कई दिनों से शुकुल महराज कोंच रहे हैं कि कुछ लिखते क्यों नहीं( कुछ लेते नहीं के तर्ज पर ) ..उन्हें लाख समझाया कि गंभीर लेखन { :-) } कोई व्यंग लेखन तो है नहीं कि रोज रोज लिख मारा जाय . मगर वे मानते ही नहीं . कल चैट पर आये और बोल भये कि इस मौसम में और कुछ नहीं तो मानस प्रिया पर ही लिख दिया जाय। अब जबरदस्ती और ऐसे रूमानी विषय पर तो लिखा नहीं जा सकता न ....तो सोचा आज आपसे कुछ कुछ उन छुट्टा विचार स्फुलिगों को ही शेयर कर लूं जो विगत दिनों फेसबुक पर डाले हैं . मेरे कुछ ब्लॉग मित्र जो वहां नहीं हैं उनके लिए ये नए लगेगें! ताजे अपडेट से लेकर थोडा पीछे वाले अपडेट दे रहा हूँ .
सबसे पहले ताजा वाला दावा त्याग:
मेरे अपडेट से अनिवार्यतः मेरी सहमति ही हो ऐसा नहीं है -कई बार मैं मैं कई विचार स्फुलिंगों पर साथियों के मत जानना चाहता हूँ ताकि खुद उन पर अपना मत स्थिर कर सकूं ! ये विचार तरंगें सतत अपने परिवेश -पर्यावरण -प्रकृति से आती रहती हैं और मस्तिष्क एक एंटीना की तरह उन्हे कैच करता रहता है . यह एक अनैच्छिक क्रिया है ! चाहें या न चाहें ! कुछ मित्र कभी कभी इस विचार गंगा या/और वैतरिणी से थोडा हतप्रभ से हो जाते हैं कि मैं ऐसा कह रहा हूँ ! सच कहूं तो इदं न मम!
आशय यह कि प्लीज प्लीज यहाँ व्यक्त विचारों से मेरी कोई इमेज मन में न लाई जाय!
अब बाकी कुछ पुराने धुराने
यहाँ (सोशल नेटवर्किंग में ) जल्द ही पता लग जाता है किससे निभेगी और किससे खटकेगी ..और किससे खटक कर भी निभ जायेगी और किससे निभ कर भी खटक जायेगी..
अब कुछ लोग फेसबुक से भी गायब होने लगे हैं -ब्लॉग से गए यहाँ से गए -कौन गली गयो श्याम? (श्याम =जेंडर निरपेक्ष अर्थ में)......
*
समकालीन परिदृश्य में संवेदनशील व्यक्ति की समाज में स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है -उसे मूर्खता/हेयता /हास्य का पात्र समझ लिया जा रहा है -वह किसी काम का नहीं! और अगर कहीं उसकी कविता -साहित्य में भी रूचि है तो फिर बिचारे की स्थिति और भी दयनीय है! समूची व्यवस्था कितनी नृशंस और दो दूनी चार की ही हिमायती बनती जा रही है !
*
मुद्रण माध्यमों की व्याप्ति अब एक अत्यंत सीमित भौगोलिक दायरे तक सिमट कर रह गई है!
यह उनकी एक बड़ी सीमा और सामर्थ्य हीनता बनती जा रही है ..
इसलिए हम डिजिटल मीडिया के कायल हुए जाते हैं और यहाँ अब सब कुछ है ,सब कुछ
यहाँ जो नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है !दिल कहे रुक जा रे यहीं पे.....
*
उन लेखकों से सीख लेने चाहिए जो वसुधा वसुंधरा के अनंत मसलों पर निर्बाध और समान गति से लिख रहे हैं और फेसबुक पर लिंक चेप रहे हैं -
सोचकर लिखना? अरे किस युग की बात कर रहे हैं ? अब तो लिखकर भी सोचा नहीं जाता ! बहुत आसान है -एक बार ट्राई करके तो देखिये ! यश उसी से मिलेगा !
*
एक स्टडी.के मुताबिक़ भारतीय महिलायें बहुत ज्यादा स्व- और परिवार केन्द्रित होती हैं -दिन रात खुद अपने और बच्चे अपने पति के बारे में ही सोचती रहती हैं जबकि भारतीय पुरुष इसके ठीक उलट हैं! वैसे भी आत्मकेंद्रित होने की कोई हद भी तो चाहिए खासकर जब हम समाज में रह रहे हों और हमारे सामाजिक सरोकार हों!
*
मैंने कई फेसबुक मित्रों को मार्क कर लिया है जो मेरे स्टेटस को बस लाइक कर चल देते हैं, भले ही उनमें अर्जेंसी या कोई इमरजेंसी ही क्यों न हो या वे कितने सारवान ही क्यों न हों मगर वही मित्र महिला मुखों के स्टेटस पर आनन्द और मुक्त भाव से टिप्पणियाँ करते हैं लाईक भी करते हैं!
*कुछ लोगों की असहमत होने की जन्मजाति प्रवृत्ति होती है -कुछ भी कहिये वे झट से असहमत हो लेते हैं -मेरे एक मित्र ऐसे ही हैं -
यहाँ तक कि जब मैं उनसे ऊब कर अंततः यह पूछ बैठता हूँ ....
"तो आप इस मुद्दे पर भी मुझसे असहमत हैं? "
उनका जवाब होता है " नहीं तो, बिल्कुल नहीं"
"यानि सहमत हैं? "
"नहीं नहीं" ......
ऊफ ऐसे मित्र !
*
कुछ लोगों के लिए मित्रता की समझ और परिधि बस इतनी सी है कि आप उनके लिखे को पसंद करते जाईये और वाहवाही में लगे रहिये और जिस दिन भी आप ऐसा करना बंद कर देगें वह दोस्ती का आख़िरी दिन होगा ..
*
हिन्दी ब्लागरी और फेसबुक अपडेटिंग में अध्ययन का अभाव और वर्तनीदोष प्रायः दिखता है -कभी किसी ने कहा था कि एक मौलिक वाक्य लिखने के लिए कम से कम एक पेज और एक पेज लिखने के लिए कम से कम सौ पेज के अध्ययन से गुजरना आवश्यक अर्हता होनी चाहिए !
आज एक कवयित्री का पुनर्पाठ को पुर्नपाठ लिखना बर्र के डंक सा बेध गया है मगर मित्रगण हैं कि कविता की वाहवाही में प्राणप्रण से लगे हुए हैं -मित्रों आप यह क्या कर रहे हैं - उस कवयित्री के लिए यह आपका हर्षगीत है या शोक गीत ?
सबसे पहले ताजा वाला दावा त्याग:
मेरे अपडेट से अनिवार्यतः मेरी सहमति ही हो ऐसा नहीं है -कई बार मैं मैं कई विचार स्फुलिंगों पर साथियों के मत जानना चाहता हूँ ताकि खुद उन पर अपना मत स्थिर कर सकूं ! ये विचार तरंगें सतत अपने परिवेश -पर्यावरण -प्रकृति से आती रहती हैं और मस्तिष्क एक एंटीना की तरह उन्हे कैच करता रहता है . यह एक अनैच्छिक क्रिया है ! चाहें या न चाहें ! कुछ मित्र कभी कभी इस विचार गंगा या/और वैतरिणी से थोडा हतप्रभ से हो जाते हैं कि मैं ऐसा कह रहा हूँ ! सच कहूं तो इदं न मम!
आशय यह कि प्लीज प्लीज यहाँ व्यक्त विचारों से मेरी कोई इमेज मन में न लाई जाय!
अब बाकी कुछ पुराने धुराने
यहाँ (सोशल नेटवर्किंग में ) जल्द ही पता लग जाता है किससे निभेगी और किससे खटकेगी ..और किससे खटक कर भी निभ जायेगी और किससे निभ कर भी खटक जायेगी..
अब कुछ लोग फेसबुक से भी गायब होने लगे हैं -ब्लॉग से गए यहाँ से गए -कौन गली गयो श्याम? (श्याम =जेंडर निरपेक्ष अर्थ में)......
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समकालीन परिदृश्य में संवेदनशील व्यक्ति की समाज में स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है -उसे मूर्खता/हेयता /हास्य का पात्र समझ लिया जा रहा है -वह किसी काम का नहीं! और अगर कहीं उसकी कविता -साहित्य में भी रूचि है तो फिर बिचारे की स्थिति और भी दयनीय है! समूची व्यवस्था कितनी नृशंस और दो दूनी चार की ही हिमायती बनती जा रही है !
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मुद्रण माध्यमों की व्याप्ति अब एक अत्यंत सीमित भौगोलिक दायरे तक सिमट कर रह गई है!
यह उनकी एक बड़ी सीमा और सामर्थ्य हीनता बनती जा रही है ..
इसलिए हम डिजिटल मीडिया के कायल हुए जाते हैं और यहाँ अब सब कुछ है ,सब कुछ
यहाँ जो नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है !दिल कहे रुक जा रे यहीं पे.....
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उन लेखकों से सीख लेने चाहिए जो वसुधा वसुंधरा के अनंत मसलों पर निर्बाध और समान गति से लिख रहे हैं और फेसबुक पर लिंक चेप रहे हैं -
सोचकर लिखना? अरे किस युग की बात कर रहे हैं ? अब तो लिखकर भी सोचा नहीं जाता ! बहुत आसान है -एक बार ट्राई करके तो देखिये ! यश उसी से मिलेगा !
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एक स्टडी.के मुताबिक़ भारतीय महिलायें बहुत ज्यादा स्व- और परिवार केन्द्रित होती हैं -दिन रात खुद अपने और बच्चे अपने पति के बारे में ही सोचती रहती हैं जबकि भारतीय पुरुष इसके ठीक उलट हैं! वैसे भी आत्मकेंद्रित होने की कोई हद भी तो चाहिए खासकर जब हम समाज में रह रहे हों और हमारे सामाजिक सरोकार हों!
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मैंने कई फेसबुक मित्रों को मार्क कर लिया है जो मेरे स्टेटस को बस लाइक कर चल देते हैं, भले ही उनमें अर्जेंसी या कोई इमरजेंसी ही क्यों न हो या वे कितने सारवान ही क्यों न हों मगर वही मित्र महिला मुखों के स्टेटस पर आनन्द और मुक्त भाव से टिप्पणियाँ करते हैं लाईक भी करते हैं!
*कुछ लोगों की असहमत होने की जन्मजाति प्रवृत्ति होती है -कुछ भी कहिये वे झट से असहमत हो लेते हैं -मेरे एक मित्र ऐसे ही हैं -
यहाँ तक कि जब मैं उनसे ऊब कर अंततः यह पूछ बैठता हूँ ....
"तो आप इस मुद्दे पर भी मुझसे असहमत हैं? "
उनका जवाब होता है " नहीं तो, बिल्कुल नहीं"
"यानि सहमत हैं? "
"नहीं नहीं" ......
ऊफ ऐसे मित्र !
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कुछ लोगों के लिए मित्रता की समझ और परिधि बस इतनी सी है कि आप उनके लिखे को पसंद करते जाईये और वाहवाही में लगे रहिये और जिस दिन भी आप ऐसा करना बंद कर देगें वह दोस्ती का आख़िरी दिन होगा ..
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हिन्दी ब्लागरी और फेसबुक अपडेटिंग में अध्ययन का अभाव और वर्तनीदोष प्रायः दिखता है -कभी किसी ने कहा था कि एक मौलिक वाक्य लिखने के लिए कम से कम एक पेज और एक पेज लिखने के लिए कम से कम सौ पेज के अध्ययन से गुजरना आवश्यक अर्हता होनी चाहिए !
आज एक कवयित्री का पुनर्पाठ को पुर्नपाठ लिखना बर्र के डंक सा बेध गया है मगर मित्रगण हैं कि कविता की वाहवाही में प्राणप्रण से लगे हुए हैं -मित्रों आप यह क्या कर रहे हैं - उस कवयित्री के लिए यह आपका हर्षगीत है या शोक गीत ?
आप की सूचनाऎं गंभीर हैं.......इन सभी पर आवश्यक जाँच और रपट के लिऎ कट्टा कानपुरी की अध्यक्षता में जाँच आयोग गठित किया जाता है, इस निर्देश के साथ कि वे २४ घण्टे में अपनी रपट प्रस्तुत करें, सार्वजनिक रूप से।
जवाब देंहटाएंखोज और खबर मिल गयी फेसबुक की, हम तो घूम कर ही प्रसन्न हो लेते हैं, रुकते नहीं वहाँ पर।
जवाब देंहटाएंविचारणीय-
जवाब देंहटाएंसुन्दर तथ्य -
आभार गुरुदेव-
हम भी फ़ेसबुक से ज्यादा फ़ेसित नही रहते, इसलिये हमारे लिये तो आपके ये उदगार सर्वथा नूतन ही हैं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
मैंने कई फेसबुक मित्रों को मार्क कर लिया है जो मेरे स्टेटस को बस लाइक कर चल देते हैं, भले ही उनमें अर्जेंसी या कोई इमरजेंसी ही क्यों न हो या वे कितने सारवान ही क्यों न हों मगर वही मित्र महिला मुखों के स्टेटस पर आनन्द और मुक्त भाव से टिप्पणियाँ करते हैं लाईक भी करते हैं!
जवाब देंहटाएंहमने जब भी आपकी पोस्ट देखी हैं वहां बराबर टिपियाये हैं, इसलिये हमें इस श्रेणी में डाला हो तो अनमार्क करने की कृपा करे.:)
रामराम.
हमें भी...
हटाएं:)
फेसबुक पर लाइक करनें का हम तो एक ही मतलब निकालते हैं कि जिसनें लाइक किया है उसनें उस बात को पढ़ा है और ये नहीं सोचते हैं की उसनें पसंद भी किया है !!
हटाएंगंभीर लेखन उतना आसान होता तो फेसबुक पर यूँ बाढ़ ना आती. पृष्ठभूमि, कथ्य, विवेचना, सार.. इतनी सारी चीजें से गर्भित बातें फेसबुक पर ना मिलती हैं न बिकती हैं. फेसबुक का भी वही हाल है जो बहुत पहले हरिमोहन झा ने 'आधुनिक' कविताओं पर व्यंग्य करते हुए लिखा था-
जवाब देंहटाएंतुमने टी
मुझे दी
मैंने पी
ही ही ही
:)
वाह, क्या खूब कविता है!
हटाएंये जो स्टेटस है,
जवाब देंहटाएंकैसे सुविचार
कमेन्ट आये, या ना आये
बस सटाते रहो यार
आपका तो ये है तूफानी
कमेन्ट पाये धुँआधार
रूठे कोई जैसे ही वैसे ही फिरसे माने
कट्टा चले छूरी चले या कोई कटारी ताने
चलती ही जाये धारा में पतवार
ये जो स्टेटस है...
मानस प्रिया, स्फुलिगों , वैतरिणी , इदं न मम, सारवान ---
जवाब देंहटाएंआप जब तक इनका मतलब नहीं बताइयेगा , तब तक फेसबुक तो क्या हम ब्लॉग पर भी टिप्पणी नहीं कर पाएंगे ! :)
वैसे दिल्ली विश्वविधालय में अभी भी हिंदी के कोर्स की बहुत सीटें खाली हैं। नहीं बताएँगे तो हमें इस उम्र में दाखिला लेना पड़ेगा।
मानस प्रिया=शुकुल महराज बताएगें
हटाएंस्फुलिगों=कौंध
वैतरिणी=एक शापित नदी जिसमें नहाने से पुण्य नाश हो जाते हैं !
इदं न मम=मेरा नहीं यह
सारवान=Substancial
अब तो आप कमेन्ट करिए
:) sahi manthan
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (10-07-2013) के .. !! निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....!१३०२ ,बुधवारीय चर्चा मंच अंक-१३०२ पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
आप का ताज़ा दावा त्याग बड़ा ही रोचक लगा.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट में आप की शिकायतें अधिक नज़र आ रही हैं.फेसबुक पर अभिव्यक्ति की बेलगाम स्वतंत्रता है .
हरिमोहन झा जी की लिखी ये रचना फेस्बूकिया कविताओं के संदर्भ में बड़ी सटीक लगी....
तुमने टी
मुझे दी
मैंने पी
ही ही ही
.........
वैसे आज ही वहाँ एक किन्हीं कवयित्री जी की लिखी कविता भी कुछ ऐसी थी-उनका नाम नहीं मालूम ,मुझे किसी ने भेजी है... वहाँ ३० से अधिक लाईक और ७-८ टिप्पणियाँ भी पहुँच चुकी हैं [ऐसा सुना है]अब मुझे इतनी भारी दार्शनिक कविताएँ समझ नहीं आती--पढ़िये-
....
आज सुबह में
चाय नहीं
कुछ ठीक बनी थी,
दूध ज़रा ज्यादा था
या
कि चीनी खूब पड़ी थी
या फिर शायद
उलझन कोई
मन में हुई
खड़ी थी,
आज सुबह में
चाय नहीं
कुछ ठीक बनी थी.
चाय की पत्ती
कम थी
या
कि रंग नहीं आया था
------------
इन कवयित्री से क्षमा याचना सहित इसे पोस्ट किया है..जिनकी है वे कहेंगी तो हटा ली जायेगी.
हटाएंवे तो मेरी प्रिय (कवयित्री ) हैं ! ये मैं क्या सुन रहा हूँ :-) अच्छी भली कविता तो है :-)
हटाएंवैसे भी कविता से मेरा क्या लेना देना .. :-)
पहले कवियों को थोडा डर हुआ करता था कि लोग कहीं सड़े टमाटर न फेंके!
हटाएंलेकिन अब तो टमाटर इतने महंगे हो गए हैं कि लोग निडर हो कर [बेतुकी] कविताएँ लिखे जा रहे हैं!
हद है...गयी मेरी टिप्पणियाँ स्पैम बॉक्स में!
जवाब देंहटाएं"दावा त्याग" में आपने जो कहा है वह आपके बिना बताये ही समझ आता है ...... इस तरह बहुत जबरदस्त जबरदस्त काम करते हैं आप .....
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन फिर भी दिल है हिंदुस्तानी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंरोचक बातें ..... सही और सटीक अवलोकन
जवाब देंहटाएंvichar karne yogya.. sateek!!
जवाब देंहटाएंसटीक लेख ..विचारणीय
जवाब देंहटाएंsarthak lekh
जवाब देंहटाएंयह भी दर्शन-शास्त्र की एक नई विधा कही जा सकती है !
जवाब देंहटाएंकुछ पढ़े बिना रह गए थे , पढ़ लिये !
जवाब देंहटाएंरोचक !
ye sirf deevanapan hai....!!
जवाब देंहटाएंपहले ये बताइए, कि ये फ़ेसबुक क्या होता है?
जवाब देंहटाएंफिर, आपकी बात -
या आपका स्टेटस -
"उन लेखकों से सीख लेने चाहिए जो वसुधा वसुंधरा के अनंत मसलों पर निर्बाध और समान गति से लिख रहे हैं और फेसबुक पर लिंक चेप रहे हैं -
सोचकर लिखना? अरे किस युग की बात कर रहे हैं ? अब तो लिखकर भी सोचा नहीं जाता ! बहुत आसान है -एक बार ट्राई करके तो देखिये ! यश उसी से मिलेगा !"
एकदम 100 प्रतिशत सही है! तमाम यशधारियों के लिए पूर्णतः लागू.
फ़ेसबुक का कूड़ादान मत बनाइये ब्लॉग को। :)
जवाब देंहटाएंमेरे अपडेट से अनिवार्यतः मेरी सहमति ही हो ऐसा नहीं है- ये गोलमोलवाद है। अब तो विचार देने वाले भी कहेंगे कि मैंन तो ऐसे ही लिखा। उससे अनिवार्यत: मेरी सहमति जरूरी तो नहीं। :)
यानि फेसबुक पर उल्टा/उल्टी करने की छूट जुकरबर्ग ने दे रखी है ?
हटाएंआपका फेसबुक एकाउंट भी इतना ही जीवंत है जितना आपका ब्लाग, जबकि यह तो और भी अच्छा लग रहा है। महिलाओं के बारे में आपके व्यू एकदम सही यद्यपि सब पर लागू नहीं
जवाब देंहटाएंआपका कथन शत प्रतिशत सच किन्तु इसे स्वीकारने के अतिरिक्त कुछ ज्यादा क्या किया जा सकता है
जवाब देंहटाएंह्म्म्म्म!
जवाब देंहटाएंफेसबुक - लाइक, ब्लॉग- बेहतरीन लेख,बहुत सुन्दर प्रस्तुति, सार्थक ,विचारणीय लेख.
जवाब देंहटाएंमेरे अपडेट से अनिवार्यतः मेरी सहमति ही हो ऐसा नहीं है ... ye badi irresponsible baat ho gayi :p
जवाब देंहटाएंजी खोलके पढ़ो -चेहरों की किताब है ये -किसी ने गलत कहा है "किताबों में मिलते हैं चाहत के किस्से हकीकत की दुनिया में मोहब्बत नहीं है "आओ मुख चिठ्ठे पर मोहब्बत ही मोहब्बत मिलेगी .
जवाब देंहटाएंयहाँ किस्से ही नहीं चेहरे भी मिलते हैं एक ठो आप भी उठा लो और पहन लो .ॐ शान्ति
शुक्रिया भाई साहब आपकी उत्साह वर्धक उपस्थिति का .प्रोत्साह्न और निरंतर प्रेरणा और ऐड़ लगाते रहने का
जवाब देंहटाएं