रविवार, 19 जनवरी 2014

आपने राम चरित मानस का यह प्रसंग कभी पढ़ा-देखा है? अवश्य देखिये देखन जोगू!

विगत कई वर्षों से शीतकालीन मानस पारायण के नियमित क्रम में कल राम वनगमन का एक रोचक प्रसंग था जिसे आप सभी से साझा करने का मन हो आया। मैंने अपनी यह इच्छा फेसबुक पर जाहिर की तो अभय तिवारी जी ने तुरन्त अवगत कराया कि इसी प्रसंग पर वे भी लिख चुके हैं.यद्यपि अभय तिवारी जी ने  अयोध्या में राम की जन्मस्थली होने के दावों के विशेष संदर्भ में वह पोस्ट लिखी थी। मैं यहाँ किसी परिप्रेक्ष्य विशेष में पूरे राम वाल्मीकि संवाद को न रखकर बस तुलसीदास  कृत राम चरित मानस में राम के  वनगमन के दौरान मुनि वाल्मीकि से राम के मिलन और उनके बीच संवाद का उल्लेख करना चाहता हूँ !प्रभु राम निरंतर बिना रुके  अयोध्या से चलते आ रहे हैं। और अब वे यमुना को भी पारकर मुनिवर वाल्मीकि के आश्रम तक पहुँच गए हैं-" देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए।" अब उन्हें  वन  में रुकने का कोई अस्थायी ठाँव चाहिए। मगर ठाँव भी ऐसा हो जहाँ मुनिगण ,तपस्वी और ब्राह्मण दुखों से मुक्त हों -मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू(क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही (अपने दुष्ट कर्मों से ही) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है). 

 वे  सहज ही वाल्मीकि से कह  बैठते हैं- "अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ।। तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला।।" हे मुनिवर मुझे वह  जगह बताईये जहाँ मैं कुछ समय सीता और लक्ष्मण के साथ रह सकूं। अब वाल्मीकि के लिए एक बड़ा असमंजस  था कि जो स्वयं सर्वव्यापी हैं उन्हें रहने की कौन सी जगह  बतायी जाय - उन्होंने अपना असमंजस कुछ इस तरह व्यक्त किया -
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ
(आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ॥)

 यह पूरा संवाद ही बहुत रोचक और हृदयस्पर्शी बन उठा है. मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि  के जरिये तदनन्तर जो भी स्थान प्रभु राम के निवास के लिए बताये गए हैं वे तुलसीदास कृत राम चरित मानस के कई श्रेष्ठ रूपकों में से एक है -कुछ वास स्थान का आप भी अवलोकन  कर लीजिये -
  काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
( जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए)
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे
( जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है,जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं) 

मुझे आश्चर्य होता है कि लोग तुलसी कृत राम चरित मानस पर तरह तरह के आरोप  लगाते हैं -वर्ण व्यवस्था के पक्ष में तुलसी की कथित स्थापनाओं को उद्धृत करते हैं।  मगर तनिक मानस की यह दृष्टि भी देखिये  -राम को इन जगहों पर भी वास  करने की सिफारिश है- 
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥
( जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए॥) 
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु
( जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है) 

यह एक लम्बा संवाद है, मैंने कुछ चयनित अंश आपके सामने रखा है -विस्तृत संवाद का आंनद आप वेब दुनिया के श्री राम-वाल्मीकि संवाद पर जाकर उठा सकते हैं।  ये तो रहे प्रभु के रहने के स्थायी निवास स्थलों का वर्णन -फिलहाल अस्थायी तौर पर प्रभु कहाँ रहे इसके लिए मुनिवर ने सुझाया -"चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥" (आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है।) मुनि के सुझाये स्थल चित्रकूट पर्वत पर ही कुछ समय तक राम ने अपने वनवास का समय बिताया! ……जय श्रीराम! 

18 टिप्‍पणियां:

  1. यह बहुत अद्भुत प्रसंग है,जिसमें वाल्मीकि जी अपने आराध्य से ही प्रश्न पूछकर उनकी महत्ता को स्पष्ट करते हैं.जहाँ राम अपने स्वभाव के अनुकूल मुनि को सर्वोच्चता प्रदान करते हैं,वहीँ मुनि अपने वाक्-चातुर्य से उन्हें निरुत्तर कर देते हैं.
    बचपन से ही इस प्रसंग की एक चौपाई प्रायः गुनगुनाया करता हूँ,जिसमें मुनि पूछते हैं 'तुम्हहिं छांड़ि गति दूसरि नाहीं,राम बसहु तिन्ह के मन मांहीं'.
    ....मेरा मानस-पारायण छूट गया है,अब सोचता हूँ फिर से प्रारम्भ करने के बारे में.

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  2. मैं ने देखा कि बीजेपी कांग्रेस में तो शायद ही कोई हो वाल्मिकी की बात मान लेने पर जिस के हृदय में राम रह सकें।

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  3. आख्या के साथ सुन्दर व्याख्या । प्रवाह-पूर्ण - प्रस्तुति ।

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  4. सुंदर व्याख्या ......जीवन का अर्थपूर्ण सार सिखाते प्रसंग

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  5. बिना संदर्भ जाने कुछ भी आरोप लगा देने से सरल कार्य विघ्नसंतोषी जीवों के लिये दूसरा कोई नहीं। नैगेटिव देखने के आदी लोग आरोप ही लगा सकते हैं।

    राम चरित मानस ऐसा ग्रंथ है जिसमें से प्रिय प्रसंगों को शार्टलिस्ट करना अपने आप में एक दुरुह कार्य है।
    जय श्रीराम।

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  6. बाली वध और सीता परित्याग दो ऐसे प्रसंग है जिसकी वजह से रघुराई के प्रति मेरे मन में पूर्ण प्रकाश नहीं सका है अभी तक. अब देखते हैं कि उम्र के साथ मेरी दृष्टि में कभी बदलाव आ पाता है या नहीं.

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  7. कण कण में भगवान् जिसे दिखते हो , वह कहाँ छिप कर पाप करे /पुण्य कमाए !
    रोचक प्रसंग !

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  8. ्यूँ ही नही मानस को सम्पूर्णता मिली है और घर घर मे पढी जाती है यही मूल्य हैं जिसे मानस ने संजोया है जो हमारा मार्गदर्शन करते हैं और जीवन कैसे जीना चाहिये वो सिखाती है । जय श्री राम

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  9. बहुत गजब का प्रसंग है यह. इन पंक्तियों को मैंने लाता मंगेशकर की आवाज में सुना भी हअ अद्भुत है.

    राजेश

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  10. ज्ञान सिखाया जा सकता है परन्तु सिखाने से सम्यक्ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। वो तो सत्य दर्शन से होता है जो रामायण में स्थित हो कर मनन करने से स्वतः होता है। जिसका सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है।

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  11. आनंद ... पूरा प्रसंद औरत उसकी व्याख्या ... समझ आता है की क्यों कई कई बार इस ग्रन्थ को पढ़ने की जरूरत है मानस को ...

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  12. पण्डित जी! रामचरित मानस जैसे सागर से यह एक मीठी बूँद आपने निकाली है और उसपर आपकी व्याख्या.. बहुत सुन्दर!!

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  13. सुंदर प्रसंग।

    जे सुख बांटे मित्र संग, हृदय बसें श्री राम।..साधुवाद।

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  14. बहुत सुन्दर उद्धरण हैं सबके सब। जो तुलसी पर वर्ण व्यवस्था पोषक होने का आरोप लगाते हैं वह यह नहीं जानते यह व्यवस्था गतिशील थी इसमें शुद्र के ऊपर आने का अवकाश था।

    कर्म प्रधान थी यह व्यवस्था ताकि समाज रचनात्मक बना रहे।

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  15. जाके ह्रदय .........ताके ह्रदय.........रघुराया. ..जिनके ह्रदय में काम क्रोध मद मान मोह नहीं हैं वहां तो स्वत ही प्रभु विराजमान हैं,वहां का ठौर भला क्यों बता रहे हैं ऋषि?क्या ये उचित नहीं की प्रभु को उनके ह्रदय में बसने को कहा जाता जो ह्रदय इन पाप भावनाओं से जड़ हो गए हैं.ताकि उन हृदयों में भी भक्ति का संचार होता,वे भी निर्मल बनते.जिन ह्रदय में प्रभु हैं वहां उनकी उपस्थिति से ही तो ये अवगुण नहीं हैं,जिस प्रकार सूर्य का होना, अँधेरे के न होने का प्रमाण है उसी प्रकार ह्रदय में प्रभुका नाम सारे अअन्धकार दूर कर देता है.अतः अधिक आवश्यकता उन ह्रदय को है जहाँ अन्धकार है.

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