सोमवार, 26 जनवरी 2015

तुलसी के लिए गुरु ,ब्राह्मण और दुष्ट भी वंदनीय हैं!


तुलसी मानस का आरम्भ गुरु वंदना से करते हैं। गुरु के प्रति उनके मन में अनन्य श्रद्धा और समर्पण है -वे गुरु के चरणधूल की वंदना करते हैं जो उनके लिए मकरंद के समान है -
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा 
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है!
गुरु वंदना के उपरान्त तुलसी धरती के देवताओं का वंदन करते हैं। अर्थात ब्राह्मणों का। मगर तुलसी के ब्राह्मण कौन हैं ? उन्होंने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है -
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं।
अर्थात ब्राह्मण वही जो मोह से उत्पन्न सारे भ्रमों को दूर करने की क्षमता रखता हो ,न कि स्वयं मोह ग्रस्त हो. आज के अधिकाँश ब्राह्मणों की तो कुछ मत पूछिए।अपनी दुर्दशा के कारण वे स्वयं हैं। कभी समाज को दृष्टि देने वाले आज स्वयं दिग्भ्रमित हैं. और आज के तमाम अंधविश्वासों, कुप्रथाओं और अज्ञान के प्रसार के लिए मुख्यतः ब्राह्मण ही जिम्मेदार हैं। इसलिए तुलसी ने ब्राह्मणों को लेकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है। 

तुलसी फिर संतों की वंदना करते हैं। कहते हैं सत्संगत से बढ़कर और कुछ नहीं। और संतो की संगत अर्थात सत्संगत सारे संसारी कष्टों को दूर करने वाली है -
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला
:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है.
 दुष्टों की वंदना
मानस के बालकाण्ड में दुष्टों की वंदना का भी रोचक वर्णन है. दुष्टों के प्रति क्लेश रखने के बजाय उनका भी पूजन वंदन कर लेने से शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होगें -कदाचित तुलसी का यह भाव रहा हो या फिर यह प्रसंग मात्र एक शुद्ध परिहास भी हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ के आरम्भ में रचनाकार का निश्चय ही निश्छल और गंभीर रहना ही अधिक संभव लगता है और उन्होंने खल वंदना भी सच्चे मन से ही किया होगा।
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है .
*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके
-जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है.
* पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा
 जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं .
* बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा
-जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं'
* उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति -दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है .
* मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा
-मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे।
कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?
 क्रमशः

14 टिप्‍पणियां:

  1. कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि तुलसीदास आज के युग में होते तो उनके विचार कैसे होते. विद्या के केन्द्रों से लेकर संतों तक__ हर जगह व्यावसायिक प्रवृत्ति ही छायी है. जीवन की सार्थकता में सर्वोपरि अर्थ है फिर काम फिर आदर, शिष्टाचार, धर्म, मोक्ष आदि-आदि. संत कहाँ है आज ? एक निर्लोभी व्यक्ति नहीं मिलता है जीवन में...जो चोला धरे हुए संत बने हैं उनके कारनामे धीरे-धीरे बाहर आ रहे हैं. मुझे लगता है आज की हालत देखकर तुलसी के काव्य की धारा शायद अवरुद्ध हो जाती.

    दुष्टों के लिए उन्हें क्यों प्रेम है यह जानने की इच्छा रहेगी. शायद अगले कड़ियों में आप लिखेंगे.

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    1. दुष्ट बेचारा गलत काम करके स्वयं ही दुख पाता है तो सज्जन के मन में , उसके प्रति करुणा का भाव होना स्वाभाविक है ।

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    2. वस्तुतः दुष्ट - बेचारा जो गलती करता है उससे दूसरों को सीख मिल जाती है कि वह गलती कर रहा है पर मुझे यह गलती नहीं करना है , इस प्रकार वह सही राह पर चलता है तो चूँकि वह उस दुष्ट के कारण सही राह को पहचाना तो वह दुष्ट तो उसका गुरु हो गया और गुरु तो वन्दनीय है ही । यही कारण है कि तुलसी ने दुष्ट की भी वन्दना की है । तुलसी - बाबा हमें सिखाना चाहते हैं कि हम दूसरों की गलती से भी सीख सकते हैं और सत्पथ पर चल कर अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं ।

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  2. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति, गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।

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  3. उत्तर
    1. शिल्पा जी ! मुझे आपकी टिप्पणी समझ में नहीं आई । कृपया स्पष्ट करें । जिज्ञासा का समाधान करें ।

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    2. isme samajhne jaisa kya hai shakuntalaa ji ? katha hai kathaakar hain - naman hai :)

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  4. मानस प्रभाती के यह अंश आपने यहाँ साझा किये - कृतार्थ हुए हम!

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  5. मनुष्य कर्मानुसार ही सुख - दुख पाता है । सत्कर्म से मानव प्रतिष्ठा सुख और तृप्ति सब पाता है , इसके विपरीत दुष्कर्म से वह तिरस्कार , दुख एवम् बेचैनी के अतिरिक्त कुछ नहीं पाता, इसीलिए सज्जन के मन में दुष्ट के प्रति दया - करुणा का भाव होता है क्योंकि वह जानता है कि वह कितनी बडी मुसीबत में पडने वाला है , इसीलिए सज्जन सबके लिए सद्बुद्धि की कामना करता है क्योंकि सद्बुद्धि ही हमें कष्ट से बचाती और सुख की ओर ले जाती है । " धियो योनः प्रचोदयात् ।" हे परमात्मा ! तू मेरी बुद्धि को बल - पूर्वक सन्मार्ग की ओर ले चल ।

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  6. बहुत सुन्दर सन्देश परक प्रस्तुति हेतु आभार!

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  7. सम्यक-दृष्टि का नाम ही शायद धर्म है .

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