,स्वछता सभी कुछ मिलाकर एक दैवीय वातावरण का सृजन कर रहे थे . हम सभी अभिभूत थे . कैमरों के फ्लैश दनादन चमक रहे थे और कितने ही संभावित संयोगों और पोज में ब्लागरों की फोटुयें खींची जा रही थी . जिसमें एक तो यह है जो अंतर्जाल पर खूब सर्कुलेट हो रही है।
मुझे गांधी की वह कुटिया ख़ास तौर पर विभोर कर गयी जिसमें सांप पकड़ने का एक ख़ास डंडानुमा उपकरण और बड़ा सा डब्बा रखा हुआ है और यह लिखा हुआ है कि गांधी जी साँपों तक को नहीं मारते थे और पकड़ कर पहले डब्बे में बंद करते और बाद में जंगल में छुड़वा देते . इसके ठीक विपरीत अब वर्धा विश्वविद्यालय में निकलने वालें साँपों को निकलते ही मार देने के बारे में मैंने सुना तो यहाँ भी लगा कि वर्धा ही नहीं पूरे भारत भूमि पर इस 'तुच्छ' से मामले में भी गांधी कितने अप्रासंगिक से हैं . आह गांधी! मैंने आश्रम से चलते चलते गांधी सस्ता साहित्य स्टाल से उनकी आत्मकथा खरीदी हालांकि अपने छात्र जीवन में मैंने इसे पढ़ा था मगर तब दृष्टि विकसित नहीं थी। इन दिनों उसी का पारायण कर रहा हूँ .

समयाभाव के कारण हम पवनार नहीं जा पाए और पिछले ब्लॉगर सम्मलेन में आये लोग वहां तक गए थे जिनमें कई इस बार भी थे तो उनकी रूचि ही नहीं थी . वर्धा आश्रम के लिए निकलते समय ही रास्ते में वंदना अवस्थी दुबे जी पतिदेव के साथ रास्ते में मिलीं  -हम बस में ही बैठे थे बस सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने बाहर उतर कर अटेंड किया .बस के भीतर से कुछ लोगों ने आवाजें दी कि वे भी वर्धा आश्रम के लिए ब्लॉगर समूह को ज्वाईन करें मगर मालूम हुआ कि आश्रम जाने के पहले वे ग्रीन रूम जाना ज्यादा प्रिफर करेगीं . मैंने सिद्धार्थ जी को सहेजा कि विलंबित ब्लागरों के लिए अब एक संयोजक के रूप में उन्हें ज्यादा अतिरिक्त ध्यान श्रम करना होगा . तो उन्होंने उत्साह से कहा कि संयोजक-आयोजक को तो यह सब झेलना ही पड़ता है और अभी तो कई के आने का सिलसिला जारी है . सभी ने सिद्धार्थ जी की प्रबंधकीय क्षमता और धैर्य क्षमता की सराहना की है और मैंने भी उनसे बहुत कुछ सीखा है .

हम ब्लागिंग विमर्श के अगले सत्र को समय से आरम्भ करने हेतु जल्दी ही आश्रम से चलकर वापस विश्वविद्यालय आ गए . और पहला सत्र ब्लागिंग और साहित्य पर आरम्भ हुआ . मैं ब्लॉग को केवल माध्यम तक ही नहीं मानता . और भी कई आयाम हैं जो ब्लागों को एक विशिष्ट पहचाना देते हैं -खास फार्मेट और फार्म ,स्टाईल और पोस्ट की लम्बाई का भी एक अनुशासन, यह अंतर्जाल डायरी एक विधा भी है यह मेरी स्थापना है. सभी ब्लॉग नहीं मगर कुछ ब्लॉग अवश्य 'विधागत ब्लॉग श्रेणी' में आते हैं -मैंने यह भी कहा कि ब्लॉग विधाओं की एक विधा भी एक ख़ास अर्थ में है क्योकि यह कितने ही पारम्परिक विधाओं -कविता, कहानी, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का एक समुच्चय भी है . इस पर बहुत गर्मीगर्मा हुई -हर्षवर्धन ने एकदम से इस प्रस्तावना को खारिज कर दिया तो मानो अनूप जी इसी ताक में बैठे थे -कहा कि अब हर्षवर्धन के इस वक्तव्य के बाद यह बहस ही ख़त्म हो गयी है -मंच से मुझे लगा कि अरे अभी तो यह शुरू ही नहीं हुयी तो ख़त्म कैसे हो गयी -और मैंने सहज ही अनूप जी को टोका -अरे आपने तो फ़तवा ही जारी कर दिया . अनूप जी नयी संभावनाओं को ऐसे ही उत्साहित करते हैं -इसमें नया कुछ नहीं था . लोग मुस्कुराये और बात आगे बढ़ गयी . अब सिद्धार्थ जी ने सभी ब्लॉगर प्रतिभागियों का आह्वान किया है कि सभी कुछ फिर से संयत और सुगठित उन्हें लिख कर भेज सकते हैं और समस्त विमर्श समग्र रूप से अंतर्जाल पर तो संकलित और सन्दर्भणीय हो सकता है .

बातें तो और भी बहुत सी हैं - 'मोहिं वर्धा  बिसरत नाहीं'  किस्म की, मगर अनूप जी इति वार्ताः कर चुके हैं और महाजनों येन गतः सा पन्थाः के मुताबिक़ मुझे भी अब इस श्रृंखला को विराम देना होगा . आगे छिट पुट और स्फुट बातें अगर ज्यादा मन को मथेंगी तो एक और पोस्ट का जुगाड़ हो जायेगा .हम बहुत लोगों से ठीक से नहीं मिल बैठ गपिया पाए इसका मलाल है -फिर कभी मित्रों! हाँ एक कृतज्ञता ज्ञापन सोशल सायिन्सेज और मीडिया फैकल्टी के डीन और मेरे पुरातन मित्र डॉ अनिल राय अंकित जी को जिन्होंने मेरी अनेक सुख सुविधाओं का अतिरिक्त ध्यान रखा . सम्मलेन को मैं सौ के पूर्णाक में नब्बे अंक दूंगा -कुछ अंक चाय अभाव और छोटी मोटी संवाद हीनता से जुड़े व्यवधान के लिए काट रहा हूँ . बाकी तो टंच व्यवस्था रही हर लिहाज से . और हाँ मेरा कांफ्रेंस बैग किसने हथियाया? और ब्लॉगर प्रतिभागियों की सूची किसी के पास है तो कृपया शेयर करें . अब तो चिटठा समय संकलक का बेसब्री से इंतज़ार है .

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

वर्धा सम्मलेन पार्ट 4...कुछ और अब तक अनकहा!

 पार्ट -1,  पार्ट -2, पार्ट -3
कुलपति महोदय ने सुबह चाय पर ही जोर देकर कहा था कि मिनट टू मिनट प्रोग्राम पहले ही तैयार होकर लोगों में बट जाना चाहिए .समय कम था लिहाजा सिद्धार्थ जी के साथ मैं भी बैठकर पल प्रतिपल कार्यक्रम को अंतिम रूप देने लगा . ...उद्घाटन सत्र के बाद मैंने एक चाय ब्रेक की बात कही तो सिद्धार्थ जी ने कहा कि तनवीर प्रेक्षागृह में तो वी सी साहब ने चाय पर रोक लगा रखी है और उसी वक्त मुझे एक डेजा वू सा हो आया .वर्धा के पहले सम्मलेन में बेड टी का मसला उछला और लोगों ने उसे इतना हयिलायिट किया था कि मुझे असहजता सी होती जब इस बात को लेकर लोग मेरी चुटकी लेते . वर्धा प्रथम के बाद अब यह नया चाय प्रसंग सामने था . मैं असहज होने लगा . मैंने सिद्धार्थ जी को कहा कि उद्घाटन सत्र के बाद चाय पान तो एक परिपाटी है .मगर वी सी साहब की निषेधाज्ञा के आगे मैं भी निरुत्तर हो रहा . शायद बात यह थी कि वहां चाय पीने के बाद लोग कप -कुल्हड़ इधर उधर फेंक देते थे जिससे परिसर गन्दा हो जाता था . सो, वी सी साहब ने तनवीर प्रेक्षगृह में चाय पर पूर्ण पाबंदी लगा दी थी .
 वही हुआ जिसकी आशंका थी -उद्घाटन सत्र के बाद लोग चाय ढूंढते नज़र आये . जिन अनूप जी ने  वर्धा के पहले सम्मलेन में इस मुद्दे को उठाने पर आसमान सिर उठा, पानी पी पीकर मुझ पर चुटकी ली -वे अब खुद मुझसे चाय के बारे में पड़ताल कर रहे थे .मैं तटस्थ हो लिया . अब झेलिये न, खूब  उडाई थी मेरी खिल्ली  . भोजनावकाश के बाद के सत्र के पश्चात भी वहां चाय नहीं मुहैया हुयी . शायद लोगों की चाय विषयक पृच्छाओं से तंग आकर सिद्धार्थ जी ने क्राईसिस मैनेज किया और दूसरे  दिन एक सत्रावसान के बाद मंच से चाय ब्रेक की घोषणा कर दी . लोग इतनी तेजी से बाहर लपके जैसे पिछले दिन की भी कसर पूरी कर लेना चाहते हों . मगर इस बार तो एक और गहरी संवाद हीनता थी जो लोगों को एक घंटे तो जरुर ही चाय के लिए बिठाए रही -मगर इसका एक उज्जवल पक्ष यह रहा कि प्रेक्षागृह की औपचारिक बतकही यहाँ अब अनौपचारिक हो गयी थी .छोटे छोटे मनचाहे दलों और कैमरों के चमकते फ़्लैश में कई चेहरे चमक दमक रहे थे .अनूप जी नवयुवा ब्लागरों को ब्लागिंग के गुर समझा रहे थे .एक ब्लॉगर को मेरे पास भी लाये परिचय कराने के लिए -अहोभाग्य! :-) इस बार तो बेड टी के लिए हर मेहमान कक्ष में पांच सितारा इंतजाम था मगर सम्मलेन स्थल पर चाय फिर एक मुद्दा बनी -क्यों अनूप जी, बनी या नहीं?
मैं सम्मलेन के अकादमीय पहलुओं की तो अभी चर्चा ही नहीं कर हूँ - अब तक और लोगों की कई बेहतरीन पोस्ट आ चुकी हैं . एक संक्षिप्त किन्तु सार गर्भित पोस्ट तो चेले की है . शकुंतला शर्मा ने विवेच्य विषय बिन्दुओं को अच्छा समेटा है . अनूप शुक्ल जी ने अब तक विविध पहलुओं को समोए दो पोस्ट, यहाँ और यहाँ लिख मारी है , तो मुझे नहीं लगता कि अब उनका पिष्ट पेषण किया जाय . हाँ दूसरे दिन चर्चा में ब्लागिंग एवं साहित्य के सत्र की कुछ टटकी यादें है जिन्हें मैं साझा कर लूं . इस चर्चा के पैनेल में मैं भी था और सत्र संचालक इष्टदेव सांकृत्यायन थे -मेरे शरीर सौष्ठव की तुलना में एक क्षीण काया पुरुष! .. तो उन्होंने माईक संभाला और मंचीय गुरुता बनी रहे इसलिए उनके ठीक बगल में मैंने अपना आसन जमाया . मगर फिर भी एक गड़बड़ हो गयी . इष्टदेव जी ने मेरे ठीक बगल में बैठने को ललित शर्मा जी को आमंत्रित कर लिया -यानी दो दो मूछों के विद्वान साथ हो लिए -अब चोटी के विद्वान् तो फिर भी साथ बैठ लें मगर न जाने क्यूं मुझे यह लगा कि दो मूछों के विद्वानों को अलग अलग बैठना चाहिए . मैंने सत्र संचालक से प्रतिवाद भी किया मगर उन्होंने इसकी कोई नोटिस ही नहीं ली बस कई इंच की मुस्कान बिखेर दी -खैर मैंने पूरी कोशिश जारी रखी कि ललित जी की मूछें मुझसे टकराने न पायें अन्यथा जाने क्या न  हो जाता ..... :-) 
 और बस ठीक उसी समय हाल में मनीषा पाण्डेय ने  प्रवेश किया ...और सीधे अग्रिम लाईन में मेरे ठीक सामने विराजमान हुईं . ठीक उसी तरह हमारे बीच स्वागत की भाव भंगिमा का आदान प्रदान हुआ जैसा कि वर्धा के  इलाहाबाद के पहले सम्मलेन में हुआ था - पता नहीं तब या अब भी मुझे वे पहचानती जानती थीं या नहीं मगर उनका यह शिष्टाचार मुझे तब भी और इस बार भी बहुत  अच्छा लगा . बिल्कुल वही सिचुएशन/ लोकेशन तब भी थी -मैं मंचासीन था और वे अगली पंक्ति में बैठी थी, अगले सत्र में इन्होने भी मंच -माईक संभाला और लैंगिक विभेद के मुद्दे पर बेलौस और  बिंदास बोलीं . अब मैं श्रोता था -मनीषा ने किसी बात पर कहा कि वे सोशल साईटों पर खुद के नियोक्ता का पता नहीं देतीं -अकस्मात मेरे  मुंह से तेज आवाज में निकल पड़ा -'को नहिं जानत है जग में प्रभु .....नाम तिहारो " लोग मुस्कुराए और ऐसा लगा मनीषा सकुचाईं भीं . मनीषा में कथनी और करनी मतलब पाखण्ड नहीं दीखता और यह बड़ी बात है . 
 मनीषा मगर  बहुत भुलक्कड़ या  बेपरवाह सी  दिखीं . उतरना था सेवाग्राम और चली गयीं लगभग सौ किमी दूर बल्लारशाह और इसलिए कार्यक्रम में देर से पहुँचीं -अपना बेशकीमती कैमरा विश्वविद्यालय में न जाने कहाँ छोड़ आयीं और शाम को कुलपति महोदय की  चाय पर जब मैंने संतोष को कुहनियाया कि चेले मनीषा के साथ एक ग्रुप फोटो कर लो तो उन्हें सहसा कैमरे की याद आयी और वे सरपट  बाहर को भागीं .कई पलों के बाद जाकर माजरा समझ में आया -कुलपति जी ने कहा अब मसला हमारे विश्वविद्यालय की साख का है -एक एक पल बोझिल हो रहा था -कुलपति जी ने फोन  पर ही कैमरा बरामदगी के निर्देश दे रखे थे और करीब आधे घंटे बाद मनीषा विजयी मुस्कान के साथ कैमरा लिए फिर कमरे में आ पहुँची -सबने राहत की सांस ली और मनीषा ने दनादन कई फोटो  उतार डाली मानों कैमरे की बरामदगी को सेलिब्रेट  कर रही हों .मनीषा सरीखी प्रतिभा पर मुझे बस यही उद्धरण याद आ रहा है -  देयर इज नो जीनियस विदाउट द मिक्सचर आफ मैडनेस :-) 
जारी है .......

वर्धा ब्लॉगर सम्मलेन -जो किसी ने नहीं लिखा!

  पहला भाग
  दूसरा भाग
हबीब तनवीर सभागार में नाट्य विधा में दीक्षित छात्र छात्राओं के द्वारा विश्वविद्यालय के नवरचित कुल गीत के गायन की मनोहारी प्रस्तुति के साथ सम्मलेन की रंगारंग शुरुआत हुई ।कवि नरेश सक्सेना जी द्वारा रचित यह कुलगीत बहुत अर्थपूर्ण है और विश्वविद्यालय के सौन्दर्य, बहुआयामी विस्तार और संकल्पों को भावपूर्ण अभिव्यक्ति देता है -हम मंत्रमुग्ध हो कुलगीत के नाट्य प्रस्तुति में रमे रहे . कुलगीत के उपरान्त सम्मलेन का भव्य उद्घाटन हुआ -पुष्प गुच्छ भेंट किये गए . कार्तिकेय मिश्र ने विषय प्रवर्तन के गुरुतर दायित्व का निर्वाह किया और मैं आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता के साथ उनके मुखारविंद से निकले एक एक शब्द को बड़े ध्यान से सुनता रहा . मैंने अभी तक तमाम गोष्ठियों,सम्मेलनों में विषय प्रवर्तन या बीज वक्तव्य किसी पुरायट पेर्सोनालिटी द्वारा ही देते/करते सुना देखा है . मगर कार्तिकेय जैसे नवयुवा द्वारा इतनी संजीदगी और संयत होकर इस दायित्व के निर्वहन से इस बात को बल मिला कि प्रतिभा और उम्र का कोई समानुपाती रिश्ता नहीं है . बड़े बूढ़े तो दीगर सभागार में उपस्थित युवाओं खासकर छात्राओं ने इस कार्तिकेय - प्रस्तुति को बड़े मनोयोग से सुना सराहा . बाद में विश्वविद्यालय के एक बड़ी अथारिटी ने निजी चर्चा में बताया कि कार्तिकेय के इस जानदार प्रस्तुति और उनके सुदर्शन व्यक्तित्व  से सम्मोहित हो कई छात्राओं ने उन्हें प्रपोज तक कर दिया . सिद्धार्थ जी का अभिनव प्रयोग या कार्तिकेय का डेबू अपीयरेंस हिट हो गया .बधाई कार्तिकेय!
मैंने पहले ही सिद्धार्थ जी से अनुरोध कर लिया था कि मैं सम्मलेन में केवल श्रोता ही बना रहकर सभागार की एम्बियेंस को फील करना चाहता हूँ और उन्होंने इसका ध्यान रखा . अनेक सत्र संचालनों से मुझे मुक्त रखा मगर शाम की कवि गोष्ठी का मुझे संयोजक घोषित कर दिया . आज जिस तरह घणे साहित्य से लोगों की दूरी बढ़ रही है तो मुझे यह आसार तो लग गया था कि कवि गोष्ठी के नाम पर शायद ही लोग इकट्ठे हों . मैं यह शिद्दत से मानता हूँ कि श्रेष्ठ साहित्य -कविता,कहानी और संगीत भी लोगों को अनेक मानसिक संत्रास और अवसाद से तात्कालिक ही सही मुक्ति दिल सकती है बशर्ते लोगों की इन विधाओं में रूचि विकसित हो सके .मैं तमाम लोगों को जिन्हें कविता कहानी में रूचि नहीं है बहुत प्रवंचित मानता हूँ-बिचारे आज की इस आपाधापी भरी ज़िंदगी को सहज बनाने /सहज ही झेल जाने के गुर से अनछुए हैं . मैं गंभीरता से सांध्य कवि गोष्ठी के आयोजन के प्रबंधकीय पहलुओं पर विचारमग्न रहा और सोचता रहा कि क्यों न इसे गांधी हिल के खुले निसर्ग में आयोजित करूँ .कुलपति जी का अनुमोदन भी इसके लिए ले लिया .मगर शाम को चाय के समय अचानक और अप्रत्याशित रूप से सिद्धार्थ जी ने कहा कि  कवि गोष्ठी निरस्त हो गयी है . मैं अवाक! एक बार फिर मुझे एक और रणनीति बनाने की चुनौती मिल चुकी थी .मैंने माहौल बनाना शुरू कर दिया .
 मैंने कविता कला में रूचि वालों को संवेदित करना शुरू किया . शैलेश भारतवासी जी दिखे तो उन्हें न्योता मगर वे कुछ  अनमने से दिखे और कहीं लुप्त हो गये . फिर अपने ट्रस्टेड चेले संतोष त्रिवेदी को बुलाया ,प्रियरंजन जी मिले ,डॉ चोपड़ा जी भी जुटे और इन सभी को सहेजे नागार्जुन बाबा की मूर्ति को प्रमाण /प्रणाम कर मैंने कुछ गुनगुनाना शुरू किया . सुखद आश्चर्य आस पास के लोगों में उत्कंठा,खुसर पुसर शुरू हो गयी . लोग आकर्षित हो लिए . मुझे बहुत अच्छा लगा जब बगल से गुजर रही टूटी फूटी ब्लॉग की सर्जक मगर प्रशस्त व्यक्तित्व की धनी रचना त्रिपाठी जी पास आ गईं और कहा कि वे सुरीली स्वर लहरियों से आकृष्ट हो उधर आ गयीं हैं -मतलब कविता ने रचना को खींच लिया था . यह कविता की शक्ति और सामर्थ्य है . मैं भाव विभोर ही था कि फरमान आ गया कुलपति महोदय डिनर को पधार रहे हैं .आज का डिनर  उनके द्वारा ब्लागरों के सम्मान में था ,मगर रस भंग हो गया .रचना त्रिपाठी जी फिर सुनूगीं के आश्वासन के साथ ये गयीं  वो गईं -उन्हें भी डिनर के लिए तैयार  होना था .
फिर सभी सुधी जन तितर बितर हो गए . और प्रथम तल के डाईनिंग हाल की ओर  बढ़ चले . मैं भी अनमना वहां पहुंचा . मगर फिर रणनीति पर काम शुरू कर दिया . कुलपति महोदय जैसे ही सीढ़ियों से आते दिखे मैं लपक कर उनके सामने पहुंचा और काव्य गोष्ठी का प्रस्ताव रख ही तो दिया . वे सहर्ष मान गए और डायनिंग हाल के सामने के बरामदे में बैठ गए . उन्हें देख कविता से अधिक भोजन उत्कंठित जन भी आ पहुंचे . मैंने कविवर सोम ठाकुर के गीत को राग से छेड़ा -क्या बतलाएं हमने कैसे सांझ सवेरे देखे हैं ,सूरज के आसन पर बैठे घने अँधेरे देखे हैं . मेरी स्वर लहरियाँ सराय में रुके अनेक जाने माने साहित्यकारों ,विचारकों के कानों तक जा पहुँची जिसमें एक तो राजकिशोर जी थे.. वे कमरे से बाहर आ गए और भी अनेक प्रतिभागी कमरों से बाहर आ गये और गीत का आनंद उठाने लगे . अब तक व्यंजनों की सुगंध भी आने लगी थी तो कुलपति जी ने एक पोस्ट डिनर काव्य सेशन की घोषणा कर दी और सब लोग डायनिंग हाल में प्रवेश कर गए .
लोग बाग़ खाने की प्लेट पर व्यंजन सजा रहे  थे कि एक कोने से कुछ हलचल सी हुयी . शकुंतला शर्मा जी ने एक डोंगें में सामिष व्यंजन देखकर बाकी  आईटमों से भी तोबा कर ली कि हाय राम इन सभी को पकाने में तो एक ही कलछुल इस्तेमाल हुयी होगी .मैंने उन्हें कुछ और लेने का अनुग्रह किया मगर वे  रोटी  और सलाद लेकर बैठ गयीं।  वे शाकाहार  अतिवादी हैं, मुझे आभास हो गया तो मैं निरुत्तर हो गया .मगर एक बड़ी आफत आनी तो अभी  शेष थी .मेरे बगल में अच्छॆ खासे जीम रहे संतोष त्रिवेदी जी कोई और आईटम लेने को उठे और फिर थोड़ी देर बार बहुत उत्तेजित और आक्रोशित बडबडाते हुए सामने से दिखे -हाय हाय रे मैं विधर्मी हो गया .मुझे मांस खिला  दिया गया ....इन लोगों ने चिकेन के डोंगें पर सामिष की चिपकी नहीं लगायी ,. बड़ा कुहराम मचा . मुझे खरी खोटी सुनाई -अरे गुरु जी आपने भी नहीं टोका . मैंने कहा कि मेरे बगल ही तो तुम मुर्गे की टांग इत्मीनान से खींच रहे थे तो सोचा कि खाते होगे .वे  मासूमियत से बोले कि मुझे लगा कटहल है. अब इस मासूमियत पर कौन बलि न हो जाय?. धन्य हो चेले . अभी तक यह मामला गरमाया हुआ है -फेसबुक पर लगभग सौ टिप्पणियाँ इस काण्ड पर संतोष जी बटोर चुके हैं -और यह तय हुआ है कि सोने की मुर्गी न सही  कम से कम एक सोने का अंडा श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान देकर ही इस पाप से मुक्ति  मिल सकती है -चेले इस गुरु से बढ़कर श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हे कहाँ मिलेगा? अब  गुरु मत बदल लेना .यह गुरु दक्षिणा का वक्त है और खान पान के व्यामोहों से छूटने का वक्त है -वर्धा में तुम्हारी आहारीय मुसलमानी तो हो ही गयी ..बिस्मिल्लाह हुआ तो अब बेधड़क हो जाओ  एक और  सज्जन प्रतिभागी चिकेन को घुयियाँ /अरवी की रसेदार सब्जी समझ खा गए मगर  इतना टंटा नहीं मचाये . ये खान पान के अतिवादी :-( उफ़!

खैर खाने के बाद कवि गोष्ठी जमी और खूब जमी . शकुंतला शर्मा, प्रवीण पाण्डेय ,सिद्धार्थ शंकर , अनूप शुक्ल और प्रियरंजन आदि ने अपनी चुनिन्दा कवितायें सुनाकर लोगों का मन मोहा ,खूब तालियाँ बटोरी और इस शाम को यादगार बना गए .अनूप शुक्ल की जब ब्लॉगर  स्थानान्तरण पर घर छोड़ता है खूब जमी ,प्रवीण जी की मेरी बिटिया  पढ़ा करो और भीष्म पर उनकी चर्चित कविता ने समां बाँधा . हर्षवर्धन ने समकालीन दर्द को कविता में उकेरा .सिद्धार्थ जी ब्लॉगर पति पत्नी के मन मुटाव पर तालियाँ बटोरी .....यह खुशनुमा अहसास सचमुच एक यादगार है .
जारी ....


मंगलवार, 24 सितंबर 2013

मेरी रणनीति कामयाब रही,अनूप जी दूसरे कक्ष में धरे गए(वर्धा -2)

नागार्जुन सराय का अतिथि कक्ष इतना कम्फर्ट देने वाला था कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गयी . हाँ कमरे का ऐ सी इन दिनों प्रचलित नए माडल का था -जिसके रिमोट से तापक्रम को नियमित करना था . बिस्तर पर पड़ने के पहले ही एक उचित तापक्रम फिक्स करना था ..अचानक ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का एक फेसबुक अपडेट याद आया जिसमें उन्होंने अनुकूल तापक्रम को रिमोट के 16 अंक पर रखने का प्रस्ताव किया था -मैंने झट से रिमोट पर 16 अंक नियत कर बिस्तर गामी हुआ -इतनी ठंडक हुई कि कम्बल ओढने के बाद भी ठंडा महसूस होता रहा -वो तो बाद में मीडिया डाक्टर के डॉ चोपड़ा ने बताया कि सबसे कम्फर्टेबल 26 है . अब  ज्ञानदत्त जी इतने सीनियर ब्लॉगर हैं उनकी बात की अवहेलना भला कैसे उचित थी? -सो आगे भी मेरे कक्ष की ऐ सी 16 पर ही रही और मैं ज्ञान जी की याद करते कपकपांता रहा . वैसे राज की बात बताऊँ मैं वैज्ञानिक चेतना वाला भले हो सकता हूँ मगर प्रौद्योगिकी चेतना मुझमें बिलकुल शून्य है . मुझे अवचेतन में भी लगता रहा कि जितना हम ऊपर के नंबर बढाते जायेगें कमरा और ठंडा होता जाएगा ...सो ज्ञान जी का नंबर ही हर हाल में उचित है :-)
थोड़ी कंपकपाहट और सुबह वाईस चांसलर साहब के साथ मार्निंग वाक का कमिटमेंट, नींद सुबह पांच बजे काफूर हो गयी . एक बारगी तो मन हुआ कि सिद्धार्थ जी जो नागार्जुन में ही ठहरे हुए थे को खबर कर जाने की असमर्थता प्रगट कर दूं पर इतने सुबह फोन करना उचित नहीं लगा तो एस एम् एस किया ...रिग्रेट मार्न वाक ..मगर वह फेल हो गया . अनमने मन से उठा , दैनिक नित्यकर्म से निवृत्त हुआ और कमरे में पांच सितारा होटल की चाय बनाने के उपक्रम से डिप टी का आनंद लिया .तब तक पौने छह बज गए थे .मैं ताजगी महसूस कर रहा था . सो कमरे पर ताला जड़ा और चाभी रिसेप्शन पर न देकर(ताकि अनूप जी कक्ष -प्रवेश न कर जायं )जेब के हवाले किया. 
चौकीदार से वी सी साहब के बारे में दरियाफ्त किया तो पता लगा कि वे तो पंद्रह मिनट पहले ही निकल चुके हैं . सिद्धार्थ जी को फोन किया तो जैसे वे चढ़ाई पर चढ़ रहे हों, साँसों को नियंत्रित करते हुए जवाब दिया कि वे गांधी हिल टाप तक का आधा रास्ता नाप चुके हैं और मुझे साथ इसलिए नहीं लिए कि मैं इसके लिए अन्यमनस्क सा था ....इस बातचीत को ध्यान से देख रहे चौकीदार ने मुझे बाईक राईड का आकर्षक पॅकेज आफर कर दिया -आईये सर वी सी साहब तक मैं आपको पहुंचा देता हूँ . वाह, मजा आ गया -सुबह का मलयज समीर -हल्की धुंध ....और पहाडी की चढ़ाई बाईक पर ....-पूरा विश्वविद्यालय पहाड़ियों और उनकी घाटियों में बहुत ही नियोजित ,सुरुचिपूर्ण और सौन्दर्य बोध के साथ स्थापित किया गया है . अगले ही दो मिनट में हमने वी सी साहब विभूति नारायण राय आई पी एस, भूतपूर्व डी जी (विजिलेंस) उत्तर प्रदेश शासन का काफिला पा लिया . 
प्रसंगवश बताता चलूँ कि इतने ऊँचे ओहदों पर रह चुके वी एन राय साहब को अभिमान रत्ती भर भी छू नहीं पाया है -मैंने जैसा उन्हें पहले (मेरी पहली मुलाक़ात 2001 में हुयी थी ) पाया -देखा था वाईस चांसलर होने पर भी वे वैसे ही सहज सरल और आमंत्रित करते हुए दिखे -पहाडी पर चढ़ाई करते हुए उनकी ही नहीं साथ के सभी प्रातः घुमक्कड़ों की साँसे तेज थीं और इस असहजता के बावजूद भी उन्होंने अपने चिर परिचित अंदाज में मेरे आने को उत्साह से लिया और मेरे साथ के संस्मरणों को साथ के साहित्यकार मित्रों को बताने लगे -महाशेर मछली के बारे में इलाहाबाद में अपने भ्रम का मेरे साथ निवारण का भी रोचक हिस्सा सुनाया . और अपने प्रातः भ्रमण पथ से जुड़े पशु पक्षियों, और आँखों देखे मनु पुत्रों के अस्थायी प्रणय कुटीरों जहाँ अब विश्वविद्यालय के निर्माण वजूद में हैं के मजेदार संस्मरण भी सुनाये . प्रातः भ्रमण पर दृश्यों का विहगावलोकन मुझे सुधा अरोड़ा की इन पंक्तियों को यहाँ उद्धृत करने को उकसा रहा है -"बेहद कलात्मकता, सलीके और आत्मीयता से बनाए गए गांधी हिल, कबीर हिल पर भारत की पूरी सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत ताज़ा हो उठती है और हमें भावुक बनाने के साथ-साथ एक गर्व से भर देती है। सड़कों, संकुल और कार्यालयों के नामकरण भारत के गणमान्य रचनाकारों के नाम पर! कुल मिला कर ज्ञान के इस अपरिमित भण्डार में आना एक अनोखा सुख देता है! यहाँ के कुलपति विभूति नारायण राय और उनकी सहयोगी टीम को इसका श्रेय जाता है, जिन्होंने एक असंभव से सपने को सच कर दिखाया!"

                                                 गांधी हिल से गुजरते हुए मार्निंग वाक पर
रास्ते में उनका एक छात्र जो संभवतः पूर्विया (यू पी का ईस्टर्न बेल्ट ) ही था अपनी पत्नी के साथ सामने से आता दिखा और राय साहब को देखते ही और पति के बताने पर सद्य व्याहता घूंघट ओढ़ कर ओट में हो गयी ....राय साहब ने छात्र को तुरंत एक मीठी झिड़की दी -यह सब गाँव के लिए भले ठीक हो मगर यहाँ घूंघट नहीं .... और आगे बढ़ चले . रास्ते में हो रहे अनेक निर्माण कार्यों को वे दिखाते जा रहे थे जिसमें कुछ अभी भी प्रगति के विभिन्न चरणों में थे और ये कार्य उनके विगत पांच साल से भी कम समय में पूरे हो गए थे -बमुश्किल दो वर्ष पहले ही सिद्धार्थ शंकर जी विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्ति पर थे और इस अल्प काल में ही पूरी हो गयी बिल्डिगों को चकवत देख रहे थे .....बहरहाल वी सी साहब का बंगला आ गया जो नागार्जुन सराय से ही लगा हुआ है और उन्होंने एक कप चाय पर आमंत्रित किया तो भला हम उसे रिफ्यूज करने की हिमाकत कैसे कर सकते थे ....
चाय के साथ कांफ्रेंस चर्चा शुरू हुयी . वी सी साहब ने आ चुके प्रतिभागियों की संख्या पूछी . सिद्धार्थ जी ने कहा कि लगभग दस लोग नहीं आ पा रहे हैं मगर उनके स्थान पर कुछ नए ब्लागरों ने आने की इच्छा जतायी हैं . यही उचित मौका था जब मैंने सीनियर ब्लागर्स के लिए सिंगल रूम की इच्छा जतायी -इस विश्वास के साथ कि वी सी साहब मेरे अनुरोध को नहीं टालेगें . और वही हुआ . उन्होंने सिद्धार्थ जी को कहा कि कुछ लोग जब नहीं आये हैं तो सिंगल कमरा दिया जा सकता है और बाद में आयेगें भी तो उन्हें बगल के फादर कामिल बुल्के गेस्ट हाउस में ठहरा दिया जाय . मुझे अपार खुशी हुयी (जिसे मैंने प्रदर्शित नहीं होने दिया ), जब सिद्धार्थ जी ने इस प्रस्ताव का कोई प्रतिवाद नहीं किया -भले ही दो टक्कर के ब्लागरों के एक साथ ठहराने की उनका मनोरथ विफल हो गया था .....सतोष त्रिवेदी के फेसबुक के अपडेट के मुताबिक़ अनूप शुक्ल और उन सभी को नागार्जुन पहुँच जाना चाहिए था -अनूप शुक्ल ने पोस्ट में लिखा भी है कि वे अपना सामान मेरे कमरे से अडा चुके थे। अनूप जी, मैं आपसे स्मार्ट निकला .. :-) आप करते भी क्या, कमरे की एकमात्र चाभी तो मैं जानबूझ कर अपनी जेब में लिए फिर रहा था ताकि आप प्रवेश न ले सकें .इस सारी रणनीति से अनभिज्ञ अनूप जी से जब अगले पलों हम मिले तो मैंने सीनियर ब्लागरों को पृथक कक्ष देने के उद्घोष से उन्हें गौरवानुभूति का एक अवसर अता किया और सामने के कक्ष में उन्हें प्रवेश दिला ,सुनिश्चित हो राहत की सांस लेते अपने कमरे का ताला खोल खुद को अन्दर कैद कर लिया .कांफ्रेंस शुरू होने में वक्त कम था ......
जारी ......

सोमवार, 23 सितंबर 2013

ब्लॉगर सम्मेलनों की बहार में वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन की रिमझिम!

पिछले हप्ते तो जैसे ब्लॉगर सम्मेलनों की बहार ही आ गई . एक तो काठमांडू में परिकल्पना समूह की अन्तरराष्ट्रीय ब्लागिंग कांफ्रेंस( 13-14 सितम्बर,2013), भोपाल की मीडिया चौपाल ( 14-15 सितम्बर) और फिर वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में 20-21 सितम्बर का आयोजन . एक को छोड़ मुझे दोनों में जाना था . मैंने काठमांडू में एवं अन्यत्र कुछ धार्मिक अनुष्ठान के लिए अपने नियोक्ता से अर्जित अवकाश के साथ अनुमति माँगी थी मगर दिनांक 12 सितम्बर तक अनुमति न मिल पाने से हमें काठमांडू की यात्रा अनिच्छापूर्वक रद्द करनी पडी . मन थोडा उद्विग्न हो गया था . कारण कि कोई कमिटमेंट होने पर मुझे उसे पूरा करने की अच्छी/बुरी आदत है . मन को तसल्ली दी चलो एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन छूटा तो एक और सम्मलेन इत्तफाकन अंतरराष्ट्रीय स्टेटस से जुड़ा था ... मतलब एक हप्ते में ही दो दो अंतरराष्ट्रीय टैगलाईन लिए ब्लागिंग समारोह . अब दूसरे को न छोड़ा जाय इस पर मन फोकस किया . अपने मन और जैविक -अजैविक प्रेरणाओं को टटोला -एक सात्विक प्रेरणा आखिर सब पर हावी हुई और मैं स्तरानुकूल (entitlement) न होने पर भी  तृतीय ऐ सी में यात्रा की हिम्मत कर सका -यह बात दीगर है कि भारत महान की रेल ने मुझे बधाई देते हुए जाने आने की दुतरफा यात्रा को बिना खर्च ऐ सी द्वितीय श्रेणी में अपग्रेड कर दिया -सत्कर्म के आग्रह को ईश्वर भी देखता है :-)
यात्रा लम्बी तो थी मगर यदि ट्रेनों के इंतज़ार की पीड़ा को न जोड़ा जाय तो यात्रा सुखद ही थी . अब ट्रेन से जुड़ी  साफ़ सफाई और कोच अटेंडेंट के प्रोफेसनल दायित्व की कुछ कमी रही भी तो मैं  यहाँ इसकी चर्चा इसलिए भी नहीं करना चाहता कि संघमित्रा ट्रेन प्रवीण पाण्डेय जी के अधिकार क्षेत्र की ट्रेन है जो अपनी बौद्धिक प्रखरता और एक सम्मानित ब्लॉगर भी होने के कारण मेरे आदरणीय हैं . और मन में यह भी था कि वे खुद वर्धा पहुँच रहे हैं सो उनके संज्ञान में कुछ सुझावात्मक बातें डाल दूँगा . रास्ते में कुछ पेंडिंग अकादमीय कार्यों को निपटाया . यह एक और आकर्षण है जो मुझे लम्बी ट्रेन यात्राओं के लिए उकसाता है. मुझे वर्धा के सेवाग्राम स्टेशन पर उतरना था जहाँ ट्रेन का स्टापेज मात्र एक मिनट का था और 19 सितम्बर की  शाम सात बजे  ट्रेन का वहां  पहुंचना नियत था -ट्रेन एक घंटे लेट थी ..रात हो गयी थी सो मैं ट्रेन के धीमे होने पर व्यग्र हो बार बार दरवाजे पर आ  जाता कि कहीं स्टेशन पर उतर ही न पाऊँ.  यह अतिरिक्त व्यग्रता /सावधानी उस समय  जस्टीफाई हो गयी जब  बाद में यह पता चला कि मनीषा पांडे सेवाग्राम न उतरकर आगे के दूसरे स्टेशन बल्लारशाह तक पहुँच गईं और सम्मलेन में काफी विलम्ब से शिरकत कर पाईं .
 स्टेशन पर मुझे लेने विश्वविद्यालय के मीडिया मैनेजमेंट के छात्र विमलेश पांडे को जिन्हें संकाय के डीन और मेरे पुराने घनिष्ठ मित्र डॉ  अनिल राय 'अंकित ' ने काफी सहेज कर भेजा था, आये थे . उन्होंने वैसी ही सजगता और आदर के साथ मुझे रिसीव किया और सफ़ेद झक अम्बेसडर तक मुझे मेरा सामान खुद उठाये हुए ले गए -मैंने उनसे  लाख कहा कि  मैं अभी इतना अशक्त नहीं हुआ मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी -ड्राइवर का गजानन नाम उनके मराठी होने का संकेत दे रहा था . स्टेशन से मात्र दस मिनट तक की डाईव थी -गजानन ने कहा कि क्या मैं रास्ते के साई बाबा के मंदिर को देखना चाहूँगा -क्यों नहीं? मैंने कहा!  इतना सुनते ही  लगा गजानन के मन में मेरी इज्जत बढ़  गईं और मैंने  भी उनके उत्साह को कम करना  उचित नहीं समझा था -वर्धा का साईं मंदिर साफ़ सुथरा था -साईं कृपा -सबुरी लिखा था -सबुरी का मतलब क्या था यह  उत्कंठा मन ही में रह गयी -कोई बतायेगा?
 भव्य नागार्जुन सराय
रात साढ़े आठ बजे विश्वविद्यालय कैम्पस में प्रविष्ट हुए -रात होने के बाद भी वह काफी सुन्दर सा और आमंत्रण देता लगा -फादर कामिल बुल्के गेस्ट हाउस से होते हुए कार जब आगे बढ़कर मुडी तो सामने नव निर्मित नागार्जुन सराय दिखा --जिसे एक अनुपम सौन्दर्य बोध , क्लासिकी और आधुनिकता के  ठेठ ठाठ से संवारा गया है . विशाल फाईबर के पारदर्शी गेट सामने पहुंचते ही अपने आप खुले -इस सराय के लिए कोई खुल जा का सूत्र नहीं था -सबके लिए स्वागत -हर आगत का स्वागत . रिसेप्शन पर एक गतिशील युवा था -आदर से नाम पूछा -और सामने की सूची  पर दृष्टि दौडाने लगा -और मैं भी लगभग उसी तीव्रता से सूची पर निगाह दौडाई -मेरा नाम कम्प्यूटर से प्रिंट दिखा ....अरे अरे यहाँ हाथ से लिखा अनूप शुक्ल का भी नाम दिखा -मेरे साथ? मन में तुरंत कौंधा कि यह तो शरारत हो गयी -मैंने सूची पर फिर सायास नज़र दौडाई -दिखा कि अनूप जी का नाम प्रवीण पांडे जी के साथ कमरा संख्या  206 के सामने  प्रिंट है जिसे हाथ से काटकर मेरे साथ किया गया है ! इन दो प्रत्यक्ष अलग मानसिकताओं -एक व्यंग चेतना संपन्न तो दूसरा वैज्ञानिक चेतना संपन्न को को कौन एक साथ रखने की महत्वाकांक्षा पाले हुए था? -धीरे से पता लगाया तो सम्मलेन के कर्ता धर्ता सिद्धार्थ जी का नाम उद्घाटित  हुआ? एक तीव्र विचार प्रवाह कौंधा -ये सिद्धार्थ जी आखिर चाहते क्या है? दो ध्रुवों को एक साथ करना -एक म्यान में दो तलवारें? खैर यह पता लगते ही कि महानुभाव शुक्ल जी को अगले दिन आना है -एक रात मुझे परवरदिगार ने बख्श दिया था -शेर कौंधा -मुद्दई लाख चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजूरे खुद होता है :-)
 नागार्जुन सराय प्रांगण -साफ़ सुथरा और स्निग्ध
जल्दी ही खाने की बुलाहट आ गयी . ट्रेन के खाने से ऊबा मैं सुस्वादु खाने पर जम  गया . खाना खाने के बाद बाहर ठंडी हवाओं के रुमान का अहसास कर ही रहा था कि सिद्धार्थ जी का सलामती जिज्ञासा का फोन आ  गया और यह फरमान भी कि चिर परिचित वाईस चांसलर साहब के साथ सुबह साढ़े पांच बजे मुझे परिसर की प्रदक्षिणा यानि मार्निंग वाक पर निकलना था -थोड़ी देर में सिद्धार्थ जी आये भी मगर मैंने अनूप प्रसंग को जानबूझ कर नहीं छेड़ा - मामला गंभीर था और मुझे कोई फुलप्रूफ रणनीति बनानी थी ......मैंने इस बात को हठात दबाते हुए सुबह वी सी साहब के साथ मार्निंग वाक  की अपनी अनिच्छा जताई! सोचा तब तक कहीं कोई रणनीति नहीं बन सकी तो? ,दूसरे अल्लसुबह घूमने का आलस्य भी तारी हो रहा था .......
 चित्र सौजन्य: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी 
जारी है ......


रविवार, 8 सितंबर 2013

मुझ पर पड़े बीस नौकरी के वर्ष तीस!(श्रृंखला)

इसी बारह सितम्बर को अपुन की नौकरी के तीस वर्ष पूरे हो रहे हैं, पूरे तीन दशक। इसके बाद चार वर्ष और बचेगें। तेरह सितम्बर 1 9 8 3 का दिन यानि नौकरी का पहला दिन तो आज भी साफ़ शफ्फाक याद है, बाकी के लम्बे सफ़र की कुछ उजली कुछ धुंधली यादें ही अब शेष हैं . जिस राजपत्रित पद पर उत्तर प्रदेश के सेवा आयोग ने नियुक्ति दी थी वह काफी आकर्षक था -"व्याख्याता, मत्स्य विज्ञान और प्रबंध " लखनऊ में स्थित मोहकमाये मछलियान के हेड आफिस ने नियुक्ति के पूरे छह माह बाद नियुक्ति पत्र हाथ में थमाया तो लगा कि जैसे एक बड़ी सौगात मिल गयी हो . जबकि मेरे एक होस्टल सहवासी ने चेताया था कि "मिश्रा जी कहाँ इस मछली वछली विभाग में जा रहे हैं ,अरे महराज आप जैसे बहुमुखी प्रतिभा के आदमी को प्रशासनिक पद पर जाना चाहिए ..लोग तब कहेगें कि देखिये कलेक्टर साहब कितने साहित्यिक  और सुरुचि संपन्न व्यक्तित्व के धनी हैं" -मुझे याद है मैंने उसके चेहरे को ध्यान से देखा था जहाँ  तनिक भी तंज का भाव नहीं था-बस एक विवशता भरा आग्रह था वहां -मगर मैं भी विवश था और अपनी काबिलियत जानता था -प्रशासनिक सेवाओं के लिए जैसा मैं तब भी चुटकी लेता था और आज भी संजीदगी के साथ कहता हूँ -"पैशाचिक अध्ययन'' मेरे जैसे बिखरे हुए मानुष के बस की बात नहीं थी . इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मेरे तत्कालीन हेड आफ डिपार्टमेंट ने मेरे पिता जी से कहा था कि आपका लड़का "बहुत वाईड" अभिरुचियों वाला है, उसे फोकस करना होगा . मगर मैं खुद अपनी मदद करने में नाकामयाब था . लिहाजा यह नौकरी मुझे वरदान सी लगी और मैं इसे न स्वीकार करने का रिस्क मोल नहीं ले सकता था . तब का भावुक मन ऐसे मौकों और फैसलों के लिए ढेर सारी कहावतों और शेरों -शायरी का भी सहारा ले लेता था -मुझे याद है तब मन में यह शेर कौंधा था -मंजिल मिले न मिले मुझे इसका ग़म नहीं ,ज़िंदगी की जुस्तजू  में मेरा कारवाँ तो है! विवाह हुए भी एक वर्ष बीत रहा था और मुझे जीवन की जिम्मेदारी संभालनी थी ..अपना न सही  किसी और की जिन्दगी संभालनी थी -यह  बार बार असहज करता ख्याल भी आता रहता था.
प्रशिक्षण संस्थान के प्रिंसिपल  का पुराना किन्तु अब चाक चौबंद आवास
बहरहाल मत्स्य निदेशालय से नियुक्ति पत्र लपक कर मैं लखनऊ से करीब पंद्रह किमी दूर बाराबंकी रोड पर चिनहट स्थित मत्स्य प्रशिक्षण संस्थान की ओर बढ़ चला . बस ने चिनहट बाजार में उतार दिया और मैंने लोगों से बड़े गर्व भाव से मत्स्य प्रशिक्षण संस्थान का पता पूछा -लोगों ने कुछ ऐसे ढंग से मुझे देखा जैसे मैं कोई सिरफिरा हूँ -उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उधर कोई संस्थान जैसा कुछ भी नहीं है।  आखिरकार एक थोडा भद्र से  दिखने वाले मानुष को यह लग गया कि मैं कहीं मछली ट्रेनिंग सेंटर की बात तो नहीं कर रहा -लोगों ने स्पष्टीकरण दिया नहीं ये तो कोई मतस्य (आज भी यह उच्चारण सुनने को मिलता रहता है ) संस्थान  पूछ रहे थे ...मुझे थोड़ी निराशा सी हो चली थी ....उस सज्जन ने और अब तो सभी यह बताने लगे थे कि आगे से पतली रोड पर तीन किलोमीटर पर है टरेनिंग सेंटर -मैंने पूछा कोई सवारी -जवाब मिला कोई नहीं,पैदल जाईये नहीं तो इंतज़ार कीजिये कोई "खड़खड़ा" शायद उधर जाने वाला मिल जाए -अब तक मैंने ऐसे किसी वाहन का नाम नहीं सुना था -राग दरबारी में भी इसका जिक्र नहीं था . आखिर जल्दी ही एक एक्का -तांगा जो कुछ अलग सा दिख रहा था आ पहुंचा -समवेत आवाज गूंजी लीजिये खड़खड़ा आ गया . और मैं इस वाहन और अब तक जाने पहचाने तांगे का अंतर समझने लगा मगर यह निरीक्षण प्रक्रिया खडखड़े वाले की पुकार से रुक गई -मल्हौर जाना है साहब तो बैठिये ..बाद में मल्हौर रेलवे स्टेशन से भी परिचय हुआ .
                                                 मेरा पुराना किन्तु अब परित्यक्त आवास                                               
प्रशिक्षण संस्थान पर पहुंचते ही मेरा अभूतपूर्व स्वागत हुआ -एक छात्र के रूप में ऐसे स्वागत का मैं अभ्यस्त नहीं था तो कुछ अजीब सा लगा ...कुछ अप्रस्तुत और असहज सा हो गया -यह तो बाद में मालूम हुआ कि वहां ट्रांसफर पर कोई आना नहीं चाहता था -जिसके कई कारण थे :-) ... कुछ ने कहा पूरी तरह ड्राई पोस्टिंग है,तब मैं समझा था जैसे गुजरात ड्राई स्टेट है ,वैसे ही प्रशिक्षण संस्थान में पूर्ण नशाबंदी है! बहरहाल ड्राई और वेट जैसी पारिभाषिक शब्दावलियों का अर्थबोध काफी बाद चलकर हुआ . नौकरी पाते ही उस निर्जन क्षेत्र में जल्दी ही पत्नी को भी इसलिए ले जा पाया क्योंकि वहां  एक बात बहुत अच्छी थी - आवासीय व्यवस्था थी . व्याख्याता के लिए एक छोटा मगर अच्छा सा आवास उपलब्ध था . लखनऊ वहां से पंद्रह किमी दूर था मगर बिना नागा हर सन्डे  गंजिंग (लखनऊ के मुख्य पाश बाज़ार हजरत गंज घूमना) और सिनेमा देखने शादी में मिले नए स्कूटर चेतक पर पत्नी को बिठा कर ले जाना होता था ... बड़े रोमांटिक दिन थे वो ..बस एक सप्ताह में दो लेक्चर लेने थे.

इतने समय बाद -पूरे दशक बाद मैं अभी पिछले माह फिर चिनहट गया -व्याख्यान देने .सब कुछ बदल गया था . आँखें जो देख रही थी उस पर भरोसा नहीं हो रहा था -जहाँ खडखड़े चलते थे अब फर्राटे से मोटर गाड़ियाँ दौड़ रही थीं .लखनऊ महानगर अब यहाँ तक के अक्षत परिवेश को अपने आगोश  में ले चुका था -कंक्रीट का विशाल जंगल कभी नीरव और शांत रहे इस स्थान पर उग आया था . मैं आग्रहपूर्वक अपने आवास को देखने गया -हम लोगों के जाने के बाद उसमें कोई नहीं आया था ..पहले भी हमने ही उसमें गृह प्रवेश किया था .क्योकि लोगों का यह दावा था कि उसकी छत पर भूत और चुडैलें नाचती हैं .सहसा मुझे लगा कि यह परित्यक्त आवास जैसे मुझसे कह रहा हो कि आईये हमें एक बार फिर आबाद करिए .......जारी ......

यह श्रृंखला मेरे बच्चों,  कौस्तुभ और प्रियेषा को समर्पित है जिन्होंने मेरे सेवाकाल का बहुत कुछ न देखा है न जाना है.

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

हाय रे हिंदी ब्लॉगर पट्टी!

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया पर दो दिवसीय सेमिनार एवं कार्यशाला (20 और 21 सितंबर 2013 को ) का निमंत्रण  आज मिल गया . आपको मिला या नहीं? आपने अगर प्रस्ताव भेजा होगा तो आपको भी निमंत्रण मिल गया होगा .अपना मेल या स्पैम भी खंगाल लीजियेगा . निमंत्रण पत्र में कहा गया है कि "आपको अधिकतम 3-एसी में आने जाने का यात्रा भत्ता दिया जाएगा एवं आपके यहाँ ठहरने और भोजन आदि का भी प्रबंध हैं। आप आगमन की तिथि और स्टेशन की जानकारी हमें जल्दी दे देंगे तो इसमें सुविधा होगी। आप वर्धा या सेवाग्राम किस गाड़ी से किस समय उतरेंगे, इसका स्पष्ट उल्ले़ख प्रेषित करें। हम आपके मेल का इंतजार कर रहे हैं। " 
ज़ाहिर है आयोजन समिति बहुत ध्यानपूर्वक आयोजन के बारीक पहलुओं को भी देख रही है। अन्यथा कई आयोजक यह कहते हुए झेले गए हैं कि स्टेशन से उतर एक रिक्शा पकड़ कर पूछते पाछते चले आईयेगा -फला सिनेमा टाकीज के आगे से पतली सड़क पर मुड़ कर फिर बाएं चल कर गली से होते हुए नीम के पेड़ से दायें हाते के बाएं किनारे से अंदर की मस्जिद की दीवार से ही सटे संस्थान पर उतर जाईयेगा -पहली मंजिल  के बरामदे में पोस्टर दिख जाएगा ..... :-) मुझे उम्मीद है इस सेमीनार को एक सुखद और आत्मीय अकादमीय परिवेश में आयोजित करने में समिति आगे भी सचेष्ट रहेगी . मशरूम की तरह सरकारी धन पर उगने पलने और बढ़ने वाली तमाम समितियों जैसा आचरण -व्यवहार यहाँ देखने को नहीं मिलेगा!
मगर आयोजक ही नहीं हिन्दी के ब्लॉगर/ विद्वान भी कम नखरे नहीं दिखाते जबकि अंग्रेजी के ब्लॉगर बहुत संजीदे सुलझे और साफ़ दृष्टि वाले होते हैं -यह बात मैं कम से कम अपने तीन दशक के अनुभव पर कह रहा हूँ .कमोबेस स्थिति जैसे पहले थी अब भी वही है, हाँ ब्लॉगर भी अब इसी सूची में आ गए हैं . कई लोगों को आज भी इस सेमीनार की घोषणा का  पता ही नहीं है -मैंने एक से कहा कि क्या आप सत्यार्थ मित्र ब्लॉग नहीं पढ़ते तो उनका जवाब था पढता तो हूँ .फिर मेरा प्रश्न था वर्धा सेमीनार पर उनकी एक पोस्ट भी तो थी? -कुछ याद करते हुए वे बोले हाँ कुछ कुछ याद आ रहा है। "फिर तो आपको पूरी जानकारी हो गयी होगी? " इस सारे पूछताछ का रिजल्ट यह निकला कि इतनी फुर्सत कहाँ  है, पोस्ट की एक एक लाईन ध्यान से पढी जाय . जितने समय में एक पढ़ेगें उतने में तो दर्जन भर से ऊपर में जा टिपिया आयेगें? 
हद है! यह गंभीरता है हिन्दी ब्लॉगर पट्टी की . जबकि अंग्रेजी के ब्लागर पूरी जिम्मेदारी से पोस्ट पढ़ते हैं ,आवश्यक पृच्छायें करते हैं और आयोजनों में पूरे जोश खरोश के साथ शरीक होते हैं और अपने अकादमीय सरोकारों को पूरा कर एक किस्म का आत्मगौरव महसूस करते हैं . मैं यह सब इस आधार पर लिख रहा हूँ कि मैंने इन दोनों ही संस्कृतियों को करीब से देखा है .
हिन्दी के ब्लॉगर में एक तो आत्मविश्वास की भी कमी दिखती है . मैंने एक से इस सेमीनार में जाने का अनुरोध किया तो जवाब था अब मैं कहाँ इस योग्य हूँ सर कि ऐसे बड्डे बड्डे लोगों के बीच जाकर कुछ कह सकूं -मैं तो बस यहीं ठीक हूँ! अब यह सुनकर एक तरह की असहजता जो होती है (बड्डे बड्डे सुनकर ) सो अलग, एक किस्म  की बेबसी भी हो आती है कि अगले को कैसे समझाया जाय . एक ने ज्यादा चर्चा ही इस पर नहीं होने दी और छूटते ही जवाब आया "आई एम नाट इंट्रेस्टेड " लो जी ..डिजिटल मीडिया से  मन नहीं भरा तो मुद्रण माध्यम तक पहुँच कर छपास तो मिटायी जा रही है मगर सेमिनार के सरोकार पर टका सा जवाब .

एक और जवाब तो हतप्रभ करने वाला था -मुझे पता है इन सम्मेलनों सेमिनारों में क्या होता है? व्यभिचार के अड्डे हैं हैं ये ..लो जी कल्लो बात ... हा हा। और कोढ़ में खाज यह भी-  अब हम ठहरे खानदानी इज्जत आबरू वाले लोग -कैसे जा सकते हैं इन सेमीनार सम्मेलनों में? अरे उन्हें/ मेरे  उनको पता लग जाय बस! मेरा तो काम तमाम! अब घर में ब्लॉग लिख लेना ,अखबारों में छपने के लिए मेल से रचनाएं भेज देना, छपने पर फेसबुक पर टांक आना इज्जत के साथ यह सब बढियां है -ना बाबा ना मुझे सेमीनार में नहीं जाना! अब आप खुद ही फैसला ले लीजिये कि हिन्दी ब्लॉगर किस युग में जी रहे हैं?

लोगों के तरह तरह के आग्रह हैं . पूर्वाग्रह हैं . हाँ रचनात्मक प्रतिभायें  है मगर ऐसी प्रवृत्तियाँ ? अरे हम तो अब इसलिए वेबिनार की वकालत करते हैं कि उम्र अधिक हो रही है तो आने जाने में असुविधा होने लगी है . मगर नयी पीढी को ये क्या हो गया है? अकादमीय सरोकारों से यह कैसा मुंह मोड़ना या पलायन? मुझे तो इस प्रवृत्ति पर बहुत क्षोभ है! चलिए, जो वर्धा चल रहे हैं उनसे वहीं मुलाक़ात होगी . सिद्धार्थ जी कृपया आमंत्रित लोगों की एक सूची अपने ब्लॉग पर और वर्धा विश्वविद्यालय के वेबसाईट पर प्रकाशित करें ताकि हम सभी हिन्दी ब्लागिरी के ध्वजावाहकों को जान सकें और  सेमीनार पूर्व संवाद भी स्थापित कर सकें!

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