ब्लागवाणी का समापन बहुत ही अप्रत्याशित रहा ! कईयों को इस घटना ने किंकर्तव्यविमूढ़ता के मोड में ला दिया ! मैं खुद भी उद्विग्न हूँ ,लगता है कोई अपना बहुत घनिष्ठ ही अचानक बीच से उठ गया ! विचारों का झंझावत पीछा ही नहीं छोड़ रहा है ! सत्कर्मों की कलयुगी नियति के ऐसे दृष्टांत किस ओर संकेत करते हैं ? यही न कि हम किसी तरह का सत्कर्म करना छोड़ दें ? समाज सेवा ? मारो गोली ? कभी लगता है कि ब्लागवाणी के नियंताओं ने इस अभियान को लांच करते समय अन्यान्य कर्मकांडों के साथ
खल वंदना नहीं की होगी !
खल वंदना ? जी हाँ ,बिना खल वंदना के अपने गोबर पट्टी में कोई काम निर्विघ्न हो ही नहीं सकता . ऐसा ज्ञानी जन कहते भये हैं ! कोई भी नया काम शुरू करो तो देवी देवता पूजन तो करो ही खल वंदना भी अनिवार्य रूप से कर लो -नहीं तो उद्यम वैसे ही असफल जायेगा ,जैसे ब्लागवाणी की गति हुयी !
संत कवि तुलसीदास तक भी रामचरित मानस के आरम्भ में ही खल वंदना के पुनीत कार्य को पूरे विधि-विधान और मनोयोग से निपटाते हैं -आईये उन्ही से कुछ सीखें ! रामचरितमानस की शुरुआत तो तुलसी धरती के देवताओं (महीसुर ) यानी ब्राह्मणों के च्ररण वंदन से करते हैं -
बंदऊँ प्रथम महीसुर चरना --मगर कौन से ब्राह्मण ? -पोंगा पंडित नहीं बल्कि वे ब्राहमण जो
"मोह जनित संशय सब हरना - यानि ऐसे ब्राहमण जो मोह /भ्रम से मानव मन में उपजने वाली सभी शंकाओं का समाधान कर दें -ऐसे ही ब्राह्मणों की तुलसी ने वंदना की -फिर गुरु और संतों की उपासना -वंदना की ! फिर वे किसकी वंदना करते हैं आईये उन्ही की लेखनी में देखें-
बहुरि बन्दि खल गण सतिभाये .जे बिन काज दाहिनेहु बाएँ
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरे . उजरे हर्ष विषाद बसेरे
{अब मैं सच्ची भावना से दुष्टों की वंदना करता हूँ जो बिना ही प्रयोजन ,
अपना हित करने वालों के प्रति भी प्रतिकूल आचरण करते हैं
(ब्लागवाणी प्रकरण को ध्यान रखें ) .दूसरों के हित की हानि ही जिनके दृष्टि में
लाभ है .जिन्हें दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है}
तुलसी का यह खल वंदना प्रसंग तो लंबा है मगर दुष्टों के कुछ और गुण -अवगुण तुलसी के ही शब्दों में यहाँ बताना चाहता हूँ -
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं .जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहीं
बंदऊँ खल जस शेष सरोषा .सहस बदन् बरनई पर दोषा
{ वे दूसरों के नुक्सान के लिए उसी तरह अपने शरीर का त्याग भी कर डालते हैं
( ब्लागवाणी प्रकरण याद रखे ) जैसे ओला फसलों का नुक्सान करने में खुद गल कर नष्ट हो .जाता है
मैं दुष्टों की बंदना करता हूँ ,वे शेषनाग के समान हजार मुख वाले हैं और दूसरों के दोष
का अपने हजार मुंहों से वर्णन करते हैं}
अगर आप को रुचे तो यह पूरा प्रकरण और भी विस्तार से रामचरित मानस में पढ़ सकते हैं ! मुझे भी लगा कि मैंने अपने इस प्राण प्रिय ब्लॉग की अधिष्ठापना पर खल वंदना नहीं की थी ! सो अब ब्लॉग वाणी प्रकरण के बहाने ही उनका स्मरण कर लूं ! विनय करता हूँ कि क्वचिदन्यतोअपि को वे अपनी बुरी नजर से बख्श देगें ! मगर क्या सचमुच वे ऐसा करेगें ? ह्रदय कम्पित है ! क्योंकि -
बायस पलिहै अति अनुरागा .होहिं निरामिष कबहुं न कागा
(कौए को कितने ही प्रेम -आदर से क्यों न पालिए ,
तरह तरह से उसकी सेवा सुश्रुषा भी कीजिये फिर भी
वह मैला खाना थोड़े ही छोड़ देगा ! )
ॐ शांतिः शांतिः