रामनाम का मरम है आना
दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना
तुलसी यही शंका मानस में पार्वती के जरिये रखते हैं -राम सो अवध नृपति सुत सोई,
की अज अगुन अलख गति कोई
और शंकर ने उत्तर दिया -तुम जो कहा राम कोउ आना ,
जेहिं श्रुति कहहिं धरहिं मुनि ध्याना
देखिये यहाँ राम नाम का मरम है आना और तुम जो कहा राम कोउ आना में कितना साम्य है !अब उत्तर भी देखिये -जेहिं गावहिं वेद बुध
जाहि धरहि मुनि ध्यान
सोई दशरथ सुत भगत हित
कोशल पति भगवान
दरअसल कबीर पंथियों द्वारा अविश्वास ,आस्थाहीनता और अराजकता ,प्रमत्तता व्यथित तुलसी ने कबीरपंथियों की ही भाषा में जवाब दिया -सगुनहि अगुनहिं नहीं कछु भेदा
गावहिं मुनि पुराण बुध वेदा
जितना ही कबीर पंथियों ने राम के निर्गुण स्वरुप को स्थापित करने का प्रयास किया,तुलसी ने दाशरथी राम को प्रतिष्ठित किया -उन्होंने राम को निर्गुण और सगुन दोनों का ही समन्वित रूप उदघोषित किया -बिनु पग चलई सुनई बिनु काना ,कर बिनु करम करई विधि नाना ,आनन रहित सकल रस भोगी बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी ...यही तो हैं राम -उन्हें पहचानने में तुलसी ने कोई भूल नहीं की -अब जनता जनार्दन के लिए यह पहेली एक टेढ़ी खीर बन गयी ....उसे तो आस्था का कोई आधार चाहिए -हम आपने माता पिता पुरखों की तस्वीर के आगे नतमस्तक हो ध्यान मग्न होते हैं -अब निराकार ,अलक्ष्य की ओर देखना आम आदमी के लिए तो एक मूर्खता भरा ही प्रयास हैं न ? फिर राम के आदर्शों का अनुपालन तो दूर की बात है -इसलिए ही सोई दशरथ सुत ....और यह भी कि तुलसी अलखहिं का लखहिं राम नाम भज नीच ....सोई दशरथ सुत में सोई पर ध्यान दीजिये ..तुलसी ने विशेष ध्यानाकर्षण के लिए ही सोई को जानबूझ कर रखा और वही राम जन जन प्राणी प्राणी में विद्यमान है ....सीय राम मय सब जग जानी
करहुं प्रणाम जोरी जुग पानी
अब भोले लोग आज भी पूछते हैं कि राम कौन हैं ? अब कोई हमें बताये कि हम इन्हें बतायें क्या ?संदर्भ/मूल भाव :
आधुनिक हिन्दी निबंध:डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र और डॉ मनोज मिश्र
सोई दशरथ सुत
अपने राम तो इन दोनों से अलग हैं।
जवाब देंहटाएंकबीर को तो यह परले दर्जे का पागल ही मानते रहे !...
जवाब देंहटाएंमुफ्त प्रकाशन की सुविधा मिलने से, कुछ "विद्वान्" मित्र दुसरे धर्म की कमियां निकाल कर उसकी व्याख्या बड़े आदर के साथ कर रहे हैं और दो धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन कर, विनम्रता पूर्वक अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध कर रहे हैं और इनके कुछ मूर्ख चेले तालियाँ बजा बजा कर इन गुरुओं को बढ़ावा देकर "नेता" बनवाने की तैयारी में हैं !
इतिहास के बारे में तो शायद इन्होने कभी कोई सबक लिया ही नहीं है केवल इतिहास से अपने फायदे के उद्धरण लेकर उनका एकतरफा सन्दर्भ देना सीखा है !
श्रद्धा और और परम्परा पर विज्ञान की द्रष्टि से भी उँगलियाँ उठाना गलत है और यह तो सम्पूर्ण मान्यता पर ही चोट करने का प्रयत्न कर रहे हैं ! अफ़सोस है ऐसा करते समय इन्हें अपने बच्चे या परिवार भी नज़र नहीं आता देश को परिवार मानने की बात तो सिर्फ हिमाकत ही नज़र आएगी !
काश किसी तरह इन्हें यह अहसास हो जाए कि यह अपने घर में नफरत फैला कर देश में एक बुझी हुई राख को हवा देने का प्रयत्न कर रहे हैं !
मैं बार बार कहता रहा हूँ कि विधर्मियों के द्वारा, दूसरे धर्म का ज्ञान देना बेहद खतरनाक है इससे एक तुलनात्मक अध्ययन शुरू होने का खतरा पैदा हो गया है ...यहाँ विद्वानों की कमी नहीं है, मगर समय की आवश्यकता है कि संयम के साथ इन मूर्खों को अपनी हद में रहने की सलाह दी जाये !
मेरे ख़याल से यह एक आपराधिक, सामाजिक षड़यंत्र है और इसका प्रतिकार होना ही चाहिए ! बेहद नाज़ुक इस मुद्दे पर बेहतरीन विद्वानों को अपनी राय व्यक्त करनी ही चाहिए अथवा ब्लागर समाज सिर्फ कायरों की चौपाल बनकर रह जाएगा !
सादर
इक़बाल की राम भक्ति।
जवाब देंहटाएंराम
लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिन्द
सब फ़लसफ़ी हैं खि़त्त-ए-मग़रिब के राम-ए-हिन्द
ये हिन्दियों के फि़क्र-ए-फ़लक रस का है असर
रिफ़त में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए-हिन्द
इस देस में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त
मशहूर जिन के दम से है दुनिया में नाम-ए-हिन्द है
राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज
अहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिन्द
एजाज़ इस चिराग़-ए-हिदायत का है यही
रोशन तर अज सहर है ज़माने में शाम-ए-हिन्द
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था
पाकिज़गी में, जोश-ए-मोहब्बत में फ़र्द था
सीय राम मय सब जग जानी
जवाब देंहटाएंकरहुं प्रणाम जोरी जुग पानी
जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
@अनुराग जी ,
जवाब देंहटाएंजाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
तुलसी ने यह कहकर भी सभी को अक्नालेज कर दिया ..
कोई विरोध ही कहाँ है ?
भैस के आगे बीन बजाने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया अरविन्द जी ! बाकी का अगर सबकुछ छोड़ भी दीजिये तो जहां तक इस हिन्दी ब्लॉग जगत का सवाल है , इन तथाकथित बाबर के भक्तों से कोई पूछे कि फैसला सितम्बर के आखिर में आने की उम्मीद है ( और मैं यह पूर्वानुमान आपको बता सकता हूँ कि यह किसी से छुपा नहीं कि कौंग्रेस और कुछ और दल इस वोट बैंक के लिए किस हद तक जा सकते है , अथ फैसला भी उसी अनुरूप आना तय लगभग निश्चित है ! ) फिर अभी से यहाँ इस तरह की भूमिका बाँधने और चिल-पौन मचाने का आखिर मीनिग क्या था ? ऐसे ही इनके एक विद्वान शरीफ खान साहब इस पर ५ लेख लिख चुके तब से ! क्यों एक-डेड महीने इंतज़ार नहीं किया जा सकता था क्या ? अगर यही कम हिन्दुओ ने किया होता तो ये लोग एक साथ चीख पड़ते कि देखो जी न्यायालय का फैसला अभी आया नाहे और इन्होने ब्लॉग-जगत पर भी राजनीति शुरू कर दी ! अपनी गिरेवान में झांकना तो बाबर जैसे कमीने इन्सान ने इन्हें सिखाया ही नहीं !
जवाब देंहटाएंये हमें इतिहास सिखा रहे है, इन्हें पूछे कि क्या इन्होने औरंगजेब का इतिहास पढ़ा ?
चुप हम लोग अपनी इज्जत के लिए रहते है कि क्या फायदा ऐसे कीचड में पत्थर डालकर, मगर ये उसे हमारी कमजोरी समझते है ! केरल का उदाहरण आपके सामने है ! हिन्दुओ ने कितने साल पहले कह दिया था कि केरल में जो हो रहा है वह देश के लिए ठीक नहीं ! अब इन्हें पालने वाले राजनैतिक दल ही हाय-तोबा मचाने लगे है , क्यों ?
जवाब देंहटाएंमहंगाई और भ्रष्ठाचार का मुद्दा आज इतना भयंकर रूप धारण नहीं करता अगर ये लोग सिर्फ अपने तुच्छ स्वार्थों से जुड़े रहकर आँख बंद करके वोट न डालते तो !
सारे विवाद जाएँ तेल लेने हमें तो ऐसे शानदार लेख पढने को मिलते रहें अपना ज्ञान वर्धन होता रहे बस्स....
जवाब देंहटाएंबड़ा ही ज्ञानपूर्ण, भावपूर्ण व सुन्दर भाषा में लिखा लेख। विवादीय विचारों को साधने में सक्षम। उत्पातियों को कौन साध पाया है।
जवाब देंहटाएंमुझे तो यह पंक्ति पसन्द है:
जवाब देंहटाएंचन्दन तरु हरि संत समीरा।
कैसे कैसे 'हरि' और कैसे कैसे 'संत'!
न चन्दन न समीर।
और क्या कहूँ?
इस धरती को इराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, अरब आदि जैसा बनाना चाहने वालों का प्रतिरोध जिससे भी जैसे भी बने, करना चाहिए। चूकने पर सिर्फ पछतावा हाथ आएगा।
कश्मीर और केरल उदाहरण हैं।
बहुत ज्ञानपरक लेख है ...बाकि विवाद तो कहाँ नहीं होते ..
जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंमेरे ख्याल से कबीर, तुलसी और राम को यूं चुटकियों में नहीं निपटाया जाना चाहिये ! उल्लिखित त्रयी भारतीय ज्ञान दर्शन के सगुण निर्गुण आयामों से जुडी हुई है अतः इसे शिकवे शिकायत और किन्हीं विशिष्ट लोगों को जबाब देने की शक्ल में लिखे जाने से मैं निज तौर पर असहमत होउंगा यह जान लीजिए ! विषय को अनावश्यक विवादों में जाया करने से बेहतर है कि आप इस विषय पर विस्तार से लिखने का यत्न करें ! "कुछ ऐसा जो" इन तीनों चरित्रों के साथ न्याय कर सके और जिससे स्वस्थ चिंतन परम्परा का मार्ग प्रशस्त हो !
आप से सहमत है जी ओर कबीर के भगत भी है. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंअरविंद जी, यह भी एक सच है कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फायदा नहीं होता.... अनावश्यक विवाद करने की कई लोगों की फितरत होती है....वह इतिहास को पढ़ेगे भी तो अपनी ही बुद्धि के हिसाब से...हानि लाभ के हिसाब से.... ऐसे में क्या तो इन्हें समझाया जाय और क्या तो बताया जाय।
जवाब देंहटाएंपोस्ट ज्ञानवर्धक है।
अली सा ,
जवाब देंहटाएंअपने सही सुझाया है ,मैं कबीर ,तुलसी और/के राम पर कुछ टिट्टिभ प्रयास जरूर करूंगा ,
आपका स्नेहादेश सर माथे,बस स्नेह बनाये रखेगें!
बहुत ही सार्थक और सामयिक आलेख. ऐसी चर्चाएं होनी चाहियें. जीवन में कुछ भी सर्वश्रेष्ठ नही है और कुछ भी हीन नही है. सब सम है. अत: विचार किये जाने की जरुरत है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
राजा रामचन्द्र की जय
जवाब देंहटाएंजो लोग कहते हैं कि हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार क़तई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वे भी आराम से बर्दाश्त कर लेते हैं बल्कि नास्तिकों से भी बढ़कर खुद हिन्दू धर्मग्रंथों पर प्रहार करते हैं। देखिये-
जवाब देंहटाएंइसे यहाँ प्रस्तुत करके आप कहना क्या चाहते हैं ? पुराण तो गधों के लिए ही लिखे गए हैं -आप को क्या कहा जाय ?http://vedictoap.blogspot.com/2010/07/blog-post_27.html
1-ब्लॉग जगत के वे सभी लोग जिन्हें मेरे ब्लॉग पर आते ही संजयदृष्टि प्राप्त हो जाती है, इन जैसे कमेंट्स पर, पोस्ट्स पर धृतराष्ट्र का पार्ट प्ले करने लगते हैं , क्यों ?
2-मैं विनतीपूर्वक आपसे यह पूछना चाहता हूं, अगर पूछने पर पाबंदी न हो तो । आप लोग मुझ जैसे मनुवादी कहने वाले मुसलमान का भी हौसला पस्त करने के प्रयास करेंगे तो दूसरे ईमानदार मुसलमानों
को कैसे जोड़ पाएंगे ?
3-कौन और क्यूं है राम ? इस पोस्ट पर किसी ने श्री अरविन्द मिश्रा जी से यह न कहा कि आप हिंदू और मुसलमानों की तुलना न करें लेकिन जब मैं तुलना करके कहूंगा कि यह वक्तव्य कबीर साहब का नहीं है, उनके ग्रंथ में यह है ही नहीं तो यही लोग ऐतराज़ करने आ जाएंगे।
http://vedquran.blogspot.com/2010/08/is-it-fair-anwer-jamal.html
जहां तक मैं कबीर और तुलसी को समझ पाया हूं, राम को लेकर दोनों के नजरिये में जो भी अंतर है, वह उनके समय और उनके रचनाकाल के विस्तार के कारण है. दर असल जब कबीर और तुलसी आये तब तक दसरथ के पुत्र राम को मिथकीय और पौराणिक आख्यानकारों ने एक सत्साहसी, शीलवान, पराक्रमी और तेजस्वी नायक के पद से उठाकर भगवान की कुर्सी पर प्रतिष्ठित कर दिया था. दोनों के सामने यह कठिनाई रही होगी कि अगर लोकमानस तक पहुंचना है तो दसरथपुत्र का हाथ पकड़ना ही होगा. कबीर भी पहले सगुण दसरथसुत राम को ही पकड़्ते हैं. कबिरा कूता राम का. पर यह राम बाद में उनके अलख निरंजन निर्गुण ब्रह्म में बदल जाता है. जब वे राम रस पीने की बात करते हुए कहते हैं क़ि हम न मरैं मरिहैं संसारा तब राम दसरथ के पुत्र के पद से उपर उठ्कर निराकार ब्रह्म बन जाता है. तब कबीर राम के पीछे नहीं राम कबीर के पीछे चलने लगता है. फिर कबीर वापस नहीं लौटते. तुलसी निर्गुन को नकारते नहीं. अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा. परंतु वे राम के सगुन रूप को श्रेष्ठ मानते हैं. जब उनका यह राम कर बिनु कर्म करें विधि नाना के रूप में आता है तो वह सगुन नहीं रहता. कबीर को सगुन राम को इसलिये ठुकराना पड़ा क्योंकि उस समय भक्ति की आड़ में पाखंड बहुत बढ गया था. तुलसी उसके निर्गुन सत्य को जानते हुए भी सगुन को महत्व इसलिये देते थे क्योंकि उन्हें धार्मिक द्वन्द्व दूर करके सबको एकजुट करने में इससे कारगर कोई और रास्ता नहीं दिखायी पड़ रहा था. सच यह है कि दोनों ही दसरथपुत्र राम और परम ब्रह्म राम के भेद को जानते थे पर उसे समझने के रास्ते अलग-अलग समय की आवश्यकता के अनुरूप थे. आशय यह है कि दसरथ का बेटा एक नायक जरूर था पर भगवान नही, लेकिन उसे ब्रह्म माने बगैर सच तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं था. कबीर और तुलसी दोनों ने इस विवशता को स्वीकारा पर इससे बाहर भी निकले.
जवाब देंहटाएंजहां तक मैं कबीर और तुलसी को समझ पाया हूं, राम को लेकर दोनों के नजरिये में जो भी अंतर है, वह उनके समय और उनके रचनाकाल के विस्तार के कारण है. दर असल जब कबीर और तुलसी आये तब तक दसरथ के पुत्र राम को मिथकीय और पौराणिक आख्यानकारों ने एक सत्साहसी, शीलवान, पराक्रमी और तेजस्वी नायक के पद से उठाकर भगवान की कुर्सी पर प्रतिष्ठित कर दिया था. दोनों के सामने यह कठिनाई रही होगी कि अगर लोकमानस तक पहुंचना है तो दसरथपुत्र का हाथ पकड़ना ही होगा. कबीर भी पहले सगुण दसरथसुत राम को ही पकड़्ते हैं. कबिरा कूता राम का. पर यह राम बाद में उनके अलख निरंजन निर्गुण ब्रह्म में बदल जाता है. जब वे राम रस पीने की बात करते हुए कहते हैं क़ि हम न मरैं मरिहैं संसारा तब राम दसरथ के पुत्र के पद से उपर उठ्कर निराकार ब्रह्म बन जाता है. तब कबीर राम के पीछे नहीं राम कबीर के पीछे चलने लगता है. फिर कबीर वापस नहीं लौटते. तुलसी निर्गुन को नकारते नहीं. अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा. परंतु वे राम के सगुन रूप को श्रेष्ठ मानते हैं. जब उनका यह राम कर बिनु कर्म करें विधि नाना के रूप में आता है तो वह सगुन नहीं रहता. कबीर को सगुन राम को इसलिये ठुकराना पड़ा क्योंकि उस समय भक्ति की आड़ में पाखंड बहुत बढ गया था. तुलसी उसके निर्गुन सत्य को जानते हुए भी सगुन को महत्व इसलिये देते थे क्योंकि उन्हें धार्मिक द्वन्द्व दूर करके सबको एकजुट करने में इससे कारगर कोई और रास्ता नहीं दिखायी पड़ रहा था. सच यह है कि दोनों ही दसरथपुत्र राम और परम ब्रह्म राम के भेद को जानते थे पर उसे समझने के रास्ते अलग-अलग समय की आवश्यकता के अनुरूप थे. आशय यह है कि दसरथ का बेटा एक नायक जरूर था पर भगवान नही, लेकिन उसे ब्रह्म माने बगैर सच तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं था. कबीर और तुलसी दोनों ने इस विवशता को स्वीकारा पर इससे बाहर भी निकले.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर डॉ.सुभाष राय ,शंब्द्शः सहमत !
जवाब देंहटाएंमुझे श्री उदय प्रताप सिंह के छंद याद आ गए...
जवाब देंहटाएंव्यंग मंदोदरी ने किया एक रावण पर; कि
आप जैसी ज्यों मैं प्रेम-अग्नि में सुलगती
मायावी स्वरूप ठीक राम जैसा धार लेती
देखूं कैसे जानकी की प्रीति ना उमगती
बोला दसशीश ये भी चाल चल देख चुका
ठगनी कुचाल मेरी मुझको ही ठगती
जब-जब राम का रुप धारता हूँ तो
हर पराई नारि मुझे जननी ही दीखती।
नल-नील पाहनों पर राम-नाम लिख-लिख
सेतु बांधते हैं और फूले न समाते हैं
भारी-भारी शिलाखंड डूबना तो दूर रहा
भार-हीन काठ जैसी नौका बन जाते हैं
देखा देखी राम ने भी कंकरी उठाई एक
फेंकी वहीँ डूब गयी बहुत सकुचाते हैं
तभी राम-भक्त हनुमान ने कहा कि नाथ
आपके करों से छूट सभी डूब जाते हैं।
याद आ गए तो टिपण्णी में लिख दिए...प्रासंगिक नहीं भी हो सकते हैं.
मैं इस विषय में कुछ भी नहीं कहूँगी क्योंकि मैं बाजा बजाकर अपने धर्म का प्रचार करने वालों से दूर ही रहती हूँ और जहाँ तक बात राम की है, उन्हें मैं भारत की संस्कृति का एक हिस्सा मानती हूँ, जो कि ना किसी हिन्दू की बपौती हैं ना मुसलमान की.
जवाब देंहटाएंऔर इसीलिये मैं अली जी की बात का समर्थन करती हूँ.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंडा0 सुभाष राय ने इस पोस्ट पर सुंदर प्रकाश डाला है..
जवाब देंहटाएंतुलसी निर्गुन को नकारते नहीं. अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा. परंतु वे राम के सगुन रूप को श्रेष्ठ मानते हैं. जब उनका यह राम कर बिनु कर्म करें विधि नाना के रूप में आता है तो वह सगुन नहीं रहता. कबीर को सगुन राम को इसलिये ठुकराना पड़ा क्योंकि उस समय भक्ति की आड़ में पाखंड बहुत बढ गया था. तुलसी उसके निर्गुन सत्य को जानते हुए भी सगुन को महत्व इसलिये देते थे क्योंकि उन्हें धार्मिक द्वन्द्व दूर करके सबको एकजुट करने में इससे कारगर कोई और रास्ता नहीं दिखायी पड़ रहा था. सच यह है कि दोनों ही दसरथपुत्र राम और परम ब्रह्म राम के भेद को जानते थे पर उसे समझने के रास्ते अलग-अलग समय की आवश्यकता के अनुरूप थे...
..उम्मीद है कि कुछ और जानने को मिलेगा.
..वैचारिक बहस के लिए प्रेरित करती उम्दा पोस्ट के लिए आभार.
एक ज़रूरी ऐलानः
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट आधा तीतर आधा बटेर बनकर रह गई है। सबसे पहले सलीम साहब ने,फिर क्रमशः शहरोज़ भाई, उमर साहब और शाहनवाज़ भाई ने भी फ़ोन पर अपना ऐतराज़ जताया था। उमर कैरानवी साहब ने इसे एक घटिया पोस्ट क़रार दिया है और गुरू वही है जो ग़लती बताये, मार्ग दिखाये और शिष्य वह है जो अपनी कमी को कुबूल करे और उसे दूर भी करे। वैसे इसे पोस्ट करते समय भी मेरे मन में खटक थी लेकिन ख़याल था कि एक कहानी है लेकिन ‘निष्पक्ष लेखकों‘ ने बताया कि कहानी है तो इसमें नाम असली क्यों हैं ?
... और वाक़ई यह एक बड़ी ग़लती है जिसकी वजह से जनाब मिश्रा जी अपने गुस्से में भी हक़ बजानिब हैं और सज़ा देने में भी। मेरे दिल में उनके लिये प्यार और सम्मान है और एक लेखक के लिये सबसे बड़ी नाकामी यह है कि वह अपने जज़्बात को भी ढंग से अदा न कर पाये। मैं इस कहानी को खेद सहित वापस लेता हूं और कमेंट्स ज्यों के त्यों रहने देता हूं ताकि मुझे अपनी ख़ता का अहसास होता रहे और जिन्हें पीड़ा पहुंची है उन्हें कुछ राहत मिल सके। मैं एक बार फिर आप सभी हज़रात से क्षमा याचना करता हूं।
ब्लॉगिंग का उद्देश्य स्वस्थ संवाद होना चाहिये जोकि अपने और देश-समाज के विकास के लिये बेहद ज़रूरी है। सबका हित इसी में है। मेरे लेखन का उद्देश्य भी यही है। नाजायज़ दबाव मैं किसी का मानता नहीं और ग़लती का अहसास होते ही फिर मैं उसे रिमूव करने में देर लगाता नहीं। सो यह "सदा सहिष्णु भारत" पोस्ट रिमूव की जाती है।
http://mankiduniya.blogspot.com/2010/08/tolerance-in-india-anwer-jamal.html
राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज
जवाब देंहटाएंअहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिन्द
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था
पाकिज़गी में, जोश-ए-मोहब्बत में फ़र्द था
आपका प्रयास
सराहनीय है प्रेरणास्पद है.
मनुष्य समाज का जो क़बीला ,जो जाति जो धर्म सत्ता में आ जाता है वह समाज की श्रेष्ठता के पैमाने अपनी श्रेष्ठता के आधार पर ही बना देता है [यह श्रेष्ठता होती भी है या नहीं यह अलग प्रश्न है] यानी सत्ता आये हुए की शक्ती ही व्यवस्था और कानून हो जाया करती है,
सशंकित होना क्या जायज़ नहीं कि क्या वास्तव में आज ऐसा हो रहा है !!
गर हो रहा है तो मुखर विरोध होना चाहिए.
ब्लॉग जगत में फैली हिन्दू-मुस्लिम घमासान पर पढ़िए
शमा ए हरम हो या दिया सोमनाथ का
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/2010/08/blog-post.html
अब भोले लोग आज भी पूछते हैं कि राम कौन हैं .
जवाब देंहटाएंऊ भेले भाले लोग नहीं हैं, बहुत ऊंची पढ़ाई पढ़े हैं जिसमें देश का असली इतिहास मिटा कर नकली इतिहास लिखा होता है ।
ज्ञानवर्धन हुआ ...वैसे अलीजी से सहमत ..!
जवाब देंहटाएंडा.साहब,
जवाब देंहटाएंहमें तो राम-लक्ष्मण का वो स्वरूप सबसे ज्यादा पसंद है, जो परशुराम-संवाद के समय का है -
"देव दनुज भूपति भट नाना, समबल अधिक होये बलवाना,
जे रण हमहिं पचारै कोई, लड़ेहुँ सुखेन कालु किनु होई"
या फ़िर सागर किनारे के तपस्वी राम, जड़ के सामने विनयरत होने पर भी जड़ता न त्यागे तो कोप करने में कोई परहेज नहीं।
आलेख पसंद आया, आभार स्वीकारें।