मंगलवार, 11 जून 2013

भारतीय समाज की विवशताएँ!


पहले तो मैंने इस पोस्ट  के लिए भारतीय समाज की विडंबनाएं शीर्षक चुना था .मगर विचारों के प्रवाह में सहसा सूझा कि जिन्हें मैं विडंबनाएं समझ रहा हूँ दरअसल वे हमारी विवशतायें हैं . हम तमाम अंधविश्वासों में मुब्तिला हैं . आज भी किसी को 'छोटी माता' ( चिकन पाक्स ) के निकलने पर मनौती मानी जाती है, कुछ " अंगऊ" (दैवीय सत्ता को समर्पित करने के लिए अग्रिम के रूप में नगदी सोना या कोई भी सम्पदा को सहेजना ) निकालते  हैं और शीतला माई के मंदिर तक भागे जाते हैं . बेटियों को बेटों के बराबर दर्जा नहीं देते .चाहे वह अभिव्यक्ति की हो या शिक्षा की या  निर्णय की स्वतंत्रता ...हम झूठी मान मर्यादा के लिए आनर किलिंग जैसे नृशंस कृत्य तक उतर आते हैं . ऐसे अनेक मौजूदा परिदृश्य हैं जो  आज की इस तार्किक दुनिया में क्या किसी विडम्बना से कम है? मगर हम इस परिदृश्य के मूल कारणों की अगर पड़ताल करें तो भारतीय समाज की विवशताएँ उजागर होती हैं और मन पीड़ा से भर उठता है. 
हमें कई समस्याओं के उदगम को समझने के लिए अपने अतीत में जाना होगा?आखिर गलती  कहाँ हुई और हम कहाँ सांस्कृतिक लिहाज से एक सभ्य समाज नहीं बन पाए . पहले तो वर्ण व्यवस्था जो स्वभावगत कर्म के आधार पर लोगों के कार्य विभाजन को मान्यता देती थी कालांतर में जन्म आधारित जाति को जन्म दे गई
समाज की कथित "ऊंच " और "नींच" जातियों का वजूद स्थापित होता गया . .आज भी यह कितना हास्यास्पद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि कितने ही ब्राह्मण आज भी जनेऊ और चुटिया को ही ब्राह्मणत्व का प्रमाण मानते हैं . आज इस  दुर्भाग्यपूर्ण और अवैज्ञानिक सामाजिक संरचना को अब तो राजनीतिक संबल मिल गया है .एक पार्टी जो ब्राह्मणों को जूते मारने के उद्घोष से सत्ता में आयी थी अब उसी सत्ता को संभालने के लिए ब्राह्मणों का चरण चुम्बन कर रही है . मतलब अब जाति व्यवस्था और भी स्थापित हो गयी . इस जातिगत व्यवस्था को तोड़ पाना आज की एक बड़ी चुनौती और विवशता है . कभी समाजिक मार्गदर्शकों ने इस जातिगत व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए "ऊंच " और "नींच" जातियों के बीच 'रोटी और बेटी " के सम्बन्ध का आह्वान किया गया था . मगर आज यह आह्वान अपना दम ख़म खो चुका हैं। 
अब इससे कौन इन्कार करेगा कि तमाम विकासोन्मुख योजनाओं के बावजूद भारत में भयंकर गरीबी हैं ,अशिक्षा है और स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है . और इसके साथ /बावजूद भी मान मर्यादा और 'इज्जत' के  मूर्खतापूर्ण विचार हैं . लडकी घर की 'इज्जत' है अगर उसके साथ कुछ हुआ तो एक गरीब विपन्नता के बोझ  से जो पहले से ही कराह रहा है 'इज्जत' गवाने का एक अतिरिक्त बोझ भला कैसे उठा सकता है ? लिहाजा वह बेटी/बेटियों की स्वतंत्रता का बचपन से ही गला घोटने लगता है . 
न जाने इस दहेज़ व्यवस्था का  उद्भव कब से हुआ मगर इस आर्थिक संघात ने भी बेटियों की स्थिति को कमजोर बनाया है . एक वह देश जो नारियों का दर्जा देवी देवताओं के बराबर देता था आज नारी को  समाज के निचले पांवदान पर उतार चुका  है। आज 'इज्जत' और दहेज़ का भय एक बड़ी विवशता बन चुका है. हद तो यह है कि किसी दूसरी जाति के साथ प्रेम या विवाह भी जातिगत कथित सम्मान पर भारी पड़ता है .आज भी शादी -व्याह को जातिगत बंधन से मुक्त नहीं किया जा सका है -जबकि विभिन्न जातियों में अंतर्विवाह से वंश की सबलता के प्रामाणिक 'जीनिक ' कारण मौजूद हैं . 
यौन कुंठाओं की तो पूछिए मत .आज बच्चों और युवाओं से बढ़कर प्रौढ़ों को यौन शिक्षा की जरुरत है -यह भी एक भयमूलक कारण है जो लड़कियों को लड़कों सदृश स्वच्छन्दता देने से रोकती है . बड़े -बूढों द्वारा सेक्स के प्रति बनाए गए सामाजिक परिवेश में लड़के और लडकियां दोनों ही यौन -कुंठित हो तमाम यौन अपराधो में संलिप्त हो उठते हैं . मेरा मानना है एक वर्जनाहीन समाज में यौन अपराध कम होंगें! चिकित्सा सुविधाओं /शिक्षा का घोर अभाव और निर्धनता आज भी लोगों को बीमारियों के इलाज के लिए ओझा -सोखा और देवी माता के पास ले जाने को विवश करता है . अब ये सारे परिदृश्य हमारे भारतीय समाज की विडंबनाएं हैं या विवशताएँ इसका निर्णय आप ही करें! लगता है भारतीय समाज का पुनर्निर्माण अब असंभव हो चला है !


27 टिप्‍पणियां:

  1. आपने बहुत ही ज्वलंत विषय पर अपने विचार रखे हैं और आपकी सोच सही है.

    हम अपने ही संस्कार या कुसंस्कार कह लें, उनमें बुरी तरह से जकडे है, जहां तक समाज के पुनर्निर्माण का सवाल है, इस विषय में भी आपका दर्द ठीक है, पर हम निराश क्यों हों? हम अपना कर्तव्य करते चले, हम स्वयं आप द्वारा वर्णित कर्मों में लिप्त ना हों तो यह भी एक छोटा सा कदम ही होगा. हर बडी मंजिल तय करने के पहले सिर्फ़ छोटा सा एक कदम ही बढाया जाता है, हार्दिक शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  2. न जाने इस दहेज़ व्यवस्था का उद्भव कब से हुआ?

    आपने उपरोक्त प्रश्न पूछा है, तो जहां तक हमको याद है सीता जी व श्रीराम के विवाह में भी राजा जनक ने दिल खोल कर देहेज दिया था. इससे पहले का हमको याद नही है.

    रामराम.

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  3. बहुत ही कठिन डगर है. तामिलनाडू में अनुसूचित जातियों में 62 उपजातियां पाई जातीं हैं और उनमें भी उंच नीच है. कई लोग दूसरे जाति के हाथों का पानी तक नहीं पीते.

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  4. वर्जनाहीन समाज में यौन अपराध कम होते हैं -

    क्या वाकई?

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  5. हर समाज की अपनी-अपनी समस्यायें हैं। अपने यहां रेंज कुछ ज्यादा है।

    समस्याओं से निपटना है, इनको पटकना है।

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  6. धीरे-धीरे इन कुप्रथाओं, कुरीतियों में कमी आ रही है ये अच्छी बात है. उम्मीद है अगले कुछ दशकों में दहेज़ का अंत हो जाएगा. अच्छी बात है कि स्त्रियाँ शिक्षित और आत्मनिर्भर हो रही हैं और उससे बहुत फर्क होने वाला है आने वाले दिनों में. बांकी समस्याओं की जड़ें बहुत गहरी है. उनको जाने में वक़्त तो लगेगा. अपनी आज़ादी भी तो उतनी पुरानी नहीं. लेकिन कम होते-होते खत्म भी होंगे ये.

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  7. .
    .
    .
    न ये विडंबनायें हैं और न ही विवशतायें ही...

    १- 'दहेज' के जिन्दा रहने के पीछे तो सिर्फ और सिर्फ वर और वर के परिवार का बिना कुछ खास किये धरे मोटा माल पाने का लालच है, और वे लोग बहाना बनाते हैं समाज की रीत व परंपरा निभाने का... वरना हर वर्ग, धर्म, क्षेत्रीयता और जाति में आपको ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने दहेजरहित विवाह किये-कराये, और मैंने कभी नहीं सुना कि दहेज न लेने के खातिर इनको जात-समाज से बाहर किया गया हो... वैसे सर जी, आपके स्नेह का लाभ उठाते हुऐ आपकी निजता का उल्लंघन करने का दुस्साहस करते हुऐ भी आपसे यह वादा अभी और यहीं चाहूंगा कि आप अपने पुत्र के विवाह में किसी से भी किसी प्रकार का दहेज नहीं लेंगे... हम सबको आज ही से शुरूआत करनी होगी... और देखियेगा दहेज प्रथा कैसे खत्म हो जाती है...

    २- रही बात अंधविश्वासों की, तो हम सदियों से पोंगापंथ समाज रहे हैं... नजर लगना, जादू टोना, दैवीय-दानवीय प्रकोप, ग्रह-चाल, पत्थर शरीर पर पहनने के लाभ आदि आदि बेसिरपैर की बातों को मानते रहे हैं... अपने अपने हित साधने के लिये धर्म-अध्यात्म-संस्कृति के नाम पर इस पोंगापंथी को और बढ़ाया जा रहा है... आप सुबह सात बजे देखो तो सारे हिन्दी न्यूज चैनल राशिफल-टैरो-वास्तु आदि की बकवास दिखाते हैं... कई पढ़े लिखे भी इस दुष्चक्र को न समझ इस में फंस जाते हैं... मैंने बड़े काबिल डॉक्टरों के यहाँ इलाज कराते लोगों को साथ ही साथ तान्त्रिकों से भी बीमारी मिटवाने का प्रयास करते देखा है... विज्ञान और वैज्ञानिक दॄष्टिकोण का प्रचार प्रसार इस पोंगापंथी से निपटने के लिये अहम है... विज्ञान संचारकों को इन सब चीजों से टकराना होगा, खुल्लम खुल्ला लड़ाई लड़नी होगी, 'तेरी भी जय-मेरी भी जय' कहने से काम नहीं चलने वाला... पर हमारे विज्ञान संचारक टकराव से बचते हैं और पोगापंथी पुष्ट होती जाती है... ;)

    ३- रही बात जाति की, तो यह एक तथ्य है कि जाति व्यवस्था वहीं ज्यादा हावी है जहाँ लोग जाति आधारित ghettos में रह रहे हैं... यह ghettos तोड़ने होंगे, हर किसी की बेहतर जीवनशैली जीने की इच्छा का लाभ उठा... तेज, नियोजित व नियम पूर्वक किया गया शहरीकरण, जहाँ नीति के तौर पर आबादी को मिक्स करने के प्रयास किये गये हों... उदारीकृत शिक्षा, और लड़के-लड़की दोनों के लिये घर से पढ़ने-रोजगार के लिये बाहर निकलने के मौके जाति व्यवस्था को ध्वस्त कर देंगे... उदाहरण के लिये बंगलौर के आईटी सेक्टर में काम करती नयी पीढ़ी की एक ही जाति है, कंपनियों में उनका स्तर और सालाना पे-पैकेज...


    आभार आपका...


    ...

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    1. वादा प्रवीण जी! मैं लूँगा नहीं (अब आप सरीखे मित्रों और ब्लॉग लेखन के कारण इतना त्याग तो बनता है ;-)
      मगर देने से नहीं बचूंगा! :-(

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    2. आप अपने पुत्र के विवाह में किसी से भी किसी प्रकार का दहेज नहीं लेंगे
      tab log kahengae baetae me khot haen
      jaraa kisi ladki waale sae keh kar daekhiyae "hamae dahej nahin chahiyae " shadi honi hi mushkil ho jayegi bichare bachchae ki


      problem kaa solution haen jinka vivaah honaa haen unko apna nirnay laenae kae liyae mukt kar dae
      betaa yaa beti 25 saal ke baad naukri karnae kae baad apnae aap apni pasand sae vivaah karae aur maataa pitaa kaa role kewal atithi kae rup me aashirwaad daenae kaa ho

      jis din samaaj apni santaan ko ungli par nachaanaa band kar daegaa aur yae sochna band kar daegaa yae reeti riwaj haen badlaav tab hi ayegaa

      aap kaa yae niranay galat hogaa agr aap apne putr kae vivaah me dahej lae yaa naa lae iskaa nirnay karaegae
      uskae jeevan kae nirnay usko karnae diyae jayae

      aur wahii baat putri par bhi laagu ho


      प्रौढ़ों को यौन शिक्षा की जरुरत है yae baat ek dam sahii haen

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    3. बेहतर शिक्षा दीक्षा और खुला पारिवारिक परिवेश बच्चों में स्वावलंबन और स्वतंत्र निर्णय का संस्कार डालता ही है ...मेरे
      बच्चे किसी भी प्रतिबन्ध से मुक्त हैं - अगर वे अपना निर्णय खुद लेते हैं तो मुझे आपत्ति नहीं होगी !मैं जीवन में दुहरे मानदंड नहीं अपनाता !

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    4. @मगर देने से नहीं बचूंगा! :-(

      ऐसा क्यूँ सोचना है?? निश्चय ही आपकी पुत्री उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही होगी. और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की राह पर भी होगी.फिर क्यूँ उसकी शादी में दहेज़ देना है ? उच्च पदस्थ लड़के भी बिना दहेज़ लिए शादी करते हैं. लव मैरिज में तो खैर करते ही हैं पर अरेंज्ड मैरिज में भी ऐसे लड़के मिल जाते हैं लेकिन इसके लिए जाति की दीवार तोड़नी होती है.और महानगरों में आजकल हर जाति-प्रदेश के लोगों का रहन-सहन एक सा ही होता है. इसलिए एडजस्ट करने में परेशानी नहीं होती.

      मेरी एक सहेली है ,पति-पत्नी दोनों बिहार के एक गाँव से हैं. रहन-सहन बिलकुल परम्परावादी. दो बेटियाँ हैं दोनों को उंची शिक्षा दिलाई. बड़ी बेटी MBA करने के बाद एक अच्छी कम्पनी में ऊँचे पद पर है.दो साल तक उन्होंने अपनी जाति में बिना दहेज़ की शादी करनेवाला अच्छा लड़का ढूंढा ,नहीं मिला.फिर जाति की दीवार हटा दी और छः महीने में ही दूसरी जाति का एक बहुत ही अच्छा लड़का मिल गया और बिना एक पैसा दहेज़ दिए शादी संपन्न हो गयी.
      हमारे ब्लॉग जगत में भी एक मशहूर महिला ब्लॉगर हैं जिन्होंने अपनी बेटी को उंची शिक्षा दिला कर आत्मनिर्भर बनाया और बिना दहेज़ के दूसरी जाति के लड़के से अरेंज्ड मैरेज करवाई है. दो साल हो गए उस लड़की की शादी के .दोनों बहुत सुखी हैं.

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    5. रचना जी,आपने कहा ,
      "आप अपने पुत्र के विवाह में किसी से भी किसी प्रकार का दहेज नहीं लेंगे
      tab log kahengae baetae me khot haen
      jaraa kisi ladki waale sae keh kar daekhiyae "hamae dahej nahin chahiyae " shadi honi hi mushkil ho jayegi bichare bachchae ki ."
      यह लोगों का भ्रम है. मेरे भाई की शादी को सत्रह साल हो गए. पिताजी ने एक पैसा दहेज़ में नहीं लिया था . उसकी शादी में कोई मुश्किल नहीं हुई. मेरी भाभी भी इंजिनियर है . अपने माता-पिता की इकलौती संतान है. उसके माता- पिता अपनी बेटी को बहुत कुछ देना चाहते थे .पर न मेरे पिता न मेरे भाई ,दोनों ही तैयार नहीं थे कुछ लेने को. शादी के पहले साल उनके घर में टी.वी. ..फ्रिज कुछ नहीं था .आज आलीशान बँगला है. तीन गाड़ियां हैं..दोनों ने अपनी मेहनत से जुटाए हैं.

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    6. रश्मि जी
      आपकी बात सही लगती है ...मुझे विश्वास है कुछ ऐसा ही होगा >
      मनोबल बढाने के लिए आभार ! रचना जी हमेशा डराने वाली बात ही
      करती हैं :-(

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  8. samaj ki yah kuch gahari vindmbanaayen hai ...par upaay kai baar dur dur tak najar nahi aate hain acchi lagi yah post

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  9. सच है ..बहुत ही कठिन राह है.
    इनमें से कुछ से तो हम अपने व्यक्तिगत लेवल पर बच जाते हैं. पर कुछ का पालन करना ही पड़ता है :(.विवशताएँ हैं .

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  10. समाज पे हमेशा ही बाह्य शक्तियों के प्रभाव पढते रहते हैं और परिवर्तन की सूक्ष्म गति चलती रहती है ... शायद तभी हम सनातन धर्म में भी विश्वास करते हैं ... पर कोई न कोई समय ऐसा जरूर आया होगा जब मार्गदर्शक कर्तव्य-च्युत हो गए होंगे और (जैसा की आज भी है) ये कुपरिवर्तन हमारा अंग बन गया होगा ... बदलाव तो आएगा क्योंकि परिवर्तन सतत क्रिया है ...कब आएह ये समय बताएगा ...

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  11. दहेज़ एक कलंक है ...
    सिर्फ इसके कारण मानव मन में पड़ी गुत्थियों का निकालना असंभव हो जाता है !
    शुभकामनायें !

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  12. विवश हैं, अवश नहीं, जीवन चलता रहेगा, नयी पीड़ी अपना मार्ग निकाल ही लेगी।

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  13. आप पहाड़ों को ख़तम करके नदी नाले ढूंढ़ने निकले हैं विषमता प्रकृति का मूल है इसके बिना जीवन कहाँ और उसका महत्व शून्य

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  14. विवशताएँ नहीं , अज्ञानता , अशिक्षा , धर्म भीरुता और मूर्खता है।
    इसलिए हम आज भी पिछड़े हुए हैं।
    जाति को बढ़ावा किसने दिया , यह तो सभी अच्छी तरह जानते हैं।

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  15. ये किससे छुपा है जरुरत आमूल परिवर्तन की है

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  16. इसमें कोई दो राय नही कि राह बड़ी कठिन है। किन्तु बस कठिन है। नामुमकिन नही है।

    @मैं बेटे के विवाह में दहेज नही लूँगा । स्वागत योग्य निर्णय :)

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  17. @वादा प्रवीण जी! मैं लूँगा नहीं (अब आप सरीखे मित्रों और ब्लॉग लेखन के कारण इतना त्याग तो बनता है ;-) .............मुझे नहीं लगता कि कौस्तुभ के इतने बुरे दिन आयेगें कि उन्हें इस तरह वाला "बियाह" करना पड़ेगा ! :)

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  18. मैं तो अपने निर्णय पर अडिग रहा, बेटे की दहेज रहित शादी 2014 में की। प्रवीण जी नोट करिये।

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