पितृ दिवस पर एक मित्र ने कुछ चुटीला सुनाया ...पत्नी ने अतिरिक्त प्यार का इज़हार करते हुए पति से पूछा कि अजी ये सत्य और विश्वास में क्या फर्क है? पति विद्वान था इस फर्क को समझता था मगर उसके सामने चुनौती थी कि वह किन शब्दों में और कैसे पत्नी को यह फर्क समझाए कि उसे आसानी से समझ में आ जाय . सहसा उसके चेहरे पर एक कूट मुस्कान तैर गयी ..उसने जवाब दिया -
"सुमुखि, अब ये सोनू और मोनू तुम्हारे बच्चे हैं यह तो सत्य है मगर ये मेरे बच्चे हैं यह मुझे यह विश्वास है" :-)
पितृत्व को लेकर इतिहास में कितने ही विवाद दर्ज हैं.यद्यपि मातृत्व से भी जुड़े मसले हुए हैं मगर उनका निपटारा आसान रहा है . राजा ने बच्चे की दावेदारी को झगड़ रही माताओं के लिए फैसला सुनाया कि बच्चे के दो टुकड़े करके आधा आधा हिस्सा दोनों को दे दिया जाय ...वास्तविक माँ चीत्कार कर उठी "मुझे नहीं चाहिए बच्चा ,इसे ही दे दिया जाय " ..और राजा ने इसी माँ को बच्चा सौंप दिया . हो गया फैसला और बिल्कुल सही भी! मगर पितृत्व के दावे बड़े जटिल होते रहे . जिनका शर्तिया निपटारा डी एन ऐ फिंगर प्रिंटिंग टेकनिक की मानो बाट जोह रहा था .पिछले शताब्दी के आख़िरी दशक में यह तकनीक लोकप्रिय होनी शुरू हुई और अब तो पूरी दुनिया में पितृत्व /मातृत्व के निपटारे के लिए यही सबसे विश्वसनीय तकनीक है जिसे ज्यादातर देशों में कानूनी मान्यता भी प्राप्त है . अपने यहाँ भी कई मामले इसी तकनीक ने सुलझाये हैं तंदूर से तिवारी काण्ड तक!
अपने देश के पितृ-सत्तात्मक समाज में पिता की महिमा तो जग जाहिर है . यहाँ जीवन के बाद के जीवन में भी पिता का महात्म्य बरकरार है .एक पूरा आधा महीना ही पितृ-पक्ष कहलाता है और एक ख़ास दिन पितृ विसर्जन . मातृ पक्ष की कोई व्यवस्था नहीं है -एक दिन भी नहीं! भला हो पश्चिमी जगत का कि अब पितृ और मातृ दिवस दोनों का वजूद है . मजे की बात यह है कि पितृ विसर्जन दिवस तो है मगर हमारे यहाँ पिता अपने जीवन काल में प्रत्येक दिन पूज्यनीय और प्रातः स्मरणीय हैं किसी एक दिन नहीं -हाँ उनके दिवंगत होने के बाद भी वंशज उन्हें साल में कभी तो याद करलें इसलिए पितृ-पक्ष की व्यवस्था की गई .पश्चिमी दुनिया में तो पिता जीते जी ही परित्यक्त और बिसरा उठते हैं इसलिए कम से कम एक दिन तो उनकी याद सम्मान का हो इसलिए ही यह फादर्स डे का विचार वजूद में आया -मगर जब हम इसका हिन्दी तर्जुमा करके पितृ-दिवस कहते हैं तो मुझे तो पितृ विसर्जन का बोध हो उठता है .
यह संस्कृति का फर्क है . यहाँ पिता रोज पूज्य हैं वहां दैनंदिन उपेक्षित पिता के लिए बस एक दिन मुक़र्रर है! मगर अब हम भी पश्चिम के अन्धानुकरण में तेजी से लगे हैं -अपने मूल्य हमें पिछड़ेपन के द्योतक लगते हैं और फादर्स डे जैसे विचार आधुनिकता के .....हम तेजी से अपने जड़ों से कट रहे हैं -नयी पीढी फेसबुक पर जोरशोर से फादर्स डे मना रही है . काफी भावुक है .....मैंने उन्हें यह कहकर समझाया भी कि ....अरे अरे ....मित्रों इतना भाव विह्वल भी मत हो जाईये ..भई यह पितृ दिवस ही है पितृ विसर्जन दिवस नहीं —
"सुमुखि, अब ये सोनू और मोनू तुम्हारे बच्चे हैं यह तो सत्य है मगर ये मेरे बच्चे हैं यह मुझे यह विश्वास है" :-)
पितृत्व को लेकर इतिहास में कितने ही विवाद दर्ज हैं.यद्यपि मातृत्व से भी जुड़े मसले हुए हैं मगर उनका निपटारा आसान रहा है . राजा ने बच्चे की दावेदारी को झगड़ रही माताओं के लिए फैसला सुनाया कि बच्चे के दो टुकड़े करके आधा आधा हिस्सा दोनों को दे दिया जाय ...वास्तविक माँ चीत्कार कर उठी "मुझे नहीं चाहिए बच्चा ,इसे ही दे दिया जाय " ..और राजा ने इसी माँ को बच्चा सौंप दिया . हो गया फैसला और बिल्कुल सही भी! मगर पितृत्व के दावे बड़े जटिल होते रहे . जिनका शर्तिया निपटारा डी एन ऐ फिंगर प्रिंटिंग टेकनिक की मानो बाट जोह रहा था .पिछले शताब्दी के आख़िरी दशक में यह तकनीक लोकप्रिय होनी शुरू हुई और अब तो पूरी दुनिया में पितृत्व /मातृत्व के निपटारे के लिए यही सबसे विश्वसनीय तकनीक है जिसे ज्यादातर देशों में कानूनी मान्यता भी प्राप्त है . अपने यहाँ भी कई मामले इसी तकनीक ने सुलझाये हैं तंदूर से तिवारी काण्ड तक!
अपने देश के पितृ-सत्तात्मक समाज में पिता की महिमा तो जग जाहिर है . यहाँ जीवन के बाद के जीवन में भी पिता का महात्म्य बरकरार है .एक पूरा आधा महीना ही पितृ-पक्ष कहलाता है और एक ख़ास दिन पितृ विसर्जन . मातृ पक्ष की कोई व्यवस्था नहीं है -एक दिन भी नहीं! भला हो पश्चिमी जगत का कि अब पितृ और मातृ दिवस दोनों का वजूद है . मजे की बात यह है कि पितृ विसर्जन दिवस तो है मगर हमारे यहाँ पिता अपने जीवन काल में प्रत्येक दिन पूज्यनीय और प्रातः स्मरणीय हैं किसी एक दिन नहीं -हाँ उनके दिवंगत होने के बाद भी वंशज उन्हें साल में कभी तो याद करलें इसलिए पितृ-पक्ष की व्यवस्था की गई .पश्चिमी दुनिया में तो पिता जीते जी ही परित्यक्त और बिसरा उठते हैं इसलिए कम से कम एक दिन तो उनकी याद सम्मान का हो इसलिए ही यह फादर्स डे का विचार वजूद में आया -मगर जब हम इसका हिन्दी तर्जुमा करके पितृ-दिवस कहते हैं तो मुझे तो पितृ विसर्जन का बोध हो उठता है .
यह संस्कृति का फर्क है . यहाँ पिता रोज पूज्य हैं वहां दैनंदिन उपेक्षित पिता के लिए बस एक दिन मुक़र्रर है! मगर अब हम भी पश्चिम के अन्धानुकरण में तेजी से लगे हैं -अपने मूल्य हमें पिछड़ेपन के द्योतक लगते हैं और फादर्स डे जैसे विचार आधुनिकता के .....हम तेजी से अपने जड़ों से कट रहे हैं -नयी पीढी फेसबुक पर जोरशोर से फादर्स डे मना रही है . काफी भावुक है .....मैंने उन्हें यह कहकर समझाया भी कि ....अरे अरे ....मित्रों इतना भाव विह्वल भी मत हो जाईये ..भई यह पितृ दिवस ही है पितृ विसर्जन दिवस नहीं —
भावनाओं को एक दिन में समेट देना बेमानी सा लगता है।
जवाब देंहटाएंbaat to sahi hai ...lekin day decide hone se sanskar to nahin badalte..jinke liye apne parents ki importance hai unke liye har din rahegi...haan day specify karne se vo kuch special kar sakte hain apne parents ke liye jo routine life mein nahin ho pata... aur jinke liye apne parents ki koi value hai hi nahin ..unke liye kisi din vishesh ka bhi koi matlab nahin rah jata.
जवाब देंहटाएंभई यह पितृ दिवस ही है पितृ विसर्जन दिवस नहीं
जवाब देंहटाएं..जोरदार। अच्छे भले बारिश के दिन को फेसबुक ने पितृ विसर्जन दिवस में बदलकर गमगीन कर दिया। हमने भी उसी मूड में आकर फेसबुक में कविता झोंक दिया। :(
When we have already dedicated so many days to fathers..
जवाब देंहटाएंwhy not one more.. More the Merrier.
Society is living in hypocracy!
जवाब देंहटाएंबेशक यह पश्चिमी सभ्यता का ही प्रभाव है कि अब हम भी एक पक्ष की जगह एक दिवस ही मनाने लगे हैं। लेकिन युवा पीढ़ी को भी क्यों दोष दिया जाये जब उनकी जिंदगी ही पश्चिमी विकास के पैमाने पर चल रही है।
जवाब देंहटाएंआखिर , हँसना और गाल फुलाना एक साथ तो संभव नहीं। :)
चुटीला समवाद ...
जवाब देंहटाएंयूं तो व्यक्ति का महत्त्व हमेशा होता है .... एक दिन में इसे समेटना वाजिब भी नहीं पर यदि एक ही दिन कुछ विशेष हो तो कोई बुराई भी नहीं हम इसे ऐसे ही समझते हैं जैसे एक विशेष दिन करवाचौथ मना लेते हैं
जवाब देंहटाएंमजेदार ...चुटीली टिप्पणियों से सज्जित आलेख...
जवाब देंहटाएंसाभार....
पिता माता हर क्षण महत्वपूर्ण हैं ...
जवाब देंहटाएंयह नक़ल हास्यास्पद है ! बढ़िया अच्छे लेख के लिए भाई जी !
मातृदेवो भवः पितृदेवो भवः आचार्यदेवो भवः !
जवाब देंहटाएंसांस्कृतिक जड़ें तो कब की काटी जा चुकी हैं। अफसोस यही है कि हम अपनी संस्कृति में कभी डूबे नहीं और साथ ही कभी पाश्चात्य संस्कृति की गहराई को भी पहचान नहीं सके। दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम ...
पितृ-दिवस ही क्यों...मात-दिवस या प्रेम-दिवस या ऐसे ही कई दिवस हैं जिनका एकदिनी महत्त्व नहीं है.यह सब बाज़ार का खेल है.बस इस नाते उस खास दिन ,कुछ असल जैसा पाखंड कर लिया जाता है.खासकर माता-पिता तो हमारे साथ हमेशा जुड़े रहते हैं,यह खुद हमें समझना चाहिए.
जवाब देंहटाएंबाज़ार का काम उसका है,हमारा अपना.
पितृ दिवस को किस पितर दिवस से जोड़ा आपने ...
जवाब देंहटाएंयह सच है कि एक दिन पर्व मनाने से बेहतर है आजीवन अपनों से जुड़े रहना , मगर यदि एक ख़ास दिन बता कर याद कर लेने में इतनी बुराई भी नहीं है . वर्ना पिता तो हर समय साथ ही होते हैं !!
ऐसे ही थोक के भाव दिवस मनते रहे हो एक-एक दिन में चार-चार,पांच-पांच दिवस एडजस्ट किये जायेंगे। :)
जवाब देंहटाएंयूँ तो पति की लंबी उम्र की कामना भी हर दिन रहती है..फिर भी एक दिन करवा चौथ मना लेते हैं.
जवाब देंहटाएंकिसी खास दिन भी याद कर लेने में बुरा क्या है.
यह भी एक भेड़ चाल है,पश्चिमी सभ्यता व कुछ नए पन के आकर्षण ने हमें पगला दिया है,भारत में तो माता पिता तथा परिवार के अन्य बड़े सदस्य सदेव ही आदरणीय रहें हैं.बाजारीकरण ने रिश्तों के घेरों में सेंध लगा कर अपना माल बेचने के ये नुस्खे बना दिए हैं.अन्यथा एक दिन आप उन्हें आदर देकर,बाकी साल भर उनकी अनदेखी करें यह कहाँ का आदर सम्मान है.हमें अपनी भारतीय संस्कृति की ही अनुपालना करनी चाहिए
जवाब देंहटाएंसत्य को उजागर करती संवेदना और भावनाओं से भरी दिल को छूती बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंजहाँ तक मुझे याद आ रहा है हमारे इलाके में तर्पण के दौरान माता और पिता दोनों का नाम लिया जाता है. पितृ पक्ष के दौरान बाबूजी जब तर्पण करते थे दादी, परदादी का नाम लिया जाता था ये अच्छी तरह याद है. पश्चिम का ध्येय तो व्यवसाय है. इसी दिन के बहाने उपहार बिके . खाने-पीने की बिक्री बढे.
जवाब देंहटाएंसही बात है.
जवाब देंहटाएंइसीलिए मैं कॊई डे नहीं मनाता , सिर्फ एक को छोड़ कर
जवाब देंहटाएंबरजिये मत, मनाने दिया कीजिये.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
हाँ, खुद पिता होकर कह रहा हूँ कि पिता को महज एक दिन तक सीमित कर देना ठीक नहीं...
...
जवाब देंहटाएंबढ़िया विचार मंथन .अब पूरब हो या पश्चिम अव पतन उन्मुख ही है .ॐ शान्ति .बेशक विज्ञान नव सर्जक बना हुआ है नव निर्माण हो रहा है आगे अच्छा ही होगा .ॐ शान्ति .
हा हा हा ...कुछ दिनों बाद ऐसा होगा कि आज इस बात कि खुशी है कि आज कोई दिवस नहीं है :) :) :)
जवाब देंहटाएं