सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

खड़ी शादी बनाम पट शादी! :-)

मतलब नहीं समझे होंगे आप . खड़ी शादी बोले तो दिन में निपट जाने वाली शादी और पट शादी मतलब रात वाली शादी जब लोग आराम से पट लेते हैं -सो जाते हैं . खड़ी शादी का नामकरण पिछले वर्षों से अपने पूर्वांचल में चर्चा में आया है , मैंने भी जब पहली  इसे सुना  तो  चौका था- लोगों ने बताया कि अब दिन में भी लोग शादियाँ निपटा रहे हैं यानी खड़े खड़े -आगत स्वागत सब निपट जाता है और बराती  घराती (रिश्तेदार)   लोग दिन रहते ही अपने अपने घर की राह लेते हैं और वर वधू की भी विदाई दिन को ही हो जाती है -सब की राहत और रात में चैन की नींद . मुझे याद है मैंने सन 1993 में ही मुम्बई (तब बाम्बे) में अपनी पुरवईया के ही एक भाई के यहाँ दिन की यानी खड़ी शादी अटेंड की थी ..मुझे तभी यह आईडिया भा गया था . और अब तो यह प्रचलन पूर्वांचल के गाँव गिराव तक आ गया  तो यह इस बात का द्योतक है कि लोगों की सोच प्रोग्रेसिव हो रही है . मैंने बहुत बार यह सोचा है कि आखिर शादियाँ प्रायः रात को ही क्यों होती है? अपने विचार आपसे साझा कर रहा हूँ।
 पुराने जमाने में आवागमन के साधन तो थे नहीं -लोग बाग़ पैदल ही बारात लेकर चलते थे -दूल्हा भले ही कहारों के कंधे की 'असवारी' में होता था मगर कहांर भी चलते तो पैदल ही थे। बारात निकलते निकलते और वधू के द्वार तक पहुंचते शाम हो जाती थी . तो फिर रात की शादी के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता  था . मगर तब भी पूरी कोशिश होती थी कि हर हाल में बारात गोधूलि बेला यानी कुछ रोशनी रहने तक जरुर वधू के द्वार पर पहुँच जाय और द्वारचार हो जाय -पहले रोशनी आदि के भी पर्याप्त इंतजाम तो होते नहीं थे तो लोग दिन की रोशनी में कम से कम अपने प्रमुख भावी रिश्तेदारों और दूल्हे की शिनाख्त करके मुतमईन हो जाना चाहते थे -कहीं दूल्हा ही न बदल  दिया गया हो -ऐसी घटनाएं होती भी थीं कि देखुआरी (वर को देखने की रस्म) के समय तो किसी और को दिखाया गया और विवाह के समय कोई और दूल्हा बन आ गया -इन मामलों में सतर्कता जरुरी थी ....जीवन भरके निर्वाह का मामला जो था -यहीं नहीं रात होते ही बारातें भटक भी जाया  करती थी -मुझे बताया गया कि इक्के दुक्के मामले तो ऐसे हो गए थे कि कहीं की बारात कहीं पहुँच गयी और आगवानी ,आवाभगत भी हो गयी -द्वारचार बीतते बीतते पता लगा कि बारात ही बदल गयी -यहाँ की वहां चली गयी -बड़ी फजीहत हो जाती थी - मारपीट तक की नौबत आ  जाती थी . ऐसे मामलों से बचने के लिए पंडितों के जरिये यह सख्त हिदायत रहती थी कि कितनी भी देर हो मगर शाम होते होते द्वारचार जरुर हो जाय।
मगर आज तो यातायत के बेहतर साधन हैं तो दिन दिन ही शादियाँ क्यों निपटा नहीं ली जातीं -बस उसी रूढ़ परम्परा को ढ़ोया जा रहा है कि शाम को बारात पहुंचे और फिर देर रात तक शादी हो -और ये रात की शादियाँ अब कितनी खर्चीली हो चली हैं -रोशनी ,आतिशबाजी आदि आदि फिजूल के खर्चे ऊपर से और रात्रि जागरण का दुस्वप्न सरीखा अनुभव अलग से -पोंगे पंडित कहते हैं कि दिन में तो साईत  ही नहीं है जबकि भारतीय ज्योतिष में ज्यादातर शुभ ग्रह संयोग के लिए  उदया तिथि का विचार करते हैं मतलब एक दिन के सूर्योदय के बाद के अगले दिन तक के सूरज के उगने तक प्रायः एक ही शुभ ग्रह संयोग होता है -तो फिर दिन की शादियाँ क्यों नहीं? आज सोच के बदलाव की बड़ी जरुरत है -लोग दिन की खडी शादी का आयोजन कर बहुत से फिजूल खर्चों से बच  सकते हैं और आराम से अपने  वापस जाकर स्व-गृह ऊष्मा भोग सकते हैं . मुझे बड़ी कोफ़्त होती है उन अक्ल पर पत्थर  पड़े लोगों से जो बस इतनी सी बात नहीं समझ पाते और पोंगा पंडितों के चक्कर में खुद तो परेशान होते ही हैं -अपने रिश्तेदारों ,बारातियों सभी को हलकान करते हैं -रात्रि जागरण को मजबूर करते हैं - वधू पक्ष  पर अनाप शनाप खर्चे थोपते हैं .
आईये खड़ी शादियों को प्रोत्साहित करें! और पट शादियों का बहिष्कार! ! मैं तो बस आगे की एक अंतिम पट शादी के बाद किसी भी पट शादी में न जाने की घोषणा करता हूँ! लोग सुन लें और आईंदा से मुझे बख्श दें प्लीज!

40 टिप्‍पणियां:

  1. खड़ी शादी, पट शादी यह नाम तो नहीं सुना था लेकिन दिन में शादी पुराना रिवाज़ है। मराठियों में तो सभी रश्म दिन में ही होते देखा हूँ। बंगाली, गुजराती परिवार में भी दिन की शादी में शामिल हुआ हूँ। पार्टी भले शाम को हुई थी लेकिन शादी की रस्में दिन ढलते तक पूर्ण हो चुकी थीं। मुझे लगता है देर शाम को शादी शहरी फैसन होगा जो धीरे-धीरे परंपरा बन गया। झूठे आडंबर और फ़िजूल खर्ची के लिए भी शाम को जश्न मनाया जाना शुरू हुआ होगा। दिन की शादी अच्छी तो है लेकिन अब नई पीढ़ी इसे माने तब न! :)

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  2. खड़ी शादी पट शादी का अच्छा विकास है। बहुत लोग अपनाते हैं। इधर तो जैन धर्मावलंबियों में जैन संतों ने इस का प्रचार भी बहुत किया है और अब अधिकांश जैन विवाह दिन में होने लगे हैं। सिख शादियाँ पहले ही दिन में होती हैं। बौद्धों का पता नहीं है। पर जो शेष हिन्दू हैं। उन के संतों और पंडितों में यह साहस ही नहीं प्रतीत होता कि वे लोगों से परंपरा को तोड़ने की कह दें। खैर!
    पर हम पढ़े लिखे लोग यदि चाहें तो विवाह को आधुनिक, कम खर्चीला और आकर्षक रूप प्रदान कर सकते हैं।

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  3. मुझे भी यही ठीक लगता है कि दिन में शादियाँ हों, लेकिन हमारी तरफ के लोग अब भी रात में ही शादियाँ करते हैं. उनको दिखावा जो करना होता है आतिशबाजी और लाइटिंग का. मुझे याद है कि दीदी की शादी में जबकि बरात शाम को आ गयी थी, पाँवपूजन के चक्कर में रात भर शादी चलती रही और मैं एक मिनट नहीं सो पायी क्योंकि सामान की सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर थी. इसका परिणाम ये हुआ कि दीदी की विदाई के बाद मैं ऐसी बीमार पड़ी कि पन्द्रह दिन बिस्तर पर पड़ी रही. शादियों में घर के लोग काम से ज्यादा रात्रिजागरण के कारण थक जाते हैं.
    सिख समुदाय में शादियों में बढ़ते खर्चे को ही ध्यान में रखकर दिन में शादी करने के दिशा निर्देश दिए गए थे और अब ये लोग दिन में ही शादी निपटा लेते हैं.

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  4. दिन की शादी ही उपाय है, न जाने कितनी सुविधा हो जायेगी, मुहूर्त तो दिन में भी होते हैं..

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  5. आजकल दिन की शादियों होने लगी है। रात की शादी लोग धूम-धड़ाम के चलते जारी रख रहे हैं न कि किसी परम्परा या पंडित के कहने पर। अपने इधर दिन की शादियों के लिये 'वन डे' शब्द चल पड़ा है। :)

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  6. ...रात की शादी का मजा ही अलग है,लेकिन आजकल रात वाली का वह मजा रह नहीं गया है.
    ...वैसे कहावत है,'चट मँगनी, पट ब्याह ' :-)

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  7. सर समय के अनुसार अब बदलाव आवश्यक हो गया है |

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  8. किसी भी पट शादी में न जाने की घोषणा करता हूँ!
    देखते हैं अपने बच्चों की शादी में इस घोषणा पर अमल कर पाते हैं कि नहीं मिसिरजी! :)

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    1. बिल्कुल करेगें अनूप जी -हम जो कहते हैं वही करते हैं!

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  9. पहले ज़माने में रात में शादियाँ होने का आपका तर्क जमा नहीं , बल्कि उस समय रौशनी का माकूल इंतजाम नहीं होने के कारण परेशानियाँ ज्यादा होती होंगी .
    अक्सर जैन मतावलंबी सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं करते , इसलिए उनके लिए दिन में शादी उचित होती है . यही कारण हिन्दू धर्म के लिए भी उचित रहा होगा .

    गोला -बारूद में खर्च होने से बेहतर है आतिशबाजी हो जाए :)

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    1. "बल्कि उस समय रौशनी का माकूल इंतजाम नहीं होने के कारण परेशानियाँ ज्यादा होती होंगी" .
      यही तो हम भी कह रहे हैं देवि :-)

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  10. वाह ...
    घर से शुरुआत करने की कोशिश करें बशर्ते भाभी जी को मना पाओ :)
    यह आसान नहीं है भाई जी !

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  11. विचारणीय लेख .... दिन की शादी अच्छा विकल्प है

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  12. सुधार आवश्यक -

    आभार गुरु जी ।।

    पट से तोबा बोलते, चट-पट पटु-महराज ।

    पेटू-पंडित हों खफा, भूखे रहते आज ।

    भूखे रहते आज, खड़ी शादी की महिमा ।

    हो केवल जलपान, नहीं कुछ गहमी-गहमा ।

    दिन में सरे काम, विदाई होती झट से ।

    बदन रहे चैतन्य, बोलिए तोबा पट से ।।

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  13. din ki shaadi kaa sabse bada faayada sab log rasmon mein shaamil hote hai warna .... raat ko koi idhar to koi udhar kharrate bharta paaya jaata hai

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  14. घाट शादी को प्रोत्साहित करना चाहिए ... हम भी सहमत हैं आप से ...

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  15. दिन की शादी सुविधाजनक होती है मेहमान और मेजबान दोनों के लिए, और खर्चा जाहिर तौर पर आधा हो जाता है.

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  16. आपका सुझाव पसंद आया,,,कई समाजो में आज भी दिन में ही शादी कर सभी रश्म पूरे कर लिए जाते है,,,


    RECENT POST... नवगीत,

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  17. :)

    लेकिन एक मजे की बात यह है, की यहाँ कर्नाटक में - शादियाँ हमेशा दिन में ही होती हैं ।

    कोलेज में किसी की शादी हो - तो हम सब कोलेज से ही परमिशन लेकर लंच टाइम से आधा घंटा पहले निकल कर आधा घंटा लेट लौट आते हैं ।

    रात में शादी की बात सुन कर यहाँ लोग बहुत आश्चर्यचकित होते हैं :)

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  18. फिर मेरी टिप्पणी स्पैम में चली गयी. ये अच्छी बात नहीं है :(

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  19. शादी न हुई खड-खाना buffet dinner हो गया

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  20. हमारे यहाँ तो सभी शादियाँ दिन में ही होती थी। फिर शहरी प्रभाव आ गया।
    लेकिन अब शहर में दिन की शादी का मतलब है , लिफाफे के साथ छुट्टी का भी प्रबंध करना।
    लुट जायेंगे यार पंडित। :)

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  21. .
    .
    .
    खड़ी शादी और वह भी छुट्टी के दिन यानी इतवार या अन्य सार्वजनिक छुट्टी के दिन... धीरे धीरे यही होने लगेगा... मैंने अपनी शादी भी इसी तरह की थी...


    ...

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  22. बढ़िया जानकारी मिली शादियों के बारे मे ... आभार !

    बुलेटिन 'सलिल' रखिए, बिन 'सलिल' सब सून आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  23. पहले तो हरे यहाँ भी दिन में शादियाँ होती ही नहीं थी ....अब तो सभी ने अपनी सुविधाओं अनुसार और समय के साथ बहुत कुछ बदलाव कर लिए हैं ...

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  24. सही कहा आपने आपका फैसला सर आँखों पर किन्तु इसे जीवन में कितने लोग अमल कर पायेंगे ...

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  25. छुट्टी के दिन की बात और है वरना दिन की शादी अटेण्ड करना अपने बस की बात नहीं।

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  26. खड़ी शादियों के लिए अब खड़ी चोट बैंड पार्टियों की सेवा भी उपलब्ध है। "खड़ी चोट बैंड पार्टी" साईन बोर्ड मैने रेवाड़ी में देखा था।

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  27. परम्परागत शादियों में कई रस्मे होती है. जिसमे फेरे, रिसेप्शन, मिलनी, मामेरा या भात आदि प्रमुख है. इन रस्मों में से फेरे और रिसेप्शन छोड़ कर बाकि दिन में होते है. हमारे इलाके में बाहर से आने वाले अतिथि और रिश्तेदार सामान्यतया रात्रि को अपने घर चले जाते है. रिसेप्शन में स्थानीय लोग ज्यादा होते है. और फेरे के वक़्त केवल घर के और निकट रिश्तेदार ही बचते है. इसलिए दिन की शादी से विशेष कोई फ़र्क नहीं पड़ता फिर भी मैं दिन की शादी के पक्ष में हूँ साथ ही शादी में होने वाले दिखावो और फिजूल खर्चो के विरुद्ध हूँ.

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  28. खड़ी और पट शादियाँ ये नाम पहली बार सुने.लेकिन यह बात बिलकुल सही है कि रात की शादियाँ न कवल खर्चा बल्कि असुविधा भी अधिक देती हैं .
    जिस तरह आजकल सुरक्षा का माहौल है उस नज़रिए से भी दिन की शादियों को बढ़ावा देना चाहिए.
    सुविधा और खर्चा देखा जाए तो आर्यसमाजी विधि से विवाह सबसे अधिक उपयुक्त है .

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  29. प्रोत्साहन वाली बात से सहमत, लेकिन बहिष्कार तो आसान नहीं लगता। मैं खुद विवाह जैसे अवसर पर सादगी का समर्थक और फ़िज़ूलखर्ची का विरोधी हूँ।

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  30. आपका यह तर्क कि,"पोंगे पंडित कहते हैं कि दिन में तो साईत ही नहीं है जबकि भारतीय ज्योतिष में ज्यादातर शुभ ग्रह संयोग के लिए उदया तिथि का विचार करते हैं मतलब एक दिन के सूर्योदय के बाद के अगले दिन तक के सूरज के उगने तक प्रायः एक ही शुभ ग्रह संयोग होता है -तो फिर दिन की शादियाँ क्यों नहीं?"-पूरी तरह से सही और वाजिब है। बल्कि वेदिक पद्धति पर भी आधारित है। वेदिक पद्धती मे सूर्यास्त के बाद 'सप्तपदी' का निषेद्ध है जबकि 'पोंगा पंडित' कन्यादान सूर्यास्त के बाद कराते हैं -यह सब गुलाम भारत मे भारतीयता को नष्ट किए जाने का दुष्परिणाम है। यदि वेदिक/वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया जाये तो शादियाँ दिन मे ही हो सकती हैं रात मे नहीं।
    हमारे पिताजी ने 1981 और 1988 मे हम भाईयों की शादी दिन मे ही की थी।

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  31. मंदिरों में जो शादी हुआ करती है वो दिन में ही सम्पन्न किया जाता है .शायद मंदिर का यही नियम होता होगा . हाँ! अब तो बहुत कुछ बदलना ही चाहिए .

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  32. जो लोग अपने वक्त से आगे चलते हैं उनमें ही यह पहल होती है लकीर घसीटू ऐसा नहीं कर सकते .हमने 1980s ऐसी 'खड़ी 'शादी में शिरकत की थी .रोहतक मोडिल टाउन में अपने ही पडोसी

    सेवानिवृत्त मेजर दरियाव सिंह जी की बेटी की .बहुत सरल लगा था सब कुछ .कई सवाल भी मन में दौड़े रहे -यह तो अच्छा है न बैंड न बाजा ,न शराब न "बरात डांस ",खाने में परम्परागत आलू

    ,सीताफल की सब्जी गर्म कचौड़ी और पूड़ी रायता .मिष्ठान्न में गाज़र पाक .

    2010s चीज़ें कितनी क्लिष्ट हो गईं हैं -अब लड़की वाला निमंत्रण पत्र के साथ मेवे भी दे रहा है .कोई अंत नहीं है इस रीस का .

    आपकी बात अनुकरणीय है .एक उन्माद में तबदील हो गईं हैं शादियाँ .शराब शबाब और आलमी खाने का एक मेला सा समझो इसे .

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  33. आज तक जो भी होता आया है, सब पुरोहितों ने अपनी दूकान पूरे साल चलाने का उपाय किया हुआ है। शादियों का मुहूर्त कभी भी त्योहारों के समय नहीं होता, आप दिवाली-दशहरा, या होली के समय या किसी भी त्यौहार के समय शादी होते नहीं देखते। क्योंकि इन दिनों पूरे भारत के पुरोहित व्यस्त रहते हैं, इन पूजाओं में । जब त्यौहार ख़त्म होते हैं तो शादियाँ का मौसम शुरू होता है, क्यूंकि पुरोहितों के पास तब वक्त होता है। ये मुहूर्त, पञ्चांग सब पुरोहितों की सहूलियत के लिए बने हैं। रात में शादी का बहुत बड़ा कारण भी यही है, दिन में ये अपनी दूकान चलाते हैं और रात का मुहूर्त निकाल कर यजमान को बेवकूफ बनाते हैं। एक तो अब इन पुरोहितों की कमी होने वाली है, दुसरे जो मिलेंगे उनको शास्त्रों का कोई ज्ञान नहीं होगा। हम बेवकूफ बनते रहे हैं आगे भी बनते रहेंगे। ज्ञान हमें तब भी नहीं था, आगे भी नहीं होगा। मेरी ही शादी में पुरोहित क्या-क्या कह कर गया ये न तो तब समझ में आया न आगे समझ में आएगा।

    खड़ी शादी हो या पट शादी, अब सब कुछ झट शादी में बदलने वाला है ...क्योंकि शादी कराने वाले पुरोहितों की कमी होने वाली है। इस पुश्तैनी काम को आगे बढाने वाली नयी पीढ़ी, अब इसमें इंटरेस्टेड ही नहीं हैं, इस हेतु गन्धर्व विवाहों की खबर सुनने के लिए तैयार रहिये, उसका ही युग आ रहा है। बस परिवार के दो-चार लोग आपस में ही शादी जैसी ही कोई रस्म करके निपटा लेंगे, वो भी सन्डे को क्योंकि मंडे ऑफिस जाना होगा :) इसलिए निश्चिन्त रहिये, खड़ी-पड़ी के दिन लद्ने ही वाले हैं।

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  34. दिन की शादियाँ तो हमें भी अच्छी लगती है।

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