शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

आप शर्मिंदा तो नहीं कि कैलाश सत्यार्थी को नहीं जानते?

 फेसबुक पर कई आत्ममुग्ध बुद्ध प्रबुद्ध लोगों ने उपहासात्मक लहजे में टिप्पणियाँ की हैं कि
उन्होंने कैलाश सत्यार्थी का नाम तक नहीं सुना -जैसे उनका यह उद्घोष हो कि अगर बन्दे को मैं नहीं जानता तो फिर उसकी  कोई काबिलियत ही नहीं है . प्रकारांतर से वे नोबेल की उनकी वैधता पर उंगली उठा रहे हैं। जानता तो मैं भी नहीं था उन्हें कल तक, किन्तु इसलिए शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ -उन कारणों के विवेचन में लगा हूँ कि ऐसे शख्स को जिसने भारत ही नहीं दुनिया के सैकड़ों देशों में बाल शोषण के विरुद्ध अलख जगायी और इस दिशा में ठोस काम किया, क्यों इतना अनजाना सा रह गया अपने ही देश में। सबसे पहले तो मैं अपना ही दोष मानता हूँ कि मेरी जागरूकता की कमी रही -मैं अपने संकीर्ण दायरों से बाहर न निकल सका या फिर इनके कार्यों को महज एक आम सामाजिक कार्यकर्त्ता द्वारा किये जा रहे कार्यों के रूप में ले लिया-यह नाम दिमाग में जगह नहीं बना सका।

मगर मैं अन्य कारणों को भी समझना चाहता हूँ जिससे यह शख्स इतने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद भी अनजाना रहा? क्या अपने देश की मीडिया की भूमिका कटघरे में है? या देश के शासक वर्ग की अनदेखी? या फिर कोई और कारण ? फिर कैलाश सत्यार्थी का कार्य सचमुच इतना उल्लेखनीय नहीं रहा और महज वैश्विक राजनीतिक कारणों से यह पुरस्कार महानुभाव की झोली में टपक पड़ा है? कल से दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा है! हमारे देश में नेता और अभिनेता के  सिवा सेलिब्रिटी होना किसी अपवाद से कम नहीं है। विदेशी संस्थानों को हमारे यहाँ के दूसरे तीसरे दरजे के क़ाबिल लोगों जैसे वैज्ञानिकों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं की  भले ही सुधि हो आए। 

एक और बात है अब मीडिया और शासकीय वर्ग भी सत्यार्थी के विरुदावली गायन में जुट गया है मगर यह सदाशयता उन दिनों कहाँ थी जब इन्हे इसकी बहुत जरुरत रही होगी? भारत में यह पुरानी बात है कि जब तक हमारा कोई अपना पश्चिम से सम्मानित और अनुशंसित नहीं होता हम उसे तवज्जो नहीं देते? परमुखापेक्षता का यह विद्रूप उदाहरण है।इस  देश को अपनी प्रतिभाओं की न तो पहचान है और न ही कद्र। बेकदरी से जूझते अकुलाये वैज्ञानिक  और दीगर प्रतिभायें  विदेश का  रुख करती हैं। यहाँ प्रतिभाओं पर जंग लगती जाती है।  यहां प्रतिभा पलायन साथ प्रतिभाओं के जंग खाते जाने की विकराल समस्या रही है। 

अब लोगों में आत्मगौरव का जज्बा चढ़ रहा है कि वाह देखो भारत को और एक नोबेल मिल गया -मित्रों, यह सम्मान केवल और केवल सत्यार्थी का है -यह उनकी अतिशय उदारता है जो उन्होंने भारतीयों को इसका उत्तराधिकारी कहा है। सच तो यह है कि भारत का राजनीति और लालफीताशाही से दूषित परिवेश और हमारा चिर आत्मकेंद्रित समाज ऐसे पुरस्कारों की कूवत नहीं रखता -हाँ उसका श्रेय लेने को हम बढ़ चढ़ के दौड़ पड़ते हैं ! बेशर्मी की  हद तक। 

10 टिप्‍पणियां:

  1. दुर्भाग्य से अधिकांश लोगों की प्राथमिकताएँ अलग हैं। वे उन लोगों के बारे में जानतने का प्रयास करते हैं जो या तो स्थापित हों या उन्हें लाभ पहुंचा सकते हैं चाहे वह आर्थिक हो या नाम, काम आदि से संबन्धित हो।

    जवाब देंहटाएं
  2. Very well said. Earlier, "Ignorance" used to be bliss in one's own mind and didn't use to bother others. Now a days, "Ignorance" is almost "Arrogance".

    In research also there are few folks who say, I have never heard of that author and all you can do is smile and slip a copy of the paper by that author on their desk ;)

    जवाब देंहटाएं
  3. दुनियॉ को कैलाश सत्यार्थी पर गर्व है ।

    जवाब देंहटाएं
  4. हमारे देश में हम उन्हें ही जान पाते हैं जिन्हें हमारी मीडिया चमकाती है. पर पूरी दुनिया ऐसी नहीं. ग्रास रूट पर काम करने वालों की कदर होती है.

    जवाब देंहटाएं
  5. देश को गर्न्व है .. हमें गर्व है सत्यार्थी जी पे ...

    जवाब देंहटाएं
  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  7. कैलाश सत्यार्थी की अब तक की गुमनामी का दोष मीडिया को दिया जाना चाहिए।क्योंकि जानकारी के लिए जनता मीडिया पर निर्भर है।

    जवाब देंहटाएं

यदि आपको लगता है कि आपको इस पोस्ट पर कुछ कहना है तो बहुमूल्य विचारों से अवश्य अवगत कराएं-आपकी प्रतिक्रिया का सदैव स्वागत है !

मेरी ब्लॉग सूची

ब्लॉग आर्काइव