रविवार, 28 अक्टूबर 2012

एक वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लागर का निरामिष चिंतन!


निरामिष ब्लॉग पर मेरी टिप्पणियाँ विस्तार पाती गयीं तो सोचा क्यों न उन्हें संहत तौर पर यहाँ सहेज लिया जाय ..कई दिनों से कुछ लिख नहीं पाया तो मित्रों के उलाहने मिलने लग गए हैं . यह भी अजीब है कि लिखूं तो वे पढ़ने न आयें और न लिखूं तो लिखने को फरमाएं - :-) 

मुझे अपना दृष्टिकोण कुछ और स्पष्ट करना होगा .सबसे पहले यह कि मैं किसी भी तरह की ईशनिंदा या धर्म विरोध का पक्षधर नहीं हूँ -हिन्दू हूँ किन्तु अज्ञेयवादी (अग्नास्टिक) या कह सकते हैं नास्तिक हूँ . दुनिया के सभी धर्म मूलतः श्रेष्ठ हैं ,इस्लाम ने भी मानवता को बहुत सी अच्छी सीखें और विचार दिए हैं .किन्तु सभी धर्म समय के अनुसार बहुत सी नासमझी और गलतियां ओढ़ते गए हैं -अपनी चादर मैली करते गए हैं -हिन्दू धर्म में कभी हजारों अश्वों की एक साथ बलि दे दी जाती थी ,वैदिक काल घोर हिंसा से भरा था ...यहाँ तक कि कालांतर तक लोग उस हिंसा को वैसे ही जस्टीफाई(वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ) करते थे  -इसलिए ही हिंसा की प्रतिक्रया स्वरुप एक महान धर्म का उदय हुआ -बौद्ध धर्म और इसने भी दुनिया को अहिंसा ,प्रेम और शान्ति का सन्देश दिया -यह एक नास्तिक धर्म है ,मूर्ति पूजा का यह भी विरोध करता है मगर मजे की बात देखिये कि आज इसके अनुयायी विशाल और भव्य मूर्तियाँ बना रहे हैं -बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं ही तालिबानियों ने पहले तोडीं -धर्मों के बीच के ये सारे आपसी झगड़ें मूर्ख मुल्लों और पंडितों ने रचे बनाए हैं ....इसी में से एक कुर्बानी है जो कुछ और नहीं बस वैदिक काल की वीभत्स पशु हिंसा ही है -मुझे तो कभी कभी लगता है कि कालांतर के  कुछ तिरस्कृत वैदिक विचार और परम्पराएं ही इस्लाम में प्रश्रय पा गयी हैं ,
आज पूरी दुनिया में सह अस्तित्व की एक पारिस्थितिकीय सोच परिपक्व हो रही है . यह भी हमारी एक मूल सोच का ही आधुनिक प्रस्फुटन है -"सर्वे भवन्तु  सुखिन:  सर्वे सन्तु   निरामया........ कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनाम आर्त नाशनं"  आज पेटा जैसी संस्थायें -(पीपुल फार एथिकल ट्रीटमेंट टू एनिमल्स)  पशु हिंसा का प्रबल विरोध करती हैं -और यह उचित भी है -इस धरती पर सभी प्राणियों का सह अस्तित्व है.  सामूहिक पशु हिंसा और वह भी बड़े जानवरों की -अब वो जमाना नहीं रहा -शिकार तक प्रतिबंधित हो गए हैं .दुनिया एक पर्यावरणीय संचेतना (कान्शेंस) से गुजर रही है ..हमें क्या हिन्दू क्या मुस्लिम अनुचित प्रथाओं का विरोध करना ही होगा! 
बड़े स्तनपोषी हमारे अधिक जैवीय करीबी है .उन्हें मारने में सहजतः एक विकर्षण भाव होना चाहिए मगर धर्म का लफडा देखिये -इस कृत्य का भी उत्सवीकरण शुरू कर दिया ....यह हमारा ही कर्तव्य है कि हम कठमुल्ले या पोंगा पंडित ही न बने रहें बल्कि अपने धर्मों का निरंतर परित्राण करते रहें . हिन्दुओं ने समय के साथ अपने रीति रिवाजों में बहुत से सामयिक परिवर्तन किये हैं -बलि अब मात्र क्षौर कर्म -मुंडन आदि तक सीमित होकर रह गयी है और "बड़ा" भोज केवल उड़द के 'बड़े' तक सिमट  चुकी है -अश्वमेध तो अब किताबों में ही हैं .....समय देश और काल का तकाजा है कि मुसलमान दिशा दर्शक अब आगे आयें और अपने यहाँ सामूहिक पशुवेध की परंपरा को बंद करें -ऊंटों की कुर्बानी तो अत्यंत वीभत्स दृश्य उत्पन्न करती है -कुर्बानी का मूल अर्थ जो है  उसका अनुसरण क्यों नहीं किया जाय? त्याग और आत्म बलिदान की -बिचारे निरीह पशु क्यों इस सनक के शिकार बनें! . 
कुर्बानी का अर्थ तो पशु अत्याचार कतई नहीं हो सकता -यह विकृत सिम्बोलिक परम्परा इतनी पुरानी होती गयी ,आश्चर्य है! समाज की कुरीतियों पर क्या हिंदू क्या मुस्लमान सभी को आगे बढ़कर सकारात्मक कदम उठाना चाहिए -तभी हम एक बेहतर भविष्य और रहने योग्य धरती की कल्पना कर सकते हैं!दुनिया के लगभग सभी धर्मों में एक अपरिहार्य सी बुराई घर कर गयी है -सभी बेहद जड़ हैं -कोई गति नहीं हैं उनमें -बस लकीर का फ़कीर बने हुए हैं जबकि विज्ञान कितना गतिशील है -आज आवश्यकता इस बात की है कि हम विज्ञान के नजरिये को अपना कर अपने धर्मों की कालिख और बुरी परम्पराओं का प्रक्षालन करें -यह मानवता का एक साझा कर्तव्य है -यहाँ धर्मों की श्रेष्ठता की कोई लड़ाई नहीं है -मैं हिन्दू धर्म की अनेक बुराईयों को सुनने और प्रतिकार करने को तैयार हूँ . 
मैं देख रहा हूँ कि बस बहस के लिए ही अब बहस हो रही है जो अनर्गल और अनुत्पादक है -ठीक है पेड़ पौधों में भी जान है और मनुष्य में भी जान है -तो क्या मनुष्य भी भोज्य बन जाना चाहिए? कुछ धर्म नरमेध को भी उचित मानते रहे -शुक्र है अब आख़िरी साँसे ले रहे हैं . किसी भी धर्म को अगर अपने श्रेष्ठ मूल्यों को बचाए रखना है तो उसे समय के साथ आ रही बुराईयों को पहचानना और प्रतिकार भी करना होगा .....और यह जितना ही शीघ्र हो उतना ही अच्छा .आज यह कितना दुखद है कि मानवता के बीच की कितनी ही खाइयां धर्मों ने तैयार की है -जहां हम अच्छे मित्र हैं ,सहपाठी हैं ,एक जगह काम करने वाले सहकर्मी हैं ,ब्लॉगर हैं -सब ठीक है मगर जैसे ही हम हिन्दू और मुसलमान होते हैं परले दर्जे के अहमक बन जाते हैं ....आखों के आगे पर्दा पड़ जाता है - अगर धर्मों का  यही उत्स है तो ऐसा कोई धर्म भी मुझे स्वीकार नहीं है. आईये हम सभी यहाँ धर्मों की बजाय अपने स्वतंत्र विचारों को प्रस्फुटित होने का मौका दें!
* 
 मुझे वैज्ञानिक  चेतना संपन्न ब्लॉगर का खिताब अता किया है अनूप शुक्ल 'फुरसतिया' जी ने और उतने ही ख़ुलूस और प्यार से मैं उन्हें ब्लॉग व्यंग विधा शिरोमणि की उपाधि  से नवाजता हूँ! :-)    

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

बहुत कुछ हमारे सोच पर निर्भर है!


आज हमारे समाज में अनेक समस्यायें हैं -कुप्रथायें हैं ,अंधविश्वास है ,बेरोजगारी और भूख है, दिशाहीनता है, पलायन है. कई मामलों में मनुष्य की मूलभूत जरूरतों का हवाला हम अक्सर देते हैं -कपडा ,रोटी और मकान ,मतलब जीविकोपार्जन और रहने के लिए  एक खास जगह  की दावेदारी -मतलब एक छत . मगर देखा यह जाता है कि इन मूलभूत जरूरतों के पूरा होने के बाद भी कई समस्यायें उठती रहती हैं . और उनका एक तात्कालिक हल निकालकर हम आगे बढ़ते हैं .कई बार तो समस्याओं का निराकरण तो कुछ ऐसे फार्मूले से होता है जैसे कि गरीबी हटाने का सबसे  कारगर तरीका है गरीबों को ही मिटा देना :-) .... चलिए यह तो भूमिका हो गयी . आज की इस पोस्ट के लिए कोई एक विषय तो चुनना होगा. मैं भ्रष्टाचार पर कुछ कहना नहीं चाहता -काजल की कोठरी में रहकर तो हर ओर अँधेरा ही दिखता है -समाज में नारी की स्थिति,विवाहादि पर  अकेले कुछ नारीवादी ही इतना लिख चुके हैं कि कुछ ख़ास  बचा ही नहीं लिखने को और लिखा तो कुहराम मचना तय है. बढ़ती जनसख्या ,गर्भनिरोध के तरीकों पर लिखना अब कुछ नया नहीं रह गया . मनुष्य के अन्तरंग  जीवन के पहलुओं पर लिखने पर हमेशा श्लीलता और अश्लीललता की विभाजक रेखा धुंधलाती हुयी सी लगती है . फिर ?
आज सोचता हूँ कुछ ख़ास पर्सोनालिटी टाईप्स की बात करूँ. ऐसे लोग जो हमेशा नकारात्मक ऊर्जा का संचार करते रहते हैं .अंगरेजी का एक शब्द है सिनिक (cynic ) -अर्थात- दोषदर्शी/मानवद्वेषी/निंदक ...ऐसे लोग आपसे भी अक्सर टकराते होंगें .उन्हें हमेशा यह लगता है कि यह दुनिया ही बड़ी कमीनी है ,स्वार्थी है ,यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं है ....अब कुछ भी नहीं बचा जो अच्छा हो -कबीर ने ऐसे आदमी की पहचान तरीके से कर ली थी बल्कि यहाँ तक कह डाला था कि उसकी तो बड़ी आवाभगत करो -घर के भीतर भी बुला आँगन में बिस्तर आदि लगा उसकी पूरी सेवा श्रूशुषा करो क्योंकि वह तो आपनी आदत से बाज तो आएगा नहीं, हां आपकी बर्दाश्त करने की आदत में निरंतर इजाफा करता जाएगा -अब महापुरुष लोग समस्याओं का ऐसा ही कोई यूनिक तरीका बताते  हैं जो व्यवहार में पूरी तौर पर कभी लागू न हो पाए और इसलिए उसे कभी खारिज भी न किया जा पाए :-)  
मगर मुझे लगता है कि ऐसे लोगों को अवायड करना चाहिए क्योकि वे आपमें एक तरह की नकारात्मक ऊर्जा का समावेश करते हैं -आपका आत्मविश्वास डिगाते हैं. और आपका कोई काम बनते बनते इसलिए बिगड़ जाता है कि आप में नकारात्मक सोच घर कर गयी थी . दर्शनशास्त्र  में ऐसी ही एक विचारधारा(Solopsism) है कि आपका मस्तिष्क जो सोचता है वही साकार हो उठता है. इसलिए मस्तिष्क का सकारात्मक सोच वाला होना बहुत आवश्यक है .मनुष्य की यह सकारात्मक सोच न होती तो वह चन्द्रमा का जेता न हुआ होता और आज ब्रह्माण्ड के असीम दिक्काल तक जा पहुँचने का हौसला न रख पाता. हम छोटी छोटी बातों को लेकर नकारात्मक हो उठते हैं -किसी ने अन्यान्य कारणों से आपका साथ नहीं निभाया तो सारा समाज ही दोषी हो गया , किसी औरत ने अपने खसम पर हाथ उठा दिया तो सारी नारी जाति ही कुलटा बन गयी -ऐसे सोच खुद ऐसा सोचने  /कहने वालों को और प्रकारांतर से सारे समाज को नुकसान पहुंचाते हैं . एक व्यक्ति  ऐसी नकारात्मक अतिवादी सोच के चलते अपना और समाज का बड़ा नुक्सान करने पर उद्यत रहता है . 
मेरा आशय यह नहीं कि सभी झूठ मूठ आदर्शवादी हो जायं ....यथार्थवादी रहते हुए भी एक सकारात्मक ऊर्जा के साथ हम क्यों न रहें? -विवेकानन्द की अनेक ऊर्जाभरी बातों में मुझे यह उनका सबसे अच्छा विचार लगता है कि देखो अगर तुम सब कुछ खो चुके हो तो भी पूरा भविष्य अभी भी तुम्हारे पास बचा हुआ है . यह है आशावादी सोच -हमेशा नकुआये रहना ,मुंह को बिसूरते बिसूरते उस पर एक  नकारत्मक स्थायी भाव ही चिपका लेना मुझे तनिक भी नहीं भाता ..माना कि दुनिया बहुत बुरी है मगर सच तो यह है कि बहुत कुछ हमारे सोच पर निर्भर है -. सकारात्मक सोच और ऊर्जा के प्रवाह से हम नरक को स्वर्ग में तब्दील कर सकते हैं ....ऐसा मेरा सोचना है . 
आपका क्या सोचना है ? 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

तू हाँ कर या ना कर?


अपनी  फेसबुक भित्ति पर एक प्रखर नारीवादी विदुषी ने विवाह नाम्नी सुदृढ़ सामजिक  व्यवस्था पर  कटाक्ष करते हुए लिखा "  . कल एक ब्लॉगर और फेसबुकीय मित्र ने मुझे यह सलाह दी कि .... मैं शादी कर लूँ, तो मेरी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी :) इस प्रकार का विवाह एक समझौता ही होगा. तब से मैं इस समझौते में स्त्रियों द्वारा 'सुरक्षा' के लिए चुकाई जाने वाली कीमत के विषय में विचार-विमर्श कर रही हूँ और पुरुषों के पास ऐसा कोई सोल्यूशन न होने की मजबूरियों के विषय में भी :).." यह एक टिपिकल नारीवादी चिंतन है जो विवाह की पारम्परिक व्यवस्था पर जायज/नाजायज सवाल उठाता रहा है. यहाँ के विवाह के  फिजूलखर्चों ,दहेज़ ,बाल विवाह आदि का मैं भी घोर विरोधी रहा हूँ मगर नारीवाद हमें वह राह दिखा रहा है जहाँ विवाह जैसे सम्बन्धों के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न उठने शुरू हो गए हैं -और यह मुखर चिंतन लिविंग रिलेशनशिप से होता हुआ पति तक को भी "पेनीट्रेशन" का अधिकार देने न देनें को लेकर जागरूक और संगठित होता दिख रहा है . क्या ऐसे अधिकार की वैयक्तिक स्वतंत्रता की इज़ाज़त दी जा सकती है -क्या समाज के हितबिंदु इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगें ? धर्म तो विवाह को केवल प्रजनन के पवित्र दायित्व से जोड़ता है -अगर 'पेनीट्रेशन' नहीं तो फिर तो प्रजनन का प्रश्न  नहीं और प्रजनन नहीं तो फिर प्रजाति का विलुप्तिकरण तय .  क्या कोई भी धर्म और समाज या क़ानून समाजिक सरोकारों के ऊपर/अपरंच  जाकर ऐसे दिमागी फितूरों को वैयक्तिक/नागरिक आधिकारों के रूप में स्वीकृति  प्रदान कर सकता है? मामला गंभीर है और एक प्रबुद्ध विमर्श की मांग करता है.  
मैं अपने विचार यहाँ रख रहा हूँ जो समाज जैविकी(Sociobilogy)  के नजरिये से है और कोई आवश्यक नहीं कि मेरा इससे निजी मतैक्य अनिवार्यतः हो भी? अकेले मनुष्य प्रजाति में  यौन भावना का प्राबल्य या प्रजनन किसी ख़ास माहों तक सीमित न होकर सदाबहार है . हमारी नजदीकी चिम्पांजी मादा भी छठे छमासे ही हीट में आती है ..मगर मनुष्य के मामले में यह बारहोमास है .और प्रत्येक माह में अंड स्फोटन(ovulation)  के साथ ही मनुष्य -मादा के गर्भधारण की संभावनाएं बलवती हो उठती हैं -इस ग्रह पर अरबों जनसँख्या उसकी इसी अति प्रजननशीलता की ही देन है -यहाँ नारी या पुरुष किसी भी वक्त संयोग करते हैं गर्भधारण की तिथियों से दीगर भी ..... निश्चित ही मात्र प्रजनन ही मनुष्य के मामले में हेतु नहीं है कोई और भी कारक है जो जोड़े को साथ बनाए रखता है और गहन आत्मीय/यौन  सम्बन्ध ही जोड़े के लिए सीमेंट का काम करता है ..मगर क्यों यह जोड़ा सीमेंटेड होना चाहिए? इसलिए कि विद्रूप नैसर्गिक सत्य यह है कि जैव- विकास की  सीढी में न जाने क्यों प्रकृति ने मनुष्य प्रजाति की मादा को ही वात्सल्य देखभाल (पैरेंटल केयर ) का नब्बे फीसदी तक का उपहार /ठेका  देकर नारी को बिचारी बना दिया ...मनुष्य शावक पट्ठा(!) बरसों बरस तक मां  की छाती पर मूंग दलता रहता है ..दुग्धपान से डायपर बदलाव के  बहुत बाद तक भी वह मां पर पूरी /बुरी तरह आश्रित रहता है -और बाप बस उसे कभी कभार निर्मिमेष निगाहों से पलता बढ़ता देखता और औपचारिकता स्वरुप कभी कभार कुछ प्यार पुचकार करता रहता है ताकि कम से कम यह आभास तो होता ही रहे की साहबजादे उसी की औलाद हैं :-) अब सभी डी एन ऐ जांच  के लिए तो जाने से रहे ... :-) 
बच्चे  के बाप कहीं अपने दायित्वों से खिसक न लें इसलिए मनुष्य के मामले में प्रकृति ने सेक्स को और भी "सेक्सियर" -आनंददायक बना डाला -ले पट्ठे तुझे साथ रहना है तो भरपूर मजे लेता रह  और संतान की अपनी जिम्मेदारियों से  मत भाग ....मनुष्य नर  के ऊपर प्रकृति ने वात्सल्य देखभाल की  उतनी विवशता डाली ही नहीं.....न तो मानसिक स्तर पर ही और न ही शारीरिक स्तर पर ....उसके चूचक भी अवशेषी होकर सिमट सिकुड़ गए नहीं तो कम से कम प्लेसेबो दुग्धपान की राहत कभी कभार तो  बच्चे को देते ही ...... :-) 
अब उक्त परिप्रेक्ष्य में जरा सोचिये भारत ही नहीं पूरे विश्व के किसी भी भूभाग या संस्कृति में शादी एक नारी के लिए कितनी जरुरी है -मुख्यतः एक कारण से -एक तो  बच्चों के बड़ा होने तक जच्चा बच्चा  दोनों को  किसी  आपदा की स्थितियों में पुरुष का तन मन धन से तात्कालिक और दूरगामी सहयोग देना और इस तरह वंश रक्षा की निरापदता सुनिश्चित करना ....विवाह जैसी संस्था इसी जैवीय और सांस्कृतिक जरुरत को ही पूरा करती है. एक सामाजिक   संस्था के रूप में भी वह यह भी सुनिश्चित  करती है कि बच्चा पैदा कर बंदा कहीं और न सटक ले ...कुछ तो लाज भय रहेगा ...अगर मनचाहा कुदरती आनंद न भी मिल रहा हो तो बेचारा  सामजिक/कानूनी  भय और संकोच वश वैवाहिक जीवन को निबाहते रहने को अभिशप्त हो रहता है -और यह नारी के ही पक्ष में एक छुपा हुआ वरदान है . पुरुष को एक ओर गहन वात्सल्य देखभाल से मुक्त कर प्रकृति ने काम भावना को बुलंद कर दिया ताकि वह कम से कम  नारी बिचारी से जुड़ा रहे ....अन्यथा समागम के बाद उसका काम ख़त्म ..और वह बीजारोपण के लिए आगे भटक /सटक लेगा .
शादी इसलिए जरुरी है .हाँ अगर बच्चे पैदा करने का  मातृत्व बोध क्षरित हो गया लगता है (जैसा कि अभी तक नहीं है )  तो फिर विवाह जरुरी नहीं तथापि पश्चिमी देशों में यही हो रहा है -कई कई तलाक और पुनर्विवाह! नैसर्गिक इंस्टिंक्ट बस वही है -पुरुष  रुकना नहीं चाहता और नारी को वात्सल्य देखभाल से निवृत्ति नहीं है .पश्चिम में इसलिए ही आजीवन बिन व्याहे और विवाहेत्तर सम्बन्ध,तलाक  का  आंकडा बढ़ रहा है . आखिर भारत क्या चाहता है ? 

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

यह नेह क्यों, अनुराग क्यों?


भावों को शब्द -बद्ध करना  कितना  मुश्किल है :-( शब्द साधना एक तपस्या है . गुणी  मित्र गण माफ़ करेगें इस अनाधिकार चेष्टा के लिए -


यह नेह क्यों, अनुराग क्यों?

जो  दीन है औ  शीर्ण है 
 जर्जर  जरा अधीन है 
 तुम्हे अब क्या दे सकेगा 
 जो आर्त है,पराधीन है 

 क्षितिज की ओर देखो 
उभरती तरुणाई  जहां है 
नव चेतना का आह्वान औ
आ पहुंचा  शुभ  विहान  है  

कर सकेगा सम्पूर्ण  तुमको 
अभिसार  कर हर विध वही 
हो सकेगी संतृप्ति रसमय 
मिटेगी चिर प्यास   भी 

अब नहीं  है शेष कुछ भी 
दे सकूं जो प्राण प्रिय को 
छीजती जाती  है प्रतिपल 
जीवन की डोर अब तो 


फिर भी हूँ  विस्मित  भला 
 नेह पर जिसके   पला 
क्यों अचंचल बन गयी वह 
स्वभाव से ही  जो चंचला 

पूछता जाता हूँ विस्मित 
छोड़ नव आकर्षणों को 
मुझी पर है किसी का 
 नेह क्यों,अनुराग क्यों?







रविवार, 7 अक्टूबर 2012

मेरी सोनभद्र की खोज यात्रा -1


शोण भद्र से कालान्तर में सोनभद्र शब्द बना. यहाँ आने के बाद यहाँ की संस्कृति,आबो हवा में मेरे अनुकूलित होने का सप्रयास क्रम जारी है. यहाँ कितना कुछ जानने  समझने को है.उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल के अलग हो जाने के बाद सोनभद्र ही वह अकेला जिला है जहाँ आज भी वनों का आच्छादन ५३ फीसदी है .बड़े बड़े बाँध,झीलें और जलाशय है .अकूत वनौषधि और खनिज तथा खनन संपदा है. मगर दुर्भाग्य से आज भी यह एक बहुत ही पिछड़ा हुआ अंचल है. विकास के आधुनिक मानदंडों पर इसे अभी हाल में ही हुए एक सर्वे (पंचायती राज मंत्रालय )में उत्तर प्रदेश ही नहीं देश का सबसे पिछड़ा जिला पाया  गया है. मगर इतना कुछ होने के बावजूद भी इसकी अपनी कुछ विशिष्टतायें हैं -यह देश की  ऊर्जा राजधानी है .जल विद्युत और ताप विद्युत की कई परियोजनाएं यहाँ पर हैं .जल प्रपात और प्राकृतिक धरोहरों के मामले में सोनभद्र का अनूठा स्थान है .एक विश्वविख्यात जीवाश्म क्षेत्र (फासिल बेड ) यहाँ है . प्रागैतिहासिक शैल चित्र भी हैं . सोन और कर्मनाशा नदियाँ हैं . सोन दरअसल एक पुरुष "नदी" है और इसलिए इसे वस्तुतः नदी नहीं नद कहा जाता है-सोन नद ..रेनुकूट में हिंडालको के विश्वप्रसिद्ध एल्मूनियम कारखाने के साथ ही कई औद्योगिक गतिविधियाँ यहाँ की एक अलग पहचान हैं ,
राबर्ट्सगंज के सोन इको प्वायंट से  सोन घाटी का एक विहंगम दृश्य 
 सोनभद्र से मेरा संवेदित होना अभी शुरू ही हुआ है . बहुत कुछ अभी जानना समझना शेष है जिसे आपके साथ साझा करता रहूँगा .ज्ञान जी को गंगा जिस भाति मिल गयीं हैं अन्वेषण पुनि पुनरपि पुनरान्वेषण के लिए, मैं समझता हूँ मेरी झोली में अब सोनभद्र उसी तरह आ गया है और मैं कृत्यार्थ हो उठा हूँ . अभी तो सोनभद्र के नामकरण को लेकर मन में उथल पुथल मची हुयी है . अग्निपुराण में आया है -नमस्ते ब्रह्मपुत्राय शोणभद्राय ते नमः कालांतर  में शोण ही सोन बन गया है ..किन्तु शोण का शाब्दिक अर्थ क्या है ? क्या शोणित का शाब्दिक अर्थ खून तो नहीं है? कोई संस्कृत का विद्वान मेरा मार्गदर्शन करेगा? .कभी कोई भयंकर युद्ध तो इस नदी के किनारे नहीं हुआ जिससे इसका रक्त रंजित जल दूर दूर तक लाल हुआ हो और नाम शोणभद्र हो गया हो -मगर भद्र का अर्थ कुशलता से है .अर्थात शोणित होकर भी जन कल्याण करने वाली नदी -शोणभद्र! ये बस विचारभर है और मुझे किसी गुरु की खोज है जो मुझे दिशा दिखाये! लेकिन यह तो तय है कि जिले का नाम सोनभद्र सोंन  नदी के कारण ही है .कहीं आल्हा की व्याहता सोनवा के नाम से तो सोनभद्र का कोई कनेक्शन नहीं है ? यहाँ की चंदेलों के वक्त की कुछ लड़ाईयां आल्हा की अगुवाई में हुयी हैं -पास के चुनार के किले में सोना के विवाह मंडप में कितने ही योद्धा मार दिए गए थे . 
वाराणसी -सोनभद्र मार्ग पर अहरौरा बांध का एक मंत्रमुग्ध करता दृश्य 
यहाँ आदिवासियों का भी बाहुल्य है, उनकी कई जातियां उपजातियां हैं. यहाँ का करमा  नृत्य मशहूर है .  पत्नी जो मिर्जापुर की मूल वासी है (यह जिला मिर्ज़ापुर से ही पिछले नवे दशक में अलग हुआ था ) बता रही है कि सोनभद्र के एक तहसील घोरावल के घड़े मशहूर हैं. यह जानकारी देने का उनका छुपा मंतव्य हो सकता है कि मैं एक   घड़ा यथाशीघ्र उनके लिए ले आऊँ :-)
बनारस सोनभद्र मार्ग मध्य का एक नयनाभिराम जल प्रपात -लखनियां दरी 
यहाँ की लोक परम्परा में पत्नियां मोतीझील की मेहन्दी के साथ बहुत कुछ अपने पिया से मांगती रही हैं और अब उस फेहरिस्त में घोरावल का  घड़ा भी जुड़ गया है! यहाँ आल्हा के बाद के दूसरे लोक विख्यात जननायक लोरिक की कथायें भी जन श्रुतियों में व्याप्त हैं -एक विशाल शैल खंड राबर्ट्सगंज -शक्तिनगर मुख्य मार्ग पर ही है जिसे लोरिक पत्थर कहा जाता है और मान्यता है कि उसे महा लोकनायक लोरिक ने अपने खड्ग वार से दो  भागों में विभक्त कर दिया था ... यह वृत्तांत भी मैं तफसील से आपके सामने लाऊंगा! 
अभी तो मेरी सोनभद्र की खोज यात्रा बस शुरू ही हुयी है!  

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

आज पिता जी की पुण्य तिथि है!


आज पिता जी की पुण्य तिथि है. आज उन्ही की एक कविता श्रद्धा -सुमन के रूप में उन्ही को अर्पित है -त्वदीयं वस्तु गोविन्दम तुभ्येव समर्पयामि.......
अथ नेता अर्ध चालीसा 
दोहा:
बंदौ नेता पद कमल,सब सुख धन दातार 
         कम्प्यूटर  नहीं कह सकत,माया अमित अपार  
चौपाई 
यद्यपि सब भगवान  बखाना, नेता अनुपम अगम महाना
नेता चरित अगाध अपारा,समुझत कठिन कहत विस्तारा 
कथनी करनी कहि नहिं जाई,क्षण प्रतिक्षण विस्मय अधिकाई 
बहु विधि सब्ज बाग़ दिखलावे,पीछे बहुरि न  पूछन आवे 
मतदाता सब खोजत फिरहीं, अलख ब्रह्म इव देख न परहीं 
महा महा मुखिया सब जोहत,माथा ठोक ठोक पुनि रोवत  
पत्रकार निशि दिन यश गावें,सहजई  बढियां माल उड़ावें 
ठेकेदार सब जय जय करहीं,बिनु श्रम लूटि  तिजोरी भरहीं 
जो व्यवसायी चंदा देई,कोटा परमिट सब कुछ लेई 
तस्कर अपराधी सब मिलते,'रस्म' चुकाई मधुर फल चखते 
दोहा:
नहि विद्या नहिं बाहु  बल ,बिनु धन करत कमाल 
संबंधी तक हो रहे, झटपट मालामाल 
चौपाई 
धन्य वचन अद्भुत चतुराई,ह्रदय भेद कोऊ जान न पाई  
लोकतंत्र की अलख  जगाते,पोलिंग बूथ कैप्चर करवाते 
समाजवाद की माला जपते, फाईव स्टार होटल में रमते 
जातिवाद का मन्त्र जगाते,धर्म निरपेक्ष गीत बहु गाते 
असमाजिक जन बहु आते,अभय दान पा मंगल गाते 
कला शास्त्र विज्ञान न आवा,नित नूतन अभिनन्दन पावा 
देश सभ्यता सब कुछ जाए, सत्ता सुख नहिं जाने पाए 
लोकलाज मर्यादा हीना ,'सब कुछ' करत न होत मलीना 
जो कोऊ तुम्हरो  यश गावे, विहसि प्रशासन कंठ लगावे 
झोला बस्ता तक जो ढोवे,पुलिस सभीत सशंकित होवे 
प्रभुता कोऊ नहिं सके बखानी,आई ऐ एस तक भरते पानी 
दोहा:
धन्य  धन्य तुम धन्य हो, तव प्रताप  को जान 
देवता सब रोवत फिरें,मौन भये भगवान 
-डॉ.राजेन्द्र प्रसाद मिश्र 
(रचना काल:१९९५;'राजेन्द्र स्मृति' से )   


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