अभी परसों ही दिल्ली प्रवासी बहन ज्योत्स्ना(ज्योति ) ने मुझे फोन कर एक अजब सवाल सामने रख दिया . पहले तो यह पूछा कि
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।। दोनों रामभक्तों में जान पहचान कुशल क्षेम के बाद यह संवाद हुआ . विभीषण ने कहा कि मैं तो जन्म से ही अभागा हूँ ...मेरा तो यह राक्षस का अधम शरीर ही है और मन में भी प्रभु के पद कमल के प्रति प्रीति नहीं उपजती, आज आप जैसे संत ह्रदय से भेंट हुयी है तो यह तो हरि की कृपा ही है . हनुमान को यह भान हुआ कि विभीषण में अपने राक्षस रूप को को लेकर हीन भावना है . तो उन्होंने खुद अपना उदाहरण देकर उन्हें वाक् चातुर्य से संतुष्ट किया -अब मैं ही कौन सा कुलीन हूँ विभीषण ? और एक बन्दर के रूप में मैं भी तो सब तरह से,तन मन से हीन ही हूँ ..और लोक श्रुति तो यह भी है कि अगर कोई सुबह हमारा नाम(बन्दर का नाम) ले ले तो उसे दिन भर आहार नहीं मिलेगा!
यहाँ हनुमान की प्रत्युत्पन्न बुद्धि और वाक् चातुर्य स्पष्ट दीखती है ....विभीषण को हीन भावना से उबारने के लिए उन्होंने खुद अपने बन्दर रूप का उदाहरण दिया और प्रकारांतर से यह कह गए कि तन मन योनि से कोई फर्क नहीं पड़ता अगर प्रभु राम की कृपा हो जाय .प्रभु कृपा से अधम भी पुण्यात्मा बन जाय -मेरा ही देखिये जो कुछ भी मैं हूँ वह प्रभु कृपा से ही हूँ नहीं तो एक बन्दर की क्या औकात थी? "अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर" ...
प्रभु राम की कृपा जिस पर हो जाय ..अपावन कौए पर हो गयी तो वे महाज्ञानी पावन काकभुशुण्डी बन गए . और मधुर वचन भी बोलने लग गए ..."मधुर वचन बोलेउ तब कागा :-) ....तो सब कुछ प्रभु की कृपा पर ही निर्भर है . अब जिस पर प्रभु की कृपा हो तो उसका नाम तो हर वक्त लिया जा सकता है .सुबह शाम ..वह तो प्रातः स्मरणीय है और उस पर हनुमान का नाम जो राम के सबसे बड़े भक्त है . ज्योत्स्ना शायद यह पोस्ट तुम्हे संतुष्ट कर सके ...... अन्य मित्रगण भी अपना मंतव्य व्यक्त करेगें तो मुझे अच्छा लगेगा ..जय श्रीराम!



