आम लोगों की बुनियादी समस्याओं -कपडा रोटी मकान स्वास्थ्य आदि तो ठीक है मगर जनप्रिय सरकारें कई ऐसे कामों में अपने सरकारी मुलाजिमों की फ़ौज को लगा देती हैं जिनका छुपा मकसद केवल आगामी चुनावों में अपना वोट बैंक पक्का करना होता है -इसी में कई जाति आधारित विकास कार्यक्रम भी हैं .हर वर्ष के तेजी से घटते भू जल स्तर और प्रायः हर वर्ष के भयानक सूखे और बाढ़ को लेकर कोई दूरगामी रणनीति/कार्ययोजना नहीं दिखती -बिहार में बस एक महीने बाद महा विनाशकारी बाढ़ की सुगबुगाहट शुरू हो जायेगी मगर हमारे पास इसका कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है -सरकारें बस लघुकालिक लाभार्थीपरक उन योजनाओं पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं जिनसे वे बस आसन्न चुनावों में वोटो की फसल काट सकें -शायद अपनी यह मूरख जनता भी ऐसी ही है ,इन्ही सरकारों के लायक! हमारे पास कोई टिकाऊ, स्थिर विकास का माडल नहीं दीखता ...
सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां चुनी हुई जनप्रिय सरकारों के पास ही सारे विधायी अधिकार होते हैं सरकारी कर्मी बस जी हुजूरी तक ही सीमित हो रहते हैं -अब इतनी फजीहत इन जनप्रिय सरकारों में सरकारी मुलाजिमों की है कि कुछ मत पूछिए .उन्हें वही लोक लुभावन ,वोट बटोरू पार्टी अजेंडे के मुताबिक़ योजनायें बनानी और कार्यान्वित करनी हैं जो वे कभी भी शायद स्वेच्छा से नहीं बनाते ....वे बस यस मिनिस्टर कहते रहने को अभिशप्त हैं जबकि उनकी योग्यता में कोई कमी नहीं है किन्तु उसका इस्तेमाल नहीं है -अभी एक बहु प्रचारित सरकारी स्कीमं के तहत मिट्टी के उन टेम्पररी कामों में जनता का धन पानी की तरह बहा है जिनका अगली बरसात में कोई नामों निशान नहीं रहेगा ....बस इसके सहारे लोगों को घर बैठे मजदूरी का प्रलोभन और प्रकारांतर से अगले चुनावों में वोट बटोरने का ही छुपा अजेंडा मुख्य है ....इस कार्यक्रम को कानूनी जामा पहनाकर सरकारी कर्मियों को भी विवश कर दिया गया है कि वे इस अनुत्पादक काम में लगें और जरा भी ना नुकर न करें नहीं तो जेल की हवा खा सकते हैं ...मरता क्या न करता सरकारी अमला जामा पूरे देश में इसके कार्यान्वयन में जुटा है....
कभी कभी यह हताशा का भाव उमड़ने लगता है कि क्या सरकारी कर्मियों की कोई अपनी आवाज नहीं है जो वे समय समय पर राष्ट्र के निर्माण में अपनी भी सार्थक भूमिका निभा सकें .....उन्हें यह पता है कि अमुक अमुक योजनायें केवल वोट बटोरूँ योजनायें हैं मगर वे कुछ कर नहीं सकते ....उन्हें बस आँख मूद कर ऊपर के आकाओं हुक्म बजाना है -लोग आम तौर पर यही समझते हैं कि 'विकास' और 'कल्याण' की अनेक योजनाओं पर संवेदनशील सरकारें कितना धन मुहैया करा रही हैं -मगर भैया यह पैसा तो देश के टैक्स पेयर का है , सरकारों का कहाँ? -यह पाई पाई तो त्वदीय वस्तु गोविन्द तुभ्येव समर्पये की पवित्र भावना से ही खरचना चाहिए न की वोटों की खातिर इन्हें स्वाहा करते जाना चाहिए ...
आज गावों में मुफ्त अथवा कौड़ी के दाम पर राशन ,रोजगार आदि मुहैया कराया जा रहा है ....लोगों का साफ़ कहना है कि इससे कामचोर बढ़ रहे हैं -घर घर के सामने सरकारी नलें लग रही हैं ,मगर पानी नदारद है ....पीपली लाईव में लालबहादुर हैण्ड पम्प लगाने का उपक्रम जिसने देखा होगा वह इस बात को सहज ही समझेगा ....भू जल रसातल वेग या पलायन वेग से नीचे जा रहा है -हमारे पास इसकी कोई दूरगामी कारगर रणनीति नहीं है ....बस 'लालबहादुर हैंडपंप' लगते जा रहे हैं -सारा तामझाम बस वोटों की खातिर है ....हमारे आका अधिकारी बस इन्ही योजनाओं जिनसे नेता जी को वोट हासिल हो सके की कवायद में हलकान हुए जा रहे हैं और मातहतों की नीद हराम किये हुए हैं ....सारी की सारी सरकारी मशीनरी जैसे अपना वजूद ,अस्मिता और जमीर खोती सी गयी है ....नेता ,चंद भ्रष्ट अधिकारी और कांट्रेक्टर-दलाल का नेक्सस नई नईं कारगुजारियों में लगा रहता है ....हलकान नीचे का मुलाजिम होता है ...
अब तो यही लगता है जनप्रिय सरकारों की चाकरी के बजाय जीविकोपार्जन का कोई और रास्ता चुना गया होता तो कम से कम अपनी निजी गरिमा को बचाए रखते हुए राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा में कुछ ईमानदार सहयोग तो दिया ही गया होता -यह पूरा जीवन ही जैसे व्यर्थ चला गया हो!
देश की आधी समस्याओं की जड में सरकार और प्रशासन पर कुण्डली मारे बैठे यही सांप हैं।
जवाब देंहटाएंसरकारें भले ही जनप्रिय बोल सकते हैं, परंतु जनता के पास चुनने के लिये विकल्प होते हैं, अगर यह विकल्प की जगह स्वतंत्र कर दिया जाये तो कुछ हद तक बात बन सकती है।
जवाब देंहटाएंरही बात मुलाजिम की तो सरकार उससे सब करवा सकती है आखिर उसका घर चला रही है सरकार ।
समाज को बड़ी चालाकी से धर्म और जाति में बांट दिया गया। अब जनप्रिय सरकारें जानती हैं कि वोट कैसे मिलना है और कौन देगा फिर वे ऐसी नीतियां ही लागू की जायेंगी न जिनसे उनका वोट बैंक मजबूत हो। इनके स्वार्थ का खामियाजा मुलाजिमों को तो भुगतना ही है।
जवाब देंहटाएंअरविंद जी,
जवाब देंहटाएं"यह पूरा जीवन ही जैसे व्यर्थ चला गया हो!"
छोटे मुंह बड़ी बात कह रहा हूं लेकिन देर कभी नही होती है।
बढ़िया है गुरु ...
जवाब देंहटाएंहम तो आपके लिए यही बोलेंगे कि...
"बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला"
शुभकामनायें
@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंअगर जनगण राजनैतिक चेतना समृद्ध / समाजीकृत हों , तो राजनेताओं की इस तरह की चुहलबाजियों और इस ब्रांड के राजनेताओं का कोई नाम लेवा ना रहे !
कथित विकास की ये अल्पकालिक जादूगरियां /जनकल्याण के नाम की टोटकेबाज़ियां आखिर को किसे फायदा पहुँचाती हैं ?
आपके आलेख में 'जनप्रिय सरकारों' के नेताओं की जी हुजूरी में लगे होने के नाम पर बड़े नौकरशाहों बख्श दिया गया जैसा लगता है , जबकि बड़े राजनेता और बड़े नौकरशाह और बड़े उद्योगपतियों की तिकड़ी निज हित में देश के संसाधनों का सबसे ज़्यादा दोहन कर रही है इसके बरअक्स छुटभैय्ये नेता और निचले क्रम की नौकरशाही तथा मंझोले पूंजीपतियों का समेकित गिरोह आदमखोर शेर की निगाहों के नीचे बचे खुचे माल को साफ करता रहता है ! आशय ये कि कथित रूप से अनुत्पादक कार्यों में लगा तबका भी अपने 'जुगाड' कर ही लेता है ऐसे में पीड़ित पक्ष तो केवल जनगण ही हुआ ना ? और वो भी अपनी राजनैतिक 'नासमझ' के चलते !
आपके आलेख में उल्लिखित चिंताओं,खासकर विकास योजनाओं की लघुकालिकता बनाम दीर्घकालिकता,से सहमत हूँ !
@ सतीश भाई ,
आपने शुभकामनायें किसे दीं ? अरविन्द जी को या जनप्रिय सरकारों को ? :)
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जवाब देंहटाएंराजनीति अगर हावी हो गयी है तो उसके लिये ये जनता और ये मुलाजिम अपनी जिम्मेदारी से मात्र कोसने के आधार पर बच नहीं सकते! :)
जवाब देंहटाएंsundar post.....
जवाब देंहटाएंali sa ke vichar post ke prishtbhoomi
me ana uchit tha....
saath hi gyan da ke vichar is chintan ko manthan karne ke liye prerit kar raha hai.........
pranam.
राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों से उनके कार्य को छोड़ सब करवा लेती हैं।
जवाब देंहटाएंये सरकारी महकमें ही अगर सुधर जाएँ तो ९०% समस्याएं खत्म हो जाएँगी भारत की.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को पढते हुए ऐसा भास हो रहा है जैसे सारे सरकारी मुलाजिम वास्तव में ईमानदार हैं पर सरकार के दबाव में बेचारे गलत काम करने को मजबूर हैं... अगर जमीनी स्तर पर देखें तो जनता का सबसे ज्यादा दोहन ये मुलाजिम ही कर रहे हैं.. और अगर यह मुलाजिम चाहें तो वोट वातोराने के लिए बनी योजनाओं को भी जनता के हित में कार्यान्वित कर सकते हैं... योजना में ऐसा कोई नियम नहीं होगा कि 'मिट्टी के टेम्पररी काम' ही करवाए जाएँ.. पर लूटने के चक्कर में.....
जवाब देंहटाएंभूल सुधार:- 'वातोराने' को 'बटोरने' पढ़ें ..
जवाब देंहटाएं@ अली सा ,
जवाब देंहटाएंयह शुभकामनायें अरविन्द भाई को है, बुरी नज़रों से बचाने के लिए !
:-)
विकासशील देशों में ये मुद्दे बहुत बड़े होते हैं. विकास के साथ-साथ ये सब बातें अपने आप गौण होने लगती हैं
जवाब देंहटाएंऔर हमें लग रहा था कि सरकारी नौकरी में होते तो शायद कुछ कर पाते !
जवाब देंहटाएंदफ्तर में नौकरी , घर में चाकरी ।
जवाब देंहटाएंयूँ बिताता है जीवन नौकर सरकारी ।
पुख़्ता इँतज़ाम क्यों नहीं है, अरविन्द भाई ?
जवाब देंहटाएंसूखे ने निराश किया तो क्या, वह दिनों रात आपदा प्रबँधन की मीटिंगों में व्यस्त है ।
बाढ़ प्रबँधन से अधिक चिन्ता बाढ़ को लेकर धन आवँटन की है... केन्द्र से कितना वसूला जाये,
मित्रवत काँन्सटिट्यूएन्सी को कैसे चिन्हित किया जाये, कमज़ोर बँधों को मीडिया से दूर कैसे रखा जाये..
फ़ाइलें हैं, उनका काम सरकते रहना है... कर्मचारी भी यही फ़ॉलो कर रहे हैं, फाइल आयी, सरका दी ।
वडनेकर साहब से पूछ देखिये, सरकारी के उद्गम में सरका-दी का ही भाव है ।
@डॉ. दराल
जवाब देंहटाएंडॉक्टर दराल सर, अब भारत गुलाम नहीं है... इसका सबसे बड़ा लाभ इन कर्मचारियों और नीति नियँता अफ़सरों को ही मिला ।
अन्यथा.. मुग़लों और अँग्रेज़ों के समय समझा जाता था..
नौकरी = नो + कॅरी
चाकरी = न चूँ करी, न चाकरी
इस निरँकुश शासनतँत्र में तो सरकारी नौकरी ईश्वर-प्रदत्त वरदान है, जो पिछले जन्मों के पुण्य-कर्मों से मिला है । अब तो ख़रीदा भी जाने लगा है.. क्या कहते हैं ?
गिरिजेश उवाच :
जवाब देंहटाएंआशियाने की बात करते हो
दिल जलाने की बात करते हो।
- विकास का कोई स्थायी मॉडल न होना
- भू जल स्तर का नित्य नीचे होते जाना
- एक ही साथ सूखा और बाढ़
- योग्यता का इस्तेमाल नहीं
ऊपर की चारो समस्यायें अपने मूल रूप में वोट की या राजनीति की
सम्भावनायें नहीं रखतीं। इसलिये जनता और सरकार दोनों की इनके उन्मूलन
में कोई रुचि नहीं है। हाँ, इनसे उपजे हजारो एवेन्यूज में वोटक्रीड़ा की
अनंत सम्भावनायें थीं, हैं और रहेंगी। धनदोहन तो अपनी जगह है ही। जन का
बहुलांश नाली के कीड़ों जैसा ही है। इसलिये अधिक परेशान होने की आवश्यकता
नहीं। स्वर उठाते रहिये और अपनी सीमाओं में ही शुभ कर्म करते रहिये।
भारत देश 33 करोड़ देवताओं, भगवान, पीर, औलिया, मौलिया और उतने ही
राक्षसों से भरा पड़ा है। यहाँ कुछ अच्छा घटेगा तो अवतारी मनुष्य़ के
हाथों ही। हाँ, उसके पहले महाविनाश भी होगा।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
इस षोडस महामंत्र का नित्य 108 बार पारायण कीजिये। महादेव आप की तड़पती
आत्मा को शांति देंगे।
@आशीष जी ,
जवाब देंहटाएंयह शुरुआत उसी दिशा में है
@ज्ञानदत्त जी ,
सही कहते हैं ,कोई अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता ..
पर सूरते हाल तो बदले इस पर भी जरा चिंतन किया जाय
@प्रवीण पाण्डेय जी ,
क्या केंद्र की सरकारें इतनी ही दूध की धुली हैं -पिछले वर्षों के बड़े घोटाले कहाँ हुए हैं ?
@सत्यार्थी जी ,
हाँ है न मनरेगा में ६० फीसदी काम केवल मिट्टी का है जो अन्स्किल्ल्ड लेबर करते हैं ...
वह एक अनुत्पादक काम है
@गिरिजेश जी ,
मेरी पोस्ट के बीज मन्त्रों को रेखांकित करने का आभार
मेरी तो हालत बहुत पतली है -न मंत्रम न जंत्रं ....तदपि न जाने स्तुति महो ...न जाने मेरा क्या होगा ?
यह मन्त्र तो अच्छा है :)
@डॉ.अमर कुमार,
यहाँ तो आप असहमत नहीं दीख रहे ,,बाकी डॉ दराल का आह्वान आपने किया है ..वे जाने ...
आभार इस जानकारी के लिये।
जवाब देंहटाएंअभी कल-कत्ते की तो बात है- यदि यस मिनिस्टर नहीं कहेंगे तो सस्पेंड हो जाएंगे :) बाकिया तो सही है डॉक्टर साहब॥
जवाब देंहटाएंरावण की लंका में विभीषण की मन:स्थिति भी क्या ऐसी ही रही होगी ?
जवाब देंहटाएं'अब तो यही लगता है जनप्रिय सरकारों की चाकरी के बजाय जीविकोपार्जन का कोई और रास्ता चुना गया होता तो कम से कम अपनी निजी गरिमा को बचाए रखते हुए राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा में कुछ ईमानदार सहयोग तो दिया ही गया होता -यह पूरा जीवन ही जैसे व्यर्थ चला गया हो!'
जवाब देंहटाएं- इस हताशा के चलते समाजसेवा नहीं हो सकती |
एक सरकारी अधिकारी इन मनःस्थितियों से गुजर रहा होता है कोई सहज में कल्पना भी नहीं कर सकता.
जवाब देंहटाएंमैं भी कह सकती हूँ कि विकास का जो चेहरा दिखा कर यहाँ की सरकार लोकप्रिय हो रही है जमीनी हकीकत कुछ और ही है .मैंने करीब से देखा है ..फिर भी ...आपसे सहमत हूँ ..
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