रविवार, 1 मई 2011

कुछ गजल वजल हो जाय ......(लाईटर मूड में)

मुझसे किसी ने कल या परसों पूछा कि क्या  मैं गजल वजल भी लिखता हूँ ..मेरा जवाब अक्सर यही होता है नहीं और यह बिलकुल सच जवाब है ...मैं जिस शुष्क और असंवेदनशील माहौल में काम करता हूँ वहां ऐसी रचनात्मकता के लिए कोई जगह नहीं है .बल्कि उल्टे लोग ऐसी सृजनात्मक प्रवृत्तियों को उपहास की नजर से देखते हैं - जैसे  गजल वजल लिखना कोई नामर्दगी का काम हो ..हमारा परिवेश ऐसे ही लोगों से भरा पूरा है ...अगर आपकी ऐसी कोई चित्त वृत्ति है तो आप तुरंत हलके में ले लिए जायेंगे  -और अगर कहीं अपने ऐसे हुनर के चलते आप कोई ठीक ठाक रोजगार पाने से रह गए तो फिर तो उपहास की धार और तेज हो जाती है -'देखो तो पढ़े फारसी बेचें तेल' ...

समाज का जब ऐसा हाल है तो रचनाधर्मिता का दुर्दिन तो है ही ....अब कैसे कोई कविता गजल लिखता रहे और लिखकर भी इस तंत्र में तना रहे ..मैंने कई बड़े ही प्रतिभाशाली उच्च पदों पर आसीन अफसरों को देखा है जिन्होंने शुरुआत में तो अपनी सहज रचनाधर्मिता बनाये रखी मगर बाद के नौकरी के दिनों में उन्होंने रचनात्मकता से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर मुड़  कर नहीं देखा ..सरस्वती सिर धुनती रह गयीं!एक बहुत ही ओजस्वी रचनाकार जिनकी साहित्य जगत में तूती बोलती थी -पी सी एस आफीसर बनने के बाद धीरे धीरे अपने इस शौक का दामन छोड़ते गए और करीब पचीस बरसों बाद जब एक जिले में डी.एम् .बन कर आये तो मैंने उनकी कुछ पुरानी कवितायेँ सार्वजानिक रूप से पढ़ दीं -मुझ पर नाराज हो गए, अलग ले जाकर बोले कि मैंने अपनी उस पुरानी जिन्दगी को अलविदा कह दिया है -यहाँ मेरी पोल मत खोलो, लोग हलके में लेने लगेगें -मैं हतप्रभ रह गया ...ऐसे ही एक आई ये यस  हैं (वैसे ये तबका अब  कम रचनाधर्मी होता है) जो कभी लिख लिख कर मुझे अपने शेर भेजते थे अब शेरो शायरी का नाम भी नहीं लेते ....आज एक बहुत ऊँचे ओहदे को सुशोभित कर रहे हैं ....कभी मिलने पर शेरो सुखन और मौसिकी की बात छेड़ो तो किसी सोच में डूब जाते हैं .कितना दुखद है हमारा परिवेश अब इन सहज मानवीय वृत्तियों का विरोधी बन बैठा है ...या शायद  हमेशा से विरोधी रहा है ...

ऐसे में मेरे जैसा अदना सा मुलाजिम कोई गजल लिखता भी तो कैसे ...? ये हुनर आया ही नहीं ,हाँ कुछ लेख वेख पर जरुर हाथ आजमा लेता रहा क्योकि ऐसी सृजनशीलता छुपाई जा सकती है मगर कविता और शेरो शायरी का शौक इश्क और मुश्क की तरह  छुपता नहीं, फ़रिया जाता है और अक्सर फजीहत का बायस बन जाता  है हुक्मरानों और निजाम के बीच ...अब कहाँ रहे वे गुणग्राही लोग और हुनर की कद्र करने वाले राजा महराजा ...अब तो हालत यह है कि 'कद्रदानों की तबीयत का अजब हाल है आज ,बुलबुलों की ये हसरत के वे उल्लू न हुए..' ....

बात मैंने शुरू की थी उस मित्र के सवाल से -उन्होंने जिद पकड़ ली ..आपने लिखा जरुर होगा .मैं मान ही नहीं सकता/सकती-अब कुछ आग्रहों को टाला भी नहीं जा सकता तो मैंने अपने कई ट्रांसफरों   के दौरान चिद्दी चिद्दी होती डायरी के एक पुराने पन्ने से यह गजल उन्हें समर्पित कर दी .आप भी मुलाहिजा फरमाएं ....

मुझसे आखिर क्या खता हो गयी 

निगाहें उनकी जो खफा हो गयीं 
चाहत में न थी मेरे कोई कमी 
आशनाई उनकी  फ़ना  हो गयी 
या  कोई रकाबत का है ये  सितम 
उल्फत जो उनकी  बदनुमा हो गयी 
निभाते रहेगें हम रस्मे  वफ़ा 
गर जुदाई उनसे फिर भी हो गयी 



यह तब की है जब मैं बी एस सी कर रहा था -गुनी जन टालरेट कर लेगें ऐसी गुजारिश है और  मात्रा भाव आदि का दोष हो तो ठीक भी कर देगें यह भी अनुरोध  है .मैं इस रचना  को यहाँ  देते हुए बहुत सकुचाया और अब शर्मा भी रहा हूँ ...गुनी जन क्या कहेगें!इत्ती घटिया रचना ..हा हा ..मित्रजन तो वाह वाही करेगें ही,मित्रता में कोई दोष देखता है भला? उम्मीद तो पारखियों से है और आज के दिन तो मैं यह भी न लिख पाऊँ!


इस रचना को कुछ यूं इम्प्रोवायिज किया है ब्लागजगत के हर दिल अजीज हरफनमौला सतीश सक्सेना साहब ने ..मुलाहजा फरमाएं -
मुझको आखिर बताएं खता क्या हुई
क्यों तुम्हारी निगाहें बदल सी गयी !
चाहतों में न आई, मेरे कुछ कमी
आशनाई क्यों तेरी फ़ना हो गयी !

यह कैसी रकाबत,यह कैसा सितम है
क्यों उल्फत,तेरी बदनुमा हो गयी है?
निभाते रहेंगे, यह रस्मे वफ़ा हम !
जुदाई तेरी गर, नसीब बन गयी है ! 

शुक्रिया सतीश भाई! ....

.

47 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई लगता है प्रगतिशीलता और रचनात्मकता विपरीत सी चीजें हो गई हैं.

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  2. @ अरविन्द मिश्र शर्मा रहे हैं ...
    कमाल हो गया इतनी प्यारी ग़ज़ल और उसके भाव, छप्पर फाड़ने की कुव्वत रखते हैं :-)
    शुभकामनायें आपको !

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  3. भाव तो अच्छे हैं, शिल्प के विषय में गज़लकार बंधु बता सकते हैं.
    मैं आपकी वाह-वाह नहीं करती तो क्या मैं आपकी मित्र नहीं हूँ :-)

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. अरविंद जी नमस्ते!
    दुखती राग पर हाथ रख दिया जनाब आपने तो... :)
    पर वाकई अल्फ़ाज भावनाओं की चाशनी में डूबे हुए है ....

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  6. गिरिजेश उवाच -

    @आपने लिखा जरुर होगा .मैं मान ही नहीं सकता/सकती-अब कुछ आग्रहों को
    टाला भी नहीं जा सकता

    हाय! किसी ने मुझसे कहा होता/ती तो मैं पूरा दीवान रातो रात रच कर सुबह
    लाइन हाजिर कर देता आइ मीन पेशे खिदमत कर देता।

    'पढ़े फारसी बेचे तेल' जुमला मुझे कई बार सुनना पड़ा है और मुआ लिटरली
    ठीक भी बैठता है :(

    @@गिरिजेश जी , सच है यह कहावत शब्दशः आप पर कितनी सुशोभित हो रही है ..हा हा

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  7. संयोगवश मेरे ध्‍यान में ऐसे ही लोग अधिक हैं, जिनकी साहित्यिक प्रतिभा में पद पाकर चार चांद लगे बल्कि कई की प्रतिभा का अविर्भाव ही पद पा कर हुआ,(वह भी तब जब उनके मातहतों ने इस ओर उनका ध्‍यान दिलाया).

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  8. प्रतिभा छुपाये रखी है। हृदय अनियमित हो धड़केगा तो गज़ल बह ही जायेगी।

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  9. आप ने बेहतरीन लिखा है,ग़ज़ल नहीं है ये।
    अहसास को खूबसूरत अल्फाज मिले हैं।
    लेकिन ये जरूरी भी नहीं कि हर खूबसूरत चीज ग़ज़ल ही हो।

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  10. @दिनेश जी ,
    आखिर तब ये है क्या? मैं भी तो जानू..? क्या लिख गया ? :)

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  11. इस रचना को दुबारा नए रंग में लिखें.... आनंद आएगा !पहली चार लाइनें दे रहा हूँ शायद आप पसंद करें ...

    मुझको आखिर बताएं खता क्या हुई
    क्यों तुम्हारी निगाहें बदल सी गयी !
    चाहतों में न आई, मेरे कुछ कमी
    आशनाई क्यों तेरी फ़ना हो गयी !

    हार्दिक शुभकामनायें आपको !!

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  12. आदरणीय अरविन्द जी प्रणाम ( शुक्ला जी अपनी पूर्व सहमती का प्रमाण दे रहा हूँ)



    मेरे एक मित्र ने कभी बताया था की हर ग़ज़ल में एक मिश्रा होता है. तो फिर आपको ग़ज़ल कहने की जरुरत ही क्या है.

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  13. ह्म्म्म ...
    छिपे रुस्तम हैं , पहले जी भर कर कोस लिया कविताई करने वालों को और फिर धीरे से अपनी ग़ज़ल (अशार कहना ठीक रहेगा ) परोस दिया ...
    खास बुरे भी नहीं है ...:)

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  14. शुष्क और असंवेदनशील माहोल में रहकर भी
    फनकार जिन्दा रहता है या रखा जा सकता है
    आपनेही अपनी सुंदर रचना से साबित कर दिया है :)

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  15. मुझको आखिर बताएं खता क्या हुई
    क्यों तुम्हारी निगाहें बदल सी गयी !
    चाहतों में न आई, मेरे कुछ कमी
    आशनाई क्यों तेरी फ़ना हो गयी !


    @सतीश जी ,
    बहुत खूबसूरत ..आप इसे पूरा करिए ..इतनी सहजता से मैं पूरा नहीं कर सकूंगा
    आप पूरा कर दें तो आपके सौजन्य का उल्लेख कर पोस्ट में ही लगा देगें !

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  16. ‘..ऐसे ही एक आई ये यस हैं (वैसे ये तबका अब कम रचनाधर्मी होता है) ....’

    हम तो समझ रहे थे कि प्रकाशक इन्हीं लोगों के इर्दगिर्द फिरते रहते हैं :)

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  17. गद्य के साथ पद्य का भाव भी अच्छा लगा ...

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  18. .
    चलिये टालरेट कर लिया, पर..
    क्या होनहार के पात इतने चिकने थे, जो बी.एस.सी. में यह हवाल था..
    अब तक तो आपको अशआर और मतलों की दुनिया में होना चाहिये था
    इस हिसाब से तो आप पिछड़ते जा रहे हैं, सतीश जी से गँडा बँधवाइये !

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  19. जो हुकुम सरदार का :-)
    मगर शर्त यह है कि उनका नाम अवश्य बताओगे जिन्होंने आपसे यह गुज़ारिश की है....सो आपकी तरफ से अर्ज़ है...

    मुझको आखिर बताएं खता क्या हुई
    क्यों तुम्हारी निगाहें बदल सी गयी !
    चाहतों में न आई, मेरे कुछ कमी
    आशनाई क्यों तेरी फ़ना हो गयी !

    यह कैसी रकाबत,यह कैसा सितम है
    क्यों उल्फत,तेरी बदनुमा हो गयी है?
    निभाते रहेंगे, यह रस्मे वफ़ा हम !
    जुदाई तेरी गर, नसीब बन गयी है !

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  20. मुझसे आखिर क्या खता हो गयी
    निगाहें उनकी जो खफा हो गयीं

    ये तो ग़ज़ल की इन्तहा हो गई ।
    बढ़िया है भाई जान ।
    बस आखिर में फिसल गए । :)

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  21. आपकी गजल(?) और सतीश जी का सुधार भावों की जुगलबन्दी ज्यादा लग रही, न कि फ़ोर्म की। कोई आवश्यक भी नहीं, भाव प्राथमिक हैं।

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  22. @सतीश सक्सेना जी शुक्रिया ,
    आप रस परिपाक सिद्धहस्त हैं ,मान गए! जैसा डॉ अमर कुमार ने कहा अब तो गंडा बंधवाना ही होगा :)
    इसे भी कल चेपते हैं वहीं !
    @डॉ दराल,
    कुछ लोग शुरू में फिसल जाते हैं और कुछ आखीर में ..
    आखीर की फिसलन कुछ ज्यादा ही सदमे दे जाती है :)

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  23. गज़ल है या नहीं ये तो गजलकार ही बताएँगे.
    हमें तो अच्छी लगी जो भी है.

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  24. वजनदार तो बहुत है गजल.
    आप धरल्ले से लिखिए...और बक फुट पे क्यों आते हैं.....कोई कुछ नहीं बोलेगा.....
    जब बुरा आदमी बुरा काम ये जानते हुए भी करता ही की जो काम वो कर रहा है वो गलत है.....फिर आप तो किसी का बुरा नहीं कर रहे.....
    प्रणाम.

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  25. 'पढ़े फारसी बेचे तेल' तो जिन पर फिट बैठता है वो तो खुद ही कह गए हैं :)
    आपका लिखे जो कुछ भी है बढ़िया है :) हमको गजल वजल नहीं बुझाता है :(

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  26. Zanaab Arvind bhai -mohabbat ke liye kuchh khaas dil ....ye vo ngmaa hai jo har saaz pe gaayaa nahin jaataa ....
    lekin kai baar "jat mishthhaann "aur "jaat paan- bhandaar" bhi dekhne ko mil hi jaataa hai .
    saahitiyik abhi- ruchi har kisi ki ho bhi nahin sakti kyonki log vyaavhaarik hoten hain gaganjivi nahin .
    veerubhai .

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  27. यह कैसी रकाबत,यह कैसा सितम है
    क्यों उल्फत,तेरी बदनुमा हो गयी है?
    निभाते रहेंगे, यह रस्मे वफ़ा हम !
    जुदाई तेरी गर, नसीब बन गयी है !
    waah

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  28. @ रश्मि प्रभा,
    आपकी वाह , से हिम्मत अफजाई हुई है ! ग़ज़ल का मैं क ख ग भी नहीं जानता हूँ ! हाँ लयबद्ध कर सका हूँ और अब आपकी वाह वाह के बाद यकीनन खुश हूँ !
    आभार आपका !

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  29. कद्र भावों की होनी चाहिए ... और आपके भाव और लिखने की अदा ... दोनो ही लाजवाब हैं ...

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  30. आप तो नाहक संकोच कर रहे हैं...कित्ता बढ़िया तो लिखा है...

    हाँ यह भी सही है ....आज भी साहित्य से संगति रखने वाले लोग पिछड़े,झोला टाईप ही माने जाते हैं,सो काल्ड ऊँचे समाज में...

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  31. Pharsi padhkar tel bechne men kya visangati hai aaj tak meri samajh men nahin aaya. saari duniya arbi-pharsi valon ke tel se hi apni gadi chala rahi hai. agar baat sarson ke tel ki hai to arbi-pharsi to chhodiye angrezi padhe-likhe doctor bhi use ghee se behtar bata rahe hain sehat ke liye. Pharsi aur tel donon par gumaan karna seekhna hoga tabhi rachnatmakata bachegi.

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  32. ार्विन्द जी ये गज़ल तो नही है लेकिन रचना के भाव अच्छे हैं\ पंकज सुबीर जी ब्लोग पए गज़लें सिखा रहे हैं। उन से पूछिये ये क्या है। गज़ल के लिये मात्रायें, मात्राओं से जुज़ जुज़ से रुक्न रुक्न से मिसरा, मिसरों से शेर और शेरों से गज़ल बनती है। भाव अच्छे होने चाहिये जरूरी नही गज़ल ही कही जाये। शुभकामनायें।

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  33. भाव बहुत खूब हैं ..
    ........
    ग़ज़ल तो सुनी थी..

    ये 'वजल 'क्या होता है??
    ..........

    आश्चर्य है कि गिरिजेश जी ने शीर्षक में ग़ज़ल की वर्तनी के लिए आप को टोका नहीं?

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  34. @अल्पना जी ,
    :) हम ठहरे गवई गंवार ,ऐसे ही बतिया लेते हैं कभी -इसी तरह टोक दिया करिए!
    जो बात सीमा गुप्ता जी को ही कह देनी चाहिए थी उसे आपने कह दिया ..
    जी हाँ परवर दिगार ....ग़ज़ल ग़ज़ल ग़ज़ल ग़ज़ल
    ग़ज़ल((कान पकड़ के)
    ये टोकना भी कितना अच्छा लगता है कभी कभी -शुक्रिया!

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  35. 'हिम्मत की कि त्रुटि बता दी जाए .


    शुक्रिया '[हलके फुल्के लाईटर मूड ' में ही इस टिप्पणी को लिया गया[ ज्वलनशील वाले लाईटर मूड में नहीं].
    आभार

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  36. सर बहुत उम्दा पोस्ट अपने बहुत ही सत्य बात कह दी है बधाई |

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  37. सर बहुत उम्दा पोस्ट अपने बहुत ही सत्य बात कह दी है बधाई |

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  38. @ अरविन्द जी ,
    रचना को पढते हुए एक फ़िल्मी गीत याद आ रहा है..."हमारा इरादा तो कुछ भी ना था ,खता बख्श दो गर खता हो गई है" बी.एससी. में पढ़ रहे एक छात्र ने ग़ज़ल लिख पाई है कि नहीं इस पर बहस क्यों की जाए जबकि मामला आईने की तरह से साफ़ है कि तब हुआ क्या था :)
    छात्र की फीलिंग्स बराबर संचरित हो रही हैं तो शब्दों से खिलवाड बेमानी है ! मुझे लगता है कि जैसे समय अपने आपको दोहरा रहा हो...ना जाने क्यों यह रचना दशकों बाद भी प्रासंगिक लग रही है :)
    गज़ल के मसले में निर्मला जी का ख्याल दुरुस्त है , इसलिए मैं इसपर कोई जोर आज़माइश नहीं करने वाला हूं मेरे तईं बात फ़कत इतनी कि छात्र के नाले (आर्तनाद) सुस्पष्ट हैं उन्हें यथावत रहने दिया जाए क्योंकि वे किसी प्रणय गाथा का इतिहास हैं ! आशय ये कि तत्कालीन दस्तावेज़ से छेड़छाड़ जायज़ नहीं है !


    @ सतीश भाई ,
    आप भी कमाल करते हैं भला 'वक़्त' को रिपेयर करता है कोई ? तब जो भी हुआ उसकी अभिव्यक्ति छात्र ने हालात के मुताबिक कर दी लिहाज़ा मेरा ख्याल है कि प्रेमी की गुहार की मौलिकता कायम रहनी चाहिए ! आपको उस प्रेम की पेंच / फांस / कसक का कायांतरण नहीं करना चाहिए था अब देखिये ना मूल और सूद का भेद जाने बगैर रश्मि प्रभा आपकी तारीफ कर गईं , रचना में आपके सायास संशोधन और रश्मि प्रभा के अंजानेपन के चलते घटनाक्रम का नायक ही बदल गया :)

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  39. करत-करत अभ्यास .....अगली गजल की प्रतीक्षा....

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  40. सर जी अब विज्ञान-ग़ज़ल जैसी कोई चीज़ हो जाये. विज्ञान कथा में तो आप को महारत हासिल है ही और अब ग़ज़ल में भी हाथ आजमा लिया तो क्यों न दोनों का संगम हो जाए.

    बकौल चचा ग़ालिब-

    क्यों न फिरदौस को दोज़ख में मिला दें यारब
    सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़ज़ा और सही

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  41. @-सोमेश जी ,
    वाह क्या बात है-दोजख में फिर मैं आया कहाँ बी एस सी के बाद !पता है मुझे जन्नत और दोजख का फर्क ! :)

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