पहली बार इस लंगोट पोस्ट को फीड ने लिया ही नहीं -पडी रही है, फिर ट्राई करके देखता हूँ!
नैतिक चेतावनी:यह एक निहायत फालतू और दिमागी फितूर की पोस्ट है, समय जाया करना हो तभी पढ़ें!
दीवानों मस्तानों की फरमाईश कि चड्ढी चर्चा पार्ट टू भी लिखी जाय.मैंने भी हंसी हंसी में हामी भर दी थी ..सोचा कभी लिख भी दी जायेगी .जब इतना प्रेम मनुहार से कहा जा रहा है तो ..फिर सोचा कि इन दिनों चूंकि तामस भाव का प्राबल्य है तो यह चर्चा भी निपटा ही ला जाय ..क्या पता कब मन सात्विक राजस हो उठे और यह चर्चा धरी की धरी रह जाय ..अब मूड का भी क्या भरोसा.पचपन में बचपन की अठखेलियाँ खेलने लगता है नालायक. अपने संतोष त्रिवेदी जी हैं न लंगोट के पड़े पक्के हैं.उन्होंने पिछली पोस्ट पर इस दिव्य परिधान का महात्म्य छेड़ ही तो दिया-अब यह उनका प्रधान वस्त्र रहा है तो जाहिर है जिसका जो भी प्रधान होता है वह उसी को बार बार दिखाता फिरता है.जबकि मैंने कई ज्ञात और ओबियस कारणों से पिछली पोस्ट में लंगोट की चर्चा मुल्तवी कर दी थी.मगर संतोष जी की लंगोट निष्ठा से प्रभावित हुए बिना न रह पाए थे .
उपर्युक्त लिंकित पोस्ट पर आप लंगोट के साक्षात दर्शन भी कर सकते हैं!बचपन से ही मैंने लंगोट को चड्ढी का जोडीदार देखा समझा मगर पहना नहीं.चड्ढी जहाँ कम उम्र तक ही अनुमन्य थी लंगोट बड़े बच्चों - किशोरों का स्वीकृत परिधान था.अन्तःवस्त्र की श्रेणी में होने के बाद भी इनका खुला प्रदर्शन एक शगल था मानों यह वह तत्कालीन टैग लाईन थी जो लोगों को प्रगटतः खुद के यानी पहनने वाले के निरापद चरित्र के बारे में आश्वस्त करती थी .. पहलवानों का तो यह एक विशिष्ट अंग वस्त्रं था ही और निश्चित ही नियंत्रित मर्दानगी के प्रदर्शन से जुड़ा था..मगर मुझे लंगोटधारियों का परोक्ष व्यवहार उनके प्रत्यक्ष आचरण से हमेशा चुगली खाते दिखा.लम्बी लंगोट और फिर उसका लाल रंग..मतलब डबल अलंकारिक विज्ञापन..राग दरबारी के कैरेक्टर पहलवान भी लंगोट प्रेमी है जो छत पर लंगोट अभ्यास में पकडे गए थे.मैंने आज तक जो लंगोटें देखीं सभी लाल रंग की ही रही हैं ..
पता नहीं लंगोट का लाल रंग से क्या रिश्ता है? शायद ब्रह्मचर्य का रंग ,निषेध का रंग लाल है इसलिए ही लंगोट भी लाल.लाल रंग से मेरी विरक्ति बचपन से ही इसी लंगोट के चलते शरू हुयी थी.उन्ही दिनों मास्टर साहब कक्षा सात में संस्कृत व्याकरण पढ़ाते हुए लंग लकार पढ़ाते थे और मुझे बरबस लंगोट की याद आ जाती थी ..अजब सा असहजता वाला संयोग आ जुड़ा था यह.पहनी हुयी लंगोट ,शरीर के एक सहज अंग को बुरी तरह कम्प्रेस करती हुयी लंगोट और सूखने के लिए छोडी गयी हवा में लहराती लंगोट..हर ओर बस लंगोट ही लंगोट. और कई लंगोट पहने लोगों की आपसी गहन यारी दोस्ती..गजब का जमाना था वह.मुझे इस परिधान से न जाने क्यों शायद इंस्टीनक्टइव विरक्ति थी इसलिए आह मैं कभी भी किसी का लंगोटिया यार नहीं बन पाया,वैसे कभी कभार कुछ पुराने साथी संगी मिलते ही जब कहते हैं कि यार हम तो कभी लंगोटिया यार हुआ करते थे तो मैं असहज हो उठता हूँ.
कभी लंगोट पहनी ही नहीं तब कैसे हुए लंगोटिया यार?बहरहाल एक बार एक लंगोटिया बाबा का गाँव में आगमन हुआ ..जैसा कि उन दिनों की कस्टमरी थी -बाबा की बड़ी आवाभगत हुयी और वे गाँव में ही ठहर गए ...बचपनकी यादें आश्चर्यजनक रूप से ताजा बनी हुयी हैं -एक दिन बड़ा कोलाहल हुआ.घर के बड़े बुजुर्ग बच्चों को उस कोलाहल से दूर कर रहे थे.किस्सा कोताह यह था कि बाबाकी लंगोट ढीली होने की शिकायत कुछ किशोरवयी लड़कों ने कर दी थी और बाबा फरार थे.उनकी लंगोट नीम की एक निचली टहनी पर लहराती उनकी याद लोगों को अब भी दिला रही थी.एक सज्जन ने इतने बड़े काण्ड के बाद भी उसे बाबा की यादगार मान सरमाथे लगाया.भागते भूत की लंगोट ही सही.
उन्हें पहलवानी का शौक भी था तो अगली बार के पचईयां(स्थानीय त्यौहार) के अखाड़े में वे वही लंगोट पहन के उतरे मगर प्रतिद्वंद्वी पहलवान के पहले दावं में ही चित्त हो गए.मैं भी उस मुठभेड़ का चश्मदीद बना था..कुछ बड़े बूढ़े ज्ञानी लोगों ने उन्हें लाख समझाया कि वह लंगोट उन्हें सही नहीं ( अनुकूल नहीं हुयी ) इसलिए उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर होगा..मगर वे माने नहीं और बार बार हारते रहे कुश्तियों में. जीते तभी जब लंगोट बदली ...क्या पता बाबा की लंगोट के ढीली होने का ही असर रहा हो यह :) एक अभिशप्त लंगोट .....
मानव अंग विशेष,लंगोट और सांप इन सभी के आचार व्यवहार में साम्य है-अचानक फैलना सिकुड़ना इन सब में कामन है ..जाहिर है ऐसी गतिविधि भयोत्पादक भी है..यह जरुर कोई आदि (वासी) परिधान रहा होगा जो वस्तुतः एकलिंग -प्रतीक रहा होगा.आदिम अनुष्ठानों में संयोग,जोड़ी चयन की अभिलाषा प्रगट करने की एक प्रतीक पाताका! मगर कालांतर में किन्ही अज्ञात आश्चर्यजनक कारणों से इसे लिंग गतिविधियों का शमनकारी वस्त्र मान लिया गया .. जो भारतीय मनीषा की एक बड़ी चूक लगती है .और यही कारण है कि कई पीढियां लंगोट-ब्रह्मचर्य से जोड़कर किये गए प्रयोग परीक्षणों में बुरी तरह असफल होने के बाद भी संकोचवश असलियत को दीगर मानवता के सामने जाहिर नहीं कर पायीं .गांधी जीने जरुर कुछ साहस दिखाया और अपनी असफलता स्वीकारी -जाहिर है अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में उन्होंने भी लंगोट उपकरण का प्रयोग किया ही होगा -मगर अपनी असफलता की ईमानदार स्वीकारोक्ति की .जबकि आपको आज भी कई ऐसे नर पुंगव मिल जायेगें जो लंगोट का महात्म्य बघारते नहीं अघायेगें.इनसे दूर रहिये..हाँ पहलवानों के लिए यह कसा हुआ परिधान उनकी सुविधा के हिसाब से और प्रतिद्वंद्वी की परिधान-पकड़ कमजोर बनने के लिए मुफीद है ..मगर ब्रह्मचर्य के लिए न बाबा न ....
लगता है इस पोस्ट की भी लंगोट सीमा अब लंघ उठी है इसलिए इस लंगोट महात्म्य पर अभी तो विराम ..फिर कभी कुछ नए लंगोट तथ्य आपसे साझा किये जायेगें! एक लंगोट -यात्रा संस्मरण यहाँ भी!