अभी पिछले दिनों जब मैंने फेसबुक पर एक अपडेट किया तो अनुमान नहीं था कि उसका एक खौफनाक परिणाम सामने आ जाएगा .अविनाश वाचस्पति जी को लगा कि वह अपडेट मैंने उन पर किया है और उन्होंने अपने ब्लाग्स को हमेशा के लिए ब्लाक कर दिया और मात्र फेसबुक पर बने रहने की घोषणा कर डाली। पहले तो आप मेरे उस अपडेट को पढ़ लें और चाहें तो एक नज़र आई टिप्पणियों पर भी डाल लें। वह कमेन्ट यूं था " एक हिन्दी ब्लॉगर ने डिजिटल मीडिया से शोहरत हासिल की और इस टटकी शोहरत को अब प्रिंट मीडिया में कैश कर रहे हैं -मजे की बात यह कि प्रिंट मीडिया में अपने छपे आलेखों को फिर से डिजिटल मीडिया में मित्रों से साझा कर रहे हैं मानो यह धौंस देना चाह रहे हों कि देखो तुम लोग लल्लू ही बने रहे और मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया ....ये उनकी आत्म विस्मृति के दिन हैं -एक दिन लौट के आना यहीं है! वैसे दोस्तों की मेहरबानी से अभी पूरी तौर से यहाँ से गए भी नहीं हैं ! बूझिये कौन ?"
दिनेश द्विवेदी जी ने अपनी प्रतिक्रिया यूं व्यक्त की थी -"ब्लागिंग
में बहुत तरह के लोग आए और आते रहेंगे। बहुत वे भी हैं जो सरोकार और
प्रतिबद्धता का अर्थ नहीं समझते। बहुत लोग हैं जिन के लिए अपना नाम चित्र
अंतर्जाल पर लिखा, अखबार में छपा देखना और मौका लगे तो दो-चार सौ रुपए रोज
बना लेना ही सरोकार और प्रतिबद्धता है। आप तो ब्लागरों की कहते हैं।
अखबारों के कथित कालमों के कलमघिस्सू बनने के लिए बहुत से अच्छे कलमकार
बरबाद हो चुके हैं......जिस
दिन ब्लागिंग का झण्डा एडियाँ उचका उचका कर ऊँचा किया जा रहा था। हम तब भी
जानते थे कि एडियाँ उचकाने वाले जल्दी ही ब्लागिंग से भाग सकते हैं। वैसे
भी वे ब्लागिंग के जरिए किताबों अखबारों की दुनिया में प्रवेश कर रहे थे।
उद्देश्य तो किताबों और अखबारों की दुनिया
ही था। जो लोग अपने ब्लागों के अखबारों में छपे अंश को ऑस्कर की तरह अपने
ही ब्लाग पर लगा रहे थे उन से भी यही अपेक्षा थी और है। क्यों कि उन के
साध्य का साधन ब्लागिंग बन रही थी।"
पता नहीं आप मित्रों में से कौन अभी भी फेसबुक पर आबाद नहीं हुआ है मगर फेसबुक पर आबाद होने वाले ब्लागरों की संख्या काफी ज्यादा हो चुकी है .वे भी जो कभी पानी पी पी कर फेसबुक को कोसते और उसकी सीमाओं को रेखांकित करते रहते थे अब फेसबुक पर विराजमान ही नहीं काफी सक्रिय हो चले हैं और ब्लागिंग को खुद हाशिये पर डाल चुके हैं .तथापि मैं उन्हें दोष नहीं देता क्योकि यह 'मानवीय भूल ' बहुत स्वाभाविक थी और वे इस डिजिटल मीडिया की अन्तर्निहित संभावनाओं को आंक नहीं पाए थे जबकि मैंने इस विषय पर कई बार मित्र ब्लागरों का ध्यान आकर्षित किया था। आज भी मैं यह बल देकर कहता हूँ कि फेसबुक में ब्लागिंग से ज्यादा फीचर्स हैं और यह ब्लागिंग की तुलना में काफी बेहतर है .बहुत ही यूजर फ्रेंडली है . अदने से मोबाईल से एक्सेस किया जा सकता है .भीड़ भाड़ ,पैदल रास्ते ,बस ट्राम ट्रेन ,डायनिंग -लिविंग रूम से टायलेट तक आप फेसबुक पर संवाद कर सकते हैं . ज़ाहिर है यह सबसे तेज संवाद माध्यम बन चुका है . महज तुरंता विचार ही नहीं आप बाकायदा पूरा विचारशील आलेख लिख सकते हैं और गंभीर विचार विमर्श भी यहाँ कर सकते हैं। आसानी से कोई भी फोटो अपडेट कर सकते हैं . वीडियो और पोडकास्ट कर सकते हैं . ब्लॉगर मित्र तो इसे अपने ब्लॉग पोस्ट को भी हाईलायिट करने के लिए काफी पहले से यूज कर रहे हैं .यह पोस्ट भी वहां दिखेगी ही ....
सचमुच फेसबुक की अब ब्लॉग से कोई तुलना ही नहीं रह गयी है .यह अलग बात है कि मुझ जैसे कई ब्लॉगर अभी भी अपने आब्सेसन के चलते ब्लागिंग का दामन थामे हुए हैं -अब जैसे मुझे तो अभी भी किसी के लौट कर आने का शिद्दत से इंतज़ार है -जिससे यहीं पहली मुलाक़ात हुयी थी तो यह मेरे लिए मुक़द्दस जगहं है -मैं कयामत तक उनका यहीं इंतज़ार करूँगा! अब अनूप शुकुल वगैरह यहाँ क्यों टिके हुए हैं यह तो वही जानें अन्यथा अब इस पुराने शुराने माध्यम में रखा ही क्या रह गया है। वे पिछड़े हैं जो ब्लागिंग तक ही सिमटे हैं!
बहरहाल यह हेतु नहीं था इस पोस्ट का ..मैं एक दूसरी बात कहने आया था। दरअसल ब्लागिंग या सोशल नेटवर्क साईट्स -फेसबुक ,ट्विटर आदि सभी वैकल्पिक मीडिया/सोशल मीडिया /नई मीडिया /डिजिटल मीडिया (नाम अनेक काम एक ) की छतरी में आते हैं और मुद्रण माध्यम की तुलना में आधुनिक और बहुआयामी हो चले हैं .मुझे हैरत है कि लोग यहाँ आकर फिर उसी 'मुग़ल कालीन' युग में क्यूंकर लौट रहे हैं . मुद्रण माध्यमों की पहुँच इतनी सीमित हो चली है कि एक शहर के अखबार /रिसाले में क्या छपता है दूसरे शहर वाला तक नहीं जानता . मतलब मुद्रण माध्यम हद दर्जे तक सीमित भौगोलिक क्षेत्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं . मजे की बात देखिये जो मुद्रण माध्यम में अपनी समझ के अनुसार कोई बड़ा तीर मार ले रहे हैं वे उसे भी फेसबुक पर डालने से नहीं चूकते! हाँ अगर मुद्रण माध्यम कुछ मानदेय आदि दे रहे हों तो बात कुछ समझ में आती है। मगर इसके लिए ब्लॉग लेखन को तिलांजलि दे दी जाय बात समझ में नहीं आती .हम केवल चंद पैसों के लिए तो यहाँ नहीं आये थे और यह बात मैंने तभी कही थी जब गुजश्ता ब्लागिंग काल के त्रिदेवों में से एक आर्थिक सम्पन्नता के बाद भी ब्लागिंग से कमाई का जरिया ढूंढते नज़र आते थे .
पैसा कमाना एक आनुषंगिक उपलब्धि हो सकती है मगर वह हमारे सामाजिक सरोकार को भला कैसे धता बता सकता है? हम ब्लागिंग या डिजिटल मीडिया में क्या केवल चंद रुपयों की मोह में आये थे? जो अब यहाँ नहीं पूरा हुआ तो मुद्रण माध्यम की ओर वापस लौट लिए?या फिर डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल खुद को प्रोजेक्ट करने के लिए किया और फिर इसे भुनाने मुद्रण माध्यम की ओर लौट चले जैसा कि दिनेश जी ने कहा ? मुफ्तखोर मुद्रण मीडिया तो अब खुद डिजिटल मीडिया के भरोसे पल रहा है -यहाँ से हमारी सामग्री बिना पूछे पाछे उठाकर छाप रहा है।
मित्रों आह्वान है कि इस डिजिटल मीडिया को छोड़कर कहीं न जाएँ -यह काउंटर प्रोडक्टिव है! आज का और आने वाले कल का मीडिया यही है, यही है!
दोनों अपनी अपनी जगह पर महत्व रखते हैं ....कोई छोड़ना नहीं है !
जवाब देंहटाएंरहम कीजिये इन पर :-)किसी एक को तो छोड़ दीजिये
हटाएंफेसबुक और ट्विटर का लिखा त्वरित है वैसे ही त्वरित प्रतिक्रिया भी आती है और वैसे ही त्वरित लुप्त भी हो जाता है. ब्लॉग पर का लिखा आज छुट भी गया तो ऐसा नहीं कि कल पढ़ा न जाय. वो वाल और टाइम लाइन पर नीचे नहीं चला जाता। मेरे जैसे पाठको के फीड में पड़ा रहता है और कभी न कभी पढ़ा ही जाता है.
जवाब देंहटाएंजुकरबर्ग सुन लेगा तो इसका भी कोई उपाय ढूंढ लेगा -वैसे जिन्हें हम चाहते हैं उनकी टाईमलाईन में गहरे उतर जाते हैं !
हटाएंअभिषेक जी से सहमत हूं
हटाएंआशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि ब्लॉगिंग बनी रहेगी और साहित्य संवर्धन करेगी। अगली पीढ़ी के साहित्यकार ब्लॉगिंग से ही निकलेंगे।
जवाब देंहटाएंहम तो ब्लोगिंग नहीं छोड़ेंगे ...
जवाब देंहटाएंइसके लिये आपको मना कौन रहा है महाराज?:)
हटाएंरामराम.
प्लीज प्लीज छोड़ दीजिये
हटाएंब्लॉग अभिव्यक्ति का सहज माध्यम है। इसकी प्रासंगिगता कभी खत्म नहीं होगी।
जवाब देंहटाएंफ़ेसबुक और ट्विटर तुरंता जुमलेबाजी के माध्यम हैं। फ़ेसबुक मेरे लिये नोटिसबोर्ड की तरह है जहां अपने ब्लॉग की नोटिस लगाते हैं, जुमलेबाजी करते हैं, फ़ूट लेते हैं। ब्लॉग हमारे लिये घर की तरह है जहां हमेशा लौटने का, रहने का मन करता है।
लिखने वाले की सबसे बड़ी इच्छा होती है कि लोग उसे पढ़ें और सराहें। प्रिंट मीडिया में छपना वाह-वाही समझी जाती हैं क्योंकि ब्लॉग के मुकाबले ज्यादा लोग पढ़ते हैं उसे। प्रिंट भले ही खबरों के लिये आउटडेटेड हो गया हो लेकिन बाकी लिखे पढ़े के लिये उसमें छपने का मजा ही कुछ और है। इसे स्वीकारने में कोई संकोच नहीं करना चाहिये।
लेकिन प्रिंट मीडिया की अपनी सीमायें हैं। अगर आप बहुत बड़े सेलिब्रिटी नहीं हैं तो आपका लिखा सब कुछ वहां नहीं छप जायेगा। आपके अपने मन के भाव, उद्गार, संस्मरण , चिरकुटैयों, अपीलों , धिक्कार के लिये वहां कोई जगह नहीं होगी। उसके लिये आपको लौट के अपने यहां ही आना होगा और उसके लिये ब्लॉग से उपयुक्त कोई माध्यम नहीं है।
ब्लॉगिंग ने आम लोगों को अभिव्यक्ति का जो सहज माध्यम प्रदान किया है उसकी तुलना और किसी माध्यम से नहीं हो सकती। लोग अपने भाव, कवितायें, सोच, संस्मरण अपने ब्लॉग पर लिखते हैं। ट्विटर पर शब्द सीमा है, फ़ेसबुक पर सर्चिंग लिमिटेशन। ब्लॉग पर आप अपनी सालों पहले की किसी भी पोस्ट पर डेढ़ -दो मिनट में पहुंच सकते हैं, फ़ेसबुक अपना दस दिन पुराना स्टेटस खोजने में भी घंटा लग सकता है। ब्लॉग जैसी आजादी और सुविधा और कहां?
इस बीच एक घालमेल और हुआ है कि, ब्लॉग जो कि अभिव्यक्ति का माध्यम है और जिसकी कोई सीमा नहीं है को, साहित्यप्रेमियों और पत्रकार बिरादरी ने हाईजैक जैसा करके इसको साहित्यमंच या फ़िर पत्रकारपुरम जैसा बनाने की कोशिश करके इसको सीमित करना शुरु कर दिया है। जबकि ऐसा है नहीं- ब्लॉग आज के समय में दुनिया का सबसे तेज दुतरफ़ा माध्यम है। लेखक/पाठक के बीच अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया का इससे तेज और कोई खुला माध्यम नहीं है।
ब्लॉग और फ़ेसबुक से पैसे कमाने की बात जो करते हैं वे लहरें गिनकर भी पैसा कमा सकतें हैं। उसके लिये व्यक्ति को लेखन सक्षम नहीं कमाई सक्षम होना चाहिये। पैसे कमाने और नाम कमाने और इनाम जुगाड़ने के लिये भी लोग तरह-तरह की तिकड़में लगानी होती हैं। वे सब आम आदमी के बस की नहीं होती।
मैं ब्लॉग लेखन से क्यों जुड़ा हूं उसका यही कारण है कि अपनी तमाम अभिव्यक्तियों के लिये ब्लॉग ही सबसे मुफ़ीद माध्यम है। और कोई माध्यम इतना सहज और सुगम नहीं है जितना कि ब्लॉग। इसीलिये अपन इससे जुड़े हैं और इंशाअल्लाह जुड़े रहेंगे। आप भी यह पोस्ट सिर्फ़ ब्लॉग पर ही लिख सकते थे। लिख तो फ़ेसबुक पर भी सकते थे लेकिन अगर वहां लिखते तो हम इत्ता लंबा कमेंट वहां नहीं लिखते। रात को पढ़कर लाइक करके फ़ूट लिये होते। आपकी तमाम बहस-विवाद वाली तमाम पोस्टें जो ब्लॉग पर हैं वे हम फ़ौरन खोजकर पढ़ सकते हैं। फ़ेसबुक और दूसरे तुरंता माध्यमों पर -इट इज हेल ऑफ़ द टॉस्क! :)
समय के साथ लोगों की धारणायें भी बदलती हैं। डेढ़ साल पहले हमने एक पोस्ट लिखी थी - ब्लॉगिंग, फ़ेसबुक और ट्विटर . उस पर आपका कहना था- ब्लॉग जगत में निश्चय ही एक मरघटी का माहौल बन रहा है ..हमें कोई खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए ….
इसी पोस्ट पर आपके घोषित शिष्य संतोष त्रिवेदी की टिप्पणी थी- फेसबुक की लत छूट चुकी है,ट्विटर पर यदा-कदा भ्रमण कर लेते हैं पर ब्लॉगिंग पर नशा तारी है ! जब तक खुमारी नहीं मिटती,लिखना और घोखना जारी रहेगा !
आज की स्थिति में ब्लॉग के प्रति आपका लगाव बरकरार है। और आपने लिखा भी -अपने आब्सेसन के चलते ब्लागिंग का दामन थामे हुए हैं मरघट में किसी का इंतजार करेंगे कयामत तक। संतोष त्रिवेदी उदीयमान ब्लॉगर से ब्लॉगिंग में अस्त से हो चुके हैं। फ़ेसबुक की लत दुबारा लगा गयी है। प्रिंट मीडिया में घुसड़-पैठ शुरु है और काफ़ी जम भी गयी है। आगे और जमेगी, जमे शुभकामनायें।
जो सूरमा ब्लॉग को पिछड़ा बताकर फ़ेसबुक और ट्विटर पर जाने की बात कह रहे हैं उनको यह याद रखना चाहिये कि उनकी पहचान अगर है, कुछ लोग उनको जानते हैं तो वह सब एक ब्लॉगर होने के चलते है। वर्ना फ़ेसबुक और ट्विटर में अनगिन लोगों के हजारों, लाखों फ़ालोवर होंगे। कौन जानता है उनको?
और किसी का पता नहीं लेकिन अपन ब्लॉगिंग अपन के लिये घर जैसा लगता है। जितनी सहजता यहां हैं मुझे उतना और कहीं नहीं। इसीलिये अपन ब्लॉगिंग से जुड़े हैं और लगता है कि आगे भी जुड़े सहेंगे।
अनूप जी ,
हटाएंप्रिंट मीडिया की व्याप्ति /पहुंच अब बहुत सीमित भौगोलिक क्षेत्रों तक रह गई है ! सोशल मीडिया वैश्विक है!
भारत की किसी भी पत्रिका /समाचार पत्र की कितने दूर तक पहुँच है ?
प्रिंटमीडिया की भौगोलिक व्याप्ति सिमटी है लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया के कंधे पर चढ़कर तो अभी भी यह दुनिया जहान तक पहुंचती है। :)
हटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
मैं तो यही कहूँगा कि...
१- आपने जो कुछ भी लिखा वह सरासर सही है।
२- सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग में जमीन आसमान का फर्क है, एक में आप 'अपने नेटवर्क' को सम्बोधित करते हैं और दूसरे में सारे जहाँ को...
३- ब्लॉगिंग को प्रिंट मीडिया में छपने की अपनी भूख मिटाने का माध्यम या स्टेपिंग स्टोन मानने वाले जितनी जल्दी बाहर हों उतना अच्छा...
४- लोगों ने ब्लॉगिंग के इतिहास व समीक्षा की किताबें तो छाप ही दी हैं अब ब्लॉगपोस्टों की भी किताबें छपेंगी, लाइब्रेरी व पब्लिशर के गोदामों में दफन होने के लिये... :)
५- पैसा कमाना बुरा नहीं, पर इसके लिये दम चाहिये, कुछ ऐसा विषय और ऐसा लिखने वाला चाहिये जिसकी हर पोस्ट को चौबीस घन्टे के भीतर कम से कम दस हजार हिट मिलें... जो ऐसा कर पायेगा, पैसा खुद-ब-खुद उस तक चलकर जायेगा... है कोई अभी ऐसा हिन्दी ब्लॉगर ???
६- ब्लॉगिंग साहित्य नहीं है और उसे साहित्य बनने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिये !
...
है कोई अभी ऐसा हिन्दी ब्लॉगर ???
हटाएंअभी तक तो नहीं है :-( मैं होते होते रह गया :-(
obviously hoga hi aisa koi blogger... daily 10000 hits milna koi badi baat nahin hai... vaise hum bhi koshish karenge banne ki :p abhi daily page views 5000 hai...hope so in future badh jaaye :)
हटाएंhttp://www.hindithoughts.com/
मोगाम्बो खुश हुआ
जवाब देंहटाएं"ब्लॉग मे साइंस का परचम लहराने वालो कि क़ाबलियत पता नहीं कहा चली गयी जब उनका नाम एक किताब पर से हटा कर किताब को छापा गया । किताब के लिये ग्रांट मिलाने कि शर्त यही थी कि उनका नाम हटा दिया जाये क्युकी उनके दुआरा प्रस्तुत तथ्यों को गलत माना गया । सो नाम हट गया हैं
मुगाम्बो खुश हुआ !!!!
कुल कुल दुर्गति हो रही हैं पर घमंड का आवरण पहन कर वो अपने को विज्ञानं का ज्ञाता बता रहे हैं और बताते रहेगे ।http://mishraarvind.blogspot.in/2010/07/blog-post_16.html
" एक हिन्दी ब्लॉगर ने डिजिटल मीडिया से शोहरत हासिल की और इस टटकी शोहरत को अब प्रिंट मीडिया में कैश कर रहे हैं -मजे की बात यह कि प्रिंट मीडिया में अपने छपे आलेखों को फिर से डिजिटल मीडिया में मित्रों से साझा कर रहे हैं मानो यह धौंस देना चाह रहे हों कि देखो तुम लोग लल्लू ही बने रहे और मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया ....ये उनकी आत्म विस्मृति के दिन हैं -एक दिन लौट के आना यहीं है! वैसे दोस्तों की मेहरबानी से अभी पूरी तौर से यहाँ से गए भी नहीं हैं ! बूझिये कौन ?"
आप अपनी दोनों पोस्ट पढिये और अपने अंतर के को देखिये
आप के कथन अनुसार अगर कोई बिना नाम के कुछ दे तो आप उस पर मान हानि का दावा कर सकते हैं और कमेन्ट में उसके प्रति कुछ भी छाप सकते हैं और आप लिखे तो वो महज एक फेस बुक का अपडेट मात्र हैं
अविनाश वाचस्पति क्यों नहीं आप पर मान हानि का मुकदमा करते हैं ये अचंभित करने वाली बात हैं
बूझ गया ......
हटाएंअसम्बद्ध प्रकरण!
अविनाश जी को ब्लागिंग में वापस लाने के लिए यह पोस्ट है .
वे इतने शालीन और विनम्र हैं कि उनकी शान में गुस्ताखी की मैं सोच नहीं सकता
और बात बात में कोर्ट कचहरी का उल्लेख उचित नहीं लगता !
जो आप कर रहे हैं , वह दूसरा ना करें तो पिछड़े हुए ?? हो सकता है उनके पास फेसबुक के सिवा दूसरा बेहतर विकल्प हो !
जवाब देंहटाएंफेसबुक ब्लॉगर्स से जान पहचान , मित्र का माध्यम हो सकता है , मगर ब्लॉग अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है , इसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी !!
दुआ है कि कयामत तक के इन्तजार वाले ब्लॉगर जल्दी ही लौटें ताकि दूसरे ब्लॉगर क़यामत से बच सके :)
क़यामत की नज़र है ! आप बेफिक्र रहें आप पर क़यामत नहीं आने वाली! :-)
हटाएंब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम है ,
जवाब देंहटाएंफेसबुक पर बस मस्ती का आलम है।
ब्लॉगिंग में संतुलन और गंभीरता है ,
फेसबुक आवारापन और तत्परता है।
ब्लॉगिंग जीवन का टैस्ट मैच है ,
फेसबुक सिक्स ऐ साइड मैच है।
ब्लॉगिंग में जिंदगी का फलसफा है ,
फेसबुक पर कॉमन सेन्स ही दफ़ा है।
ब्लॉगिंग लम्बी रेस का घोड़ा है ,
फेसबुक का काल बहुत थोड़ा है।
अर्थपूर्ण काव्य अभिव्यक्ति
हटाएंआपकी अंतिम पक्तिया भाव उद्देलित कर देने वाली है सतुआ का पेट सोहारी से कभू ना भरी जैसी कहावत से मुझे विश्वास है कि ब्लागिगं कभी ख़त्म नहीं होगी और हमेशा अच्छे लोग आते रहेगे व जुड़ते रहे गे आप उदास भाव छोडिये फेसबुक सिर्फ आत्म प्रशंशा के बोझ तले एक दिन बैठ जाएगा
जवाब देंहटाएंआपकी अंतिम पक्तिया भाव उद्देलित कर देने वाली है!
हटाएंकौन सी ?
अगर अविनाश जी ने अगर अपने ब्लाग्स बंद कर दिए तो वाकई उन पर ठगी और बेईमानी का आरोप बनता है.रवीन्द्र प्रभात को चाहिये कि संतोष जी से भी 'उदयीमान ब्लॉगर' का पुरस्कार छीन ले।
जवाब देंहटाएंफ़ेसबुक वीकएंड में बाहर घूमने फ़िरने से अधिक हमको कुछ नही लगता. हो सकता है कुछ लोगों को फ़ेसबुक मुफ़ीद रहता हो. पर दोनों में जमीन आसमान का अंतर है. मेरे लिहाज से दोनों की तुलना ही बेमानी है.
जवाब देंहटाएंजहां तक फ़ेसबुक का सवाल है वहां पर आप अपने दोस्तों रिश्तेदारों के संपर्क में बने रह सकने व मस्ती के लिये उपयोगी माध्यम है पर ब्लागिंग मस्ती के साथ साथ रचना धर्मिता का सहज माध्यम है. प्रत्येक मानव कुछ ना कुछ तो सोचता ही है उस सोच को प्रकाशन के लिये ब्लाग से अच्छा कालजयी माध्यम कहां मिलेगा?
मेरे हिसाब से विचारों के प्रवाह को समेटने में फ़ेसबुक बिल्कुल भी सक्षम नही है जबकि ब्लागिंग का चमत्कार आप देख ही चुके हैं, क्योंकि आपको भी अपनी बात इसी प्लेटफ़ार्म पर आकर कहने को बाध्य होना पडा है.
रामराम.
अभी तक तो ब्लॉग्गिंग में ही डटे हम भी.......संतुलित विश्लेषण, आभार
जवाब देंहटाएंफेसबुक पर मैंने पाया है कि विचारों के आदान प्रदान में अक्सर मसखरी ज्यादा होने लगती है. ब्लॉग पर मुझे ऐसा नहीं लगता. इसलिए ब्लॉग मुझे ज्यादा पसंद है. प्रिंट से डिजिटल होना तो चाहिए ही क्योंकि यहाँ आपके विचार बहुत तेजी से बहुत दूर तक जाते हैं.
जवाब देंहटाएं"...विचारों के आदान प्रदान में अक्सर मसखरी ज्यादा..."
हटाएंसहमत
गंभीर विमर्श मैंने भी इक्का दुक्का ही पाया है
मैं पूछता हूँ, ब्लॉगर ब्लॉगिग करते हुए प्रिंट मीडिया में क्यों नहीं छप सकता? अगर किसी में परिश्रम और कूवत, दोनो माध्यम सम्हालने की है तो इसमें बुरा क्या है? जैसे ब्लॉगिंग न हुई जरखरीद गुलामी हो गई, प्रिंट मीडिया को ब्लॉगिंग के कट्टर शत्रु की तरह दर्शाया जा रहा है, कोई भी ब्लॉगर उस तरफ एक चक्कर भी लगा ले तो उसे बहुत बडा गद्दार समझा जा रहा है!!
जवाब देंहटाएंआपका फेस-बुक स्टेटस "उनकी आत्म विस्मृति के दिन हैं -एक दिन लौट के आना यहीं है!"
कौन सी 'आत्म विस्मृति'? कि हे ब्लॉगिंग मैनें पहले तुझसे सम्बंध रखा, आप स्वा्मी थे में दास, अब दासत्व विस्मृत करके पतिव्रता से व्याभिचारी हो गया, पराये प्रिंट मीडिया से घुंघट जो नहीं रखा? :)
दिनेशराय जी की टिप्पणी- "बहुत वे भी हैं जो सरोकार और प्रतिबद्धता का अर्थ नहीं समझते।"
कैसी प्रतिबद्धता? ब्लॉगिंग ने कभी किसी को अपनी ही स्वामी भक्ति के लिए वचनबद्ध नहीं किया। ब्लॉगर अपना सभी माध्यमों से चौदिश विकास क्यों नहीं कर सकता? सहज स्वतंत्रता उपलब्ध होते हुए भी गुलामी की क्या बाध्यता? कोई कहता ही नहीं कि इस तरह बंधुआ रहो तो फिर कैसी प्रतिबद्धता?
लेखक का एक ही सरोकार होता है, अपना लेखन और उसका प्रसार। और इसके लिए प्रत्येक संसाधन के प्रयोग उपयोग में स्वतंत्र होना चाहिए। प्रिंट मीडिया में छप जाने से ब्लॉगिंग को कोई क्षति नहीं पहुंचती।
अविनाश वाचस्पति जी नें पता नहीं क्यों निर्थक सी बात को इतनी गम्भीरता से लिया? जबकि तार्किक रूप से इस बात का कोई मूल्य नहीं है।
सच्चाई तो यह है कि ब्लॉग, सोश्यल साइट्स और प्रिंट मीडिया के मध्य स्तुति या तिरस्कार भरी वाद-विवादी तुलना ही निर्थक है।
आप पिछड़े कहे या जो भी. ब्लॉग्गिंग और फेस बुक अलग अलग चीज़ें हैं.फेसबुक दोस्तों से मिलने की जगह है और ब्लॉग हमारा अपना घर है उसे तो हम छोड़कर कभी नहीं जाने वाले.
जवाब देंहटाएंमैं आप की फेसबुक स्टेटस पर दी गई अपनी टिप्पणी पर कायम हूँ. सुज्ञ जी की टिप्पणी से यह साबित हो गया कि "बहुत वे भी हैं जो सरोकार और प्रतिबद्धता का अर्थ नहीं समझते।"
जवाब देंहटाएंजिस के सरोकार समाज से जुड़े होंगे और जो समाज की परिवर्तनकारी शक्तियों के प्रति प्रतिबद्ध होगा। वह तो किसी भी माध्यम का उपयोग अपनी सरोकारों और प्रतिबद्धता के लिए ही करेगा। चाहे वह ट्विटर हो, फेसबुक या ब्लागिरी। इन तीनों के रूप और ढ़ाँचे अलग अलग हैं। उन का लोग किस तरह उपयोग करते हैं यह लोगों पर है। ये तीनों रूप न तो कभी पुराने होंगे अपितु और विकसित होते चले जाएंगे। ये तीनों ही जन-अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। साथ के साथ त्वरित संचार के माध्यम भी हैं। जनता जब तक इन का उपयोग कर सकती है करती रहेगी। बल्कि ये तीनों एक दूसरे के सहायक भी हैं। बहुत सी चीजें हैं जो ब्लागिंग में संभव हैं फेसबुक और ट्विटर पर नहीं। यही फेसबुक और ट्विटर के लिए भी कहा जा सकता है। लेकिन फेसबुक और ट्विटर ब्लाग की पोस्ट को बहुत से लोगों तक पहुँचाने का माध्यम बनते हैं।
ओह! सर जी,
हटाएंक्या वाकई सरोकार और प्रतिबद्धता का यही अर्थ है?
अर्थात् ट्विटर,फेसबुक,ब्लागिरी ये तीनों ही जन-अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। और इन्ही से ही सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्धताएं परिपूर्ण होती है?
मात्र प्रिंट मीडिया ही सामाजिक सरोकार व प्रतिबद्धता से बाहर है?
सुज्ञ जी की बातों को समझने के लिए दूसरा सुज्ञ बनना होगा :-)
हटाएं:-) आप को तो बनने की जरूरत भी नहीं, आप पहले से ही विज्ञ है. :)
हटाएं(:(:(:
हटाएंpranam.
सुज्ञ जी,
हटाएंट्विटर,फेसबुक,ब्लागिरी और प्रिंट मीडिया में अन्तर आप को भी बताना पड़ेगा क्या? पहले तीन माध्यमों पर आम जन चाहे तब पहुँच सकता है। पाठक को इंटरनेट उपलब्ध होना चाहिए जो अब मोबाइल के माध्यम से भी बहुतों को उपलब्ध है। प्रिंट मीडिया के लिए बाजार से पुस्तक, अखबार या पत्रिका खरीदनी पड़ेगी। लगभग 90 प्रतिशत प्रिंट मीडिया बड़े व्यवसायियों के हाथ में है। वहाँ वही छपता है जो उन के मालिक उचित समझते हैं। वे लेखक छपते हैं जो उन में छपने जैसा लिखने के लिए खुद को प्रशिक्षित करते हैं। उन की प्रतिबद्धता समाज से हट कर उन में छपने के काबिल बनने से होती है। सामाजिक सरोकार बहुत पीछे छूट जाते हैं।
यदि मौजूदा प्रिंट मीडिया जो लगभग पूरी तरह देश के पूंजीपतियों के कब्जे में है। उस के मुकाबिल जनता को भी अपना प्रिंट मीडिया खड़ा करना पड़ेगा। वह करता भी है। अभी भी सैंकडों पत्रिकाएँ लोग अपना पैसा लगा कर या सामुहिक रूप से चला रहे हैं। भले ही वे पाँच सौ हजार या दो हजार ही छपती हों। पर वे प्रतिबद्ध हैं।
जवाब देंहटाएंज़ोरदार तार्किक पोस्ट .रही बात आचास्पति या किसी और पति की -जाकी रही भावना जैसी ,मुख मूरत देखि तिन तैसी .
निश्चय ही यह मुख पत्रे का दौर है ,
मुख चिठ्ठा ही अब चिठ्ठा है ,
चिठ्ठे का आगे क्या होगा ?
अब तो फेसबुक पर लिखा भी प्रिंट में छपने लगा है :-)
जवाब देंहटाएंहाँ मेरा भी एक स्टेटस फोटो समेत छपा है।
हटाएंअपनी भूख तो रोटी सब्ज़ी से ही मिटती है, पेट का क्या है कुछ भी खा कर भर लो. पर, कुछ लोग पिज़्जा ही अपना लें तो भई उनकी इच्छा.
जवाब देंहटाएंकाजल जी बात से सहमत हूँ। यह सब पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना पर निर्भर करता है।
जवाब देंहटाएंआप कहीं भी लिखिये यदि आप सर्वकालिक लिखेंगे तब ही आप को बार बार पढ़ा जायेगा चाहे वो फेसबुक हो या ट्वीटर या हो ब्लॉग या फिर छाप डालें पुस्तक और ध्यान रहे गुलरी जी शायद ज्यादा नहीं लिख पाए किन्तु किसी से कहें तेरी कुड़माई हो गई तो सीधा जवाब आएगा देखता ...........गुलेरी जी ... बाकि तो सब समझदार हैं @@@@@@@@
जवाब देंहटाएंअजी किसका इंतज़ार है हमसे काम चला लो चल जाए तो ...ॐ शान्ति
जवाब देंहटाएंसही सीख सर जी .शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का .अजी वैसे भी जाना कहाँ है जीना यहाँ मरना यहाँ ....हगना यहाँ फिरना यहाँ ......
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त अभिव्यक्ति .किन शब्दों में आपका धन्यवाद करें ....
जवाब देंहटाएंदोनों विधायें अलग हैं, जिसे जो भा जाये उसके लिये वही ठीक है।
जवाब देंहटाएं