मुझे अब ऐसे ही लग रहा है कि साईब्लाग पर पुरूष पर्यवेक्षण की इस कथा यात्रा को मैं कुछ वैसी ही विवशता और किसी की सौंपी हुयी प्रतिबद्धता के सहारे घसीट घसीट कर आगे लेकर बढ़ रहा हूँ जैसे कि कभी विक्रम ने वैताल के शव को ठिकाने लगाने का निरंतर और निष्फल प्रयास किया था .मेरी विवशता यह कि ख़ुद को श्रेष्ठ और सत्पुरुष मानने के क्षद्म आत्म गुमान के चलते इस कर्म को मैं छोड़कर उन निम्न पुरुषों की कोटि में नही वर्गीकृत होना चाहता जो किसी काम को शुरू तो बड़े चाव से करते हैं पर आधा अधूरा छोड़ कर चल देते हैं -भला कोई रचनाकर्मी अपनी स्वकीया से ऐसा बर्ताव भी भला कैसे कर सकता है ? भले ही ऐसे लोगों के सिर की विक्रम के सिर की भांति चूर चूर होने की आशंका न भी हो यह तो शर्म से सिर झुकने की बात है कि कोई अपनी ही कृति को आधा अधूरा छोड़ दे -क्या कोई माँ अपने बच्चे को अधूरा जन सकती है ? तो यह है मेरी विवशता ! पर मुझे अपने सिर के शर्म से झुकने से बड़ी चिंता यह है कि मैं इस बोझ को सही ठिकाने पर लगा दूँ ,पटाक्षेप पर ला दूँ ! पर अभी तो कई बार तरह तरह के धयान भंग के चलते वैताल पकड़ से यह छूटा वह छूटा और जाकर एक अगम्य सी डाल पर जा बैठा वाली स्थिति ही चरितार्थ हो रही है -जहाँ से सायास और सश्रम मुझे उसे फिर से खींच कर ब्लाग धारा में लाना पड़ रहा है ।
और उस पर दुश्चिंता यह भी कि कुछ विश्वासी मित्रों के अतिरिक्त सुधी/विद्वान् जनों का भी कोई प्रोत्साहन मुझे इस उपक्रम पर नही मिल रहा है -मेरी स्थिति तो ऐसी ही है -जो बाबा तुलसी दास ने यूँ व्यक्त किया है -
जो प्रबंध बुध नही आदरहीं सो श्रम बादि बाल कवि करहीं
(बुद्धिमान जिस कविता का आदर नही करते ,मूर्ख ही वैसी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं )...मुझे दुःख है कि मेरे प्यारे हिन्दी चिट्ठा जगत ने नर नारी के सौन्दर्य विश्लेषण के मेरे इस विज्ञान संचार के 'मनसा वाचा कर्मणा ' अध्यवसन को भी नर - नारी समानता/असमानता विवाद /वितंडा की भेंट चढ़ा दिया .लोगों ने ,ब्लागजगत की कई नारी शख्शियतों ने मुझे बताया कि मेरे इस लेखन में उनकी टिप्पणियों के लिए उनकी लानत मलामत की गयी -उन्हें उलाहने दिए गए -क्या ऐसी प्रवृत्तियों से सहज रचना धर्मिता बनी रह पायेगी ? यह गोल बंदी नही तो क्या है ? पर यह तो लोकतंत्र है और हम संविधानिक रूप से ऐसे माहौल में रहने को आबद्ध हैं !
आज प्रुरुष पर्यवेक्षण की अगली कड़ी भारी मन से लिखने को साईब्लाग पर आया तो सहज ही यह पीडा निसृत हो गयी है -मगर यह चूंकि यह उस ब्लॉग के कलेवर के अनुरूप नही है अतः यहाँ लाया हूँ -एक दुखी दिल लाया हूँ की तर्ज पर -पढ़ें और आनंद उठाएं मेरी दशा पर रहम फरमाएं या ना फरमाएं !
Alarma sobre creciente riesgo de cyber ataque por parte del Estado Islámico
-
Un creciente grupo de hacktivistas está ayudando Estado Islámico difundir
su mensaje al atacar las organizaciones de medios y sitios web, una empresa
de se...
9 वर्ष पहले
कर्मण्येवाधिकारस्तेमाफलेषुकदाचन:...
जवाब देंहटाएंमैंने पहले भी आपसे आग्रह किया था कि आपका यह लेखन वर्तमान पाठकों के साथ साथ भविष्य के पाठकों, और इंटरनेट पर सामग्री की समृद्धि के लिहाज से अत्यंत उत्तम प्रयास है. किसी प्रेरणा या दुष्प्रेरणा का शिकार न हों तो अच्छा...
"पर यह तो लोकतंत्र है और हम संविधानिक रूप से ऐसे माहौल में रहने को आबद्ध हैं !"
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र को समझने के लिए 'डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन' के यह विचार मुझे ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं-
"लोकतंत्र सरकार का एक प्रकार मात्र नहीं है, बल्कि यह एक जीवन पद्धति है, मर्यादा में पूर्ण आस्था के साथ किया गया कार्य है और व्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाम है "
तुलसी बाबा से अपना इत्तेफाक बनाये रखिये, कम यातनाएं नहीं सहीं तुलसी बाबा ने . और आपको ऐसा कैसे लगा कि आपकी रचना को बुद्धिमानों ने नहीं सराहा?
रचना का मूल्य उसकी अर्थवत्ता एवं सार्वजनीन बन जाने की योग्यता में है. स्वान्तःसुखाय रचना अपनी गहरी मूल्यवत्ता के साथ सर्वान्तःसुखाय बन जाती है. विक्रम के कार्य का मूल्य उसके निरंतर प्रयास में है. उसका निरंतर श्रमशील प्रयास ही उसका परिचय है, और कालचक्र में उसकी उपस्थिति का वाहक.
आपकी व्यथा वस्तुतः आपके ईमानदारी की कथा है.
हम भी व्यथित हुए. "आपकी व्यथा वस्तुतः आपके ईमानदारी की कथा है" यही हम भी कहना चाहेंगे.
जवाब देंहटाएंमिश्राजी आपने बड़ा सटीक सवाल उठाया है ! पर मैं आपसे कहना चाहूँगा की अभी आपके साथ जितने दोस्त हैं वो शुरुआती दौर में कम नही हैं ! आप इस प्रयास को चालू रखिये ! समय के साथ साथ कारवां अपने आप बनता जायेगा ! और जो कुछ आप लिख रहे हैं उसकी जरुरत शायद आज नही दिख रही होगी लोगो को ! पर आने वाला समय उसको ढुन्डेगा ! कृपया आप इसे उतने ही लग्न से चालू रखिये यही निवेदन है ! शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंहम जो लिखना चाहते हैं या लिख रहे हैं उसे अमूमन उस रूप में नहीं लिया जाता, जैसा हम सोचते हैं। यह वेदना मैं शुरू से महसूस करता रहा हूं। आपने उसे स्पष्ट शब्दों में रखा - अच्छा किया।
जवाब देंहटाएंबाकी ब्लॉगजगत तो राग दरबारी है। अनेक रागों का संगम है! तालमेल बिठाना कठिन सा है।
हां अटकिये मत, लगे रहिये।
मैं इस पर कोई विशेष टिप्पडी तो नही कर सकता और न ही कोई सच्ची टिप्पडी कर के एक नए बहस को जन्म देने का आकांछी हूँ लेकिन विनम्रता के साथ यह अवश्य कहना चाहूँगा की यदि आप जैसे ख्यातिप्राप्त एवं ४ दशकों से लेखन में लगे हुए लोग इस ब्लॉग जगत को महत्वपूर्ण जानकारियों से वंचित करेंगे तो ब्लॉग जगत से कुछ गंभीर ज्ञान की आशा में जुडाव रखने वालों को दुःख ही पहुचेगा .इसलिए Raviratlami जी के विचार कर्मण्येवाधिकारस्तेमाफलेषुकदाचन:... से मैं भी सहमत होते हुए आपसे निरंतर उत्क्रिस्ट लेखन के लिए निवेदन करता हूँ .लोग क्या कहेंगे या लोग क्या कहतें है इस पर विचार न करते हुए -चरैवेति -चरैवेति .......
जवाब देंहटाएंअभी आपको कम ही पढ पा रहा हूँ पर आपसे मछलियो और विज्ञान कथाओ पर बहुत कुछ जानने की इच्छा है। मै विज्ञान कथा पर ऐसे सामूहिक ब्लाग की परिकल्पना करता हूँ जिसमे सभी ब्लागर मिलकर एक कथा लिखे। आप नेतृत्व करे। इस सामूहिक प्रयास से विज्ञान कथा के बारे मे हिन्दी ब्लाग जगत के माध्यम से आम लोग जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। बाद मे सम्भव होगा तो रवि जी के सहयोग से इस कथा को पुस्तक के रुप मे प्रकाशित कर देंगे। आप पहल करे।
जवाब देंहटाएंपंकज जी, क्षमा प्रार्थी और आपका गुनाहगार भी हूँ कि आप इतने श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं और मैं उन्हें पढ़ नही पा रहा हूँ -इधर अंधविश्वासों को लेकर आप सचमुच एक गंभीर और सन्दर्भ साहित्य के सृजन कर्म में लगें हैं उन्हें फुरसत में पढ़ना चाहता हूँ पर रोज रोज के राज काज ने सब गुड गोबर कर रखा है -पर चलिए मेरी स्मृति में आपने विशिष्ट जगह बना रखी है कभी पूरी तैयारी और प्लानिंग से जुटेंगे आपके मुहिम में -रही बात विज्ञान कथा की तो सचमुच उसके लोकप्रियकरण की जरूरत है -आपको अभी वराणसी में संपन्न हुए विज्ञान कथा राष्ट्रीय परिचर्चा में आना था ...पर ब्लॉगर भाईओं ने कोए रूचि ही नही दिखायी जिसकी रूचि थी भी वे बुलाने पर भीनही आए -उन्मुक्त जी ! चलिए कुछ प्लान करते हैं विज्ञान कथा के लिए ! आप ही क्यों नही एक कम्युनिटी ब्लॉग की शुरुआत करते ?
जवाब देंहटाएंव्यथा सही है... पर लिखते रहिये. विज्ञान कथा पर कम्युनिटी ब्लॉग बने तो मैं भी कुछ गणित ठेल दिया करूँगा !
जवाब देंहटाएंरचना का मूल्य उसकी अर्थवत्ता एवं सार्वजनीन बन जाने की योग्यता में है. स्वान्तःसुखाय रचना अपनी गहरी मूल्यवत्ता के साथ सर्वान्तःसुखाय बन जाती है.
जवाब देंहटाएंpankaj ji se sahmat!!!1
जवाब देंहटाएंदुखी होने की जरूरत नहीं है। मन से किए गए काम का कभी तो मूल्यांकन होगा ही।
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी कन्फेसन किससे कर रहे हैं ..नही लिखना तो रहने दीजिये..आपकी तरह सोंच कर मैंने भी एच टी एम् एल सीरिज बंद कर दी थी.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमिश्राजी आप कि व्यथा उचित है, अरे हम जेसे तो बस मजाक मै ही इधर उधर से कुछ मिला साथ मे अपने विचार जोडे ओर लिख दिया,लेकिन आप के सभी लेखो से बहुत ही ग्यान की बाते मिलती है, इस लिये रुकिये मत किसी के कहने से, बस लिखते रहिये,हां जिसे एतराज है ना पढे, हम भी तो कई लोगो के ब्लांग पर नही जाते,क्योकि हमे उन के विचार अच्छे नही लगते, लेकिन हम उन्हे रोकते भी नही, ओर विरोध भी नही करते.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
मन को भारी न करें। मौज से रहें और मस्ती में लिखें। बिना टंकी पर चढ़े ब्लॉगिंग करते रहने के लिए यह फुरसतिया नुस्खा बड़े काम की चीज है। साईब्लॉग पर लिखने के लिए विज्ञान संबंधी विषयों का अथाह संसार है, और आप इस कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ भी हैं।
जवाब देंहटाएंटेंशन लेने का नहीं, देने का !
जवाब देंहटाएंये तो बड़ी गड़बड़ हो गई:-)
जवाब देंहटाएंजो कुछ लिखने लगा था, देखा उसे तो विवेक सिंह लिख चुके।
चलिए, अब कहे देता हूँ कि जो मज़ा देने में है वह लेने में नहीं (संदर्भ:टेंशन)
मुझे विक्रम से बचपन के चन्दामामा के दिनों से बहुत सहानुभूति रही है । आपका ब्लॉग है, फुरसत से जब मन करे लिखिए, जो मन करे लिखें । परन्तु टिप्पणी करने वाले भी जैसी उन्हें ठीक लगेगी करेंगे ही क्योंकि विएय विवादास्पद है। आपको न पसन्द आए तो हटा सकते हैं । यही तो ब्लॉगजगत का लोकतंत्र है ।
जवाब देंहटाएंपरन्तु मुझे याद है कि चन्दामामा में कहानी की पहली पंक्ति ही यह थी, 'विक्रमार्क(विक्रमादित्य ?)ने हठ ना छोड़ा। '
घुघूती बासूती
मुझे विक्रम से बचपन के चन्दामामा के दिनों से बहुत सहानुभूति रही है । आपका ब्लॉग है, फुरसत से जब मन करे लिखिए, जो मन करे लिखें । परन्तु टिप्पणी करने वाले भी जैसी उन्हें ठीक लगेगी करेंगे ही क्योंकि विषय* विवादास्पद है। आपको न पसन्द आए तो हटा सकते हैं । यही तो ब्लॉगजगत का लोकतंत्र है ।
जवाब देंहटाएंपरन्तु मुझे याद है कि चन्दामामा में कहानी की पहली पंक्ति ही यह थी, 'विक्रमार्क(विक्रमादित्य ?)ने हठ ना छोड़ा। '
घुघूती बासूती
सर जी ! हताश ना हो ! आप तो स्वयम दूसरो के संबल हैं ! आपके पीछे पीछे तो हम हैं ! धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंयह खुशी की बात है कि आपकी इस बात को ब्लॉगरों ने दिल पर लिया और खुले मन से प्रतिक्रिया व्यक्त की। मेरी राय में भी बुझे मन से ही सही, इस सीरीज को चालू रखिए। इसी बहाने इस विषय पर वैज्ञानिक सामग्री तो तैयार हो ही रही है।
जवाब देंहटाएंजिन पाठकों की श्रद्धा है आपमें ,उन्हें क्यों बंचित कर रहे हैं /
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