शनिवार, 29 सितंबर 2012

अथातो लंगोट जिज्ञासा!


पहली बार इस  लंगोट पोस्ट को फीड ने लिया ही नहीं -पडी रही है, फिर ट्राई करके देखता हूँ! 

नैतिक चेतावनी:यह एक निहायत फालतू और दिमागी फितूर की पोस्ट है, समय जाया करना हो तभी पढ़ें!
दीवानों मस्तानों की फरमाईश कि चड्ढी चर्चा पार्ट टू भी लिखी जाय.मैंने भी हंसी हंसी में हामी भर दी थी ..सोचा कभी लिख भी दी जायेगी .जब इतना प्रेम मनुहार से कहा जा रहा है तो ..फिर सोचा कि इन दिनों चूंकि तामस भाव का प्राबल्य है तो यह चर्चा भी निपटा ही ला जाय ..क्या पता कब मन सात्विक राजस हो उठे और यह चर्चा धरी की धरी रह जाय ..अब मूड का भी क्या भरोसा.पचपन में बचपन की अठखेलियाँ खेलने लगता है नालायक. अपने संतोष त्रिवेदी जी हैं न लंगोट के पड़े पक्के हैं.उन्होंने पिछली पोस्ट पर इस दिव्य परिधान का महात्म्य छेड़ ही तो दिया-अब यह उनका प्रधान वस्त्र रहा है तो जाहिर है  जिसका जो भी प्रधान होता है वह उसी को बार बार दिखाता फिरता है.जबकि मैंने कई ज्ञात और ओबियस कारणों से पिछली पोस्ट में लंगोट की चर्चा मुल्तवी कर दी थी.मगर संतोष जी की लंगोट निष्ठा से प्रभावित हुए बिना न रह पाए थे .

उपर्युक्त लिंकित पोस्ट पर आप लंगोट के साक्षात दर्शन भी कर सकते हैं!बचपन से ही मैंने लंगोट को चड्ढी का जोडीदार देखा समझा मगर पहना नहीं.चड्ढी जहाँ कम उम्र तक ही अनुमन्य थी लंगोट बड़े बच्चों - किशोरों का स्वीकृत परिधान था.अन्तःवस्त्र की श्रेणी में होने के बाद भी इनका खुला प्रदर्शन एक शगल था मानों यह वह तत्कालीन टैग लाईन थी जो लोगों को प्रगटतः खुद के यानी पहनने वाले के निरापद चरित्र के बारे में आश्वस्त करती थी .. पहलवानों का तो यह एक विशिष्ट अंग वस्त्रं था ही और निश्चित ही नियंत्रित मर्दानगी के प्रदर्शन से जुड़ा था..मगर मुझे लंगोटधारियों का परोक्ष व्यवहार उनके प्रत्यक्ष आचरण से हमेशा चुगली खाते दिखा.लम्बी लंगोट और फिर उसका लाल रंग..मतलब डबल अलंकारिक विज्ञापन..राग दरबारी के कैरेक्टर पहलवान भी लंगोट प्रेमी है जो छत पर लंगोट अभ्यास में पकडे गए थे.मैंने आज तक जो लंगोटें देखीं सभी लाल रंग की ही रही हैं ..

पता नहीं लंगोट का लाल रंग से क्या रिश्ता है? शायद ब्रह्मचर्य का रंग ,निषेध का रंग लाल है इसलिए ही लंगोट भी लाल.लाल रंग से मेरी विरक्ति बचपन से ही इसी लंगोट के चलते शरू हुयी थी.उन्ही दिनों मास्टर साहब कक्षा सात में संस्कृत व्याकरण पढ़ाते हुए लंग लकार पढ़ाते थे और मुझे बरबस लंगोट की याद आ जाती थी ..अजब सा असहजता वाला संयोग आ जुड़ा था यह.पहनी हुयी लंगोट ,शरीर के एक सहज अंग को बुरी तरह कम्प्रेस करती हुयी लंगोट और सूखने के लिए छोडी गयी हवा में लहराती लंगोट..हर ओर बस लंगोट ही लंगोट. और कई लंगोट पहने लोगों की आपसी गहन यारी दोस्ती..गजब का जमाना था वह.मुझे इस परिधान से न जाने क्यों शायद इंस्टीनक्टइव विरक्ति थी इसलिए आह मैं कभी भी किसी का लंगोटिया यार नहीं बन पाया,वैसे कभी कभार कुछ पुराने साथी संगी मिलते ही जब कहते हैं कि यार हम तो कभी लंगोटिया यार हुआ करते थे तो मैं असहज हो उठता हूँ.
कभी लंगोट पहनी ही नहीं तब कैसे हुए लंगोटिया यार?बहरहाल एक बार एक लंगोटिया बाबा का गाँव में आगमन हुआ ..जैसा कि उन दिनों की कस्टमरी थी -बाबा की बड़ी आवाभगत हुयी और वे गाँव में ही ठहर गए ...बचपनकी यादें आश्चर्यजनक रूप से ताजा बनी हुयी हैं -एक दिन बड़ा कोलाहल हुआ.घर के बड़े बुजुर्ग बच्चों को उस कोलाहल से दूर कर रहे थे.किस्सा कोताह यह था कि बाबाकी लंगोट ढीली होने की शिकायत कुछ किशोरवयी लड़कों ने कर दी थी और बाबा फरार थे.उनकी लंगोट नीम की एक निचली टहनी पर लहराती उनकी याद लोगों को अब भी दिला रही थी.एक सज्जन ने इतने बड़े काण्ड के बाद भी उसे बाबा की यादगार मान सरमाथे लगाया.भागते भूत की लंगोट ही सही.
उन्हें पहलवानी का शौक भी था तो अगली बार के पचईयां(स्थानीय त्यौहार) के अखाड़े में वे वही लंगोट पहन के उतरे मगर प्रतिद्वंद्वी पहलवान के पहले दावं में ही चित्त हो गए.मैं भी उस मुठभेड़ का चश्मदीद बना था..कुछ बड़े बूढ़े ज्ञानी लोगों ने उन्हें लाख समझाया कि वह लंगोट उन्हें सही नहीं ( अनुकूल नहीं हुयी ) इसलिए उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर होगा..मगर वे माने नहीं और बार बार हारते रहे कुश्तियों में. जीते तभी जब लंगोट बदली ...क्या पता बाबा की लंगोट के ढीली होने का ही असर रहा हो यह :) एक अभिशप्त लंगोट .....
मानव अंग विशेष,लंगोट और सांप इन सभी के आचार व्यवहार में साम्य है-अचानक फैलना सिकुड़ना इन सब में कामन है ..जाहिर है ऐसी गतिविधि भयोत्पादक भी है..यह जरुर कोई आदि (वासी) परिधान रहा होगा जो वस्तुतः एकलिंग -प्रतीक रहा होगा.आदिम अनुष्ठानों में संयोग,जोड़ी चयन की अभिलाषा प्रगट करने की एक प्रतीक पाताका! मगर कालांतर में किन्ही अज्ञात आश्चर्यजनक कारणों से इसे लिंग गतिविधियों का शमनकारी वस्त्र मान लिया गया .. जो भारतीय मनीषा की एक बड़ी चूक लगती है .और यही कारण है कि कई पीढियां लंगोट-ब्रह्मचर्य से जोड़कर किये गए प्रयोग परीक्षणों में बुरी तरह असफल होने के बाद भी संकोचवश असलियत को दीगर मानवता के सामने जाहिर नहीं कर पायीं .गांधी जीने जरुर कुछ साहस दिखाया और अपनी असफलता स्वीकारी -जाहिर है अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में उन्होंने भी लंगोट उपकरण का प्रयोग किया ही होगा -मगर अपनी असफलता की ईमानदार स्वीकारोक्ति की .जबकि आपको आज भी कई ऐसे नर पुंगव मिल जायेगें जो लंगोट का महात्म्य बघारते नहीं अघायेगें.इनसे दूर रहिये..हाँ पहलवानों के लिए यह कसा हुआ परिधान उनकी सुविधा के हिसाब से और प्रतिद्वंद्वी की परिधान-पकड़ कमजोर बनने के लिए मुफीद है ..मगर ब्रह्मचर्य के लिए न बाबा न .... 


लगता है इस पोस्ट की भी लंगोट सीमा अब लंघ उठी है इसलिए इस लंगोट महात्म्य पर अभी तो विराम ..फिर कभी कुछ नए लंगोट तथ्य आपसे साझा किये जायेगें! एक लंगोट -यात्रा संस्मरण यहाँ भी

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

बरषा बिगत सरद रितु आई!(मानस प्रसंग -10)

आज जब मैंने सुबह सुबह फेसबुक पर सोनभद्र के गरम मौसम के बारे में  एक अपडेट किया तो मित्रों ने अपने अपने सूबे के मौसम के हालात बयां करना शुरू किया,  दिनेश राय द्विवेदी जी की तुरत फुरत यह टिप्पणी आयी-" वर्षा विदाई ले रही है, सूर्य पूरे तेज के साथ अपनी किरणें बिखेर रहा है। फिर से गर्मी महसूस होने लगी है। संतोष की बात ये है कि अब सूरज की ड्यूटी 12 घंटों से कम की रह गई है। कुछ दिनों बाद आतप बिखेरने वाला यही सूरज सुबह सुबह प्राण फूंकने वाला लगने लगेगा।"यह टिप्पणी पढ़ कर मुझे मानस के शरद ऋतु वर्णन की याद आ गयी. मेरा शरद पूर्व मानस पारायण तो पूरा हो चुका है और समय समय पर मैं यहाँ भी मानस प्रवचन यथा बुद्धि करता रहा हूँ मगर बनारस से स्थानान्तरण के बाद जीवन चर्या काफी बदल गयी है . अंतर्जाल समय में भारी कटौती हुयी है . मैंने ढूँढा तो यहाँ मानस वर्णित शरद ऋतु का मूल  पाठ भावार्थ सहित मिल गया,कुछ चुनिन्दा चौपाईयां यहाँ भावार्थ सहित साभार उधृत कर रहा हूँ -

बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई
हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है. ( मैं सोनभद्र के पिपरी क्षेत्र में कुछ दिनों पहले गया था वहां इन दिनों कास खूब फूले हुए हैं और एक बहुत बड़ा इलाका ऐसा लगता है जैसे जमीन पर सफ़ेद बादलो के झुण्ड आ बसे हों .कास पर गिरिजेश राव का यह लेख  पठनीय है. 
शरद ऋतु पर   जी के अवधिया जी की यह पोस्ट भी पठनीय है !

                                                               शरद ऋतु में कास, (Saccharum spontaneum)

उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा
अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!
रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए
नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो जाते हैं).
पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना
न कीचड़ है न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है
बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी
बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं.
सुखी मीन जहं नीर अगाधा।जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा 
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा
जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है. 
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी
भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है.
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई
पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं.
जय श्रीराम! 


रविवार, 23 सितंबर 2012

कुत्ता दिवस!

गिनेज बुक आफ रिकार्ड्स का नया संस्करण आ गया है. संयोग से मैंने आज ही टाईम पत्रिका में उसके नए विश्व रिकार्ड्स पर एक नज़र डाली तो एक विशालकाय कुत्ते को देखकर दंग रह गया ...कुत्तों के भी कद इतने बड़े होने लग गए ..पहले तो मुझे भी यह शक हुआ कि यह कोई और जनावर तो नहीं है? अब जैसे अपने बेचैन आत्मा वाले देवेन्द्र जी लिखते भये तो गधे  पर मगर फोटू  चेप दी खच्चर की....अब तो हम यह नहीं मान सकते कि उन्हें  गधे और खच्चर का फर्क नहीं पता .....मगर मैं अगर ऐसी गलती कर दूं तो उल्टा लटका दिया जाऊंगा क्योकि अपुन की पढ़ाई लिखाई और सोहबत भी इन्ही जानवरों और जानवर प्रेमियों की रही है और फिर कुत्ते की स्वामिभक्ति की दूसरी कोई सानी जानवर जगत में नहीं है. फोटो में कुत्ता और उसकी स्वामिनी का यह पारस्परिक सम्बन्ध दिख भी रहा है. 



कहते हैं कुत्ते दरअसल भेड़ियों के ही वंशधर हैं -दोनों एक ही  गण(जीनस) के हैं -कुत्ता दरअसल एक पालतू भेड़िया है. मनुष्य के साथ इसका बड़ा आदिम सम्बन्ध है -तभी से यह मनुष्य के साथ है जब  शिकार की ताक में मनुष्य दर  दर भटकता रहता था . उसे शिकार को घेरने के लिए एक तीव्रगामी अनुचर  चाहिए था और तत्कालीन कुत्ते के पुरखे को भोजन की एक निश्चित व्यवस्था -तो यह सम्बन्ध तभी से स्थाई बनता गया -दरअसल दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.  एक दूजे के बिना अधूरे हैं. मगर आश्चर्य है कि फिर भी बहुत से लोग आज भी कुत्ता द्वेषी हैं ..न जाने क्यों? हो सकता है यह उनका कोई निजी मामला हो या फिर वे बचपन में कुत्ते के काट खाये लोग हों. बचपन का कुत्ता काटा आदमी जीवन भर इस जानवर से दहशत खाता है -बाद में काटे गए लोग इतना नहीं घबराते और इसलिए कई लोग बार बार काट खाए जाते हैं. वैसे अब कुत्ते से काट खाना उतना त्रासदपूर्ण नहीं है क्योकि अब पेट वाली चौदह सूईयों  का जमाना नहीं रहा! 
आज से आश्विन मॉस आरंभ  हो रहा है . यह कुत्तों का घोषित प्रणय काल है. इस समय कुत्ते बहुत कटखने और आक्रामक हो जाते हैं .इसलिए इनसे बच के रहना चाहिए ..दरअसल इसी अंदरुनी डर के चलते मैं  यह पोस्ट लगा रहा हूँ -इन दिनों रात बिरात सूदूर यात्राओं से जब लौटता हूँ अपनी गली में नए नए अजनबी कुत्तों को देखता हूँ...और वे भी मुझे संशय से देखते हैं और मैं नज़र बचा कर निकल आता हूँ -कौन फालतू में लफड़े में पड़े. उन्हें लगता होगा हम उनकी प्रेयसी के एक और दावेदार /प्रतिद्वंद्वी हैं ....उनकी टेरिटरी का दायरा अब और सीमित हो चला है ....और अब तो वे झुण्ड में भी हैं -एक से तो हम निबट भी लें मगर कुत्तों के पैक से बचना मुश्किल ही नहीं असंभव है . 
मैं उनकी गोल में शामिल होकर एक दब्बू कुत्ता सा बिहैव नहीं करना चाहता...मैं मनुष्य हूँ और मुझे अपनी अस्मिता अलग रखनी ही होगी....वे लाख मुझे अपना प्रतिद्वंद्वी माने मगर मैं मैं हूँ मनुष्य और वे कुत्ते....कुत्ते कहीं के .....मगर सावधान तो रहना ही है ..किसी ने कहा आपका  ये कुत्ता बहुत भौंकता है मुझे डर लगता है कहीं काट न ले ..कुत्ता स्वामी ने जवाब दिया कि बिलकुल मत डरिए जो कुत्ते भौंकते हैं काटते नहीं यह कहावत भी आप नहीं जानते? डर रहे सज्जन ने कहा मैं तो जानता हूँ मगर यह नामुराद कुत्ता तो यह कहावत नहीं जानता :-) 
मैं चाहता हूँ कि कुत्तों के सम्मान में कुत्ता दिवस घोषित किया जाय -अब इस प्रस्ताव से कम से कम वे कालोनी के नए कुत्ते तो मुझे बख्श देगें और यह मनुष्य और कुत्ते के प्रगाढ़ सम्बन्ध की एक कृतज्ञ भारतीय स्वीकृति भी होगी ...मुझे मालूम है श्वान प्रेमी मेरे इस प्रस्ताव पर खुश होंगें और मुझे बधाईयाँ देगें और श्वान विद्वेषी मुझ पर जल भुन जायेगें! ह्यूमर प्रेमी भी मुझे सारस्वत सम्मान अता करेगें! :-)
पुनश्च: फेसबुक पर चर्चा के दौरान कुत्ता दिवस (नामकरण ) की सूझ बैसवारी नरेश संतोष त्रिवेदी की थी तो यह आभार उनके प्रति बनता है ! 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

क्या ब्लॉग जगत के नारी वादियों की वाद प्रियता शून्य हो चली है?

इन दिनों एक पोस्ट पर जबरदस्त विलाप प्रसंग चल रहा है. भारतीय वांगमय और लोक जीवन में विलाप की  बहुत गाथायें हैं. अभी जो चर्चा में हैं वह है विधवा विलाप ....कुछ ज्ञानी जन इस पर अलग अलग प्रकाश डालते भये हैं और  अपने ज्ञान का पूरा कटोरा उड़ेल चुके हैं . मैं साहित्य का आदमी नहीं हूँ ,कोई विशिष्ट साहित्यिक बोध भी नहीं है बस सामान्य बोध से काम चला लेता हूँ .इतना जानता हूँ कि शाब्दिक और अलंकारिक अर्थों में फर्क होता है .कई बार उद्धरण सीधे शाब्दिक या अभिधामूलक न होकर लक्षणा या व्यंजना का भाव लिए रहते हैं. शाब्दिक अर्थ में तो पति के दिवंगत होने के बाद नारी का क्रंदन ही विधवा विलाप होता है .मगर अपने लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थों में यह एकदम अलग भाव संप्रेषित करता है -वहां कोई जरुरी नहीं है कि नारी का ही विधवा विलाप हो -कोई पुरुष ,कोई राजनीतिक पार्टी भी किसी मुद्दे को लेकर ध्यानाकर्षण के मकसद से विधवा विलाप कर सकती है . यहाँ विधवा विलाप का मतलब ध्यानाकर्षण के लिए अत्यधिक और बहुधा निरर्थक  प्रयास से है -जैसे लोग घडियाली आंसू बहाते हैं -उसी तरह विधवा विलाप भी कर सकते हैं! समझ में नहीं आता इस सामान्य सी बात को न समझ कर इन दिनों कुछ ख़ास लोग ब्लॉग जगत में क्यों विधवा विलाप/ किये जा रहे हैं . 
एक और विलाप है -अरण्य विलाप ..मतलब चिल्लाते जाईये कोई सुनने वाला नहीं ....बहरे बन जाते हैं सब .....यह असहायता  और घोर निराशा का क्रन्दन है -और इसी अर्थ में अक्सर प्रयुक्त होता है -अब कोई जंगल में जाकर थोड़े ही विलाप करता है! :-) इसी तरह विधवा विलाप कह देने का मतलब यही नहीं कि किसी का पति गोलोकवासी हो  गया है और विधवा का विलाप हो रहा है . मगर हे मूढ़ बुद्धे बात कहां की कहाँ पहुंचा दी गयी और गोल जुटा कर विधवा विलाप को ही चरितार्थ कर दिया गया  . एक और शब्द युग्म है रति विलाप -जब शंकर जी ने कामदेव को भस्म किया था तो उसकी पत्नी ने बहुत ही भयावह क्रंदन -रोना पीटना आरम्भ किया था -शंकर भी सुन निरीह -असहाय हो गए और कामदेव को सर्वव्यापी मगर अनंग बना दिया ......रति विलाप का भी लाक्षणिक प्रयोग साहित्य में ख़ास मामलों में होता आया है . 
एक विलाप सीता का भी था जब रावण उन्हें जबरदस्ती लेकर भाग चला था -ज्यों विलपति कुररी की नाईं -जिसने भी कुररी पक्षी (टर्न ) का चिल्लाना सुना होगा वह अंदाज लगा सकता है कि सीता का वह असहाय क्रंदन कैसा रहा होगा? और फिर तो सुलोचना मंदोदरी विलाप भी हैं ..हे अब कोई मुझ पर यह न आरोपण कर दे कि मैं अमुक अमुक और अमुक को यह दर्जा दे रहा हूँ ..मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा हूँ -बड़े सात्विक विचार से विलाप साहित्य का अनुशीलन करना ही यहाँ मेरा ध्येय है ....हाँ आप को कोई और विलाप की श्रेणी पता हो तो आप भी विलाप साहित्य की श्री वृद्धि कर सकते हैं .साहित्यिक चर्चा और सत्संग से कैसा परहेज भाई?  स्वयं भगवान् कृष्ण ने गीता में कह रखा है -वादः प्रवदताम अहम् ...मैं तत्व निर्णय के लिए परस्पर विवाद करने वालों द्वारा किये जाने वाला  वाद हूँ! अर्थात उन्हें भी वाद बहुत प्रिय हैं और कहा भी गया है कि वादे वादे जायते तत्वबोधः....क्या ब्लॉग जगत के नारीवादियों  की वाद प्रियता शून्य हो चली है?  

शनिवार, 15 सितंबर 2012

अंत में आखिर हर किसी को दो गज जमीन ही तो चाहिए!


हाँ, अगर वो आख़िरी मुगलिया सम्राट और शायर बहादुर शाह जफ़र सरीखा दुर्भाग्य वाला न हुआ तो वह दो गज जमीन अपने मादरे वतन में ही मुहैया हो सकती है . मगर ये दो गज जमीन का मसला भी अजीबोगरीब है -हर देश और  संस्कृति में ये मसला अलग अलग तरीकों से निपटाया जाता है .आखिर यह मामला ,सभ्य  और सामाजिक -सांस्कृतिक मनुष्य का है न तो वह जानवरों की तरह तो अपने स्वजनों के शवों को इधर उधर छोड़ कर उनका निपटारा कुदरती तौर पर  कर नहीं सकता . मगर तिब्बतियों और पारसियों का एक अनूठा अनुष्ठान आयोजन इस मामले में काबिले गौर है जो शवों का निपटान बिलकुल कुदरती तरीके से करते हैं -वहां शवों को गिद्द्धों की मर्जी पर रख दिया जाता है और वे उन्हें खाकर उनका निपटान कुदरती तरीके से कर देते हैं ...
आधुनिक तरीका विद्युत् शव दाह गृह है जहां बहुत अधिक तापक्रम में शवों को ख़ाक कर दिया जाता है .और एक तरीका ताबूत का है जिसमें मुर्दा जिस्म जमीन के  नीचे दफ़न हो जाता है और बाकी का काम जीवाणुओं का समूह निपटाता है -मृत शरीर की कोशिकाएं उनमें मौजूद एन्जायेम के जरिये खुद का आत्मघात करती हैं और इस काम में जीवाणुओं की फ़ौज मदद करती है . मगर यही प्रक्रिया अगर खुले वातावरण में शवों के लावारिस होने पर घटती है तो जीवाणुओं के सक्रियता के चलते शव पहले फूलता है फिर दो रसायन यौगिकों -Putrescine and Cadaverine  की सडांध -तीव्र बदबू निकलती है .यही वे रसायन हैं जो मुख की दुर्गन्ध के भी कारण होते  हैं . 
जहाँ शवों को सीधे नदी में बहा देने की परिपाटी है वह स्वच्छ जल को दूषित कर देता है -गंगा में कचरा ,मल जल आदि की तरह ही एक गलत परम्परा है शवों को प्रवाहित कर देने की ...कहते हैं सांप आदि जंतुओं के काटे मृत व्यक्ति को बहा देने से उसके जीवित होकर पुनः वापस लौटने की एक क्षीण सी आशंका बनी रहती है . कई बार कई तरह के हादसों ,महामारियों के समय काफी तादाद में शवों का सामूहिक निपटान भी करना होता है जिनके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बाकायदा गाईड लाईन  जारी की हुयी हैं . 
आज आख़िरी संस्कार के कई विकल्प हैं -लोग बाग़ अपनी पसंद का भी चुन सकते हैं . हिरण्यकश्यप ने तो यहाँ तक वरदान  मांग लिया था कि जमीन आसमान और जल कहीं भी उसको मारा -दफनाया न जा सके ....और उसे ऐसी जगहं भी मयस्सर हो ही गयी .... मगर यह एक अलग कथा है -कहने का आशय केवल इतना कि आज बस यह (अंतिम ) इच्छा करने भर की देरी है आख़िरी संस्कार के कई विकल्प मौजूद हैं -हिन्दुओं का प्रचलित तरीका दाह -संस्कार का है और फिर 'पवित्र -राख " का पवित्र स्थलों ,नदियों में बिखराव का है -पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अपनी राख को यथा संभव सारे हिन्दुस्तान की नदियों ,वादियों वनों उपवनों तक बिखेर देने की अंतिम इच्छा व्यक्त की थी.....यह पर्यावरण के लिहाज से अपेक्षाकृत एक कम प्रदूषण वाला  तरीका है मगर पूरी तरह से निरापद नहीं -यहाँ  ऊर्जा चाहे वह ईधन के रूप में हो या फिर विद्युत् के रूप में, की भारी मांग है और कार्बन डाई आक्साईड की बड़ी मात्रा  निःसृत होती है . और जिनके दाँतों में पारे की फिलिंग हुयी रहती है उन शवों से वाष्पीकृत पारे का प्रदूषण   भी फैलता है . 
आज एक और नया तरीका अमेरिका में लोगों की पसंद बन रहा है -द्रवीय निस्तारण (alkaline hydrolysis ) का. इसके अंतर्गत पोटैशियम हायिड्राक्सायिड द्रव में हलके तापक्रम पर शव को द्रव और दबाव के सहारे विघटन के लिए छोड़ दिया जाता है . शव द्रव में पूरी तरह  घुल जाता है और पर्यावरण के लिए हानिकारक भी नहीं रहता जिसका निस्तारण निरापद तरीके से कर दिया जाता है . अमेरिका में ही एक हरित शव निस्तारण की पद्धति भी प्रचलित हो रही है जिसमें शव को जैव विघट्नीय डब्बों में जमीन के अन्दर पूरी तरह कुदरती अवयवों में तब्दील होने के लिए छोड़ दिया जाता है . प्रोमेसा नाम की स्वीडिश कम्पनी ने फ्रीज ड्राईंग विधि का ईजाद किया है जिसमें लिक्विड नायिटरोजन  में शरीर से द्रव का शोषण कर लिया जाता है और शरीर पाउडर में तब्दील हो जाता है जिसे जमीन के भीतर गहरे दबा दिया जाता है.हाँ ऐसे स्थानों पर कोई स्मृति -वृक्ष उगाया जा सकता है जिसका पोषण शव अवयवों से होगा . यह एक आकर्षक तरीका है . 
चाँद की धरती पर पहला कदम रखने वाले नील आर्मस्ट्रांग अपनी अंतिम इच्छा के मुताबिक़ सागर की तलहटी में दो गज जमीन पा गए हैं ..अन्तरिक्ष में पवित्र राख के छोटे छोटे कैप्सूल भी बिखरने का ताम झाम चल रहा है जो अनंत काल  तक धरती की परिक्रमा करते रहेगें  बिना मोक्ष पाए!शीत प्रशीतन के तरीके भी सुझाव में हैं . मगर सबसे अच्छा तरीका कौन सा है यह तो बताना मुश्किल है -तरीके ही तरीके हैं कोई भी चुन लें! 

बुधवार, 12 सितंबर 2012

असीम त्रिवेदी के चर्चित कार्टून पर एक काव्य प्रतिक्रिया


असीम ने हमारे मूल प्रतीक चिह्न के वर्तमान निहितार्थ को ही अपने अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है उनका अभिप्राय कतई हमारे राष्ट्रीय प्रतीक को कलंकित करने का नहीं है ......और यह आजादी मानावाभिव्यक्ति की आजादी है! असीम के पक्ष में पिता जी की यह कविता पढ़िए: 
चले थे कहाँ से ,किया था क्या वादा 
कहाँ आ गए हम, हुआ क्या इरादा 
कितने मनोरम वे सपने लगे थे 
हुए क्यों पराये जो अपने सगे थे 
बहुत ही सुखद था उमीदों का पलना 
हुआ जब सवेरा तो छलना ही छलना 
सितारों का पाना समझा सरल था 
बढ़ाया कदम तो अमृत भी गरल था 
शहीदों ने जिसके लिए व्रत लिया था 
कहाँ है वह भारत जो सोचा गया था 
जितने हैं मक्कार गद्दार पाजी 
हुए हैं विधाता बने हैं वे काजी 
सत्यमेव्  जयते को क्या हो गया है 
महाकाव्य का अर्थ ही खो गया है 
वोटों की खातिर जुटे हैं जुआड़ी 
हुयी द्रोपदी आज जनता बेचारी 
हालत जो पहुँची है बद से भी बदतर 
कहाँ चक्रधारी कहाँ हैं धनुर्धर 
नहीं कोई आशा नहीं कोई हमदम 
नहीं हमको मालूम कहाँ जा रहे हम 
अस्मिता खोता भारत महाभ्रष्ट भारत 
आजाद है या पराधीन भारत 
महाभारती का महाघोष भारत 
करो या मरो मन्त्र लो फिर से भारत 

-डॉ. राजेन्द्र मिश्र (राजेन्द्र स्मृति से) 


रविवार, 2 सितंबर 2012

छूटी काशी, अब ब्लागिंग के ब्रह्मचर्य की ओर .......


पिछले दिनों बहुत कुछ पार्श्व में मेरे साथ जो घटित हो रहा था उससे अलग यहाँ दिख रहा था ....ब्लागर सम्मलेन के  चमक धमक के पीछे मेरे ट्रांसफर की भी अंतर्कथा चालू थी -और अंततः मैंने कल सोनभद्र जनपद में योगदान दे दिया जिसे भारत की ऊर्जा राजधानी होने का गौरव प्राप्त है -यह बात दीगर है कि वहां   ऐसा कोई अहसास नहीं हुआ -एक नागरिक ने कहा कि चिराग तले अँधेरे की कहावत नहीं सुनी आपने साहब? सो आज रविवार मनाने फिर काशी में हैं ..और अब जल्दी ही बैग बैगेज वहां शिफ्ट हो जाना है -और नए जगह  पर जहाँ पर्याप्त बिजली न हो, कनेक्टिविटी की समस्यायें हों तो फिर मेरे ब्लागिंग का वानप्रस्थ या ब्रह्मचर्य जो भी मान लें आप, आना तो स्वाभाविक है .महज आशंकाएं है ये और वैसे भी नयी जगह पर दैनन्दिनी सेट होने में समय तो लग ही जाता है ....
काशी (बनारस ) भला कौन छोड़ना चाहता है .जब तक खुद भोले बाबा न छोड़ दें -ऐसी बनारसियों की मान्यता है ....कहा भी गया है काश्याम मरणात मुक्तिः ...फिर अन्यत्र मरने कौन जायेगा? ....एक कहावत और भी है -चना चबैना गंगजल जो पुरवे करतार काशी कबहूँ न छोडिये विश्वनाथ दरबार....कौन कम्बख्त  छोड़ना ही चाहता था मगर सरकारी सेवाओं में स्थानान्तरण एक अनिवार्य और अपरिहार्य शर्त है ....जहां आदेश हो जाए मुंडी वहीं टेकनी होगी ..भले ही मत्था बाबा के दरबार में टिका  रहे .... मगर एक बात जो अच्छी नहीं हुयी वह गंगा के सामीप्य से सोनभद्र की कर्मनाशा तक का प्रवास!  -गंगा जो आह्लाददायिनी हैं और जिनके बारे में कहा ही जाता है कि गंगा तव दर्शनात मुक्तिः .....गंगा जो मोक्षदायिनी हैं उनका दामन छोड़कर कर्मनाशा जो संचित पुण्यों -कर्मों का नाश करने वाली मानी गयीं है का सानिध्य बड़ा अजीब सा लग रहा है -
मनुष्य का स्वाध्याय अर्जित ज्ञान यहीं पाप तुल्य हो जाता है -न मालूम होता मुझे यह सब तो कितना अच्छा होता -ऐसे निगेटिव विचार तो न आते ....मगर  कर्मनाशा का यह पुराण पता है तो मन तनिक संतप्त होगा ही भले ही हम विज्ञान के मनई ठहरे .. :-) गंगा जहाँ विष्णु पद से स्रवित, ब्रह्मा के कमंडल से होकर शिव की जटाओं से छूटती धरावतरित होती हैं -कर्मनाशा के बारे में पुराकथा है कि वे मुंह के बल आकाश में उलटे लटके त्रिशंकु के लार से बनी हैं और सारे पुण्य कर्म इसके सानिध्य सम्पर्क से नष्ट हो जाते हैं -मुझे बस यही राहत है कि मेरी झोली में कोई पुण्य कर्म संचित नहीं है . :-) 
कर्मनाशा की कथा पर अभी उसी दिन सिद्धेश्वर  जी से फोन पर बातें हो रही थी -क्या कारण है कि एक पूरी नदी ही अभिशप्त हो गयी?  मैंने उन्हें आमंत्रित किया है कि चलिए कर्मनाशा : एक पुनरान्वेषण यात्रा हम वहां बसने पर आयोजित करेगें और यह शोध करेगें  कि यह नदी क्यों अभिशप्त मान ली गयी -कोई पर्यावरण दोष? या फिर जलीय संघटन का विकार?? क्या कर्मनाशा के अभिशप्त पुराण कथा से उसे अब मुक्त किया जाना  संभव है?यानि कर्मनाशा उद्धार? जब पाषाणवत अहल्या का उद्धार संभव है तो वेगवती तरल कर्मनाशा का क्यों नहीं ? क्या पता उसे भी कलयुगी किसी राम की प्रतीक्षा हो?
 हम आते है कर्मनाशा तनिक तू धीरज रख और साथ में कुछ सिद्ध प्रसिद्ध सिद्धेश्वर सरीखे जनों को भी ले आयेगें -तुम्हारा जनम जनम का आतप अब  शायद अब मिट जाए! जो पाठक कर्मनाशा के बारे में और जिज्ञासु हों वे यहाँ जा सकते हैं और इस अभिशप्त नदी की कथा पढ़ सकते हैं(यहाँ भी देखें!) -गरुण पुराण में जीव की मोक्ष यात्रा में इसे बड़ा  बाधक माना गया है और मनुष्य देही (आत्मा )  के त्रयोदश (तेहरवीं ) संस्कार में इसे पार कराने के तरह तरह के अनुष्ठान पंडित- महापात्र करते हैं -गोदान और फिर उसी गैया की  पूछ पकड़ कर कर्मनाशा को पार कराने का हास्यास्पद उपक्रम होता है ....निष्कर्षतः गंगा लोक परलोक तक महिमा मंडित हैं और कर्मनाशा शापित ......यह सनातनियों का कुचक्र तो है मगर क्यों? 
अरे मैं तो कर्मनाशा में ही उलझ गया ....यह कहना था कि क्या पता नयी जगहं पर मेरी ब्लागिंग को भी ग्रहण न लग जाए और यह विलंबित होने लगे तो यही मान लीजियेगा कि मेरी ब्लागिंग के ब्रह्मचर्य या वानप्रस्थ जो भी कह लें आप, समय आ गया है -अब हम टंकी वंकी जैसी शब्दावली का प्रयोग तो करने से रहे यह मेरे स्तर के अनुरूप नहीं है :-)  -इसलिए यह तो नहीं कहूँगा कि अब तो टंकी पर चढ़ने का वक्त आ गया! वैसे भी ऊँचाई पर या कोई भी चढ़ान  अब दिन ब  दिन मुश्किल होती जा रही है :-) ......ज्ञानी जन यह व्यथा सहज ही समझ जायेगें! पता नहीं अगली पोस्ट कब आयेगी तब तक मेरा तसव्वुर ब्लागिंग के ब्रह्मचर्य में रमे एक सम्मानित ब्लॉगर के रूप में होनी चाहिए :-) नादान दोस्तों और दानेदार दुश्मनों से बस यही इल्तिजा है :-) हाँ सोनभद्र पर अगली पोस्ट का इंतज़ार भी करते रहें! 

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