शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

पूरब और पश्चिम के मिलन की एक यादगार घटना (..एक पारिवारिक पोस्ट )


 सुबहे बनारस 
नहीं ,सुबहे बनारस तो नहीं ,वह  तो एक रोजमर्रा सी सामान्य सी शाम थी  जब  सात समुद्र पार से प्रोफ़ेसर डॉ शिवेंद्र दत्त शुक्ल , मेरे बड़े श्याले (शब्द संदर्भ /सौजन्य :श्री प्रवीण पाण्डेय जी ) के फोन ने उसे घटनापूर्ण  बना दिया .उन्होंने सूचना दी कि उनकी एक पारिवारिक अमेरिकन मित्र एक विशेष मिशन पर भारत आ रही हैं और अपनी वापसी यात्रा में वे १ नवम्बर  से ४ नवम्बर ,१० तक वाराणसी दर्शन भी करेगीं .और हमें उन्हें अटेंड करना है .अब हमारे एक दशक के वाराणसी प्रवास ने हमें ऐसी स्थितियों के लिए काफी कुशल बना दिया है और इस जिम्मेदारी को हम बड़े संयम और समर्पण से पूरा कर लेते हैं ..क्योंकि हम यह मान   बैठे हैं  कि किसी को काशी दर्शन कराने के पुण्य का एक हिस्सा हमें भी स्वतः मिल जाता है .और इस तरह हमारे पुण्य की थैली (अगर ऐसी कोई संरचना होती हो )निरंतर भरती जा रही है ....यह मैं व्यंग में नहीं सच कह रहा हूँ !
 पूरब और पश्चिम के बीच सेतु बनी रेशम की (डोर) साड़ी :) 

मुझे जो आरंभिक जानकारी मिली उसी से ही लग गया था कि हेंडा  सल्मेरान एक जीवट की महिला हैं .वे एक ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर हैं और अभी उनके आपरेशन के ज्यादा वक्त भी नहीं बीते कि वे हिमालय की १०० माईल दौड़ प्रतिस्पर्धा में भाग लेने भारत आ धमकी ..उनकी पूरी यात्रा दास्तान उनके ब्लॉग पर है.हिमालय स्पर्धा के बाद वे तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक़ पहली नवम्बर को ही वाराणसी आ गयीं  .मैं और बेटे कौस्तुभ उन्हें लेने के लिए एयरपोर्ट गए ...उन्होंने अमेरिकन लहजे और हमने पारम्परिक भारतीय हाव भाव सद्भाव से उनका स्वागत किया ...कहने को तो वे अपने च्वायस के एक होटल में  रुकीं मगर बस रात में वहां सोने के लिए ही ,बाकी तो उनके बनारस अवस्थान के चार दिन हमारे साथ ही पूरी तरह  से बीते ...सुबहे बनारस से लेकर दोपहर -शाम तक हमारे साथ यहाँ  की गलियों में घूमने ,शापिंग आदि में वे मगन रहीं .बनारसी साड़ी और भारतीय मसालों की तो पूरी दीवानी .. बनारसी साड़ी के प्रति उनकी जोरदार रुझान को देखते हुए उन्हें प्रियेषा और संध्या ने साड़ी पहनने की दीक्षा दी और ट्रेनिंग  की  साड़ी भी उन्हें उपहार में दे दी जिसे वे २४ घंटे पहने ही रह गयीं इस डर से कि अगर उतार दी तो फिर कैसे पहनेगी ..वे उसी में लिपटी सो गयीं और अल्लसुबह गंगा के किनारे उसे लपेटे  ही सूर्योदय देखने हमारे साथ चल पडीं ...भारतीय खानों में उन्हें पनीर के प्रेपरेशन काफी पसंद आये  जिसे वे चीज की एक किस्म समझती रहीं ..उन्हें परवल की कलौंजी भी पसंद आई ....रोटी का बनना भी वे विस्मय से देखतीं थीं ....
 मिलन सदाबहार पूरब  और रूपांतरित पश्चिम का 

मैंने एक बात गौर की ..संध्या और वे जल्दी ही बहुत घुल मिल गयीं जबकि भाषा का एक बड़ा अवरोध उनके बीच था ...दोनों एक दूसरे की भाषा में कुशल न होने के बावजूद भी लगा कि पुरानी मित्र हैं ..नारियों में जरूर संवेदना /संपर्क के ऐसे  तंतु होते होंगें  जो उन्हें भाषा का मुहताज नहीं बनने  देते ..यह मैंने साक्षात देखा ...कुछ चित्र जो मैंने उनके ब्लॉग   से ही उठायें हैं  पूर्व पश्चिम के इस यादगार मिलन की कथा खुद कह रहे हैं ......बनारस यात्रा के उनके संस्मरण  यहाँ है ,जिसे वे किश्तों में लिख रही हैं ! पहली किश्त को  उन्होंने बनारस के जाम (ट्रैफिक जाम ) और दूसरी को रेशम की साड़ी पर फोकस किया है .आगे का इंतज़ार है!


वे  उत्साह और ऊर्जा से लबरेज महिला हैं और उन जैसी सौम्यता और सहज व्यवहार मैंने बहुत कम महिलाओं में पाया है ...  बुद्धि चातुर्य में भी  उनकी कोई सानी नहीं ....भारतीयता के प्रति उनका समर्पण अचम्भित करने वाला था ..यहाँ अपने हाथों में मेहंदी लगवाकर वे बहुत प्रफुल्लित हो उठी थीं ....और मुझे दिखाने दोनों हाथ उठाये सरे बाजार तेजी से लपकती हुई मेरे पास आयीं तो अपने देशज भाई बन्धु भौचक से कभी उन्हें तो कभी हमें देख रहे थे.......हमने पूरे परिवार के साथ उन्हें रेड कारपेट वेलकम की ही तरह वेट आईज विदाई भी दी ....
प्रातः  दशाश्वमेध घाट, बनारस ,३ नवम्बर ,१० 

हेंडा सल्मेरान अब हमारे लिए बनारस की सुखद यादों का एक हिस्सा  बन गयी हैं ...

बुधवार, 17 नवंबर 2010

..और मैं बलि का बकरा बन गया ...... !

धार्मिक रीति रिवाजों के दौरान पशु पक्षियों की बर्बर ,नृशंस हत्या हमें अपने असभ्य और आदिम अतीत की याद दिलाती है .यह मुद्दा मुझे गहरे संवेदित करता रहा है .वैदिक काल में अश्वमेध यज्ञ के दौरान पशु बलि दी जाती थी ..आज भी आसाम के कामाख्या मंदिर या बनारस के सन्निकट विन्ध्याचल देवी के मंदिर में भैंसों और बकरों की बलि दी जाती है ..भारत में अन्य कई उत्सवों /त्योहारों में पशु बलि देने की परम्परा आज भी कायम है . नेपाल में हिन्दुओं द्वारा कुछ धार्मिक अवसरों पर पशुओं का सामूहिक कत्लेआम मानवता को शर्मसार कर जाता है .भारत में यद्यपि  हिन्दू त्योहारों पर अब वास्तविक बलि  के स्थान पर प्रतीकात्मक बलि देने का प्रचलन तेजी से बढ रहा है ....यहाँ तक कि अब अंतिम संस्कार से जुड़े एक अनिवार्य से रहे अनुष्ठान -वृषोत्सर्ग को लोग अब भूलते जा रहे हैं जिसमें वृषभ (बैल ) की बलि दी जाती है ...और कहीं अब यह अनुष्ठान दिखता भी है तो किसी बैल को दाग कर(बैंडिंग या मार्किंग )  छोड़ देने तक ही सीमित हो गया है .यह ट्रेंड  बता रहा है कि हम उत्तरोत्तर जीव जंतुओं के प्रति और सहिष्णु ,दयावान होते जा रहे हैं ..और मानवीय होते जा रहे हैं .

मैं अपने सभी मुस्लिम भाईयों और आपको आज बकरीद पर हार्दिक मुबारकबाद दे रहा हूँ मगर मेरी यह अपील है कि जानवरों को इतने बड़े पैमाने पर बलि देने और और बलि के तरीकों में बदलाव लाये जायं  .मुझे अभी एक दायित्व दिया गया था जिसके तहत मैंने उन जगहों का निरीक्षण किया जहाँ बड़े भैंसों और ऊँट की कुर्बानी दी जाती  है ...वहां के बारे में बताया गया कि ऊँट जैसे बड़े जानवर को बर्च्छे आदि धारदार औजारों से लोग तब तक मारते हैं जब तक वह निरंतर आर्तनाद करता हुआ मर नहीं जाता और उसके खून ,शरीर के अंगों को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है -इस बर्बरता के खेल को  एक बहुत छोटी और बंद जगह में देखने  हजारों की संख्या में लोग आ जुटते हैं .प्रशासन की ओर से मजिस्ट्रेट और भारी पुलिस बंदोबस्त भी होता है ताकि अनियंत्रित भीड़ के कारण कोई हादसा न हो जाय .मुझे यह दृश्य कबीलाई जीवन के आदिम बर्बर मानवों की याद दिला देता है .मैं  उस जगह  बंधे भैंसों और एक बड़े ऊँट को देखकर डिप्रेस हो गया ....और जो बात मेरे मन में कौंधी वह यही थी कि क्या बलि के बकरों की कमी हो गयी थी जो मुझे भी वहां भेज कर बलि का बकरा बना दिया गया ...  उस दृश्य -संघात से मैं उबरने की कोशिश कर रहा हूँ .


आज जब वैज्ञानिक परीक्षणों में भी जीव हत्याओं पर पाबंदी और उनके जीवंत माडलों (सिमुलैटेड  माडल्स )  के विकल्प इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं हमें धार्मिक रीति रिवाजों में भी पशु बलि को निरंतर हतोत्साहित करके अपने और भी सभ्य हो चुकने के प्रमाण देते रहने से चूकना नहीं चाहिए .माना कि मनुष्य की पाशविक विरासत है और यहाँ भी कभी जीवः जीवष्य भक्षणं की जंगल नीति थी मगर आज के मानव ने नैतिकता ,बुद्धि ,विवेक का जो स्तर छू लिया है उसके सामने ऐसे विवेकहीन और मानवता पर प्रश्न चिह्न लगाने वाले कृत्य शोभा नहीं देते .और अगर ये अनुष्ठान अपरिहार्य ही हो गए हैं तो हमें पशु बलि के प्रतीकात्मक तरीकों को आजमाने चाहिए .जैसा कि वैज्ञानिक प्रयोगशालों में अब प्रयोग के नाम पर एनीमल सैक्रिफायिस के स्थान पर माडल्स प्रयोग में आ  रहे हैं .

पूरी दुनिया में आदिम खेलों /मनोरंजन के नाम पर कहीं लोमड़ियों तो कहीं शार्कों और डाल्फिनों आदि की नृशंस समूह ह्त्या आज भी बदस्तूर जारी है .प्राणी सक्रियक इनके विरुद्ध गुहार लगा रहे हैं ,पेटा   जैसे संगठन हाय तोबा मचाये हुए हैं मगर उनकी आवाज अनसुनी सी ही है .रीति रिवाज के मामले बहुत संवेदनशील होते हैं मगर समुदाय के जाने माने पढ़े लिखे रहनुमाओं से तो यह अपील की ही जा सकती है कि वे इस दिशा में सोचें और एक बदलाव लाने की कोशिशें करें ...मानव सभ्यता आज जिस ठांव पहुँच रही है वहां पशु बलि का महिमा मंडन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ....

भारी संख्या में पशु बलि से उनके व्यर्थ अंग उपांगों के निस्तारण /साफ़ सफाई की भी एक बड़ी समस्या उठ खडी होती है .बहुत से लोगों को शायद  पता नहीं है कि पशु व्यर्थों के निपटान में नगरों महानगरों के सफाईकर्मियों के हाथ पाँव फूल जाते हैं और उनके लिए यह एक वार्षिक त्रासदी से कम नहीं होता .अगर साफ़ सफाई में चूक हुई तो संक्रामक बीमारियों की आशंका बलवती हो उठती है ...बकरीद से शुरू होकर क्म से कम तीन दिन तक गली कूंचों में पड़े पशुव्यर्थों का निस्तारण  उनके लिए एक बड़ी चुनौती लेकर आता है .बड़े पैमाने पर पशु बलि से जुडी इस हायजिन की समस्या से भी आंखे नहीं फेरी जा सकतीं .

जंगली जानवरों के शिकार को प्रतिबंधित करने के लिए बनाये गए कानूनों को आज जन समर्थन मिलने लगा है .भारत में १९७२ में बनाए गए वन्य जीव प्राणी अधिनियम  जंगलों में अवैध   शिकार को रोकने का एक सकारात्मक कदम रहा है और आज कई पशुओं को पकड़ने ,पालतू बनाने तक पर कड़े दंड का प्रावधान है .सलमान खान जैसे आईकन को इसी क़ानून ने तोबा बुलावा रखा है .आज बन्दूक की जगह तेजी से कैमरा लेता जा रहा  है ..भले ही शब्दावलियाँ और एक्शन समान हों हम आज बंदूकों को नहीं कैमरे को लोड करते हैं ,ट्रिगर दबाते और फायर / शूट करते हैं  ..आजादी के पहले  दूसरा ही परिदृश्य था ..राजा महराजे ,जागीरदार और छोटे मोटे रईस भी जंगलों में शिकार को चल देते थे-हांके  कराये जाते थे और डर कर भागते जानवरों पर निशाना साध कर बहादुरी की डींगे हॉकी जाती थी ..समय बदल गया है -अब ऐसे राजे रजवाड़ों के दिन भारत में तो कम से कम लद गए हैं -उनके साहबजादे कहीं कहीं चोरी छिपे अभी भी शिकार की घात लगाते हैं मगर क़ानून की जद में आ जाते हैं .आज जानवरों के शिकार पर कानून का भय है .मगर सामूहिक बलि के जानवरों को बचाने के लिए बिना एक व्यापक जान जागरण के कानून भी बनाना अभी शायद कारगर नहीं होगा .

वैदिकी हिंसा की प्रतिक्रया  में बौद्ध धर्म आ  संगठित हुआ था ...अहिंसा परमो धर्मः का निनाद फूट पडा था ....आज यज्ञों में आम तौर पर कहीं बलि नहीं दी जाती जबकि घर घर में यग्य अनुष्ठान होते ही रहते हैं -यह बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है .जैन धर्म के अनुयायी मुंह में कपड़ा इसलिए बांधे रहते हैं ताकि मुंह में सूक्ष्म जीव कहीं न जाकर अपनी इह लीला समाप्त कर दें ....मगर दूसरी ओर जानवरों की आज भी सामूहिक बलि मन  को व्यथित कर जाती है ..

क्या इस बर्बरता को रोकने कोई और महामानव -एक नया बुद्ध जन्म लेगा ?






शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

किसिम किसिम की पहेलियाँ!

जी हाँ, किसिम किसिम की पहेलियाँ!कालिदास  काल से लेकर अमीर खुसरो तक पहेलियों ने कई रूप रंग बदले हैं और अब अंतर्जाल युग की पहेलियाँ हमारे सामने हैं .पिछली पोस्ट पर अल्पना जी ने मार्के की  बात कही ,"अंतर्जाल पर हर तरह की पहेलियाँ उपलब्ध हैं..हिंदी ब्लॉग जगत में चित्र पहेली बहुत ही कॉमन हो गयी हैं .***लेकिन विवेक रस्तोगी जी की गणित की पहेलियाँ और रवि रतलामी जी की वर्ग पहेली ,सागर नाहर जी की संगीत पहेली[धुन आधारित ].... अपने आप में अलग हैं ***"
पहेलियाँ जिस भी काल की रही हों उनका उद्येश्य सदैव मानव मेधा को कुरेदना,ज्ञान के स्तर की जांच  ,प्रत्युत्पन मति(हाजिर जवाबी ) की परख  और वाक् चातुर्य के प्रदर्शन के साथ निसंदेह मनोरंजन भी था.

आज की इस  पोस्ट का मकसद पहेलियों की अपनी परम्परा के कुछ दृष्टान्तों को आपसे साझा करने की है.राजा विक्रमादित्य /भोज और कालिदास के काल की इन्गिति  करती कई पहेलियाँ संस्कृत साहित्य में  समस्या  पूर्ति के नाम से जानी जाती हैं .मतलब कोई एक वाक्य/पद्यांश  दे दिया जाता था और तुरत फुरत उसे पूरा करने को कहा जाता था .एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी .एक दिन राजा भोज ने दरबार में आते ही  सुना दिया ....
टटन टटन  टह टट टन टटन्टह 
सभी दरबारी भौचक ....आम तौर पर कालिदास  ही जवाब दे पाते थे . उन्होंने यह समस्या पूर्ति भी कर दी जैसे कि उन्हें कोई दिव्य ज्ञान सा हो ..जो दृश्य वे देखे तक नहीं रहते थे, कहते हैं वह उनके मन  मष्तिष्क में कौंध  जाता था ..उन्होंने जवाब दिया -
राज्याभिषेके जलमानन्त्या 
हस्ताच्युतो हेम घटो युवत्या 
सोपानमार्गे च करोति शब्दं 
टटन टटन  टह टट टन टटन्टह  

मतलब  राजा के अभिषेक के लिए सोने के घड़े में जल लाती युवती के हाथ से घड़े के गिरने से सीढ़ियों पर उसकी शब्द ध्वनि हुई -टटन टटन  टह टट टन टटन्टह! ऐसी समस्यापूर्ति के अनेक उदाहरण है जो किसी पहेली से कम नहीं लगते .ऐसे ही अनेक उदाहरण  हिन्दी में भी  हैं -जैसे कडी कडक गयी कड कड धप .... राजा भोज ने सोचा होगा कि नितांत वैयक्तिक और गोपनीय बात भला कैसे कोई बता पायेगा मगर कालिदास की दृष्टि तो त्रिकाल दर्शी और अन्तर्यामी थी ...जवाब दिया -
भोज प्रेम भर भयो भुजंग 
लिपटे लीलावति के अंग 
जब मद हुआ घोर गड गप्प 
कडी कडक गयी कड कड धप 

अब हिंडोले में प्रेम की  सघनता हिंडोले की कड़ियों को तोड़ दे तो इसमें क्या आश्चर्य  ..राजा भोज अवाक हुए और लज्जालु भी -विवरणों में ऐसा लिखा है .इन मनोरंजक समस्यापूर्ति/पहेलियों में मौलिक योगदान अमीर खुसरो ने किया ..उन्होंने अपनी विद्वताभरी मुकरियों के जरिये पहेलियों के साथ ही उनका उत्तर भी बड़े ही संवेदनापूर्ण और साहित्यिक लहजे में दिया ...दो घनिष्ठ सहेलियों की आपसी बतकही को उन्होंने इन पहेलियों का शिल्प आधार बनाया  -
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
सखि साजन? ना सखि तारा

 नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
सखि साजन? ना सखि जूता
 
 अब इनमें एक सहेली की तो  बस साजन  उन्मुखता प्रबल है मगर दूसरी का बुद्धि चातुर्य देखिये वह साजन -निरपेक्ष रहकर बुद्धि चातुर्य से सखी को चिढ़ा सी भी रही है  .अमीर खुसरो ने कुछ पहेलियाँ ऐसी स्टाईल में पूछी जो आज के बच्चे किशोर-युवा जाने अनजाने इस्तेमाल में लाते हैं -जैसे 
जूता पहना नहीं
समोसा खाया नहीं
उत्तरतला था
 
रोटी जली क्यों? घोडा अडा क्यों? पान सडा क्यों ?
उत्तरफेरा था

और  कई यहाँ है मनोरंजन कर सकते हैं .और एक निन्यानवे पहेली का चक्कर यहाँ भी चला है.आगे भी बीरबल और अकबर की नोक झोक में कई पहेलियों का आनन्द मिलता रहा ...जिन पर शायद फिर  कभी चर्चा करुँ ..मेरा पहेली पोस्ट टाईम खत्म होता है अब .......  

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

पहेलियाँ तो मेरे पिता जी बूझा करते थे और वह भी बिना गूगलिंग किये .....

कल से यहाँ एक पहेली जी का जंजाल बनी हुई है. मुझे लगता है कि वह जमाना जल्दी ही आ जायेगा जब बिना गूगलिंग किये किसी  भी माई के  लाल या लल्ली का पहेली बूझना संभव नहीं रहेगा ...तब के बच्चे शायद  शरद जोशी प्रेरित नए  टी वी सीरियल लापतागंज के एक पात्र की ही तरह जुमले उछालेंगें -पहेलियाँ तो मेरे पिता जी बूझा करते थे और वह भी बिना गूगलिंग किये .....पहेलियों के अंतर्जाल युग ने पहेलियों के चिर प्राचीन शगल को अब नए संस्कार दिए हैं -जहां आपके मौलिक अध्ययन और ज्ञान के बजाय इस बात की स्पर्धा हो रही है कि कौन गूगल या दूसरे किसी भी सर्च इंजिन पर ज्यादा तेजी और कुशलता के साथ पहेली का उत्तर ढूंढ पाता है ..मजे की बात तो यह है कि इस समय हिन्दी ब्लॉग जगत में ऐसे कई ब्लॉग है जहाँ पहेलियों की बहार दिखती है और सदाबहार पहेलीकर्ता और पहेली ज्ञानी केवल और केवल गूगल सर्च इंजिन पर निर्भर हैं -मतलब न तो पहेलीकर्ता अपनी पहेली की अंतर्वस्तु (कंटेंट )से खुद मुतमईन है और न बूझने वाला -मानव बौद्धिकता का यह क्षरण दुखी करता है ...यह हमें ही नहीं हमारी आने वाली पीढी की जुगुप्सा ,सहज जिज्ञासा और प्रतिभा के परीक्षण के लिए निश्चय ही एक शुभ लक्षण नहीं है ..

पहेलियों के मामले में तो होना  यह चाहिए कि पहेली बूझने वाले का खुद का अपना विपुल अध्ययन हो और वह पहेली में रूचि रखने वालों -प्रतिभागियों /प्रतिस्पर्धियों से प्रत्येक से यह घोषणा करवाए कि वे उत्तर अपने अद्यतन ज्ञान के आधार पर खुद देगें अन्यथा पास कर /कह देगें ....वे गूगल या अन्य किसी सर्च इंजिन का सहारा नहीं लेगें ....बौद्धिकता ,अध्ययनशीलता और ज्ञान की श्रेष्टता का तकाजा तो यही है ..या फिर पहेली पूछने  वाले ब्लॉग  अब पहले ही यह घोषणा करें कि वे किस तरह के पहेली बूझने वालों को आमंत्रित कर रहे हैं -मौलिक प्रतिभा वालों को या फिर गूगलिंग कर पहेली का उत्तर बताने वालो को  ...आशय यह कि पहेली पूछना या बूझना दोनों ही हंसी ठट्ठा न बन कर एक गंभीर और उत्तरदायित्वपूर्ण खेल /शौक का रूप ले ...यह व्यक्ति के निजी अध्ययन को बढ़ाने के लिए प्रेरणा दायक बने न कि उसे बात बात पर नक़ल करने को उकसाए -यह तो प्रतिभा का अवमूल्यन   ही हुआ न ! 

सामान्य ज्ञान दरअसल  असमान्य रूप से विपुल ज्ञान की अपेक्षा रखता है .मतलब एक तरह से कहें तो एनी थिंग अंडर द सन .....अब ऐसा न कहें कि ऐसे लोग संसार में है ही नहीं ..मुझे याद है बी बी सी की एक प्रतियोगिता टी वी पर आती थी उसमें ऐसे धुरंधर प्रतिभागी होते थे जो सेकेंड्स में किसी भी प्रश्न का उत्तर लिए हाजिर होते थे -ऐसे लोग दुनियां में आज से नहीं अरसे से हैं जिनके लिए हम चलते फिरते ज्ञानकोष की उपमा देते आये  हैं .जबकि हिन्दी ब्लॉग जगत की पहेलियाँ मनुष्य की इस विलक्षणता का निरंतर अपमान  कर रही हैं ....

ब्लॉग जगत में पहेलियों के आगाज का काम संभवतः ताऊ रामपुरिया  ने किया और फिर कई दीगर ब्लागों ने यह सिलसिला शुरू किया जिसमें तस्लीम भी अग्रणी रहा ..मैंने वहां पहेली परम्परा शुरू की और ज्यादातर पहेलियों की सामग्री  मैं गूगल के बजाय प्रकृति से खुद जुगाड़ता और  पाठकों के सामने प्रस्तुत करता ....केवल यह परखने के लिए कि देखें भला कि हमारा हिन्दी ब्लॉग जगत इनका उत्तर दे भी पाता है या नहीं ..मुझे आश्चर्यमिश्रित आनंद  होता था जब कोई न कोई सही उत्तर दे जाता था जबकि वे चित्र गूगल पर होते भी नहीं थे-उन आरंभिक पहेली बूझने वालों में निश्चय ही अल्पना वर्मा जी और सीमा गुप्ता जी का नाम अग्रणी हैं मगर लगता है अब उनका भी ज्ञान चुक सा गया है और अब वे भी गूगल महराज के ही रहमो करम पर ही हैं  :) लेकिन ऐसा है भी तो मैं उन्हें दोषी नहीं मानता क्योकि उन्हें ऐसा करने के लिए पहेली पूछने वालों में  गूगल की पीढी का तेजी से अवतरित होना है जो अपने चित्र प्रकृति या मौलिक नए स्रोतों से नहीं बल्कि गूगल से ही कट पेस्ट कर प्रस्तुत करते हैं .......

अपने ज़माने के एक हास्य-व्यंगकार जी पी श्रीवास्तव ने एक रोचक लोक चरित्र   लाल बुझक्कड़ को प्रचारित किया जो हर किसी पहेली को बूझने को लालायित रहते थे....उनके गाँव मे लोग औसत स्तर की बुद्धि से भी पैदल हुआ करते थे और इसलिए लाल बुझक्कड़ जी की बड़ी इज्जत ,मान  मर्यादा थी ....कहावत ही है कि निरस्त पादपे देशे एरंडो अपि द्रुमायते  मतलब जहाँ पेड़ न रूख वहां रेड़ ही महापुरुष मतलब अपने लाल बुझक्कड़ जी ....और जानते हैं वे पहेली कैसे हल करते थे-एक ठो  एक्जाम्पल देखिये -
उनके उस अद्भुत या अभिशप्त गाँव में से  एक रात हांथी गुजर गया -सुबह गाँव वालों में जमीन पर हाथी के पैरों के बड़े बड़े निशानों को देखकर खलबली मच गयी -अरे देखो देखो ये कैसे निशान हैं .....उन मूर्खों की समझ में तो आना था नहीं ..थक हार कर लाल बुझक्कड़ बुलाये गए ..वे बिना बुलाये आते नहीं थे  मगर बुलाये जाने के लिए  बेताब  रहते थे....   उन्होंने काफी देर तक जाँच परख की और अपने चेहरे पर एक बड़ी समस्या के हल करने के खुशी के इजहार का प्रोफेसनल भाव लाते हुए उद्घोषित किया -
लाल बुझक्कड़ बूझते और न बूझे कोय 
पैर में चक्की बाँध कर हिरन न कूदा होय 

गाँव वालों ने इस उत्तर का पहले की ही तरह हर्षोल्लास से स्वागत किया .....आज हिन्दी ब्लागजगत की हालत यह है कि यहाँ नित पहेली बुझाने वाले लाल बुझक्कड़ पैदा हो रहे हैं ..जिन्हें खुद ही पता नहीं कि वे पूछ क्या रहे हैं ....विगत दिनों मुझे रात ९ बजकर पचास मिनट पर एक पहुंचे हुए अंतर्जाली पहेली बूझक का मेल आया -दुहाई हो दुहाई हो मिश्रा जी जरा अमुक जगह  जाकर  पॉँच मिनट में यह बताईये प्लीज कि यह जानवर कौन है ? जहाँ  पहेली पूछने वाले ने ही गूगल से गलत चित्र लगा दिया था ....बहरहाल मित्र के लिए आखिर कौन  सी कुर्बानी न दी जाय  ..... एक  मिनट के अन्दर उन्हें मेल पर सही जवाब भेज दिया ..धन्यवाद आज तक प्रतीक्षित है ....गूगल पर इतना भरोसा भी ठीक नहीं है .
जारी है ......

सोमवार, 8 नवंबर 2010

बालक सुरेन्द्र गौड़ से मैं प्रभावित हुआ! इस नन्हे से बच्चे के हुनर की सराहना कीजिये!

अब तक के अपने २७ वर्षों के सुदीर्घ सेवाकाल में मैं दीवाली और होली अपने पैतृक आवास पर ही सपरिवार मनाता  आया हूँ ,इस अवसर पर अधिकारियों को मिलने वाले दस्तूरी गिफ्ट पैकेटों की परवाह किये बिना : ) ....मुझे गाँव में ऐसे अवसरों पर स्वजनों से मेल मिलाप का जो संतोष -धन मिलता है उसके सामने सचमुच ही अन्य प्रकार के सभी धन धूरि समान ही लगते हैं .घर पर गाँव के लोगों से भेट मुलाकात और अपने बचपन के साथियों से भूली बिसरी बातों का जिक्र लगता है जीवन में एक नई उर्जा ही समाविष्ट कर देता है ..बच्चों से तो मेरी खूब पटती है ,लगता है खुद मेरा बचपन ही लौट आया हो ..बच्चे मुझे घेरे रहते हैं और मैं बच्चों को ....मगर इस बार सब कुछ फीका रहा ..पड़ोसी श्रद्धेय बुजुर्ग के देहावसान के कारण शोकाकुल कुनबे ने इस बार दीवाली नहीं मनाई....मतलब आतिशबाजी का दौर भी नहीं हुआ ..दीवाली के दिन बच्चों का मायूस सा चेहरा मुझे कचोटता रहा ...अब उन्हें समझाएं भी तो क्या ..थोड़े बड़े बच्चे तब भी मौत का अर्थ समझ रहे  थे मगर ४-७  वर्ष वाले बार बार पिछली बार की आतिशबाजी छुड़ाने की  जिद पकडे रहे ..बहरहाल .....किसी तरह उन्हें बहलाया फुसलाया गया ...
 मिनिएचर खटिया 

इसी दौरान किसी बच्चे ने बताया कि भैया , सुरेन्द्र बहुत अच्छी खटिया  बनाता है ...और फिर  सकुचाते  शर्माते सुरेन्द्र की पेशी हुई. वे अपने चर्चित उत्पाद के साथ हाजिर हुए ...उन्होंने एक उस  ग्राम्य साज सामग्री का मिनिएचर बनाया है जिसे बनारस अंचल में  चारपाई ,बसहटा,खटिया आदि कहते हैं .(अरे वही खटिया जिसे लेकर एक मशहूर भोजपुरी गाना है न ..सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे )  -भारत की ८० फीसदी ग्राम्य जनता अभी भी इसी खटिया नामक   शैया  पर रातें गुजारती है ..जो लोग गावों से उतने वाकिफ नहीं हैं उन्होंने इसे रोड साईड ढाबों पर देखा होगा जिन पर अक्सर ट्रक ड्राईवर बैठकर खाना खाते हैं ....और मैं सुरेन्द्र की बनायी हुई मिनिएचर खटिया देख , बुनाई की बारीकी देख कर दंग रह गया ....कितनी कलात्मकता से इस छोटे से बच्चे ने इस काम को अंजाम दिया था ..उसकी उम्र से बड़े बच्चे  जहाँ अपना समय खेलने कूदने में ज्यादा लगाते हैं -उसी समय में से ही कुछ क्षण यह अपने इस हुनर को आजमाने में लगाता है .
 भीड़ में अलग सुरेन्द्र गौड़ 
मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसे यह रूचि स्वयमेव उत्पन्न हुई ..किसी ने सिखाया नहीं . उसने खुद  से ही ट्रायल एरर से सीखा है ...उसके हाथ की बनायी यह मिनिएचर खटिया अब डिमांड में है जो वाल हैंगिंग या डेकोरेशन पीस के रूप में इलाके में  लोकप्रिय हो रही है ..मैंने उससे पूछा कि क्या मेरे लिए भी तुम यह खटिया बनाओगे तो वह सहर्ष तैयार हो गया .....मैंने कहा एक नहीं चार ....तो उसके चेहरे पर चिंता के भाव आ गए .....मैंने पूछा कि क्या बनाने में ज्यादा समय लगेगा तो उसने बताया कि नहीं एक खटिया तो एक घन्टे में वह बना लेता है मगर उसके पास बस एक खटिया का ही ऊन  बचा है ..मैंने उसे कुछ पैसे दिए और अगले ही दिन उसने मुझे चार खूबसूरत सी मिनिएचर पलंगें   ला पकडाई  .
स्वनिर्मित मिनिएचर खाटों के साथ सौम्य सुरेन्द्र

मेरे बगल के जिले भदोही जिसे भारत का गलीचा शहर (कारपेट सिटी ) कहा जाता है ,में करीब एक दशक पहले एक बड़े आन्दोलन में बच्चों को कारपेट उद्योग से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया  था ...जबकि उनके हाथ से बुने गलीचों की गल्फ देशों में बड़ी डिमांड थी ..क्योकि उनकी बुनाई बड़ी महीन और काम साफ होता  था  ...मगर तब यह फितूरबाजी हुई थी कि खेलने खाने के  उम्र के बच्चों के श्रम का शोषण हो रहा है और अब तो बाल श्रम शोषण पर कड़े कानून भी हैं -मगर सुरेन्द्र की स्वतःस्फूर्त प्रतिभा ने मुझे यह सोचने पर विवश किया है कि क्या जन्मजात प्रतिभाओं को ,उनके तकनीकी रुझान या दक्षता को हमें प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये ? मुझे तो सुरेन्द्र का हुनर उसके टेक्नोलोजी टेम्पर की झलक दिखा गया ....अब उसकी इस नैसर्गिक प्रतिभा को हम अगर बाल श्रम शोषण के बहाने विकसित होने से रोक दें तो क्या उसके साथ अन्याय नहीं होगा ?और हम कहते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी की भीषण समस्या है ..जो सच भी है ...अब आप ही बताईये कि सुरेन्द्र के साथ हमारा ,स्टेट का और समाज का क्या बर्ताव  होना चाहिए ? 

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

बीन बैग्स पर बैठ कर बिग बास देखने का मजा ही कुछ और है!

अभी उसी ही दिन तो कौस्तुभ उर्फ़ मिकी  ने बिग बास में एक  विचित्र से कुशन नुमा मोढ़े पर बैठे हुए खली द महाबली की ओर इशारा करके कहा कि पापा यह बीन बैग खरीद लीजिये न -यह बैठने में बड़ा ही आरामदायक  होता है ... मैं उस विचित्र सी संरचना को लेकर जिज्ञासु हो उठा ....क्या कहते हैं इसे ...?
"बीन बैग" 
"यह कैसा नाम,इसे बीन बैग क्यों कहते हैं ?"
"इसमें बीन भरी होती है " 
"मतलब ,इसमें राजमा या सेम आदि के दाने भरे होते हैं ?"
"हाँ ..शायद ....पता नहीं .."
"धत ,क्या फ़ालतू बात करते हो -नेट पर सर्च करो .." फिर जो जवाब आया उसे मैं आपसे यहाँ भी बांटना चाहता हूँ ...
बीन बैग एक पोर्टेबल सोफा है जिसे आप अपनी सुविधानुसार किसी भी तरह का आकार प्रकार दे सकते हैं ,वजन में फूल की तरह हल्का ,बस विक्रम वैताल स्टाईल में कंधे पर टांग लीजिये और जहां भी चाहिए धर दीजिये और पसर जाईये ...इसमें जो कथित "बीन"  है वह दरअसल इसे ठोस आधार देने के लिए इसमें भरा जाने वाला कृत्रिम बीन-सेम या राजमा के बीज जैसी पी वी सी या पालीस्टिरीन पेलेट होती हैं जो बेहद हल्की होती हैं! वैसे  तो बीन बैग्स के बड़े उपयोग है मगर हम यहाँ इसके बैठने के कुर्सीनुमा ,सोफे के रूपों  की चर्चा कर रहे हैं .हो सकता है कि इस तरह के बैग नुमा मोढ़े के आदि स्वरुप में सचमुच सेम या अन्य बीन की फलियाँ ही स्थायित्व के लिए कभी  भरी गयी हों मगर अपने अपने हल्के फुल्के रूप ये पाली यूरीथीन फोम जैसे हल्के पदार्थ के बीन -बीज/दाने  नुमा संरचनाओं से भरी हुई १९६० -७० के दशक में अवतरित हुईं -मगर ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुईं ...और लम्बे अरसे के बाद फिर १९९० के दशक और फिर अब जाकर तो इनका तेजी से क्रेज बढ़ा है .

हमने धनतेरस पर इस बार बीन बैग्स का एक जोड़ा लिया है ..आप अपने शहर में या फिर आन लाईन भी मंगा सकते हैं ...हमें तो यह स्पेंसर शो रूम में प्रमोशनल आईटम सेल्स के बतौर  १४०० रुपये में जोड़ा ही मिल गया है मगर इस साईज का केवल एक ही बैग १४००-१५०० का बाजारों में उपलब्ध है ...थोडा महंगा तो है मगर    सच्ची है बहुत ही आरामदायक ..मेरी पूरी सिफारिश है इसके लिए  -प्रोडक्ट संतुष्टि का पूरा वायदा है इसमें ...

कल बीन बैग्स आये नहीं कि माँ बेटी उसी पर विराजमान हो बिग बास देखने बैठ गयीं ....उनका कहना है कि बीन बैग्स पर बैठ कर बिग बास देखने का मजा ही कुछ और है! 

जीवन शैली और खानपान

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

झूमने की भी कोई उम्र होती है क्या?

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव संपन्न हो गए .पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम्य सरकारों का जो स्वप्न कभी गांधी  जी ने देखा था ,कालांतर में संविधान के तिहत्तरवें संशोधन के जरिये  पूर्व- प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उसे साकार कर दिया .आज ग्राम्य सरकारों के रूप में हमारे पास त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था है -ग्राम पंचायत ,क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत जिस में  सीधे  जनता से चुने प्रतिनिधि विभिन्न पदों पर विराजमान होते हैं -सबसे महत्वपूर्ण उसमें है ग्राम प्रधान का पद जिसे आप पंचायती व्यवस्था का बादशाह या बेगम का पद कह सकते हैं -और सबसे ज्यादा सक्रियता ,तामझाम इसी पद के चुनाव के लिए हुआ -मात्र ग्राम प्रधान बनने के लिए लोगों ने लाख लाख रूपये मतदाताओं की सेवा सुश्रुषा में खर्च कर दिए ...खाने पीने  की दिव्य व्यवस्थायें की गयीं -कई जगह पी पीकर लोग झूमते नजर आये -मिलावटी शराब ने पूर्वांचल में कई मतदाताओं को वोट देने के पहले स्वर्ग का द्वार दिखा दिया तो कई प्रत्याशी लोकतंत्र की देहरी के बजाय जेल के लौह दरवाजों को पार कर गए ...इसी आपाधापी के बीच एक दिन एक गाँव में कुछ बच्चे झूमते हुए मिले -पाउच का प्रभाव  प्रत्यक्ष  था ....बच्चे जिनकी वैधानिक उम्र भी पीने की नहीं है ..ग्राम प्रधानी के चुनाव में प्रतिबंधित पेय का चस्का लेते पाए गए ....

तभी मन  में कौंधा था कि आखिर पीने की वैधानिक उम्र क्या होती है ..फिर एक दिन टाइम्स आफ इंडिया ने यही सवाल उठाया कि (शराब ) पीने की वैधानिक उम्र क्या है ? क्या आपको पता है पीने की वैधानिक उम्र ? क्या समीर और सतीश भाई इस जानकारी से रूबरू हैं ? सतीश सक्सेना जी ,दिल्ली में पीने की वैधानिक उम्र क्या है ? और समीर जी, कनाडा में ? उत्तर प्रदेश में लिक्कर की दुकाने इसे १८ वर्ष बताती हैं ....मगर दिल्ली में कहते हैं यह २५ वर्ष है! मगर उत्तर प्रदेश में आबकारी विभाग की अधिकृत सूचना है कि यह २१ वर्ष है ,यह तबसे २१ वर्ष है जब मतदाता की आयु २१ वर्ष मानी गयी थी .मगर बाद में मतदाता  की आयु १८ वर्ष हुई तो लोगों ने सहज तर्क से पीने की उम्र भी २१ वर्ष के बजाय १८ वर्ष मान  ली है ..नियम के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में कोई भी व्यक्ति जो २१ वर्ष के नीचे हो वह न तो शराब खरीद सकता है और न ही उसका सेवन कर सकता है ..दूसरा प्रतिबन्ध वर्दी मे कर्मचारियों के लिए है- वे भी शराब खरीद नहीं सकते या खरीदने जायं तो उन्हें नहीं दी जा सकती ...और सार्वजनिक स्थल पर तो मद्यपान किसी भी लोक सेवक के लिए निषिद्ध है!
मुझे इस विभाग  की बारीकियों की बरोबर जानकारी नहीं है -मेरे एक दो मित्र जो इस मोहकमें में हैं वे भी किसी काम के नहीं हैं -जैसे ब्रांड इत्यादि की जानकारी और उनके तुलनात्मक स्वाद आदि पर मेरे कौतूहलपूर्ण सवालों का जवाब देने के बजाय वे मौन साध जाते हैं ..मैं उलाहना देता हूँ कि यार इस मोहकमें में होने के बाद भी आप इसका स्वाद नहीं चखते तो कहते हैं यह हमारी सेवा शर्तों में एक अनिवार्य प्रावधान नहीं है ,,,और मुझे ही चुप रह जाना होता है .मेरी भी जानकारी इस नशीले सपनीले संसार के बारे में इससे अधिक नहीं है कि जिन नामक/ ब्रांड मद्य महिलाओं में प्रिय है ,रम ज्यादा तेज होती है और व्हिस्की ज्यादा अभिजात्य मद्य का प्रकार है तथा शैम्पेन आदि खुशी  के बड़े मौकों के लिए है ....जाहिर है मैं इस डोमेन के लिए पूरा लल्लू ही हूँ मगर मैं स्प्वायल्ट  स्पोर्ट नहीं हूँ ,प्यार से कोई टोस्ट आफर करता है तो समूह चेतना के नाम पर एकाध पैग ले लेता हूँ मगर अगर होस्ट मद्य पारखी नहीं हुआ तो बिना अंगूर की बेटी की तारीफ़ सुने मन  मसोसना भी पड़ जाता है ..मैं समझता हूँ ब्लॉग जगत में ऐसे अनाडी होस्ट नहीं होंगें या कमतर ही होंगे .

आखिर हालात ऐसे न हों तो फिर मजा काहे का ...कि साकी शराब दे कह दे शराब है! उम्मीद है कि आपकी उम्र २१ वर्ष से कम नहीं है ! 

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