लगता है चिनहट ,लखनऊ तक की याददाश्त तो अभी भी तरो ताजा है मगर झाँसी प्रवास की यादें कुछ धुंधलाई हुयी सी हैं। फील्ड में मेरी यह पहली पोस्टिंग थी तो काफी रोमांच भी था और एक चुनौती भी। झांसी में सिंचाई विभाग के बड़े बड़े जलाशय/बांध हैं जिनसे मछली पकड़ने का काम ठीके पर देने का काम मत्स्य विभाग का है और उनकी नीलामी होती रहती है। अगर आप से पूंछे कि झील(लेक ) और जलाशय (रिजर्वायर) में क्या अंतर है तो आप क्या बतायेगें? चलिए मैं स्पष्ट करता चलूँ? झीलें बहुत पारम्परिक और अमूमन कुदरती होती हैं जबकि जलाशय/बांध सिचाई के लिए मानव निर्मित। अगर पूरे प्रदेश की बात करें तो सबसे अधिक जलाशय झाँसी में हैं -मतलब मत्स्य सम्पदा भी यहाँ सबसे अधिक है।
मैंने झांसी मंडल को जलाशयों का समुद्र माना है -जनपद के जलाशयों के नाम मुझे आज भी याद हैं जो मेरी देखरेख के अधीन थे -पहुंज ,बड़वार ,पहाड़ी ,लहचूरा, माताटीला ,पारीक्षा आदि। और ख़ास बात है कि मत्स्य सम्पदा के मामले में हर जलाशय की अपनी एक विशेषता थी -जैसे पहुँज में कुर्सा नामकी मछली की बहुतायत थी ,पारीक्षा में सादे पानी के जल दैत्य गोंछ की जो सड़ी गली लाशों की भी शौक़ीन है। मेरा एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था जो पारीक्षा से अपना ट्रांसफर नहीं चाहता था और उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसे मरने के बाद पारीक्षा जलाशय में फेंक दिया जाय और गोंछ मछलियां उसे खा खा कर शव का निपटान करें -अपनी अंतिम इच्छा बताते वक्त वह बहुत ईमानदार दिखता था। उससे मैं पूंछता कि वह ऐसा क्यों चाहता था तो वह जो कुछ बताता और मैं समझ पाता उसके मुताबिक़ यह उसके मोक्ष का सहज मार्ग था। मछलियों के माध्यम से मोक्ष! अब तक न कहीं पढ़ा और न सुना था।
इसी तरह पहाड़ी जलाशय जो मध्य प्रदेश के बार्डर पर था में सबसे पहले मैंने महाशेर मछली देखी जिसे अब तक केवल पहाड़ों पर मिलने वाली मछली मैं जानता था। इसके शल्क (स्केल ) काफी बड़े होते हैं और यह एक नायाब स्पोर्ट फिश है और भारत में एंगलर की पहली पसंद। इसमें चर्बी कंटेंट अधिक होता है इसलिए यह अन्य मछलियों की तुलना में स्वाद ग्रंथियों को ज्यादा संवेदित करती है। अभी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में वाईस चांसलर वी एन राय साहब से मैं जब मिला तो उन्होंने मुझे याद दिलाई कि किस तरह मेरी आगे की इलाहाबाद पदस्थता में मेरे हस्तक्षेप के बाद यह रहस्योद्घाटन हुआ था कि उनके कुछ इलाहाबादी मित्र उन्हें डिनर पर महाशेर के नाम पर सूअर का मांस परोसते आये थे :-) बहरहाल महाशेर से मेरी पहली मुलाकात सनसनीखेज थी जिसका जिक्र आगे होगा।
लहचूरा जलाशय झांसी जनपद का दूरस्थ का जलाशय है और वहाँ कतला मछली ख़ास थी। जलाशयों के ठीकेदार तब ही काफी धनाढ्य लोग थे और एक माफिया सा था उनका जो जलाशयों से मछली का अच्छा ख़ासा व्यवसाय करता था। तब मछली निकालने का कोटा फिक्स था और उसके ऊपर मछली अनुबंध के मुताबिक़ नहीं निकाली जा सकती थी. अनुबंध के मुताबिक़ प्रमुख मछलियों जैसे रोहू कतला और नैन को भी बिना एक बार बच्चा दिए (प्रजनन ) नहीं पकड़ा जा सकता था। यह बी क्लास कहलाता था/है । मैंने झाँसी पहुँचने के पहले यह सब थोडा अध्ययन कर लिया था मगर यह ज्ञान मेरी मुसीबत भी बना।ज्ञान पापतुल्य भी बनता है कभी कभी सचमुच (नालेज इज सिन :-) ।
कभी कभी लगता है अधिकारी के पद पर चयन के बाद अधिकारी को पठन पाठन से क्या मतलब? उसे तो आफिस के बड़े बाबू जहाँ कहें चिड़िया (हस्ताक्षर ) बना /बैठा देना चाहिए -आखिर वह उस आफिस में अधिकारी से ज्यादा अनुभवी ,व्यावहारिक ज्ञान वाला होता है। मैंने देखा है कि मेरे कई साथियों और प्रशासनिक सेवाओं के बहुत से अधिकारी भी बड़े बाबू के सहारे ही सेवाकाल की वैतरिणी पार करने में लगे रहते हैं।
मैंने जब ज्वाइन किया तो जनपद में हमारे मंडलीय अधिकारी वी कुमार साहब थे और जिलाधिकारी श्रीमती मजुलिका गौतम जी थीं। मेरे सेवाकाल की पहली जिलाधिकारी। मैंने पहुँचते ही उनसे सरकारी आवास की फ़रियाद की। उन्होंने आश्वस्त किया कि देखते हैं खाली होने पर मिल जाएगा। पत्नी पैतृक घर जौनपुर में थीं तो बिना आवास की सुविधा के उन्हें लाया नहीं जा सकता था. आज तक भी प्रदेश सरकार में सभी कार्मिकों के लिए सरकारी आवास का न होना खटकता है। यह एक ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर है जिसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। मजबूरी में सरकारी मुलाजिम को इधर उधर जाकर रहना पड़ता है जो उसके कार्यक्षमता और माहौल के अनुकूल नहीं होता। मगर मजबूरी -मैंने फिलहाल एक कमरे का टेम्पररी आवासीय प्रबंध कर लिया। जो महारानी लक्ष्मीबाई के किले के आस पास ही था। और बनावट ऐसी कि मुझे लगता था कि इससे अच्छा तो किले के ऊपर ही किसी गुहा गह्वर को खोज कर रह लिया जाय।
शहर कोई ख़ास विस्तारित नहीं था तब। मुख्य बाजारों में सीपरी , मानिक चौक और मिलटरी क्षेत्र का सदर बाज़ार तो मुझे हजरतगंज की याद दिलाता था ,. बेहद साफ़ सुथरा और चमाचम। शाम को घूमने जाते तो लगता था कि हजरत गंज अपने एक लघुरूप में साकार हो गया हो और मिलटरी की मेम साहिबाओं का ठाठ बात देखकर तो आँखें चुंधिया जाती थीं -एक तरह के वैभव और ऐश्वर्य का आभास भी होता था। अब पता नहीं सदर क्षेत्र कैसा है? झाँसी के कोई ब्लॉगर मित्र बतायेगें क्या? मेरा आफिस मध्य में एलाईट चौराहे पर था. और मजे की बात यह कि झांसी में रिक्शे नहीं दीखते थे -पहाड़ी का ऊँचा नीचा क्षेत्र होने के कारण वहाँ ऑटो रिक्शा ही चलता था भले ही कितनी कम दूरी तक ही जाना हो। यह मुझे बड़ा ही कौतूहल पूर्ण लगता था। जारी …