सोमवार, 8 नवंबर 2010

बालक सुरेन्द्र गौड़ से मैं प्रभावित हुआ! इस नन्हे से बच्चे के हुनर की सराहना कीजिये!

अब तक के अपने २७ वर्षों के सुदीर्घ सेवाकाल में मैं दीवाली और होली अपने पैतृक आवास पर ही सपरिवार मनाता  आया हूँ ,इस अवसर पर अधिकारियों को मिलने वाले दस्तूरी गिफ्ट पैकेटों की परवाह किये बिना : ) ....मुझे गाँव में ऐसे अवसरों पर स्वजनों से मेल मिलाप का जो संतोष -धन मिलता है उसके सामने सचमुच ही अन्य प्रकार के सभी धन धूरि समान ही लगते हैं .घर पर गाँव के लोगों से भेट मुलाकात और अपने बचपन के साथियों से भूली बिसरी बातों का जिक्र लगता है जीवन में एक नई उर्जा ही समाविष्ट कर देता है ..बच्चों से तो मेरी खूब पटती है ,लगता है खुद मेरा बचपन ही लौट आया हो ..बच्चे मुझे घेरे रहते हैं और मैं बच्चों को ....मगर इस बार सब कुछ फीका रहा ..पड़ोसी श्रद्धेय बुजुर्ग के देहावसान के कारण शोकाकुल कुनबे ने इस बार दीवाली नहीं मनाई....मतलब आतिशबाजी का दौर भी नहीं हुआ ..दीवाली के दिन बच्चों का मायूस सा चेहरा मुझे कचोटता रहा ...अब उन्हें समझाएं भी तो क्या ..थोड़े बड़े बच्चे तब भी मौत का अर्थ समझ रहे  थे मगर ४-७  वर्ष वाले बार बार पिछली बार की आतिशबाजी छुड़ाने की  जिद पकडे रहे ..बहरहाल .....किसी तरह उन्हें बहलाया फुसलाया गया ...
 मिनिएचर खटिया 

इसी दौरान किसी बच्चे ने बताया कि भैया , सुरेन्द्र बहुत अच्छी खटिया  बनाता है ...और फिर  सकुचाते  शर्माते सुरेन्द्र की पेशी हुई. वे अपने चर्चित उत्पाद के साथ हाजिर हुए ...उन्होंने एक उस  ग्राम्य साज सामग्री का मिनिएचर बनाया है जिसे बनारस अंचल में  चारपाई ,बसहटा,खटिया आदि कहते हैं .(अरे वही खटिया जिसे लेकर एक मशहूर भोजपुरी गाना है न ..सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे )  -भारत की ८० फीसदी ग्राम्य जनता अभी भी इसी खटिया नामक   शैया  पर रातें गुजारती है ..जो लोग गावों से उतने वाकिफ नहीं हैं उन्होंने इसे रोड साईड ढाबों पर देखा होगा जिन पर अक्सर ट्रक ड्राईवर बैठकर खाना खाते हैं ....और मैं सुरेन्द्र की बनायी हुई मिनिएचर खटिया देख , बुनाई की बारीकी देख कर दंग रह गया ....कितनी कलात्मकता से इस छोटे से बच्चे ने इस काम को अंजाम दिया था ..उसकी उम्र से बड़े बच्चे  जहाँ अपना समय खेलने कूदने में ज्यादा लगाते हैं -उसी समय में से ही कुछ क्षण यह अपने इस हुनर को आजमाने में लगाता है .
 भीड़ में अलग सुरेन्द्र गौड़ 
मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसे यह रूचि स्वयमेव उत्पन्न हुई ..किसी ने सिखाया नहीं . उसने खुद  से ही ट्रायल एरर से सीखा है ...उसके हाथ की बनायी यह मिनिएचर खटिया अब डिमांड में है जो वाल हैंगिंग या डेकोरेशन पीस के रूप में इलाके में  लोकप्रिय हो रही है ..मैंने उससे पूछा कि क्या मेरे लिए भी तुम यह खटिया बनाओगे तो वह सहर्ष तैयार हो गया .....मैंने कहा एक नहीं चार ....तो उसके चेहरे पर चिंता के भाव आ गए .....मैंने पूछा कि क्या बनाने में ज्यादा समय लगेगा तो उसने बताया कि नहीं एक खटिया तो एक घन्टे में वह बना लेता है मगर उसके पास बस एक खटिया का ही ऊन  बचा है ..मैंने उसे कुछ पैसे दिए और अगले ही दिन उसने मुझे चार खूबसूरत सी मिनिएचर पलंगें   ला पकडाई  .
स्वनिर्मित मिनिएचर खाटों के साथ सौम्य सुरेन्द्र

मेरे बगल के जिले भदोही जिसे भारत का गलीचा शहर (कारपेट सिटी ) कहा जाता है ,में करीब एक दशक पहले एक बड़े आन्दोलन में बच्चों को कारपेट उद्योग से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया  था ...जबकि उनके हाथ से बुने गलीचों की गल्फ देशों में बड़ी डिमांड थी ..क्योकि उनकी बुनाई बड़ी महीन और काम साफ होता  था  ...मगर तब यह फितूरबाजी हुई थी कि खेलने खाने के  उम्र के बच्चों के श्रम का शोषण हो रहा है और अब तो बाल श्रम शोषण पर कड़े कानून भी हैं -मगर सुरेन्द्र की स्वतःस्फूर्त प्रतिभा ने मुझे यह सोचने पर विवश किया है कि क्या जन्मजात प्रतिभाओं को ,उनके तकनीकी रुझान या दक्षता को हमें प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये ? मुझे तो सुरेन्द्र का हुनर उसके टेक्नोलोजी टेम्पर की झलक दिखा गया ....अब उसकी इस नैसर्गिक प्रतिभा को हम अगर बाल श्रम शोषण के बहाने विकसित होने से रोक दें तो क्या उसके साथ अन्याय नहीं होगा ?और हम कहते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी की भीषण समस्या है ..जो सच भी है ...अब आप ही बताईये कि सुरेन्द्र के साथ हमारा ,स्टेट का और समाज का क्या बर्ताव  होना चाहिए ? 

44 टिप्‍पणियां:

  1. बाल श्रमिकों के शोषण के मुद्दे को ऐसी प्रतिभाओं के नाम पर हल्का नहीं किया जा सकता।

    सुरेंद्र को यदि इस उम्र में यह खिलौना खटिया बीनने में ही झोंक दिया जाय तो इसे उसकी प्रतिभा का सदुपयोग नहीं कहा जा सकता। यदि उसे उचित शिक्षा और बेहतर प्रशिक्षण मिल जाय तो वह समाज के लिए अधिक उपयोगी साधन बना सकता है और अपनी आर्थिक स्थिति भी मजबूत कर सकता है।

    बाल श्रम की समस्या का इतना सरलीकरण उचित नहीं है।

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  2. हो सकता है सिद्धार्थ जी ,मगर जिसकी जो नैसर्गिक स्वयंस्फूर्त प्रतिभा हो क्या उसके विकास की जरूरत नहीं है ?

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  3. अभी इस बच्चे की सिखने की उम्र है ...चूंकि कला में इसकी रूचि है इसे आगे सीखने में लगाया जाए तो यह बेहतर काम कर पायेगा ! इस उम्र में अगर पैसा कमाने का प्रयत्न इसके भविष्य के लिए तो घातक ही होगा ...

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  4. आज आपने मेरी सोच को शब्द दे दिए हैं बाल श्रम एक चीज़ है और कला और उसका प्रोत्साहन दूसरी .होना यह चाहिए कि प्रारंभिक शिक्षा के साथ ही सुरेंदर की प्रतिभा को भी निखारने का मौका उसे दिया जाये और उसके बाद उसकी कला की व्यावसायिक शिक्षा.इसी में समाज और सुरेंदर का भला है.

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  5. सतीश जी से सहमत । बच्चे को प्रोत्साहन देकर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर देना चाहिए । इसके लिए यथोचित सहायता दी जा सकती है । कला का विकास साथ साथ हो सकता है ।

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  6. @जी शिखा जी सचमुच यही बात ..बच्चों को उनकी नैसर्गिक प्रतिभा पहचान कर उन्हें उस दिशा में विशेष प्रशिक्षण दिया जाना एक अच्छी शैक्षणिक नीति है -मगर भारत में तो हर कोई अपने लड़के को इंजीनियर और आयी ऐ यस पीसी एस ही बनाना चाहता है ,इससे कितनी ही नैसर्गिक क्षमतायें जंग खा जाती हैं !

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  7. प्रतिभा को ज़रूर बढ़ावा देना चाहिए लेकिन उसके साथ शिक्षा भी ज़रूरी है ..यह वो अपने शौक के लिए करता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे उत्पादन करवाया जाये और उसकी प्रतिभा को श्रम के अंतर्गत देखा जाये ....

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  8. इससे यह सिद्ध होता है कि प्रतिभा किसी की बपौती नहीं। आवश्यकता उसे पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने का है। बाल श्रम निंदनीय है। प्रतिभा संरक्षण के लिए बाल श्रम नहीं, बाल समर्पित समाज की आवश्यकता है जो इसके उत्थान के प्रति जागरूक हो। आपकी यह पोस्ट भी इसी जागरूक दृष्टि का सूचक है । उचित होगा कि सोच सही दिशा में आगे बढ़े।

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  9. Shikha ji se sahmat hun! Kewal School kee padhayee kaam kee nahee...wahan any kalayon ko samavisht hona zarooree hai,tabhi vibhinn praitibhayen nikharengee.

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  10. सुरेन्द्र की कलाकारी अच्छी लगी..... हाँ प्रतिभा और शिक्षा दोनों साथ चलें तो बहुत अच्छा ...

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  11. मिश्रा जी ... बहुत अच्छा लगा सुरिन्द्र के बारे में जान के ... मगर ऐसे न जाने कितने गरीब बच्चे हैं जो जिम्मेदारिओं के नीचे दबे हैं की उनको अपने प्रतिभा दिखने का मौका ही नहीं मिलता ... दिखाना तो दूर शायद उन्हें खुद भी कभी पता नहीं चलता की उनमें कोई प्रतिभा है भी ...

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  12. पता नहीं किसका शेर है--
    बोझ उठाना शौक़ नहीं है मजबूरी का सौदा है
    रहते-रहते स्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं.

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  13. वाकई जबरदस्त खटिया बनाई है सुरेन्द्र ने, बस इसी तरह से मिनिएचर चीजें बनाता जाये तो इसमें भी अच्छा भविष्य है।

    पढ़ना लिखना व्यक्तित्व को निखारता है, और कई समस्याओं से लड़ने की राह दिखाता है।

    परंतु केवल पढ़ने लिखने से व्यवहारिक जीवन की शिक्षा नहीं मिलती है। आज जरुरत है बच्चों को व्यवहारिक शिक्षा देने की, जिससे वे खुद का व्यवसाय खड़ा करें, ना कि किसी के यहाँ नौकरी के लिये लाईन में लगें।

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  14. आप कबीले तारीफ है कि आपने इस प्रतिभावान लडके की प्रतिभा को हिंदी ब्लॉग पर हम सबके सामने रखा , पर अभी उसकी उम्र को पैसों के लोभ से किसी उद्योग में धकेलना उसके बचपन को एक कुएं में धकेलने जैसा है , उसको उचित माहोल मिलाना चाहिए पढाई और इस कला को और उकेरने का , पर में नहीं चाहता कि इस वजह से उसका बचपन और मानसिक विकास छीना जाए !

    उसके अंदर प्रतिभा है और वो जिंदगी भर रहेगी , अभी उसको उसका बचपन जीने दीजिए और बच्चों के साथ !

    अगर श्रम क़ानून न हों तो उद्योग वाले सस्ते के चक्कर में इस मासूमों के बचपन को बर्बाद कर देते हैं !

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  15. मेरे एक मित्र जो गैर सरकारी संगठनो में कार्यरत हैं के कहने पर एक नया ब्लॉग सुरु किया है जिसमें सामाजिक समस्याओं जैसे वेश्यावृत्ति , मानव तस्करी, बाल मजदूरी जैसे मुद्दों को उठाया जायेगा | आप लोगों का सहयोग और सुझाव अपेक्षित है |
    http://samajik2010.blogspot.com/2010/11/blog-post.html

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  16. मित्रों ने इस पोस्ट पर अपने सुचिंतित विचार व्यक्त किये -
    कुछ विचार स्फुलिंग -
    1-बाल श्रम और बाल श्रम के शोषण को पुनः परिभाषित क्यों न किया जाय?
    २-यदि कोई बच्चा स्वयंस्फूर्त तरीके से कुछ भी सार्थक सृजित कर रहा है और वाह सौन्दर्यबोध और उपादेयता की कसौटी पर खरा है तो क्यों नहीं हम उसे उसी दिशा में आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते ..हाँ सामान्य शिक्षा तो उसे भी मिलना चाहिए जो उसका जन्मजात हक़ है .
    ३-हम कहीं बाल श्रम के मुद्दे पर खुद ही संभ्रमित तो नहीं हैं ,हम कहीं एक फतवे को ,रूढ़ हो चली बात को तो बढ़ावा नहीं दे रहे हैं और प्रकारांतर से मनुष्य की बौद्धिक क्षमता .प्रतिभा के विरुद्ध तो नहीं लामबंद होते जा रहे हैं ?
    ४-वैसे भी आज शिक्षा का उद्येश्य केवल रोजगार ही रह गया है ज्ञान या बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं ...फिर एक बच्चे की रोजगार की प्रतिभा का हम गला घोटने पर क्यों उतारू हैं ?
    ५-क्या आज की शिक्षा व्यवस्था उस आटे की चक्की सरीखी नहीं है जो हर सभी को कूट पीस कर किसी लायक नहीं बना रही है -आटा तो फिर भी उपयोगी उत्पाद है -शिक्षा की चक्की बुद्धि और विवेक से पैदल विकलांग लोगों की फ़ौज तैयार करती आयी है !
    मित्रों इन बिन्दुओं को सुरेन्द्र गौड़ के परिप्रेक्ष्य में भी सोचिये !

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  17. बाल श्रम कानून का डंडा न बने, उद्देश्‍य पूरा करने का साधन बने, अन्‍यथा परंपरा, प्रतिभा और कौशल पर पहरे होंगे और असली चोर न सिर्फ निकल भागेगा, बल्कि अपनी दुकान सजा कर बैठ जाएगा.

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  18. नैसर्गिक प्रतिभा व कला को प्रोत्साहन मिलना ही चाहिए किन्तु ऐसी प्रतिभाओ का व्यवसायिक शोषण उनके माता पिता द्वारा मजबूरी में किया जाना गलत है क्योकि जो काम शौकिया किया जा रहा हो तथा स्वान्तः सुखाय हो उसे कम उम्र में पेशा का रूप दे दिया जाय तथा बलात काम लिया जाय इसके साथ उसे उचित पारितोषिक भी ना मिले यह मेरी दृष्टि में बाल शोषण है मै नहीं जानता आपने उसे क्या दिया लेकिन जाने अनजाने हम सभी बालको द्वारा किसी भी मजबूरी में किये गए श्रम का उचित मूल्य नहीं चुकाते यह घोर शोषण है बुंदेलखंड में एक लड़का जो बमुश्किल ९-१० साल का है रिक्शा चलाता है उससे बात करने पर पता चला की व अनाथ है तथा अपने ३ भाई बहनों और माँ के जीवन यापन के लिए रिक्शा चला रहा है अब उसके रिक्शा चलाने की मजबूरी व उम्र देख कर रिक्शे पर बैठने की इच्छा तो नहीं करती लेकिन सब लोग अगर बाल श्रम के नाम पर उसे काम न करने दे तो उस गरीब के घर रोटी कैसे पकेगी यह सोच कर मै जब भी स्टैंड पर खड़ा होता हूँ एक बार मेरी नजरे उसे जरूर तलाशती है की पता नहीं आज उसकी पर्याप्त आमदनी हुई या नहीं अवसर मिलनेपर उसकी सेवा भी लेता हूँ तथा प्रचलित दरो से ज्यादा देता भी हूँ अब मै बाल श्रम को बढ़ावा देने का गुनाहगार हूँ या नहीं
    एक बात और है की वह इतना खुद्दार है की मुफ्त की चाय भी पीना पसंद नहीं करता ऐसी स्थिति में बताइये की बाल श्रम क़ानून का क्या किया जाए
    आपने संवेदनशील मुद्दा उठाया ऐसी प्रतिभाओं को उनकी रुचि के अनुसार निखारने का अवसर मिलना चाहिए

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  19. उसने जो किया वह स्वतः स्फूर्त है , उसमें एक प्रतिभा है जिसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए ! उसे ही क्यों सारे बचपन (की प्रतिभाओं) को !
    ...पर इस आलेख में बालश्रम और शोषण कहाँ से आ गया ?

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  20. पहले कमेन्ट में एक पंक्ति छूट गयी थी ...

    सुरेन्द्र में नैसर्गिक प्रतिभा है जिसकी सराहना की जानी चाहिए लेकिन ...
    बाल श्रम शोषण पर कड़े कानून इन बच्चों की भलाई के लिए ही हैं, बाजार की उन ताकतों से उनसे बचाने के लिए जो इनकी स्वतःस्फूर्त प्रतिभा को बिकाऊ बनाने के लिए अपनी ललचाई गिद्ध दृष्टि जमाये रखते हैं ...
    बच्चों की मदद उनकी शिक्षा और वस्त्रों और विभिन्न जरूरतों का इंतजाम कर भी किया जा सकता है ...अभी से कमाने के लालच में पड़े तो फिर कभी इससे उबर नहीं पायेंगे ...!

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  21. @अरुण भाई ,अपने एक उस बिंदु की ओर सहज ही इंगित कर दिया जिसे मैंने जान बूझ कर छुपाया था -मैंने उसे क्या दिया ..
    अक्सर इन बातों का जब हम जिक्र करते हैं तो जाने अनजाने सेल्फ प्रोमोशन कर जाते हैं ..बहरहाल आपने उन्ली उठायी तो बता दूं ..मैंने उसे ५० रूपये दिए -करीब २० रूपये ऊन के और ३० रूपये उसे दीवाली की मिठाई के नाम पर ..
    वह तो अभी एक अबोध बच्चा है -उसमें या न उसके गरीब मगर खुद्दार बाप में कोई लालच या व्यावसायिकता की झलक मुझे दिखी !

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  22. 1-भदोही के उजड़ते कालीन उद्योग व बढ़ती बेरोजगारी के परिपेक्ष में बाल श्रम कानून पर पुनः विचार इस दृष्टि से किया जाना चाहिए कि गांव के गांव बेरोजगार हो रहे हैं तो आखिर इसका क्या हल है ?
    2-मेरी समझ से माता-पिता के सरंक्षण में बच्चा अपना व्यक्तिगत व्यवसाय, पढ़ाई के साथ कर सकता है। दूसरे के अधीन कराया जाने वाला श्रम ही बाल श्रम की परिधि में आना चाहिए।
    3- बाल श्रम कानून इसलिए आवश्यक है कि बिना इसके बच्चों का अमानवीय शोषण अवश्यसंभावी है।
    4,5- शिक्षा में बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा का सही मुल्यांकन होना जरूरी है।

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  23. इतनी कम उम्र में बच्‍चों में ऐसी कलात्‍मक लगन एक शुभ संकेत है। अगर उसे सराहा और प्रोत्‍साहन दिया जाए, तो वह आगे चलकर काफी नाम कमा सकता है।

    और हॉं, अब मेरे ऊपर गिरिजेश राव जी की आत्‍मा आ रही है। मैं गाने की पंक्तियों के संशोधन करना चाहूँगा सही पंक्ति 'सटाई लो खटिया' नहीं 'सरकाई लेव खटिया' होना चाहिए।

    इस बार की आपकी दीवाली दो पोस्‍टें लेकर आई। काश, ऐसी ही हर दीवाली हो।

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  24. -इस पोस्ट के ज़रिए आप एक जिम्मेदार और जागरूक नागरिक होने का कर्तव्य बखूबी निभा रहे हैं.
    -ऐसे बच्चों के हुनर /नैसर्गिक स्वयंस्फूर्त प्रतिभा को पहचान कर उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ाना /पढ़ाना चाहिए..ताकि उनके इस हुनर का सही प्रयोग सही जगह हो सके.

    अच्छी पोस्ट.

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  25. `.मुझे गाँव में ऐसे अवसरों पर स्वजनों से मेल मिलाप का जो संतोष -धन मिलता है'

    जडॊ से जुडे रहने का य़ही तो लाभ है :)

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  26. @जाकिर भाई आप तो शब्दों को पकड़ लेते हैं जबकि भाव ज्यादा महत्व के होते हैं !

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  27. हुनर तो है ही बच्चे के पास. बालश्रम कानूओं की मूल भावना तो बचपन को शोषण से बचाने की है परंतु यदि इसके और भी दुष्प्रभाव हैं तो पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है।

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  28. @मिश्र जी
    हाँ ..... सोफा तो ले ही आये थे आप [पिछली पोस्ट में ] अब खटिया भी आ गयी ..... सेट कम्प्लीट हो गया :))

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  29. अब सीरियसली
    .... सच में इस तरह की पोस्ट से ब्लोगिंग का सही उपयोग होता नजर आता है

    इस पोस्ट के लिए धन्यवाद

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  30. टेलीविज़न के तमाम चैनलों पर कॉमेडी, टैलेंट हंट, डांस या अन्य करतब दिखाते बच्चों के जो कार्यक्रम आते हैं
    उनमें बच्चों के श्रम का दोहन होता है या कला का प्रदर्शन?
    उनमें बच्चों को बढ़ावा देने के लिए तरह तरह के ईनाम दिए जाते हैं या नहीं?
    किशोरावस्था में बड़ी बड़ी डिग्रियाँ लेना, कम उम्र के CEO कहलाना, कम उम्र के संगीतकार बनना, किसी खेल का चैम्पियन बनना नैसर्गिक प्रतिभा है या शोषण? क्या ऐसी नैसर्गिक प्रतिभा से धनोपार्जन नहीं किया जाता?
    कितने नैसर्गिक प्रतिभा वाले बच्चे समाज के लिए उपयोगी हुए हैं?

    उम्र कोई भी हो, परिवार के लिए धनोपार्जन करना भी एक कला है।

    रही बात कानून की तो,
    बाल श्रम हो या कोई और मुद्दा
    कानून किसी काम को रूकवाने का निमित मात्र है, काम करवाने वाला कानून आज तक नहीं बना!

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  31. आपकी पिछली पोस्ट छूट गयी थी ... उसपे भी टिपण्णी दे दी है ... बहुत मज़ा आया पढ़ कर ..

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  32. प्रतिभा सम्पन्न बालक किसी भी प्रकार स्थानीय क्रिया कलापों में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर देते हैं, उनको निखारना बड़ों का कर्तव्य हो जाता है।

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  33. Is ruchi ko badhawa awashy milana chahiye jo aapne kiya kintu roj to ise school hee jana chahiye. Aur sath sath iski vocational training leni chahiye. Waise bahut sunder lageen ye khtiya . Surendra se kahen ki garmi kee chuttiyon men mere liye bhee bana de char khatiya. oon ke paise dam men jod le.

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  34. नमक को नामक कीजिए।

    कई विचार योग्य मुद्दों पर कुरेदता आलेख। बेशुमार आदमियों वाले अपने देश में ऐसी जाने कितनी प्रतिभाएँ मुरमुरा कर रह जाती हैं। भीड़ में भीड़ के रास्ते चलते वे नून, तेल, लकड़ी की मारामारी में ही लगे रह जाते हैं। पिताजी बहुत अच्छी खाट बुनते हैं और मुझे क ख भी नहीं पता। उसका प्रयोग भी अब बहुत कम हो चला है। एक लुप्तप्राय वस्तु है... लेकिन जो अंगुलियाँ इतनी सुन्दर खाट बुन सकती हैं वे किसी अज्ञात पॉलिमर के स्ट्रक्चर भी तो बना सकती हैं! जटिल संरचनाओं की कल्पना से आर्किटेक्चर को भी बदल सकती हैं। बंगलादेश के एक आर्किटेक्ट याद आए हैं जिन्हों ने कभी एक देसी परिकल्पना का उपयोग कर बहुमंजिली इमारतों के स्काईस्क्रैपर बनने की राह प्रशस्त कर दी थी। पर बहुत कम स्फुल्लिंग लौ बन पाते हैं। क्या कीजिएगा।

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  35. @ कानून किसी काम को रूकवाने का निमित मात्र है, काम करवाने वाला कानून आज तक नहीं बना!

    लोकेश जी ने एक बड़ी बात कही है। भिन्न सा दृष्टिक़ोण।

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  36. @जाकिर भाई ,मैंने सटाई को संशोधित कर सरकाई कर लिया है ...वैसे अब गिरिजेश भाई खुद भी प्रादुर्भूत हो गए हैं ...
    @गिरिजेश जी नमक को नामक के साथ ही पूरी पोस्ट का फिर से कदा सम्पादन कर दिया है ,फिर पढ़िए और बताईये ...
    @आशा जी ,ब्लॉग जगत से कम से कम आपने ने तो आर्डर देने की सदाशयता दिखाई -आपको चार खटिया मिल जायेगी ..हाँ अगली दिवाली तक याद दिलाती रहिएगा ..आपको बाई पोस्ट हमारा यह अर्ली बर्ड प्रेजेंटेशन रहेगा ...

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  37. गिरिजेश जी
    लोकेश जी का यह थाट आफ डे मैंने भी नोट कर लिया है -वास्तव में कानून के व्यावहारिक पक्ष में नियमन (कंट्रोल ) की ही प्रवृत्ति ही ज्यादा है .इसलिए भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा मिलता है ..
    "कानून किसी काम को रूकवाने का निमित मात्र है, काम करवाने वाला कानून आज तक नहीं बना!"

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  38. शिक्षा जरूरी है किन्‍तु शिक्षा के आड़ मे प्रतिभा का दमन नही किया जाना चाहिये। जरूरी नही है कि इसे पढाई की शिक्षा दी जाये इसे पढाई के साथ-साथ कला और हुनर की भी शिक्षा प्रदान की जा सकती है।
    बाल श्रम की दुहाई देने वालो को यह देखना चाहिये कि उनके घर मे किस उम्र के कितने बच्‍चे घरेलू नौकर का काम कर रहे है? अगर कोई घर मे पानी देने का काम करे तो ठीक है और हुनर दिखाये तो बाल श्रम ?

    आपकी बहुत अच्‍छी पोस्‍ट, आज काफी(सुश्री वाली पोस्‍ट के बाद ) दिनो बाद आपके ब्‍लाग पर आया अच्‍छी पोस्‍टो को पढ़कर मन हर्षित हुआ।

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  39. सॉरी इस पोस्ट पर बड़ी देर से आई....पर कुछ कहे बिना रहा नहीं जा रहा....सुरेन्द्र की प्रतिभा को बालश्रम से कैसे जोड़ लिया गया? ये उसकी नैसर्गिक प्रतिभा है और कोई बच्चा २४ घंटे पढ़ाई नहीं करता. प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए. वह पढ़ाई से बचे समय के बाद अपना यह शौक पूरा कर सकता है और १६ वर्ष का होने के बाद उसे व्यवसाय के रूप में अपना सकता है.

    आपने लिखा है?
    मेरे बगल के जिले भदोही जिसे भारत का गलीचा शहर (कारपेट सिटी ) कहा जाता है ,में करीब एक दशक पहले एक बड़े आन्दोलन में बच्चों को कारपेट उद्योग से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था ...जबकि उनके हाथ से बुने गलीचों की गल्फ देशों में बड़ी डिमांड थी ..क्योकि उनकी बुनाई बड़ी महीन और काम साफ होता था ...मगर तब यह फितूरबाजी हुई थी कि खेलने खाने के उम्र के बच्चों के श्रम का शोषण हो रहा है"

    अरविन्द जी,यह फितूरबाजी है?? बच्चों के खेलने खाने पढने की उम्र में बारह बारह घंटे काम करवाए जाते हैं....और यह कहना कि बच्चों की कोमल उँगलियों से बुने गलीचों की बड़ी डिमांड थी
    क्योकि उनकी बुनाई बड़ी महीन और काम साफ होता था
    .मुझे माफ़ करें...पर ये हृदयहीनता का परिचायक है. क्या सारे बच्चों में गलीचे बुनने के नैसर्गिक गुण थे? नहीं...वे भूख और गरीबी की वजह से यह काम करने पर मजबूर थे. हमारे बच्चों की भी कोमल उंगलियाँ हैं...क्या हम उनसे गलीचे बुनवाएंगे ?? जरी का काम करानेवाले भी यही तर्क देते हैं...और यह क्रूरता के सिवा कुछ नहीं.


    (मेरी टिप्पणी थोड़ी तल्ख़ लगे तो माफ़ी चाहूंगी पर यह विषय मेरे ह्रदय के बहुत करीब है...जब हम-आप जैसे शिक्षित लोंग नहीं जागरूक होंगे तो चंद पैसों के लिए बच्चो का बचपन छीन रहें उन एजेंटो से क्या शिकायत करें )

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  40. रश्मि जी जवाब देना आवश्यक है इसलिए दे रहा हूँ -
    मुझे विगलित संवेदना से बहुत चिढ होती है ....मैं इस बात की तः में जाने के लिए खुद भदोही कई बार गया हूँ ..हम बच्चों को कोई कोई और सम्मानजनक काम न दिला कर फिजूल की फितूरबाजियों में उनकी रोटी भी छीन लेते हैं ..आज जिन बच्चों को कालीन उद्योग से अलग किया गया वे दर दर की ठोकरे खा रहे हैं ..उनकी स्थिति देखनी हो तो कभी भदोही जाकर खुद देख सकती हैं ...सरकार के पास उनके पुनुर्स्थापन की कोई योजना नहीं है ..वे ट्रेंड होते हुए भी दर दर की ठोकरे खा रहे हैं ..मानव का बच्चा एक उम्र के बाद उतना निरीह नहीं होता -उसे अपने पैरों पर कहदा होने दें -केवल बिना मतलब की झूंठी संवेदना से उनका पेट नहीं पलने वाला ..और सचमुच कुछ आप करना चाहती हैं तो आगे आयें और बतायें कि आपने अपने बच्चों के अलावा और किसी बच्चे /बच्चों के लिए क्या किया है ?
    संवेदना व्यक्त कर देने से ही एक इंसान के दायित्वों की पूर्ति नहीं हो जाती ....
    अब आप इस जवाब से बुरा मत मन जाईयेगा ..हम सब समाज में उठ बैठ रहे हैं और कौन कितना किसके लिए कर रहा है देख ही रहे हैं .ब्लॉग जगत में सुन्दर सलोने विचार व्यक्त करना ,गहरे संवेदना के अहसाह वाली रचनाएं लिख देना एक बात है और समाज में उतर कर उन्हें चरितार्थ करना बिल्कुल अलग ..मैं आपसे भी आह्वान करना चाहता हूँ कि कुछ ठोस अवश्य करें इस दिशा में -वचने का दरिद्रता वाले लोग बहुत हैं भारत में !

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  41. अरविन्द जी,
    बुरा मानने की कोई बात ही नहीं....किन दशाओं में वे बच्चे काम करते हैं, इसका अनुमान है आपको? जब मैंने सिवकासी के बच्चों की स्थिति जानने के लिए काफी खोज-बीन की तो जरी का काम करनेवाले बच्चों की स्थिति के बारे में भी पढ़ा, नौ-दस साल के बच्चे १६ से १८ घंटे काम करते हैं, एक कमरे में पीले बल्ब के नीचे. सिर्फ एक अंडरपैंट पहन. उनके बाल पूरे शेव कर दिए गए हैं. ताकि काम खराब ना हो. महीनो वे बाहर का उजाला तक नहीं देख पाते. कुछ बच्चे तेरह-चौदह साल के हैं जो ४,५, वर्षों से अपने गाँव नहीं जा सके हैं. उन मासूम कोमल उँगलियों से बने काम की विदेशों में बहुत मांग है .इसके बदले उन्हें दो रोटी जरूर मिल जाती है और वे दर-दर की ठोकरें नहीं खाते. सिवकासी के बच्चे भी सुबह ३ बजे से रात दस बजे तक मजदूरी करते हैं...भदोही के बच्चों की स्थिति इस से कुछ अलग नहीं होगी. इन्हें भी दो रोटी मिल जाती है और दर -दर की ठोकरें भी नहीं खाते. पर बच्चों की ऐसी स्थिति मंजूर है आपको?? बात सिर्फ काम कराने की नहीं है...किन हालातों में इन्हें काम करना पड़ता है,इसकी है...ऊपर से मार-पीट, गाली-गलौज की तो बात ही जाने दें.

    ये विगलित सहानुभूति नहीं है...अगर हर कोई ऐसा ही सोचे कि दो रोटी तो मिल रही है, फिर इनके हालात के विरुद्ध कौन आवाज़ उठाएगा? किसी ने तो सबसे पहले, सिवकासी के बच्चों की दुर्दशा देखी होगी. दुनिया के सामने लाया होगा..धीरे धीरे सामान विचार के लोंग आगे आएंगे,कुछ तो होगा. बहुत धीरे ही सही. पर चुपचाप स्थिति स्वीकार लेने से कैसे आएगा कोई बदलाव?

    और मैं अपने नितांत निजी विचार बताऊं तो धूल भरी सडकों पर बच्चों का घूमना..कंद-मूल खाना , खेत से ईख चुरा कर...आम तोड़कर खाना मुझे मंजूर है बशर्ते इसके कि वही गाँव का बालक, १६-१८ घंटे महीनो तक बंद हो, जरी की कढाई का काम करे, पटाखे बनाए या फिर गलीचे.

    आपने अब पूछ लिया .कि .....और सचमुच कुछ आप करना चाहती हैं तो आगे आयें और बतायें कि आपने अपने बच्चों के अलावा और किसी बच्चे /बच्चों के लिए क्या किया है ?
    तो बताना ही पड़ेगा कि मैं निजी तौर पर क्या करती हूँ. मैं एक 'हमारा फूटपाथ ' संस्था से जुड़ी हुई हूँ.यहाँ हमलोग स्ट्रीट चिल्ड्रेन के लिए काम करते हैं. मल्टीनेशनल में कार्य करने वाले, कई कला-कर्मी, डॉक्टर आदि मिलकर, इन बच्चों के लिए काम करते हैं. पर इसके बारे में प्रचार करना, तस्वीरें खींचना, इन सबकी सख्त मनाही है. फिर भी आप जरूर प्रमाण चाहेंगे तो मैं ढूंढकर वो मेल आपको प्रेषित करती हूँ, जिसमे उन्होंने मेरी सदस्यता स्वीकार की थी.

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  42. Re: hi
    Friday, 10 November, 2006 1:27 PM
    From:
    This sender is DomainKeys verified
    "Hamara footpath"
    Add sender to Contacts
    To:
    "rashmi verma"
    Dear Rashmi

    Thank you for writing to us. We will be more than happy for you to join in with us. If you want to come over one of the days to have a sense of what we do, and then we can figure out what exact areas you want to contribute in. We sit with the children on mon-wed-fri post 7 outside tanishq, churchgate.

    Let us know when you would want to come over. Also since you said you are in painter and into writing i am sure you can add on to our classes in your own unique way.

    wishes
    Hamara footpath
    आशा है...अब आपको अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा....पिछले ४ साल से जुड़ी हुई हूँ....पर इसके बारे में चर्चा करना किसी सदस्य को गवारा नहीं...मुझे भी नहीं....पर आज जबाब देना पड़ा.

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  43. रश्मि जी ,

    आप 'हमारा फूटपाथ ' संस्था से जुड़ी हैं जानकर अच्छा लगा ...प्रमाण क्यों ? आपका कहना ही पर्याप्त है .
    मैं केवल यह चाहता हूँ कि बच्चों के किसी व्यवसाय से हटाने के पहले उनके समान अथवा बेहतर पुनर्वासन ,रोजगार की व्यवस्था अवश्य हो अन्यथा उनकी स्थिति और भी दयनीय हो उठती है -ऐसा जब मैंने खुद देखना शुरू किया तो मेरा नजरिया बदलता गया -आज भी भारत की एक बड़ी आबादी में बच्चे बड़ी अमानवीय स्थिति में जी रहे हैं न शिक्षा का प्रबंध है न रोजगार !ऐसे में उन्हें एक रोजगार से पृथक कर देना बिना विकल्प के ....घोर चूक है -शिवकासी की रिपोर्ट आपकी पढी थी -प्रथम दृष्टया तो मन विचलित होता है मगर दूसरा पहलू और भी भयावह है !
    शुक्रिया आपने इस विमर्श पर इतना समय दिया !

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