मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

सधवा की साध!

विगत फरवरी माह से लोकसभा निर्वाचन की तैयारियों में ऐसा मुब्तिला होना पड़ा कि ब्लागिंग स्लागिंग सब छूटा।  बस कभी कभार फेसबुक पर आना जाना रहा।  किसी ब्लॉगर के ब्लॉग पर भी चाह कर जा नहीं पाया , सज्जन ब्लागर माफ़ करेगें और मेरी मजबूरी समझेगें। मगर कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं कि वे खुद को अभिव्यक्त करा लेने की कूवत रखते हैं जैसा कि आज का मुद्दा है।  कल पत्नी ने घर पर काम करने वाली दाई का एक ऐसा वृत्तांत सुनाया कि वह मन पर गहरे अंकित हो गया।  वही आपसे साझा करना है।

दाई का पति बहुत बीमार है और उसकी सेवा में वह दिन रात जुटी रहती है।   दाई अपना यह दुखड़ा पत्नी को सुनाती ही रहती है। उसकी भी उम्र काफी हो चुकी है।   कल उसने बहुत भावुक होकर कहा कि वे मेरे सामने ही चले जायँ मैं तो भगवान से यही मनाती हूँ नहीं तो मेरे पहले चल बसने पर उनकी कौन देखभाल करेगा? बात मेरे कानों तक पहुँची और मैं विस्मित सा हुआ।  क्योकि अक्सर हम यही सुनते हैं कि महिलायें पति से पहले ही जाने की इच्छा रखती हैं।  मतलब वे वैधव्य नहीं चाहतीं।  पति के सामने ही वे अपनी सदगति चाहती हैं।  मगर यह सोच कि जीवन साथी की देखरेख कौन करेगा मेरी दृष्टि में एक उदात्त सोच है जो रिश्ते के समर्पण को दर्शाता है।  मतलब वैधव्य का बोझ भी स्वीकार है मगर जीवन साथी की देखभाल में कोई कोताही न हो. 

मैंने इस बात का जिक्र कल फेसबुक पर किया था तो विविध विचार  आये हैं।  जिनमें एक यह भी है कि पुरुष प्रधान समाज में पति के दिवंगत होने पर पत्नी को एक बड़ी पारिवारिक और सामाजिक उपेक्षा का भी शिकार होना पड़ता है।  आर्थिक पहलू अलग है। एक दींन शीर्ण और उपेक्षित जीवन से तो मृत्यु ही भली है।  और यही सोच ज्यादातर भारतीय महिलाओं में एक सांस्कृतिक कलेवर ले चुकी है जिनमें वे सधवा ही मृत्यु का वरण करने को इच्छुक हो रहती हैं।  वे वैधव्य की नारकीय स्थिति का  सामना नहीं करना चाहतीं।

यह तो एक जीवन साथी की सोच हुयी -पत्नियों की सोच हुयी।  पति क्या सोचते हैं इस विषय पर इसकी चर्चा फिर कभी हम फुरसत में करेगें इन दिनों तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है :-(

आप अपने विचार जरूर दीजियेगा -प्रतीक्षा रहेगी!

16 टिप्‍पणियां:

  1. कोई जल्दी नहीं मरना चाहता, न पत्नी और न पति। हाँ बिलकुल लाचार ही हो जाए और मौत मांगने लगे तो बात और है। बाकी सब सोचने की बातें हैं सोचते रहिए।

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  2. जीवन साथी की देखभाल का भाव लिए वैधव्य को भी स्वीकार कर लेने की बात भर करना भी हिम्मत और समर्पण को दर्शाता है .... कम से कम भारतीय समाज में तो यह बात कहने के लिए भी मन में हौसला चाहिए ...बाकि तो क्या कहें ?

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  3. मेरे सम्‍माननीय बुजुर्ग हैं शर्मा जी 80 पार चुके, पिछले दिनों तटस्‍थ भाव से कहा, पत्‍नी बिस्‍तर पर हैं, मेरे सामने चली जाएं तो ठीक, यदि मैं पहले गया तो उनकी देखभाल कौन करेगा. हम आपस में बात करने लगे कि उनके बच्‍चे बहू..., बात आई कि दोनों नौकरी-पेशा हैं, अपने बच्‍चों की देखभाल नहीं कर पा रहे थे सो हास्‍टल में दाखिला कराया है, मां-सासू मां के लिए क्‍या कर पाएंगे. किसी पक्ष की आलोचना की जा सकती है, लेकिन है यह वस्‍तुतः आज की सहज, सामान्‍य, स्‍वाभाविक परिस्थितियां.

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  4. यही तो वो समर्पण है जो कहीं और नहीं दिख पाता.

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  5. दोनों हालात दुखदायी हैं,पर इस पर ज़ोर तो है नहीं किसी का.

    इसी आधार पर पिछले युग में पति के मरते ही पत्नी अपना जीवन खत्म कर लेती थी.पतियों ने कभी ऐसा किया हो,पता नहीं !

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  6. पति-पत्नी के सम्बन्ध से अलग भी कोई शरीर एक उम्र पर असाध्य बिमारी से अस्वस्थ हो जाता है जिसे चिकित्सा के द्वारा ठीक नहीं किया जा सकता है तब उस कष्ट को देखकर कुछ ऐसी ही प्रार्थना उठती है | हे ! भगवान मुक्ति दे दो |

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  7. अभी कुच्छ महना पहले भाभी की अकस्मात मृत्यु हो गई। भाई को कभी इतना विचलित होते नहीं देखा था ।अपने आप को इतना असहाय महसूस करेंगे ऐसा कभी सोचा भी न था ।मुझसे उनकी अंतिम बात से यह अनुमान लगा की भाबी हमेशा उनके सेवा रत रही । ओर भाई उनकी सेवा पर पूर्ण आश्रित हो गए उनका अपना मनोबल क्षीण हो गया । भाई ने usa जाने के पहले मुझ से कह रहे थे तेरी भाबी ने मेरी बहुत सेवा की। शायद मुझे यह ख्याल क्यों आता है । की व्यक्ति स्वयम से ही इतना भयभीत क्यों हो जाता है। उसे क्यों आभास होने लगता है। मेरी सेवा इस वृद्ध अवस्था में कौन करेगा? अपनी स्वयम की सेवा करवाना भी क्या स्वार्थ तुल्य है ?

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  8. इतनी संवेदनशीलता से स्त्री ही सोच पाती है ... आर्थिक स्थिति अलग बात है ...वैधव्य हो के मारना या विधवा हो के .... प्रेम के आगे क्या मायने रखेगा ...

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  9. अरविन्द जी ! कभी किसी देश, काल और परिस्थिति में, नारी ने पलायन स्वीकार नहीं किया होगा , यह बात अलग है कि उसे मार देने के बाद , परिवार-जनों ने , आत्म-हत्या या आत्म- दाह का नाम दे दिया हो , या बल-पूर्वक उसे सती बना दिया गया हो । आज की स्थिति में यदि हम बात करें तो स्त्री अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना ही पसन्द करेगी । लक्ष्मी- बाई के देश की नारियॉ आज जाग चुकी हैं और वे आगे देख-कर जीवन , जीने में विश्वास रखती हैं ।

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  10. दोनों की ही चाह सहारा,
    काल कहे अब पहले किसको।

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  11. मेरे एक परिचित है, पिछले लगभग चौदह साल से उनका बच्चा बहुत बीमार है। काफ़ी दिन के बाद उनसे मुलाकात हुई तो मैंने बच्चे का हालचाल पूछा। उनका कहना था, "पहले हम उसके ठीक होने के लिये जगह जगह माथा टेकते थे और अब इसकी मुक्ति के लिये।" एक हद तक इंसान कोशिश करता है और फ़िर मुक्ति के बारे में सोचने लगता है।

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  12. अपनी मौत कौन चाहता है.. हाँ सेवा करने वाले, चाहने वाले मुक्ति चाह सकते हैं.

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  13. दाई के प्रेम को मेरा प्रणाम । यह शेयर करने के लिए आपको आभार :)

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  14. पति-पत्नी के संबंध अन्योन्याश्रित हैं। दोनो को एक दूसरे के सहारे की जरूरत है। यह जरूरत उम्र बढ़ने के साथ और बढ़ती जाती है।

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