नहीं ,सुबहे बनारस तो नहीं ,वह तो एक रोजमर्रा सी सामान्य सी शाम थी जब सात समुद्र पार से प्रोफ़ेसर डॉ शिवेंद्र दत्त शुक्ल , मेरे बड़े श्याले (शब्द संदर्भ /सौजन्य :श्री प्रवीण पाण्डेय जी ) के फोन ने उसे घटनापूर्ण बना दिया .उन्होंने सूचना दी कि उनकी एक पारिवारिक अमेरिकन मित्र एक विशेष मिशन पर भारत आ रही हैं और अपनी वापसी यात्रा में वे १ नवम्बर से ४ नवम्बर ,१० तक वाराणसी दर्शन भी करेगीं .और हमें उन्हें अटेंड करना है .अब हमारे एक दशक के वाराणसी प्रवास ने हमें ऐसी स्थितियों के लिए काफी कुशल बना दिया है और इस जिम्मेदारी को हम बड़े संयम और समर्पण से पूरा कर लेते हैं ..क्योंकि हम यह मान बैठे हैं कि किसी को काशी दर्शन कराने के पुण्य का एक हिस्सा हमें भी स्वतः मिल जाता है .और इस तरह हमारे पुण्य की थैली (अगर ऐसी कोई संरचना होती हो )निरंतर भरती जा रही है ....यह मैं व्यंग में नहीं सच कह रहा हूँ !
पूरब और पश्चिम के बीच सेतु बनी रेशम की (डोर) साड़ी :)
मुझे जो आरंभिक जानकारी मिली उसी से ही लग गया था कि हेंडा सल्मेरान एक जीवट की महिला हैं .वे एक ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर हैं और अभी उनके आपरेशन के ज्यादा वक्त भी नहीं बीते कि वे हिमालय की १०० माईल दौड़ प्रतिस्पर्धा में भाग लेने भारत आ धमकी ..उनकी पूरी यात्रा दास्तान उनके ब्लॉग पर है.हिमालय स्पर्धा के बाद वे तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक़ पहली नवम्बर को ही वाराणसी आ गयीं .मैं और बेटे कौस्तुभ उन्हें लेने के लिए एयरपोर्ट गए ...उन्होंने अमेरिकन लहजे और हमने पारम्परिक भारतीय हाव भाव सद्भाव से उनका स्वागत किया ...कहने को तो वे अपने च्वायस के एक होटल में रुकीं मगर बस रात में वहां सोने के लिए ही ,बाकी तो उनके बनारस अवस्थान के चार दिन हमारे साथ ही पूरी तरह से बीते ...सुबहे बनारस से लेकर दोपहर -शाम तक हमारे साथ यहाँ की गलियों में घूमने ,शापिंग आदि में वे मगन रहीं .बनारसी साड़ी और भारतीय मसालों की तो पूरी दीवानी .. बनारसी साड़ी के प्रति उनकी जोरदार रुझान को देखते हुए उन्हें प्रियेषा और संध्या ने साड़ी पहनने की दीक्षा दी और ट्रेनिंग की साड़ी भी उन्हें उपहार में दे दी जिसे वे २४ घंटे पहने ही रह गयीं इस डर से कि अगर उतार दी तो फिर कैसे पहनेगी ..वे उसी में लिपटी सो गयीं और अल्लसुबह गंगा के किनारे उसे लपेटे ही सूर्योदय देखने हमारे साथ चल पडीं ...भारतीय खानों में उन्हें पनीर के प्रेपरेशन काफी पसंद आये जिसे वे चीज की एक किस्म समझती रहीं ..उन्हें परवल की कलौंजी भी पसंद आई ....रोटी का बनना भी वे विस्मय से देखतीं थीं ....
मिलन सदाबहार पूरब और रूपांतरित पश्चिम का
मैंने एक बात गौर की ..संध्या और वे जल्दी ही बहुत घुल मिल गयीं जबकि भाषा का एक बड़ा अवरोध उनके बीच था ...दोनों एक दूसरे की भाषा में कुशल न होने के बावजूद भी लगा कि पुरानी मित्र हैं ..नारियों में जरूर संवेदना /संपर्क के ऐसे तंतु होते होंगें जो उन्हें भाषा का मुहताज नहीं बनने देते ..यह मैंने साक्षात देखा ...कुछ चित्र जो मैंने उनके ब्लॉग से ही उठायें हैं पूर्व पश्चिम के इस यादगार मिलन की कथा खुद कह रहे हैं ......बनारस यात्रा के उनके संस्मरण यहाँ है ,जिसे वे किश्तों में लिख रही हैं ! पहली किश्त को उन्होंने बनारस के जाम (ट्रैफिक जाम ) और दूसरी को रेशम की साड़ी पर फोकस किया है .आगे का इंतज़ार है!
वे उत्साह और ऊर्जा से लबरेज महिला हैं और उन जैसी सौम्यता और सहज व्यवहार मैंने बहुत कम महिलाओं में पाया है ... बुद्धि चातुर्य में भी उनकी कोई सानी नहीं ....भारतीयता के प्रति उनका समर्पण अचम्भित करने वाला था ..यहाँ अपने हाथों में मेहंदी लगवाकर वे बहुत प्रफुल्लित हो उठी थीं ....और मुझे दिखाने दोनों हाथ उठाये सरे बाजार तेजी से लपकती हुई मेरे पास आयीं तो अपने देशज भाई बन्धु भौचक से कभी उन्हें तो कभी हमें देख रहे थे.......हमने पूरे परिवार के साथ उन्हें रेड कारपेट वेलकम की ही तरह वेट आईज विदाई भी दी ....
वे उत्साह और ऊर्जा से लबरेज महिला हैं और उन जैसी सौम्यता और सहज व्यवहार मैंने बहुत कम महिलाओं में पाया है ... बुद्धि चातुर्य में भी उनकी कोई सानी नहीं ....भारतीयता के प्रति उनका समर्पण अचम्भित करने वाला था ..यहाँ अपने हाथों में मेहंदी लगवाकर वे बहुत प्रफुल्लित हो उठी थीं ....और मुझे दिखाने दोनों हाथ उठाये सरे बाजार तेजी से लपकती हुई मेरे पास आयीं तो अपने देशज भाई बन्धु भौचक से कभी उन्हें तो कभी हमें देख रहे थे.......हमने पूरे परिवार के साथ उन्हें रेड कारपेट वेलकम की ही तरह वेट आईज विदाई भी दी ....
प्रातः दशाश्वमेध घाट, बनारस ,३ नवम्बर ,१०
हेंडा सल्मेरान अब हमारे लिए बनारस की सुखद यादों का एक हिस्सा बन गयी हैं ...