रविवार, 28 जून 2009

वे बे(ई ) मानी और बे (ई ) नामी टिप्पणियाँ !

बेमानी बेनामी टिप्पणियों पर खूब हल्ला गुल्ला मचा है -! लोगों को पता भी है मगर संविधान की यह मूल भावना है कि जब तक चोर चोर साबित न हो जाए उसे चोर कहना ठीक नही है -उसे संदेह का लाभ मिल ही जाता है ! चोर की दाढी में तिनके देखने की कभी लोगों में दिव्य दृष्टि होती थी - अब उसे तकनीकी के जरिये देखने में कुछ सुधीजन लग चुके है -खुदा उन्हें कामयाबी बख्शे ! कभी यह भी होता है कि कुछ बिचारे नाहक ही बदनाम हो जाते है - !

कहते हैं बद अच्छा बदनाम बुरा । मुझे तो भाई बदनामी से बहुत डर लगता है ! बद मैं भले हूँ लेकिन " भीतो मरणदस्मि केवलम दूषितः यशः " मरने से नहीं अपयश से डर लगता है ! बेनामी और अनामिकाओं ने ऐसा भय और संशय का माहौल बुन डाला है कि लोग जाने परखे मित्रों तक को भी शक के दायरे में ला दे रहे हैं !

बेनामी टिप्पणियाँ अनेक कारणों से की जा सकती हैं -उचित और तर्कपूर्ण कारणों से भी ! मगर इस समय जो टिप्पणियाँ हो रही हैं केवल घोर हताशा और निराशा का ही परिणाम हैं -कारण जिन्होंने भी हिन्दी ब्लागिंग को ऐसे ही मौज मस्ती के लिए ले लिया और उसके साथ सामाजिक उत्तरदायित्व को नहीं जोड़ा या फिर किसी प्रायोजित उद्येश्यों की पूर्ति में लगे या फिर अपने हारे हुए मुद्दों को यहाँ लाकर हायिलायिट करने लग गये , अब चुक गए हैं ! कुछ लोगों ने बस यही समझ लिया था कि ब्लॉग का मतलब बस अपना रोना धोना, ज्ञान जी के शब्दों में कहूं तो सुबक सुबक पोस्ट है !

मुझे लगता है की इन बेनामियों की ज्यादा नोटिस नहीं ली जानी चाहिए -एक एक महारथिओं ने अपने ब्लागों पर माडरेशन लागू कर रखा है -आप भी वही आप्शन अपना सकते हैं .और वैसे भी यदि आप आधी दुनिया -नारी पर कुछ नहीं लिख्रते या फिर पहेलियाँ नहीं पूंछते तो मत घबराईये कोई बेनामी आप तक नहीं पहुँचने वाला है -बिना माडरेशन के भी आप चैन की वंशी बजा सकते हैं .

बुधवार, 24 जून 2009

बीट द हीट विथ माकटेल !


जी हाँ ,बाई बाई टू काकटेल एंड वेलकम तो माकटेल ! इतनी सड़ेली गर्मीं पड़ रही है कि जीना दूभर हो गया है -पसीना सूख नही रहा ! एक नुस्खा पेशे खिदमत है -माकटेल पीजिये ! गरमी को भगाने का यह नया नुस्खा अब खूब प्रचलन में है ! माकटेल बोले तो तरह तरह के विशुद्ध शाकाहारी जूसों आदि का कल्पनाशील मिश्रण -अब जैसे जो माकटेल पिता पुत्र चित्र में पी रहे हैं उसमें लीची ,अन्नानास ,स्ट्राबेरी आईसक्रीम ,थोडा सोडा और थोडा थम्स अप -सब माशा तोला एक निश्चित अनुपात में है -बोले तो परफेक्ट ब्लेंडिंग ! फिर ऊपर से क्या खूब सजावट- मतलब गार्नेशिंग ! वाह मजा आ गया -यह मेरी एक न्यू फाउन्ड इंटेरेस्ट है -तरह तरह के चित्र विचित्र नाम भी है इस पेय के -हमने जो आज अभी अभी पी है उसका नाम है -ट्रापिकल स्प्लेंडर !

माकटेल बनाने वाला आपसे अक्सर पूंछ सकता है कि सर कैसी बनी /ब्लेंड हुयी थी माकटेल ? और आपको तो औपचारिक उत्तर ही देना होगा -जोरदार ,जबरदस्त ! पार्टियों में काकटेल के समानांतर इसे पेश कर सकते हैं -आपके शाकाहारी मित्र भी मान जायेंगें कि हाँ आपने पिलाई थी कोई चीज !

आप भी ट्राई करें जनाब -खोजें अपने शहर में और बनारस आ रहे हों तो हमें माकटेल पर साथ देने का सौभाग्य अता करें !

जीवन शैली और खान पान

मंगलवार, 23 जून 2009

हिन्दी ब्लॉग जगत की भटकती आत्माएं !

अभिषेक जी ने अभी अभी ब्लागिंग के खतरे शीर्षक वाले एक रोचक ,श्रृखला बद्ध आलेख का समापन किया है ! मुझे याद नही आ रहा कि उन्होंने आपको भटकती आत्माओं से आगाह किया या नहीं ! चलिए यह नेक किंतु अप्रिय काम मैं ही कर देता हूँ ! लेकिन सबसे पहले अनेक अतृप्त आत्माओं में से मैं ख़ुद का नाम सर्वोपरि रखता हूँ -एक वह शख्स जिसे ख़ुद यह नही मालूम की वह यहाँ हिन्दी ब्लॉग जगत से क्यों आ चिपका है किंतु प्रत्यक्षतः वह दंभ भरता है कि वह लोगों में विज्ञान का संचार करना चाहता है ! उसकी अत्रिप्तता अपने विचारों को लोगो में बांटने की भी है जैसा कि कवि लेखक लोग कहते हैं कि उनके साथ भी ऐसा ही है ! वह इसी मुगालते में यहाँ भटकती आत्मा बन उठा है !

अब कुछ अतृप्त आत्माएं नारीवादियों की है जिसमें नर नारी दोनों ही सम्मिलित है -उनके अनुसार मानवता के इतिहास में अगर क्रूरतम अत्याचार हुए हैं तो बस नारी के साथ ही और वह आज भी बस खून के घूँट पी पी कर रह जा रही हैं -बल्कि कई तो प्रेतात्माएं बन चुकी हैं और ढूंढ ढूँढ कर जहाँ भी नारी निंदक मिलेगें -यहाँ तक कि इस आभासी जगत तक भी उन्हें प्रेत्योनि से ग्रसित किए बिना नहीं छोडेगीं ! हे राम ! वे कितना प्रतिशोधी बन चुकी हैं -उनकी जीभों से रक्त टपक रहा है -वे अपने साथ कुछ पुरूष भृत्यों की टोलियाँ भी लिए हुए हैं -जो नर मुंडों की खोपडियां लिए मानों और खोपडियां ढूंढ रहे हैं -बहुत डरावना दृश्य है सचमुच -इस भरी दुपहरी में मुझ जैसा कोई भी इनकी जमात को देख ले तो वहीं क्षण भर में ढेर हो जाए ! मैं भी इन्ही के चलते देखिये न कब का एक भटकती आत्मा में तब्दील हो चुका हूँ !

कुछ और भटकती आत्माएं धार्मिक प्रक्रति हैं -उन्हें यह लगता है कि संसार के कुछ महानतम धर्म संकट ग्रस्त हो चुके हैं -और धर्म गया तो फिर बचा ही क्या ? वे इस आभासी जगत में अलख जगाये यही कह रहे हैं कि उठो जो तुम्हारे धर्म पर बन आए उस पर तुम बन आओं ! पर यह क्लैव्यता को प्राप्त हिन्दी ब्लॉग जगत उनकी अनसुनी करता जा रहा है -दो चार साथी जरूर रणभेरी बजा रहे हैं -मगर यह क्या बात कि नकार खाने में उनकी आवाज बस शहनाई बन के रह गयी है -उन्होंने जीवन के हर मकसद हर कृत्य को ख़ुद के समझ के मुताबिक धर्म से जोड़ लिया है और जीवन में ख़ुद शंकराचार्य /विवेकानंद नहीं बन पाये तो बस इस आभासी जगत को कब्जिया लिए हैं -जिन्न की तरह ब्लागों पर मंडरा रहे हैं ! धर्म की ऐसी ऐसी व्याखाएं ये उड़ते फिरते वैताल करेंगें कि सर चकरा जाए और आत्मा तक कांप जाए !

ये भटकती आत्माएं समाज के उभय उत्पाद हैं -चिर अतृप्त और अत्रिप्ताएं -पूरी तरह प्रतिक्रियात्मक और प्रतिशोधात्मक !बोले तो नेमेसिस !! कितनी राहत है कि इस आभासी जगत ने उन्हें अब अपने दामन में समेट लिया है -बेघरों को अच्छा सा घर मिल गया है ! अगरचे वे यहाँ न होते /होतीं तो कहाँ होते /होतीं -इस सुंदर सी मानवता का कितना नुक्सान हो रहा होता बस कल्पना ही किया जा सकता है !

आईये इन प्रेतात्माओं को तिलांजलि दें !
कुछ और प्रेतात्माओं की कोटियों की जिक्र आगे भी ....

रविवार, 21 जून 2009

पितृ दिवस पर पिता जी की ही कविता के पाठ की श्रद्धाजंली

आज युनुस जी की इस पोस्ट ने पिता जी की याद दिला ही दी जिसे मैं तबसे सायास रोके हुए था जब आज यह पता चला कि आज ही "फादर्स दे " है -इन नित नए नए चोचलों में ,नूतन दिवसों में मेरी रूचि नही है -मगर अब युनुस भाई को क्या कहूं कि उन्होंने इस दिवस को कुछ चुनिन्दा लोगों की चुनिन्दा कविताओं से ऐसा अर्थ गौरव प्रदान कर डाला कि पिता जी याद आ गए और बेसाख्ता याद आए !
मैं उन पर क्या लिखूं ? पहले उनके लिखे से आगे बढ़ पाऊँ तब तो ! लीजिये "आत्मा वै जायते पुत्रः " के फलस्वरूप उनकी यह कविता आप भी पढ़ लें !

कया करुँ मन कुछ कहो तो .........

क्या करुँ मन कुछ कहो तो
क्या सितारे तोड़ लाऊँ
या कि गैरिक वस्त्र में सब कुछ छुपाऊँ
तरस आता किंतु तेरी विवशता पर
त्याग सकते हो कुछ नही तुम
रूढियों की जिन्दगी ही भाती तुझे है
कसकना ,कोसना ,हरदम फुलाए गाल रहना
और रो -रोकर सिसक कर पाँव रखना
बस ,यही आग्रह तुम्हारा खून पीकर
लड़ रहा प्रतिपल तुम्हारी साँस लेकर
और तुम ?
मुझी पर डांट की वर्षा लगाये
रो रहे हो
क्या करुँ मन कुछ कहो तो !

गुरुवार, 4 जून 2009

भारतीय शास्त्रीय संगीत ,योग और अध्यात्म से बढ़ती है जीवन की गुणवत्ता !

आज की भागम भाग जिन्दगी और अनेक चुनौतियों के चलते उत्पन्न तनाव से मनुष्य का जीना दूभर हो रहा है -तनाव जानलेवा भी हो सकता है ! जीवन को नारकीय बना सकता है ! यह उन बच्चों के जीवन को भी कई तरीकों से प्रभावित कर रहा है जिनके माँ बाप तनाव ग्रस्त हैं ! तनाव के चलते दाम्पत्य जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है -पश्चिमी देशों में बढ़ते तलाक ,सहज यौन जीवन पर भी यह बुरा प्रभाव डाल रहा है ! यहाँ तक की लोगों की उम्र भी तनाव के चलते घट रही है -रोगों से शरीर के लड़ने की कुदरती शक्ति लगातार तनाव के चलते घटती जाती है और एक समय शरीर पर अनेक रोगों का हमला हो जाता है ! पर्याप्त शोधों द्बारा अब यह पूरी तरह साबित है !

पर यह तो समस्या रही पर इसका समाधान ? यह पोस्ट इसलिए ही तो है ! समाधान है भारतीय शास्त्रीय संगीत ,आध्यात्म ,योग और ध्यान में रूचि ! और यह बात कोई धार्मिक गुरु नही -आधुनिक विज्ञान की पद्धति को अपना कर बर्लिन और अमेरिका में विगत २५ वर्षों से शोधरत भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक वैज्ञानिक
डॉ जैस्लीन मिश्रा का कहना है जो इन दिनों भारत भ्रमण पर हैं ! कल ही उनका एक रोचक व्याख्यान इसी विषय पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अकैडमी स्टाफ कालेज में संपन्न हुआ जिसे टाईम्स आफ इंडिया के आज केअंक में कवर किया गया है !

डॉ मिश्रा ने कहा कि उनके शोध के दौरान यह पाया गया है की राग मालकौंस की तनाव शैथिल्य में अद्भुत भूमिका है ! साथ ही आध्यात्म ,भक्ति , ध्यान और नियमित योग से तनाव से काफी हद तक मुक्ति पायी जा सकती है ! जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं वे दीर्घ जीवी होते हैं -और अनेक रोगों के चलते मृत्यु दर में भी काफी कमी पायी गयी है -इस तथ्य की पुष्टि में उन्होंने लेविन और शिल्लेर (१९८७ ) के अध्ययन का हवाला दिया ! उन्होंने मनुष्य के इर्द गिर्द एक आभा मंडल (औरा ) की मौजूदगी पर भी अपने शोध का ब्यौरा दिया ! बी एच यू के करीब ५० शिक्षकों और प्रोफेसरों के बीच उनका व्याख्यान चर्चा का विषय रहा !

हम भारतीयों की एक मजेदार आदत है -कोई भी देशज ज्ञान जब पश्चिमी विज्ञान के अनुमोदन के बाद यहाँ पुनरावर्तित होता है तो हम आत्ममुग्धता के मोड में चले जाते हैं -तुंरत कहते हैं कि "देखा मैं तो पहले ही कहता था कि .........." पर भाई ख़ुद अपने ही ज्ञान की थाती की भारत में इतनी उपेक्षा क्यों ? हम ऐसे शोधों को भारत में ही क्यों नहीं अंजाम दे सकते ! किसने मना किया है ?

अगर आप इसे अन्यथा न लें (वैसे यह सचमुच आवश्यक भी नही है !) तो यह भी बताता चलूँ कि डॉ जैस्लीन मिश्रा मेरी चाची हैं और गर्मीं की छुट्टियां अपने पैत्रिक आवास और पर्यटन में बिताने का इरादा रखती हैं ! अकेले आयीं हैं ,चाचा जी आए नहीं और इसलिए आप मेरी व्यस्तता समझ सकते हैं -आज से मैंने भी योग और ध्यान आजमाया है -जरूरत पड़ गयी है ! वैसे आपके कान में मैं यह भी धीरे से कह दूँ कि मैं बहुत संशयवादी आत्मा हूँ और ऐसे शोधों को तब तक स्वीकार नहीं कर पाता जब तक उनकी व्यापक पुष्टि न हो जाय ! नहीं तो ऐसे दावों और क्षद्म विज्ञान के बीच की विभेदक रेखा बहुत महीन है ! कम कहा अधिक समझा ! क्यों ?

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