मनुष्य कैसा जीवन जी रहा है और उसे कैसा जीवन जीना चाहिए इस प्रश्न का जवाब धर्म और दार्शनिकता के नज़रिए से दिया जाता रहा है . और भी कई नज़रिए हो सकते हैं . धर्म की बात करें तो जीवन के चार मूल लक्ष्यों/ पुरुषार्थ की कसौटी पर मानव जीवन की सफलता असफलता आंकी जाती रही है -ये हैं धर्म ,अर्थ काम और मोक्ष . इनका उचित अर्जन ही मनुष्य के जीवन की सफलता मानी गयी है . इनमें भी मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है मगर राहत की बात है की मोक्ष की धारणा काल्पनिक ही है . चार्वाक ने कहा कि मृत्यु ही मोक्ष है -और इस अवधारणा की समझ को सरल कर दिया . महात्मा बुद्ध की माने तो मानव जीवन के मूल में दुःख ही दुःख है और मनुष्य के जीवन का बड़ा अभीष्ट सुख की प्राप्ति है .जब जीवन दुःख भरा है तो निश्चित ही मृत्यु मोक्ष से कम नहीं . कवी ने भी कहा है निर्भय स्वागत करो मृत्यु का यह है एक विश्राम स्थल .यहाँ कवि जीवन की आपाधपी और कष्ट की अनुभूति को ही उजागर कर रहा है .
यह युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी द्वारा सजाया संवारा जा रहा है . आज प्रौद्योगिकी ने मनुष्य की सुख सुविधा के कितने ही इंतजाम किये हैं . आज अल्प काल मृत्यु के मामले बहुत घट गए हैं मनुष्य की सामान्य आयु बढी है . कई रोग बढे हैं तो कई लाईलाज रहे रोगों पर नियंत्रण भी कर लिया गया है ,बड़ी माता और तावन जैसी बीमारियाँ छू मंतर होगई हैं . प्रसव मृत्यु दर काफी कम हुयी है . यात्राएं आसान हो गयी हैं .दो जून का भोजन एक बड़ी आबादी को उपलब्ध है . अगर सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था को हम सही कर पाए तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को और भी सुखमय कर देगी .. हो सकता है रामराज्य का हमारा चिर कालिक स्वप्न भी साकार हो जाय -अल्प मृत्यु नहिं कवनऊ पीरा सब सुन्दर सब बिरुज शरीरा ....मगर शायद हम सुख का एक सीमित अर्थ लगा लेते हैं -भौतिक सुख सुविधा को ही हम सुख मान लेते हैं! आध्यात्मविदों की बात हमें यहाँ सच लगती है कि सुख कहीं बाहर नहीं वह तो भीतर हैं अंतर्मन में है -उसकी खोज बाहर नहीं भीतर होनी चाहिए! और यह पूरा विषय ही आध्यात्म का हो जाता है ,
तो क्या बेशुमार धन दौलत ही सुख का आधार है . जाहिर तौर पर तो यही लगता है . मगर मैंने देखा है कि गाँठ के पूरे कितने लोग छदम बाबाओं पीरों की शरण में जा जैसे तैसे कमाए धन को लुटाते रहते हैं .पक्के अन्धविश्वासी हैं . हर पल डरते रहते हैं कि उनका वैभव कहीं भरभरा न जाए . क्या यह सुखपूर्ण जीवन है ?. हमारे पुरखों ने कितने ही सुनहले नियम बनाये हैं जिन पर चल कर हम भले ही सुखद कम मगर एक सार्थक जीवन जी सकते हैं . मगर अब वे नियम कहीं खो गए जल्दी मिलते नहीं .कोई पूछता भी नहीं . सार्थक जीवन के जो कुछ मूल मन्त्र थे उनमें दया ,परोपकार ,सत्य के प्रति आग्रह आदि थे. और ये मूल्य हैं . किसी विद्वान ने कहा है कि उपलब्धियों से भरे जीवन की अपेक्षा हमें गुणवत्ता पूर्ण जीवन को ज्यादा तरजीह देना चाहिए . पर यह जीवन की गुणवत्ता कैसे बढ़ायी जाय?
मेरे मन में यह प्रश्न कौंधता रहा है। और दैनंदिन जीवन में मिलने वाले लोगों को देख समझ कर तो यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस होती है कि जीवन जो बहुत दीर्घकालिक नहीं होता और फिर भी हम एक अंधी दौड़ लगाये हुए हैं में गुणवत्ता का समावेश कैसे हो सके ....आपके कुछ विचार हो तो साझा करें -हम उन विचारों को अगली पोस्ट में संश्लेषित कर प्रस्तुत कर सकेगें . आप भौतिक समृद्धि के अलावा जीवन में किन और चीजों को वरीयता देगें या दे रहे हैं ? आप खुद के जीवन को कितना सार्थक मानते हैं ? आपने कोई ऐसा काम अब तक किया है जिसकी कोई उत्तरजीविता हो? यानी जिसे लोग याद कर सकें? और नहीं तो कब करेगें समय तो पंख लगाये उड़ता ही जा रहा है ?क्या हमें खुद का जीवन जीना ही भारी लग रहा है? क्या हम सचमुच इतना असहाय हो गए हैं ? इस भूलभुलैया से निकलना मुश्किल सा हो गया है ?आपके लिए ये प्रश्न उत्तर देने में सहायक हो सकते हैं!
...मृत्यु ही मोक्ष है,इस अवधारणा पर थोड़ा असहमत हूँ। कई बार ऐसा भी माना जाता है कि मृत्यु के बाद भी अशांत मन वाले मुक्ति नहीं महसूसते। इसलिए उनके लिए अलग संस्कार किये जाते हैं।
जवाब देंहटाएंमैं यह मानता हूँ कि जिस व्यक्ति ने जीते जी अपने मन को शांत,निर्वैर कर लिया हो,वह मोक्षत्व को प्राप्त कर लेता है। ऐसा बहुत मुश्किल है पर असम्भव नहीं।
किसी के भौतिक रूप से न रहने पर उसके मोक्ष पाने न पाने का अर्थ भी क्या रह जाता है ?यदि इसी भौतिक अवतार में कोई यह कर ले जाता है,उसका मोक्ष सर्वोत्तम है।
संतोष जी,
हटाएंआपकी असहमति से सम्पूर्णतया सहमत!! लेखक ने प्रश्न करने से पूर्व भूमिका में ही उत्तर की सम्भावनाओँ को बाधित कर दिया है.'मोक्ष काल्पनिक है" और "मृत्यु ही मोक्ष है" का निष्कर्ष देकर. जो पांच इंद्रियोँ से देखा,सुना,अनुभव नहीं किया जा सकता वह सब कुछ काल्पनिक है यह एकांत दृष्टिकोण है. और मोक्ष का निहितार्थ ही 'अक्षय शास्वत सुख' है, ऐसा सुख जिसका कभी क्षय न हो, जो आकर फिर न जाए. जन्म और मृत्यु तो स्वयं दुखों का चक्र है, इसी चक्र से बाहर निकलना ही मोक्ष है.न तो मृत्यु के समय और न मृत्यु के बाद कोई परम सुख महसुस किया जा सकता है फिर मृत्यु में शाश्वत सुख कैसे हो सकता है? मृत्यु के समय मन-आत्मा कईँ अतृप्त इच्छाओँ और तृष्णाओँ को बाकि रखे ही मृत्यु को प्राप्त होता है, अमुमन लोग और जीने की जिजीविषा लिए ही मरते है, अशांत अवस्था में प्राण त्यागते है वह सत् चित्त् आनंद अवस्था कैसे हो सकती है? अतः साफ है मृत्यु, मोक्ष नहीं है.
मैंने चार्वाक की विचारधारा के मुताबिक़ मोक्ष को उधृत किया था -सूदखोरों और महाजनी व्यवस्था में ऋण की भरपाई भी वंशानुगत थी और पुनर्जन्म का भय दिखाकर वसूली करते रहने की रणनीति के विरुद्ध ही चार्वाक ने पुनरागमनं कुतः और मृत्यु को मोक्ष कहा था ...अर्थात आवागमन से शाश्वत मुक्ति! जीवन रहते मोक्ष का वाग्जाल तो बुना जा सकता है मगर यह बुद्धिगम्य कम से कम मेरे जैसे अल्पबुद्धि वाले के लिए नहीं है !!
हटाएंसुज्ञ जी अपनी विचारधारा के साथ डटे रहते हैं यह सुखद लगता है !
मिश्रा जी,
हटाएंयदि आपने चार्वाक की विचारधारा के आधार पर ही विवेचन किया है तो इस प्रश्न का समाधान भी चार्वाक दे चुके,'खाओ पियो और मजे करो' ही चार्वाक का परम् सुख है. :)
मात्र ऋण की भरपाई की समस्या को लेकर उद्भव विचारधारा के पास दर्शन और तत्व की अवधारणा होगी भी तो कैसे? यह तो पूरा चिंतन(वस्तुतः चिंतन है ही नहीं) ही मात्र 'ऋण मुक्ति का उपाय' का सलाह सूचन है. उसका परम् सुख, 'ऋण लेकर घी पीने की' कुटिल चाल में ही सम्पन्न हो जाता है.
वामपंथियों को यह लोकायत बडा अनुकूल लगता है, विचार और नियत मेल जो खाते है.:)
तार्किक व्याख्या सुज्ञ जी।
हटाएंसुज्ञ जी आपका दिल न दुखे मगर मुझे तो पोंगापंथियों से वामपंथी बेहतर लगते हैं :-)
हटाएंमेरा दिल क्यों दुखे? दो बुरों में ही तुलना हो तो निश्चित वामपंथी बेहतर है.:) लेकिन ईमानदार गुणवत्ता की बात करें तो दोनो ही समानरूप से पाखण्डी है.
हटाएंविचारणीय लेख हेतु धन्यवाद मिश्रा जी ....... जिस चर्चा में सुज्ञ जी मौजूद हों उसे मैं तो बुक-मार्क कर लेता हूँ
हटाएं@ मोक्ष की धारणा काल्पनिक ही है . चार्वाक ने कहा कि मृत्यु ही मोक्ष है ...
जवाब देंहटाएंमोक्ष की धारणा इस अर्थ में काल्पनिक है कि, बंधन जो हमने मान लिए है वे काल्पनिक है ! मृत्यु मोक्ष नहीं हो सकती हाँ जीवन की समझ मोक्ष हो सकता है !
यदि हम भाष्य में उलझे तो मोक्ष के कई मतलब हो सकते हैं! बुद्ध ने इसे निर्वाण कहा !
हटाएंशाश्वत प्रश्न!!यह प्रश्न शाश्वत इसलिए भी रहता है कि उत्तर खोजते खोजते मनुष्य फिर क्षणिक सुखों की भूलभुलैया में आसक्त हो जाता है और प्रश्न खडा ही रह जाता है.
जवाब देंहटाएंविद्वानों के मंतव्य की प्रतीक्षा...... मुद्दा ज्ञानवर्धक रहेगा.....
...आपके मन्तव्य की प्रतीक्षा है !
हटाएंइस विषय पर दो वर्ष पहले अपना मंतव्य कुछ इस प्रकार रखा था...
हटाएंजीवन का लक्ष्य
@ कवी ने भी कहा है निर्भय स्वागत करो मृत्यु का यह है एक विश्राम स्थल .यहाँ कवि जीवन की आपाधपी और कष्ट की अनुभूति को ही उजागर कर रहा है .
जवाब देंहटाएंप्रतिस्पर्धा हर चीज की निश्चित जीवन में आपाधापी कष्ट लाती है जीवन में जिसके लिए अशांति ही अशांति थी वह मृत्यु का स्वागत कैसे कर पायेगा ? मृत्यु का स्वागत वही कर सकता है जिसने जीवन को जान लिया !
फिर कवि ने इसे विश्राम स्थल क्यों माना ?
हटाएं'विश्राम स्थल' से कवि का अभिप्राय 'अल्प विराम' से है, चरम विश्राम से नहीं....
हटाएंऐश्वर्य ईश्वर शब्द से बना है इसलिए धन में कोई बुराई नहीं है बुराई है लालच में,इस अर्थ में मै विज्ञान का सम्मान करती हूँ ! भौतिक सुख सुविधा हो तभी अध्यात्म के बारे में सोचा जा सकता है अध्यात्म जीवन में संतुलन साधना सिखाता है याने की बुद्ध का सम्यक सूत्र , ओशो जिसे जोरबा बुद्ध कहते है !
जवाब देंहटाएंमतलब मध्यमार्ग ?
हटाएंदुःख का कारण सिर्फ यही है
जवाब देंहटाएंसही गलत है, गलत सही है।
सुख के अपने-अपने चश्मे
दुःख के अपने-अपने नग्मे
दिल ने जब-जब, जो-जो चाहा
होठों ने वो बात कही है।
कौन किसे दुःख समझता है, कौन किसमे सुख का अनुभव करता है यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। बुद्ध को क्या पड़ी थी सहज उपलब्ध समस्त सांसारिक सुख को तिलांजलि देकर वन-वन घूमने की? उन्हे घूमने में, सत्य की खोज में ही आनंद मिला। दूसरों के दुःख का कारण समझने में आनंद मिला। इससे इतर हमारे जैसे लोग हैं जो थोड़ा बहुत समय मिलता है उसमे इन सब बातों को पढ़कर, अपने विचार व्यक्त करके, थोड़ी प्रशंसा पाकर ही सुख का अनुभव करते हैं। कुछ दूसरे हैं वो इस समय का अधिक धन कमाने के उपाय ढूँढने और प्राप्त होने पर सुख न प्राप्त होने पर दुःख का अनुभव करते हैं। भांति-भांति के जीव हैं, भांति-भांति के उनके सुख,दुःख।
जवाब देंहटाएंसच कह रहे हैं पाण्डेय जी
हटाएंबड़ा प्रश्न, शाश्वत प्रश्न
जवाब देंहटाएंजो अपने सुख का स्रोत औरों पर टिकाये रहते हैं, दुख पाते ही रहते हैं।
जवाब देंहटाएंसुविचारित और प्रभावकारी लेख
जवाब देंहटाएं"मोक्ष " किसका ? शारीर का ? या आत्मा की ? यदि आप शारीर की बात करते हैं तो मृत्यु के बाद पांच तत्त्व अलग अलग होकर पञ्च तत्त्व में विलीन हो जाता है। जहाँ तक आत्मा की बात है तो यह भी एक कोरी कल्पना लगती है। विज्ञानं ने रोबोट बनाया। बिजली प्रवाहित कर उसे सचल बनाया ,काम कराया , बोलना सिखाया। बिजली बंद कर दिया तो रोबो में कोई हरकत नहीं। हमारे शारीर में भी बिजली है ,वह बिजली जब समाप्त हो जाती है या निकल जाती है ,इंसान निर्जीव हो जाता है ,फिर यह आत्मा की बात कल्पना नहीं लगती ? बिद्युत शारीर से निकल कर अन्तरिक्ष तरंगो से मिल जाता है फिर यह ' 'मोक्ष ' भी निरर्थक हो जाता है।
जवाब देंहटाएंसच कह रहे हैं
हटाएंविद्युत संचालित यंत्र एक स्वीच से चल अचल किए जा सकते और पुनः विद्युत प्रवाह देकर सक्रिय किए जा सकते है किसी मनुष्य या चेतन प्राणी के निर्जीव होने के बाद उसी उर्जा को देकर उन्हेँ क्या सजीव किया जा सकता है?
हटाएंवैज्ञानिक भी इसी खोज में लगे हैं की किस टाइप की बिजली कितने वोल्ट, कितने अम्पिएर विद्युत् चाहिए शव को पुर्जिवित करने के लिए . जिस दिन यह पता लग जायगा उस दिन मृत व्यक्ति जीवित हो जायगा
हटाएंवैज्ञानिक भी इसी खोज में लगे हैं की किस टाइप की बिजली कितने वोल्ट, कितने अम्पिएर विद्युत् चाहिए शव को पुर्जिवित करने के लिए . जिस दिन यह पता लग जायगा उस दिन मृत व्यक्ति जीवित हो जायगा।
हटाएंवैज्ञानिक तो अमृत कलश ही मानवता को सौपने पर उद्यत हैं -कोई मृत्यु को प्राप्त ही नहीं होगा एक दिन....
हटाएं:)
हटाएं@वैज्ञानिक भी इसी खोज में लगे हैं की किस टाइप की बिजली कितने वोल्ट....
हटाएंकहीं इससे जोम्बीज ना बनने लग जाएँ .. हा हा हा .. सोरी, दरअसल कल मैंने "गो गोवा गोन" देख ली थी :)
@आप खुद के जीवन को कितना सार्थक मानते हैं ? आपने कोई ऐसा काम अब तक किया है जिसकी कोई उत्तरजीविता हो? यानी जिसे लोग याद कर सकें?
जवाब देंहटाएंमैं तो अपने जीवन को सार्थक मानता हूँ। मुझे शाहजहाँ जैसे जनता के पैसे से अपने लिए या बीबी केलिए ताजमहल बनाके अमर नहीं होना है। मैं यदि अपने कर्मों से ,विचार से किसी एक व्यक्ति का उपकार कर पाया तो मैं मानता हूँ कि जीवन सफल हुआ। ऐसे कई उदहारण मेरे कर्मो में सम्मिलित है। गौतम बुद्ध ,महावीर ,मदर टेरेसा , ऐसे व्यक्ति है जिनके कर्मो को लोग जानते हैं ,इसके अलावा ऐसे करोडो लोग हैं जिनको लोग नहीं जानते पर वे ऐसे नेक काम करते रहते है।
यह पोस्ट ही इसलिए है कि हम अपने अवदानों को ईमानदारी से आकलित कर सकें!
जवाब देंहटाएंचार्वाक तो ऐसे किसी अवदान की अनुशंसा नहीं करते. इस दर्शन में परोपकार और त्याग का कोई औचित्य ही नहीं है. मरने के बाद याद किए जाने का उद्देश्य ही नहीं है. जो कोई भी इसी जीवन और उसके सुख-साधनो से अंत तक आनंद लूट लेने की अवधारणा रखते है उनके लिए इस संसार को कुछ देने का अर्पण करने का क्या लाभ!! नाम अगर याद भी किया जाएगा तो वे लोग अच्छी तरह जानते है उन्हें क्या फायदा? मृत्यु के बाद कुछ नहीं है तो कौन देख पाएगा कि उसे याद किया जा रहा है. कहने का अभिप्राय यही है कि वह उद्देश्यविहिन जीवन होगा.
हटाएंईमानदारी से आंकलन? मनुष्य बडा मायावी और अहंकारी है. यहां रावण भी कहेगा कि मेरे खल के अवदान से ही राम आदर्श बने....
आप जिस पेड़ का फल खाते हैं ,उसको किसने लगाया आपको पता नहीं. उसने भी आशा नहीं की क़ि आप उसे याद करे.आप अगर उसका कर्ज उतरना चाहते हैं तो एक पेड़ आप लगाकर जाइये.उसका फल अगली पीढ़ी खाएगी. लोग नहीं जानेंगे आपको पर अनजाने में दुआएं देंगे.
@ कर्ज उतरना
हटाएंचार्वाक सोच के लिए 'कर्ज उतरना' कोई मायने नहीँ रखता, वह ऐसी किसी कृतज्ञता से प्रतिबद्ध नहीं है. उसी तरह आत्मा में न मानने वालों के लिए आत्मा के कृतज्ञ भाव दिखाने का न तो कोई औचित्य है न कोई सार्थक उद्देश्य. फिर यह भावनाएँ आदि तन-मशीन के बंद होते ही बंद हो जाती है :)
@ अगली पीढ़ी ..... अनजाने में दुआएं देंगे.
:) हा हा हा "दुआएँ"????
इसी जीवन को मशीन की तरह का यांत्रिक मान कर 'जाने के बाद' वे दुआएँ किस काम आएगी? मरने के बाद जीवन ही नहीँ है और बादमें मिली दुआओं का किसे लाभ? क्या लाभ?
यह पोस्ट चार्वाक और मोक्ष पर नहीं है विद्वान् साथी इस पर नाहक समय जाया कर रहे हैं -यह पोस्ट गुणवत्तापूर्ण सार्थक जीवन पर है! जैसा कि कुछ मित्रों ने समझा है !
हटाएंपोस्ट निश्चित ही 'गुणवत्तापूर्ण सार्थक जीवन' पर है और विद्वान लेखक ने जीवन में गुणवत्ता की आवशयकता निर्धारित करने के लिए जीवन के लक्ष्य की, उद्देश्य की, सुख व्याप्ति की विवेचना की है. चार्वाक के परिपेक्ष्य में उद्देश्य देखने का प्रयास किया गया है. चिंतन का यह तरीका सही भी है क्योंकि बिना उद्देश्य और बिना लक्ष्य के जीवन में गुणवत्ता की आवश्यकता ही नहीं रहेगी. अतः पहले उद्देश्य निर्धारित करना आवश्यक भी है. उद्देश्य के अस्तित्व पर ही गुणवत्ता की जरूरत का आधार टिका है.
हटाएंयहां तो बडी गूढ गंभीर वार्ता चल रही है. हमने तो अभी तक मृत्यु को जाना नही है इसलिये ना तो मृत्यु की या उसके बाद के जीवन (या स्वर्ग नरक) के बारे में कोई राय देना चाहते हैं.
जवाब देंहटाएंवैसे लेखक का मंतव्य शायद यह पूछना है कि जीवन की गुणवता को कैसे बढाया जाये?
जहां तक अपनी समझ है जीवन की गुणवता ना तो धन दौलत सुख समृद्धि से बढेगी और ना ही मान सम्मान वाला स्थान पा लेने से. यदि गुणवता ही मूल्यवान समझते हैं तो जीवन के द्वंद को समझना होगा. इस भौतिक जगत में मन सहित प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है.
यदि आनंद और दुख दोनों को महसूस कर लिया जाये या समझ लिया जाये तो बात बन सकती है. हमारी पीडा यही है कि हम सुख और दुख दोनों को शरीर से ऊपर उठकर नही देख पाते. जिस दिन यह कला आ जायेगी उस दिन यह प्रश्न ही खत्म हो जायेगा, फ़िर क्या बचा?
आज तो आनंद ही आनंद आगया मिश्रजी.
रामराम.
"हमारी पीडा यही है कि हम सुख और दुख दोनों को शरीर से ऊपर उठकर नही देख पाते. जिस दिन यह कला आ जायेगी उस दिन यह प्रश्न ही खत्म हो जायेगा,"
हटाएंसच्ची बात, बिना छद्म शब्दावली के!!
सही कहा ताऊ रामपुरिया जी
हटाएं"हमारी पीडा यही है कि हम सुख और दुख दोनों को शरीर से ऊपर उठकर नही देख पाते. जिस दिन यह कला आ जायेगी उस दिन यह प्रश्न ही खत्म हो जायेगा,"
हटाएंकितनी सही बात लिखी है.प्रवचन का सार यही होगा.
सबका मोक्ष अलग अलग होगा ..
जवाब देंहटाएंम्रत्यु समय संतोष के साथ यहाँ से जाना मुझे मोक्ष प्राप्ति लगता है ..
आत्मा शात्मा की बात छोड़ दें तो ठीक रहेगा !
म्रत्यु से आगे शून्य है बस !!
अच्छे कार्यों पर आत्मतृप्ति हो, स्वयं की सन्तुष्टि हो। समस्त मानव जातियों में परस्पर यही भाव हो तो जीते जी मृत्यु का आभास हुए बिना निर्वाण हो जाता है, पता ही नहीं चलता। सुन्दर, अच्छा विवेचन।
जवाब देंहटाएंजीवन को जीने के लिए धन की जरुरत तो है ही मगर धन यापन के लिए जीने का कोई तुक नहीं. अपने आचरण और यदि संभव हो अपनी रचनात्मकता, सृजनशीलता से हम अपने कोई स्मृति चिह्न छोड़ कर जा सकें तो मेरी समझ से ऐसे जीवन को सफल कह सकते हैं.
जवाब देंहटाएंये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
जवाब देंहटाएंबस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
.
जवाब देंहटाएं.
.
@ मेरे मन में यह प्रश्न कौंधता रहा है। और दैनंदिन जीवन में मिलने वाले लोगों को देख समझ कर तो यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस होती है कि जीवन जो बहुत दीर्घकालिक नहीं होता और फिर भी हम एक अंधी दौड़ लगाये हुए हैं में गुणवत्ता का समावेश कैसे हो सके ....आपके कुछ विचार हो तो साझा करें
जीवन में गुणवत्ता का समावेश तभी हो सकता है जब गुणग्राहकता विकसित हो... हमें पता तो हो कि गुणवत्ता होती क्या है... दुख यही है कि हममें से अधिकाँश के पास गुणवत्ता की पहचान और कद्र करने की काबलियत ही नहीं है... इसीलिये एक गुणहीन, बंधेबंधाये ढर्रे पर चलने वाला, अल्लम गल्लम गल्पों पर यकीन करते हुऐ अस्पष्ट और काल्पनिक लक्ष्यों (जैसे मोक्ष ही) की तलाश करता जीवन जीने को अभिशप्त हैं हम...
...
इसी अल्लम गल्लम में शताब्दियाँ बीत गयीं प्रवीण जी!
हटाएंसुन्दर आलेख. मुझे ठीक से पता नहीं मुमुक्षा सबको होती भी या नहीं. लेकिन चार्वाक साब के वचन से थोडा असहमत हूँ क्योंकि अगर ऐसा हो तो मोक्ष सबको सुनिश्चित है और सबका जीवन धन्य. कृष्ण बिहारी 'नूर' साब का बहुत प्रसिद्ध शेर याद आ रहा है कि-
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी मौत तेरी मंजिल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
उनके इस शेर से ज्यादा इत्तेफाक रखता हूँ. जहाँ तक मेरे लिए मोक्ष की बात है- विज्ञान से बेइंतहा प्रेम है. शायद उसी में मेरा मोक्ष निहित है :)
Samajhme nahee aata ki kya sach hai aur kya kalpnik!
जवाब देंहटाएंजो समझ आ जाए सच जो न आये काल्पनिक -सिंपल :-)
हटाएंचार्वाक ऋण लेने की बात तो कर गये पर चुकाए गये चक्रवृद्धि ब्याज की बात संभवत: लज्जा-भय के कारण नहीं कह पाए . मतलब ऋण न चुकाने के बदले में मिला अपमान-तिरस्कार आदि . यदि आत्मा इसे स्वीकार करती है तो इसी जीवन में मोक्ष मिल जाता है . रही बात बुद्ध की तो उन्होंने जगत को चलायमान कहा है और इस क्षण को जीवंत तो फिर सुख-दुःख कहाँ टिके और निर्वाण की भी क्या आवश्यकता ? वैसे जीवन की सार्थकता अथवा गुणवत्ता की बात करे तो जैसे आँखे बंद होने पर भी फूलों की सुगंध से बाग़ का पता चल जाता है तो अच्छे काम से मिले आनंद का पता कैसे नहीं चलेगा ? लेकिन हम सबसे ज्यादा स्वयं से ही पक्षपाती होते हैं. हर चीज की तुलना करते है . सुख-दुःख में ही दुःख के पलड़े पर अपना कंकड़-पत्थर , कूड़ा-कचरा सब चढ़ा देते हैं तो जीवन क्या करे ? ...और सच्चे ह्रदय से एक मुस्कराहट में भी मोक्ष है यदि उसको पहचाना जाए तो..
जवाब देंहटाएंसच्चे ह्रदय से एक मुस्कराहट में भी मोक्ष है......क्या बात कह दी!
हटाएंजीवन पर गंभीर चिंतन बहुत अच्छा लगा ..
जवाब देंहटाएंwhenever I read about life the lines that instantly comes in mind are of Peter Gabriel-
जवाब देंहटाएंlife carries on
in the people i meet
in everyone that's out on the street
in all the dogs and cats
in the flies and rats
in the rot and the rust
in the ashes and the dust
life carries on and on and on and on
life carries on and on and on
it's just the car that we ride in
a home we reside in
the face that we hide in
the way we are tied in
and life carries on and on and on and on
life carries on and on and on
i>
did I dream this belief?
or did i believe this dream?
Thanks for such a thoughtful reply!
हटाएंअगर भौतिक सुख सुविधायें और विज्ञान की प्रगति से ही ख़ुशी मिलनी होती तो… आज का मानव सदियों पहले के मानव से निश्चय ही बहुत खुश होता। पर… कहीं न कहीं आंतरिक संतोष का होना बहुत जरूरी है. और वो कैसे आता है… ये असली प्रश्न है :)
जवाब देंहटाएंदुसरो को कष्ट दिए बिना अपना जीवन व्यतीत करे इसी को को मै जीवन की गुणवत्ता मानती हूँ । ईश्वर की प्रार्थना करने पर दिल धडकता हो ,और जीव सेवा पर जो आत्मिक सुख मिले वो भी इसमें समाहित है ।
जवाब देंहटाएंमोक्ष का नजरिया भी बनता बिगड़ता है वरना आये दिन ख़ुदकुशी क्यों करते यह भी शायद उसके मोक्ष का नजरिया हो , हर मरनेवाला मुर्ख नहीं होता
जवाब देंहटाएंजीवन की गुणवत्ता हर कोई अपने चश्मे से देखकर तय करता है या कहीये हरएक का मापने का स्केल अलग है.मैं जिसे बढ़िया कहूँ वही दुसरे के लिए घटिया हो सकता है..इसलिए जीवन जीने का तरीका कैसा हो इसपर क्या कोई एक ही राय तय की जा सकती है ??नहीं कभी नहीं.
जवाब देंहटाएं'एक फ़िल्मी गीत है न..हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िन्दगी .छाँव है कभी ..कभी है धूप ज़िन्दगी ....हर पल यहाँ खुल के जीयो ..जो है समां कल हो न हो...
***मैं तो मृत्यु को ही अंतिम विश्राम स्थल मानती हूँ***वही तो शाश्वत सत्य है!
[पोस्ट के टेग में लिखा है-प्रवचन....नए स्थान परिवर्तन का असर है?
प्रवचन का कोई दिन तय है क्या?]
सही कह रही हैं आप -शुक्रिया ..... अल्पना जी अब यह जीवन प्रवचन की ही ओर अग्रसर है ..कुछ अपवाद घट जाए तो बात दीगर है :-)
हटाएंजीवन दीर्घकालिक नहीं होता इसलिए सिर्फ धन कमाने और उपभोग करते करते मृत्यु को प्राप्त हो जाने में मैं जीवन की सार्थकता नहीं समझती। सबके लिए सार्थकता की परिभाषाएं भी अलग-अलग होती है। लेकिन साथ ही ये भी सच है की जिस तरह के जीवन में हम सार्थकता और सुख मान रहें हैं, जरुरी नहीं है कि वह हमें सुख और सार्थकता दे ही रहा हो। अधिकांशतः हम अपने सुख के लिए जो भी करते हैं उससे मिलने वाला सुख क्षणिक ही होता है और हमारा पूरा जीवन सुख की तलाश में ही व्यतीत हो जाता है। सुख की तलाश जब तक जारी रहेगी तब तक सुख मिल ही नहीं सकता।
जवाब देंहटाएं"सुख की तलाश जब तक जारी रहेगी तब तक सुख मिल ही नहीं सकता। "
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं - कहीं बाहर तो तलाशना व्यर्थ है! यह खोज तो भीतर होनी है!
मित्र अरुण प्रकाश उवाच ......
जवाब देंहटाएंइस देश में धन कमाना है तो भगवा वस्त्र पहन लो। भगवा के पीछे चार-चार स्त्रियां छिप जाती हैं। देश के जनमानस में भगवा को लेकर जो पुष्ट संस्कार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अंतरतम तक जमे हुए हैं, वे वास्तव में इतने पुष्ट हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, मन मस्तिष्क से निकलते ही नहीं। नतीजा यह कि जैसे पुरुषार्थ चतुष्टय अंतिम अभीष्ट होता था तथा उनमें भी मोक्ष सर्वाधिक अभीष्ट था, इस धरती पर भगवा वस्त्र धारण करना मोक्ष पाने के समान हो गया। मोक्ष की अब नई परिभाषा गढ़ देनी चाहिए। अब मोक्ष का नया अर्थ है- दरिद्रता से मोक्ष, कष्टों से मोक्ष, किसी भी प्रकार की पीड़ा से मोक्ष। सर्वविध पीड़ाओं के हरण का सर्वोत्तम अस्त्र है भगवा, इसलिए जब तक आप इस धरती पर हो, इस नए मोक्ष मार्ग को चुनो। इससे आपका कल्याण होगा।
सवाल वाजिब हैं, एक पड़ाव आता है जब ऐसे सवाल सिर उठाते हैं। हल खुद को ही तलाशने होंगे सर।
जवाब देंहटाएंहम खुश रह लें , अपने आस- पास छोटी -छोटी खुशियाँ बाँट ले , कोई हमारे कारण खुश हो ले , इससे अधिक गुणवत्ता क्या चाहिए !!
जवाब देंहटाएंबाकी गंभीर गहन विचार टिप्पणियों में आ ही चुके हैं !