जब हिन्दी ब्लॉगों का एक दशक पहले आगाज हुआ था तो कहा गया था कि अभिव्यक्ति के एक युगांतरकारी माध्यम का आगमन हो गया है। अब न तो संपादकों की कैंची का डर था और न कही कोई रोक टोक।बेख़ौफ़ बयानी का एक चुंबकीय आमंत्रण था। यह वह दौर था जब कंप्यूटर की शिक्षा लेकर युवाओं की एक फ़ौज अंतर्जाल की नयी संभावनाओं को तलाश रही थी। जाहिर है उनमें से अधिकांश का सृजनात्मक लेखन से कोई लेना देना नहीं था और न कोई अनुभव । फिर भी उन्होंने अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की अलख जगाई और उसमें से कुछ तो रातो रात अच्छे लेखक के रूप में सन्नाम भी हो गए। यह समय (2003 -२००७ ) हिन्दी ब्लॉग लेखन का प्रस्फुटन काल था।
हिन्दी ब्लॉग जगत में इसके बाद साहित्यिक और सृजनात्मक प्रतिभाओं की पैठ हुई और लगने लगा कि हिन्दी ब्लागिंग के रूप में अभिव्यक्ति का एक नया युग आ गया है जो पारम्परिक मीडिया को धता बताकर रहेगा। और हिन्दी ब्लागिंग की यह धमक और ठसक आगे के कई सालों तक बनी रही। और इस माध्यम/विधा की खिलाफत भी हिन्दी के पारम्परिक खुर्राट और खेमेबाज साहित्यकारों /संपादको की ओर से शुरू हो गयी गई -उन्हें अचानक अपने विस्थापन का खतरा भी दिखाई देने लग गया था। मजे की बात यह कि वे ब्लॉग बैठकियों में मुख्य अतिथि की हैसियत से बुलाये जाते और मंच पर ही इस माध्यम की खिल्ली उड़ा आते। आत्ममुग्ध ब्लागर ऐठ में उनकी बातों को तवज्जो नहीं देते। यह हिन्दी ब्लॉग जगत का पुष्पन -पल्लवन काल(2007 - 2010 था।
ठीक इसके बाद ब्लॉग जगत का वह हाहाकारी स्वर्णकाल आया जिससे प्रतिभाओं का अजस्र बहाव यहाँ देखा गया । एक से एक सच्चे प्रतिभाशाली , आत्ममुग्ध और स्वनामधन्य महानुभाव अवतरित हुए जिन्हे ब्लागजगत के अब तक पुरायट कहे जा रहे ब्लागरों ने सीख दी , संरक्षण दिया और दुर्भाग्य से हिन्दी ब्लागजगत में भी पारम्परिक साहित्य की अनेक दुष्प्रवृत्तियों का यहीं से आरम्भ शुरू हुआ। खेमे बने ,'मठ' बने और मठाधीश बने। जाति बिरादरी के नाम पर गोलबंदी शुरू हुयी। कई मगरूर ब्लॉगर आये। कई बेशऊर भी आये। किसी ने मखमली माहौल बनाया तो किसी ने इस्पाती ताकत दिखाई। व्यर्थ के लड़ाई झगड़े बहस मुहाबिसे और रोज की चख चख । सृजन गायब होने लगा -रगड़ घषड़ की ऊष्मा ही ज्यादा फ़ैली। लोगों ने देख सुन लेने की धमकियां भी दी लीं.
भारत का अब तक न जाने कहाँ सोया नारीत्व भी अचानक जाग दहाड़ें मारने लग गया .ब्लागरों की पुरुष महिला कैटेगरी का क्लीवेज भी साफ ज़ाहिर हो चला। स्वाभाविक था रचनाशील सौम्यता अब परदे के पीछे जा पहुँची थी। हिन्दी ब्लागजगत का मोहभंग काल अब शुरू हो चला था। कुछ का ऐसा मोहभंग हुआ कि उन्होंने मुद्रण माध्यम का दामन थाम लिया -जिसे वे कभी पानी पी पीकर कोसते थे। कुछ ने तो यहाँ तम्बू उखड़ने के अंदेशे से झटपट इस माध्यम का लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर प्रकाशकों से मिल मिला पैसे वैसे दे दिलाकर किताबें छपवाईं और बिकवानी शुरू कर दीं।
हिन्दी ब्लागजगत का अवसान काल अब आसन्न था। दशेक काल में सब कुछ हो हवा गया। उत्थान पतन सब। अभी भी लोग कहते हैं, नहीं नहीं ब्लॉग अब भी खूब लिखे पढ़े जा रहे हैं -मगर पाठक हैं कहाँ भाई? हिन्दी के अन्तरजालीय पाठकों को हमने संस्कारित ही तो नहीं किया -यहाँ तो सब ब्लॉगर लेखक ही हैं -ब्लॉग पाठकों का टोटा है -उनकी कोई जमात नहीं, जत्था नहीं। यहाँ ब्लॉगर ही लेखक है और खुद वही पाठक भी । अलग से पाठक वर्ग गायब है। पाठकों को ललचाये जाए बिना हिन्दी जगत के दिन बहुरने से रहे। तब तक शायद हम ब्लॉगर अल्पसंख्यकों को हाथ पर हाथ बैठे रहना होगा। इस माध्यम को भी अब प्रायोजकों प्रश्रयदाताओं की ही तलाश है -आओ भामाशाहों आओ -हिन्दी ब्लागिंग को उबारो !