आज फ़ुरसतिया यानि अपने अनूप शुक्ल महराज को ब्लागिंग करते नौ साल बीत गए . उन्होंने नौ शब्दों से अपनी पारी शुरू की थी और आज नौ साल पूरे हुए तो वे थोडा संजीदे और अतीतरागी बन उठे हैं -और यह सहज ही है. मेरे मन में यह देख एक उपमा उपजी है -नौ वर्ष के ब्लागिंग के गर्भकाल की . मनुष्य का गर्भकाल भी नौ माह का है और आज फ़ुरसतिया के भी जब ब्लागिंग के नौ साल हुए तो यह अवसर ऐसे ही हाथ से जाने देने का तो नहीं है . हम इस अवसर को ब्लागिंग के इतिहास में अमर बना देना चाहते हैं . क्यों न अनूप जी के महनीय ब्लागिंग अवदान को देखते हुए इस अवसर पर उनके ही इस नौ साला मानक को एक सार्थक,सकारात्मक रूप दे दिया जाय . आखिर ब्लागिंग के नौ साल को ऐसे ही हंसी ठिठोली करते काट देना कोई मामूली बात तो नहीं है . तो यह मानक ब्लागिंग का गर्भकाल माना जायेगा और इतने समय जो यहाँ टिका रह जाय समझिये वही धाकड़ ब्लागर है . वही पहचान और प्रतिष्ठा के काबिल है - बाकी तो अजन्में शिशु से हैं . अनूप जी की किलकारियां आज यहाँ ध्वनित हैं -कोई तो सोहर आदि का आयोजन करो न भाईयों, लुगाईयों .
पूरा हुआ ब्लागिंग का गर्भकाल: बधाई
फुरसतिया जी सचमुच जीवट के ब्लॉगर निकले .एक एक फन्ने खां और लौह संकल्पनाएँ आयीं और चली गयीं .अनेक झंझावात आये,चिल्ल पों मची ,निकल बाहर देख लेगें के उदघोष तक गूंजें मगर फ़ुरसतिया अपने व्यंग बाणों का समर्पित और और अनवरत संधान करते ही रहे -भले ही कभी कभार थोडा शिथिल हुयें हों मगर इनकी तुरीण व्यंग -बाणों से कभी खाली नहीं हुई . एक समय था जब ब्लागिंग के त्रिदेव में इनके साथ दो और देव थे मगर अब ये हैं अकेले हैं . और अकेले ही काफी हैं . मैंने भी कई बार इनके आघात प्रघात झेले हैं और खुद को धन्य मानता हूँ कि अपना भी गर्भकाल निकट आ रहा है . मगर इसके लिए मुझे कई शास्त्रोक्त कर्मकांड आदि कराने पड़े हैं . :-) अन्यथा इनके तिक्त बाणों के सामने टिक पाना आसान नहीं है .
आखिर ऐसा क्या है फ़ुरसतिया में? कुछ तो है यह उनके धुर विरोधी भी मानते हैं -लेखन की एक मौलिकता है,स्टाईल है और सबसे बढ़कर ब्लागिंग के प्रति समर्पण है और छपास की उत्कट अभिलाषा भी जो इन दिनों मुद्रण माध्यमों में उनके दनादन लेख भेजने से प्रमाणित हो रही है -जबकि वे ऐसी भयंकर भूल क्यों कर रहे हैं यह समझ में नहीं आ रहा है -क्या पूत के पाँव ऐसे ही दिखने थे? फुरसतिया जनाब एक वक्त खुद मुद्रण माध्यम से बिदकते थे और उन ब्लागरों की खिंचाई किया करते थे जो अंतर्जाल से मुद्रण माध्यम की ओर लपकते थे… मगर आज वे उसी पर मार्ग पर खुद चल पड़े हैं . मैं दंग हूँ ! बात मानिए फ़ुरसतिया जी यह उलटा दांव लगा बैठे हैं आप! छि छि ब्लॉग जगत में जन्मने के बाद फिर उसी बासी ,बिकाऊ, सड़ी गली गिरवी पत्र पत्रिकाओं के गलीज में लौटना? संपादकों से रिरियाना? रचना छपवाने के लिए मनुहार और टकटकी लगाकर छपने का इंतज़ार? फिर काहें को ब्लॉगर हुए आप? मुद्रण जगत से ब्लॉग जगत में आना तो समझ में आता है मगर यहाँ से उल्टा फिर उसी घुटन भरे माहौल में लौटना? यह कैसा पौरुष? आप भी अब यहाँ से चल निकलने के फिराक में हैं?
आखिर हमारा कोई मूल्य ,सिद्धांत वैगेरह है भी? ब्लागरों के अगुओं में आप रहे हैं मगर अब आप को भी कागजी ग्लेज भाने लगा है ? न न यह आपके लिए कतई शोभनीय नहीं है . मुझे पता है कुछ ब्लॉगर थोड़े से पारिश्रमिक की मोह में अखबारों से आस लगा बैठे हैं। मगर आपके साथ तो ऐसा भी नहीं है -हर माह के लखपती वैसे ही हैं आप! या फिर यह समझा जाय कि लद चुके ब्लागिंग के दिन और अब पलायन के दिन है .....चल उड़ जा रे पंछी यह देश .........
सुबह ही फ़ुरसतिया जी की पोस्ट पढी थी तो ये सारे विचार मन में घुमड़ रहे थे . एक ब्लॉगर उद्विग्न था यह सब सुनाने को ....सहज उदगार ,बेलौस बात ,और झटपट पोस्ट ही ब्लॉगर पहचान है. और यह पहचान कम से कम मैं तो खोने वाला नहीं . लोग अब ठकुर सुहाती को छोड़ यहाँ और कुछ नहीं चाहते -कोई मुद्दा भी हो तो भी बगल से सटक लेते हैं . ये ब्लागिंग के लिए और ब्लॉगर के लिए भी शुभ लक्षण नहीं है . अब तो लोग लड़ते झगड़ते भी नहीं ..माहौल कितना कब्रिस्तानी सा हो गया है न? वो जीवन्तता और वह मनसायनपन कहाँ गया? फ़ुरसतिया जी यहाँ की जिम्मेदारी ऐसे ही न छोड़ जाईये -आप अब ब्लॉग - दशक पुरुष बनने की राह पर हैं। शुभकामनाएं और बधाई!
फुरसतिया जी सचमुच जीवट के ब्लॉगर निकले .एक एक फन्ने खां और लौह संकल्पनाएँ आयीं और चली गयीं .अनेक झंझावात आये,चिल्ल पों मची ,निकल बाहर देख लेगें के उदघोष तक गूंजें मगर फ़ुरसतिया अपने व्यंग बाणों का समर्पित और और अनवरत संधान करते ही रहे -भले ही कभी कभार थोडा शिथिल हुयें हों मगर इनकी तुरीण व्यंग -बाणों से कभी खाली नहीं हुई . एक समय था जब ब्लागिंग के त्रिदेव में इनके साथ दो और देव थे मगर अब ये हैं अकेले हैं . और अकेले ही काफी हैं . मैंने भी कई बार इनके आघात प्रघात झेले हैं और खुद को धन्य मानता हूँ कि अपना भी गर्भकाल निकट आ रहा है . मगर इसके लिए मुझे कई शास्त्रोक्त कर्मकांड आदि कराने पड़े हैं . :-) अन्यथा इनके तिक्त बाणों के सामने टिक पाना आसान नहीं है .
आखिर ऐसा क्या है फ़ुरसतिया में? कुछ तो है यह उनके धुर विरोधी भी मानते हैं -लेखन की एक मौलिकता है,स्टाईल है और सबसे बढ़कर ब्लागिंग के प्रति समर्पण है और छपास की उत्कट अभिलाषा भी जो इन दिनों मुद्रण माध्यमों में उनके दनादन लेख भेजने से प्रमाणित हो रही है -जबकि वे ऐसी भयंकर भूल क्यों कर रहे हैं यह समझ में नहीं आ रहा है -क्या पूत के पाँव ऐसे ही दिखने थे? फुरसतिया जनाब एक वक्त खुद मुद्रण माध्यम से बिदकते थे और उन ब्लागरों की खिंचाई किया करते थे जो अंतर्जाल से मुद्रण माध्यम की ओर लपकते थे… मगर आज वे उसी पर मार्ग पर खुद चल पड़े हैं . मैं दंग हूँ ! बात मानिए फ़ुरसतिया जी यह उलटा दांव लगा बैठे हैं आप! छि छि ब्लॉग जगत में जन्मने के बाद फिर उसी बासी ,बिकाऊ, सड़ी गली गिरवी पत्र पत्रिकाओं के गलीज में लौटना? संपादकों से रिरियाना? रचना छपवाने के लिए मनुहार और टकटकी लगाकर छपने का इंतज़ार? फिर काहें को ब्लॉगर हुए आप? मुद्रण जगत से ब्लॉग जगत में आना तो समझ में आता है मगर यहाँ से उल्टा फिर उसी घुटन भरे माहौल में लौटना? यह कैसा पौरुष? आप भी अब यहाँ से चल निकलने के फिराक में हैं?
आखिर हमारा कोई मूल्य ,सिद्धांत वैगेरह है भी? ब्लागरों के अगुओं में आप रहे हैं मगर अब आप को भी कागजी ग्लेज भाने लगा है ? न न यह आपके लिए कतई शोभनीय नहीं है . मुझे पता है कुछ ब्लॉगर थोड़े से पारिश्रमिक की मोह में अखबारों से आस लगा बैठे हैं। मगर आपके साथ तो ऐसा भी नहीं है -हर माह के लखपती वैसे ही हैं आप! या फिर यह समझा जाय कि लद चुके ब्लागिंग के दिन और अब पलायन के दिन है .....चल उड़ जा रे पंछी यह देश .........
सुबह ही फ़ुरसतिया जी की पोस्ट पढी थी तो ये सारे विचार मन में घुमड़ रहे थे . एक ब्लॉगर उद्विग्न था यह सब सुनाने को ....सहज उदगार ,बेलौस बात ,और झटपट पोस्ट ही ब्लॉगर पहचान है. और यह पहचान कम से कम मैं तो खोने वाला नहीं . लोग अब ठकुर सुहाती को छोड़ यहाँ और कुछ नहीं चाहते -कोई मुद्दा भी हो तो भी बगल से सटक लेते हैं . ये ब्लागिंग के लिए और ब्लॉगर के लिए भी शुभ लक्षण नहीं है . अब तो लोग लड़ते झगड़ते भी नहीं ..माहौल कितना कब्रिस्तानी सा हो गया है न? वो जीवन्तता और वह मनसायनपन कहाँ गया? फ़ुरसतिया जी यहाँ की जिम्मेदारी ऐसे ही न छोड़ जाईये -आप अब ब्लॉग - दशक पुरुष बनने की राह पर हैं। शुभकामनाएं और बधाई!
फुरसतिया जी वाकई सदाबहार ब्लॉगर हैं। उनका व्यंग्य लेखन बहुत उम्दा होता है।
जवाब देंहटाएंहम सौभाग्यशाली हैं कि उनका सानिद्ध्य पा सके।
हमारे तो 'ब्लागाचार्य' हैं ....बधाई है उनको और आपको भी ।
जवाब देंहटाएंपहले पढ़कर लगा कि आज राखी के शुभ अवसर पर -- भाई ने भाई की कलाई से प्यार बाँधा है ! :)
जवाब देंहटाएंफिर आपने फुरसतिया जी की खाट फुर्सत में झटपट खड़ी कर दी.
प्यार का यह अंदाज़ भी खूब है मिश्र जी.
अनूप जी को ९ साल पूरे करने के लिए बधाई।
Bahut,bahut badhayi ho!
जवाब देंहटाएंइत्ते लम्बे साल तक ब्लॉगिंग करते-करते न गरदन टेढ़ी हुई न अकड़ ढीली। लाख लोग छेड़खानी करते रहें फुरसतिया को फुरसत से बनाया है भगवान ने अभी कई साल तक माकूल जवाब देते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंनौ साल पूरे होने की बधाई । साथ ही साथ आठ साल, सात साल...दो साल, एक साल और अभी जन्मे ब्लॉगर को भी ढेर सारी शुभकामनाएँ।
जै हो.
जवाब देंहटाएं:-)
(पूरा लेख पढ़कर ही लिख रहा हूं )
'ब्लॉगिंग के महागुरुदेव' अनूप जी को समर्पित इस पोस्ट के लिए आपको साधुवाद...
जवाब देंहटाएं15 मई 2010 को अनूप जी को समर्पित मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी...
अनूप शुक्ल, द कैटेलिस्ट ऑफ ब्लॉगवुड...http://www.deshnama.com/2010/05/blog-post_15.html
जय हिंद...
सबसे पहले तो शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद। शुक्रिया और आभार।
जवाब देंहटाएंसच तो यह है कि ब्लॉगिंग से परिचय न होता तो लिखने का सिलसिला ही न बनता। ब्लॉग अभिव्यक्ति का अद्भुत माध्यम है।
जहां तक छपने की बात है तो यह इसलिये है कि ज्यादा लोग पढें। लेखक को पाठक मिलें इससे बड़ा इनाम उसके लिये और कोई नहीं होता। मार्खेज ने एक संस्मरण में लिखा है कि एक जगह उनकी किताब ( शायद ’हन्ड्रेड ईयर्स इन सालिट्यूड’) दस बच्चे दस भागों में बांटकर बारी-बारी से पढ़ रहे थे। यह देखकर उनको जो खुशी हुई वह नोबल प्राइज मिलने से भी बढकर लगी।
मुद्रण माध्यम से बिदकने की बात सही नहीं है। उसका कारण पैसा तो कत्तई नहीं है। कारण है अधिक से अधिक लोगों द्वारा पढे जाने की लेखक-लालसा। ब्लॉग में एक लेख के कुल मिलाकर दो सौ से तीन सौ पाठक मिलते हैं। जबकि (चिरकुट से चिरकुट) अखबार में हजारों लोग आपका लेख पढते हैं। इसलिये छपने की बात कही। यह बात आज नहीं सात साल पहले लिखी थी मैंने एक पोस्ट में तब जब आप आये भी न थे ब्लॉगिंग में -लिखिये तो छपाइये भी न! . कारण भी लिखा था:
"मुझे कृष्ण बलदेव वैद की डायरी पढ़ते समय अपने तमाम ब्लागर साथियों के लेख याद आ रहे थे और यह कहने का मन कर रहा था कि ब्लाग में लिखने के साथ-साथ अपने लेख, कहानियां, कवितायें जगह-जगह पत्र-पत्रिकाऒं में छपने के लिये भेजते रहें- बिना इस बात की परवाह किये कि वे छपेंगी या नहीं। मुझे अपने तमाम साथियों की रचनायें इस स्तर की लगती हैं जो थोड़े फेर बदल के साथ आराम से पत्र-पत्रिकाऒं में छपने के लायक हो सकती हैं और सच पूछिये तो कुछ साथियों की रचनाऒं का स्तर तो ऐसा है कि वे जिस पत्रिका में छपेंगी उसका स्तर ऊपर उठेगा। मेरा सुझाव है इस दिशा में सोचा जाये और हिचक और आलस्य को परे धकेल कर अपनी रचनायें छपने के लिये भेजने का प्रयास किया जाये। अब लगभग सारे अखबार, पत्रिकायें नेट से कम से कम इतना तो जुड़े ही हैं कि उनका अपना एक ई-मेल आई डी हो। मतलब आपका छापाखाना आपसे मात्र एक ई-मेल की दूरी पर है। तो शुरू करिये न अपने लिखे हुये को छपाने का प्रयास! "
इसमें किसी की चिरौरी करने जैसी बात नहीं। न किसी के आगे समर्पण वाली बात! यह काम अपन ने आज तक न किया। अपनी दूसरी ही पोस्ट में मैंने अपने दो पसंदीदा शेर लिखे थे:
१.मैं कतरा सही मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश मे है.
२.मुमकिन है मेरी आवाज दबा दी जाये
मेरा लहजा कभी फरियाद नहीं हो सकता.
एक और सुना जाये:
गर चापलूस होते तो पुरखुलूस होते,
चलते न यूं अकेले,पूरे जुलूस होते
-अजय गुप्त, शाहजहांपुर
वैसे छपास कामना के बारे में लिखते हुये मैंने खुद लिखा है:
अपन की अखबारों में छपने की यह लालसा वैसे ही है जैसे गांव वाले घर वालों को दूध पिलाने की बजाय सुबह-सुबह डिब्बे में भरकर शहर ले जायें।
तो अखबार में कुछेक लेख अखबार में भले ही छप जायें, नियमित छपें लेकिन ब्लॉग का अखाड़ा आबाद रहेगा। सो दंग-वंग मत होइये। ब्लॉगिंग न छोड़ने वाले अपन।
बाकी जहां तक खिंचाई-विचाई का सवाल है तो हमने जब मन आया की। लेकिन देखा है कि मौज-मजे के मामले में यहां आम तौर पर लोगों का हाजमा बहुत खराब है। इसलिये लोगों से मौज लेना कम कर दिया (कुछ से तो बंद ही कर दिया यहां तक कि उनके यहां टिपियाना भी छोड़ दिया :) ) इस मामले में आप सौभाग्यशाली हैं कि आपसे मौज लेना जारी है।
एक बार फ़िर से आपको और अन्य शुभकामना वीरों को धन्यवाद! :)
दोनों पक्षों की बात सुनकर अदालत का निष्कर्ष यह है कि इतने साल तक डटे रहने के लिए भी एक (या नौ?) पुरस्कार होना चाहिए।
हटाएंहार्दिक शुभकामनायें!
बेशक व्यक्ति अपने शौक से लिखता है पैसे के लिए नहीं। हमने भी ऐसा ही किया लेख भी जितने छपे उतने अन छपे भी रहे। खबर भी संपादकों ने कई ने छापने के बाद न दी। पर लिखते रहे। भले अब किसी के मोहताज़ न रहे बैसाखी तब भी किसी की न लगाईं छापो तो ठीक न छापो तो और भी ठीक जहां हिंदी में अखबार छपता है विज्ञान पत्रिकाएँ निकलतीं हैं वहां वहां हम पहुंचे। फिर बटवारा कुछ लोगों ने शुरू किया सेहत का पन्ना सिर्फ डॉ लिखें या उनसे लिए गए साक्षात्कार छपें। हमें यह न तब जचा था न अब। पत्रकार हर विषय का ज्ञाता होता हे होना चाहिए।
हटाएंशुक्ल जी की पोस्ट पढ़कर वाकई आनंद आ जाता है, मौज लेने का उनका अंदाज अनोखा है। हमारी तो कामना है कि रवि रतलामी जी के दिये ताजा टार्गेट को शुक्ल जी जल्दी से पूरा करें और अगले साल रवि जी टार्गेट फ़िर से बढ़ा दें और फ़िर शुक्ल जी पूरा करें और फ़िर रवि जी टार्गेट बढ़ा दें और ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहे। अनूप जी को बधाई उन्हींके ब्लॉग पर देंगे।
जवाब देंहटाएंभाईयों के साथ लुगाईयों, वैसे मौज लेने में आप भी अपनी तईं कसर नहीं छोड़ते हैं।
ऐसा लगता है कि पिछले जन्म में आप और अनूप जी जरूर देवरानी-जेठानी रही होंगी :)
शुक्ल जी की पोस्ट पढ़कर वाकई आनंद आ जाता है......अगली बार चिट्ठा चर्चा में कम से कम आप उनकी भौजाई तो नजर आ ही जाओगे इस कमेंट के चलाते..जिओ राजा...क्या नब्ज़ पकड़ी है....बधाई!!...उनसे ज्यादा आपको!! इस मौके पर :)
हटाएंइस 'झटपट पोस्ट' में आप का अनूप जी के लिए प्यार छलक रहा है.
जवाब देंहटाएंब्लॉग्गिंग की मशाल जलाए रखने में निरंतर दिया जा रहा आप का योगदान भी अभूतपूर्व है.
अनूप जी को फिर से बधाई और शुभकामनाएँ.
अनूप जी को ब्लोगिंग के ९ साल पूरे करने के लिए बधाई और शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंRECENT POST : सुलझाया नही जाता.
बहुत उम्दा लिखे ।
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लागिंग में
प्रीनेटल देखभाल का संकट
देखा गया
भगवान करे प्रसव निरापद हो
देखा गया
हटाएंभगवान करे प्रसव निरापद हो
-उवाच.............गिरीश बिल्लोरे..सदैव की भांति...ऐसे प्रतिभागियों के लिए... :)
गिरीश बिल्लोरे ने पोस्ट की मर्म को पकड़ लिया ... :-)
हटाएंमतलब सफल वही जो यह फ़ुरसतिया गर्भ काल काट ले!
इसके पहले ही गर्भपात होगया कौं सा ब्लॉगर !
फुरसतिया ने नौ वर्ष के अनवरत ब्लागिंग मानक रख दिया है !
ये बधाई...हमारी तरफ से भी...माध्यम आप....फिलहाल...अभी कलह के बाद...फिर सोचेंगे,, :)
जवाब देंहटाएंदेखा गया
जवाब देंहटाएंभगवान करे प्रसव निरापद हो
-उवाच.............गिरीश बिल्लोरे..सदैव की भांति...ऐसे प्रतिभागियों के लिए... :)
बेशक व्यक्ति अपने शौक से लिखता है पैसे के लिए नहीं। हमने भी ऐसा ही किया लेख भी जितने छपे उतने अन छपे भी रहे। खबर भी संपादकों ने कई ने छापने के बाद न दी। पर लिखते रहे। भले अब किसी के मोहताज़ न रहे बैसाखी तब भी किसी की न लगाईं छापो तो ठीक न छापो तो और भी ठीक जहां हिंदी में अखबार छपता है विज्ञान पत्रिकाएँ निकलतीं हैं वहां वहां हम पहुंचे। फिर बटवारा कुछ लोगों ने शुरू किया सेहत का पन्ना सिर्फ डॉ लिखें या उनसे लिए गए साक्षात्कार छपें। हमें यह न तब जचा था न अब। पत्रकार हर विषय का ज्ञाता होता हे होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग में निरन्तर जमे रहना, जीवंतता बनाये रखना अपने आप में महत्वपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंछपें, न छपें, रिरियायें, न रिरियायें- यह द्वंद्व प्रत्येक ब्लॉगर के हिस्से की चीज है। अनूप जी अपनी कभीं लिखी बातों से जस्टीफाई करें भी तो क्या...!
और हाँ, अनूप जी के समानान्तर ब्लॉगिंग-धाकड़ों में शुमार हैं आप का नाम! कोंचते-कौंचियाते तो हैं पर वस्तुतः ब्लॉगिंग का एक अलग ही आनन्द रचते हैं आप।
Salute to both of You!
सही कहा हिमांशु जी आपने.
हटाएं@ यदि छपवाना पैसों के लिए नहीं तो क्यों न छपने से मिलने वाला पैसा उन्हें लौटा दिया जाए तो पैसों के लिए छपते हैं !!
जवाब देंहटाएंआप दोनों को बहुत शुभकामनायें !
आप दोनों को बधाई ..... सरल नहीं है लेखन में निरंतरता बनाये रखना .....
जवाब देंहटाएंअनूप शुक्ल जी को हार्दिक शुभकामनाएं .....
जवाब देंहटाएंabhar aapko.........subhkamnayen unko..........
जवाब देंहटाएंpranam.
भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय,
जवाब देंहटाएंबिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय...बस रसखान का ये दोहा यूंही याद आ गया.
वैसे आज घनश्याम खूब जमकर बरसे..आखिर बरसात का मौसम भी है...क्यूं ना बरसे...नाचो गिरधारी नाचो.
रामराम.
इस अवसर पर भाईयों, लुगाईयों सबको हार्दिक बधाईयां ही बधाईयां.
जवाब देंहटाएंजो नौ माह (वर्ष) पूरे करके जन्म ले चुके हैं ऐसे फ़ुरसतिया जी को कोटिश बधाईयां.
जो प्रसव काल से गुजर रहे हैं उनके लिये अति विशेष शुभकामनाएं...जिससे वो भी अनामियों सुनामियों की नजर से बचते हुये, नौ माह पूरे करके, यह दुनियादारी देख सकें.
रामराम.
जिनको ये बचा रहने दे , उनको भी बधाई !
हटाएंजो लिखा नहीं , वही पढ़ा :)
अनूप शुक्ल भैया जी को बधाई संग आपको भी नमन की आपने इस अवसर को सेलिब्रेट करवाया प्रणाम
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट अच्छी लगी भाई ..
जवाब देंहटाएंवैचारिक मतभेद संभव हैं मगर मनभेद न हो , अनूप शुक्ल का योगदान भुलाया नहीं जा सकता !
यह चीज़ बड़ी है मस्त मस्त !
बधाई अनूप शुक्ल को !
मेरी ओर से भी बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें, अनूप जी !
जवाब देंहटाएंनौ साल का गर्भकाल? बाप रे बाप...! मुझे नहीं मालूम कि इस धराधाम पर किसी भी जीव का गर्भकाल (gestation period) इतना लंबा हो सकता है। ब्लॉगर के लिए तो यह अवधि पैदा होकर जवान होने और फिर बुढ़ा जाने की अवधि है। कौन जाने कितने ब्लॉगर तो इससे कम समय में विदा ले लेते हैं।
जवाब देंहटाएंमनुष्य जीवन का दस साल ब्लॉगरी के एक साल के बराबर माना जाय तो शायद फार्मूला सही बैठे। इस हिसाब से फुरसतिया जी नब्बे के हो गये। अब एक साल बाद हम उन्हें शतायु होने की बधाई देंगे।
अनूप जी ने आरोह व अवरोह के न जाने कितने अध्याय देखे हैं, ब्लॉगिंग में। उनके समर्पण और लेखनी को नमन।
जवाब देंहटाएंबढ़िया मुद्दा बढ़िया विमर्श।
जवाब देंहटाएंअनूप शुक्ल जी को कोटिशः बधाई और इस बात को "उत्सव " का रूप देकर उसे भव्य बनाने वाले अरविन्द जी को भी बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंअनूप शुक्ल जी को शुभकामनाएँ और आपको भी , आपकी ब्लाग जगत में रामचंद्र शुक्ल की भूमिका भी अदा कर रहे हैं। यहाँ सब कुछ था केवल आलोचना की विधा ही अनुपस्थित थी।
जवाब देंहटाएंबधाई फुरसतिया जी को
जवाब देंहटाएंनिरापद प्रसवोपरांत छट्ठी पार्टी एवं दसठान निमंत्रण की प्रतीक्षा है. :)